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Monday 21 January 2013

छात्र आन्दोलन और जय प्रकाश नारायण


1973-74 के दिनों में जब देश में भयंकर मँहगाई और बेरोजगारी के कारण जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी और इन्दिरा गाँधी का गरीबी हटाओ का नारा छलावा सिद्ध हुआ था, तो देश के कई भागों में छात्रों का आक्रोश फूट पड़ा। इसमें बिहार में अब्दुल गफूर और गुजरात में चिमन भाई पटेल की भ्रष्ट सरकारों के खिलाफ सबसे अधिक असन्तोष था। छात्रों ने भ्रष्ट व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए कमर कस ली। उसी समय उन्हें जय प्रकाश नारायण (संक्षेप में जे.पी.) जैसे सर्वसम्मानित नेता का भी नेतृत्व मिल गया।

जय प्रकाश नारायण स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी रहे थे और उन्होंने 1942 के ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया था। विचारों से वे पहले माक्र्सवादी थे, लेकिन कम्यूनिस्टों की असलियत जानने के बाद वे इसके भारतीय संस्करण समाजवाद में आस्था रखने लगे थे। उनकी पत्नी श्रीमती प्रभा देवी को कस्तूरबा गाँधी अपनी पुत्री के समान मानती थीं और इस नाते गाँधी आश्रम में जे.पी. का स्वागत सत्कार दामाद की तरह होता था। फिर भी वे कभी गाँधी या उनके विचारों से प्रभावित नहीं हुए। उनमें देश सेवा की ऐसी ललक थी कि विवाहित होने के बाद भी उन्होंने कभी संतान उत्पन्न नहीं करने का संकल्प लिया था।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जवाहरलाल नेहरू ने उनको अपने मंत्रिमंडल में शामिल होने का निमंत्रण दिया था, परन्तु वे किसी पद-प्रतिष्ठा से सदा दूर रहते थे, इसलिए उस निमंत्रण को ठुकरा दिया और रचनात्मक कार्य करने के लिए चले गये। सर्वोदयी आन्दोलन में उन्होंने विनोबा भावे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य किया और इस आन्दोलन को जो थोड़ी-बहुत सफलता मिली उसमें जे.पी. के व्यक्तित्व का कम हाथ नहीं था। इसके अलावा चम्बल के बीहड़ों से बागियों (मैं उन्हें डकैत नहीं कहूँगा, क्योंकि डकैत तो संसद में होते हैं, बीहड़ में केवल बागी होते हैं) की समस्या को हल करने में उनका योगदान अ़िद्वतीय था। उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर सैकड़ों बागियों ने उनके समक्ष हथियार डालकर साधारण जीवन जीने का संकल्प लिया था। बाद में कई आत्मसमर्पित बागी उनके इस कार्य को आगे बढ़ाने में भी सहायक हुए।

ऐसे तपोपूत व्यक्तित्व के स्वामी जे.पी. का नेतृत्व पाकर छात्रों को बहुत संबल मिला। प्रारम्भ में जे.पी. ने उनसे एक साल तक पढ़ाई छोड़कर केवल रचनात्मक कार्य करने और समस्याओं पर चिन्तन करने की सलाह दी थी। परन्तु इस सलाह की कई क्षेत्रों से आलोचना हुई, इसलिए उन्होंने इस सलाह को वापस ले लिया था। लेकिन इससे जे.पी. का सम्मान कम नहीं हुआ। वे देश भर में घूम-घूमकर तत्कालीन भ्रष्ट व्यवस्था के विरुद्ध जन जागरण कर रहे थे। उन्होंने इस आन्दोलन को ‘समग्र क्रांति’ आन्दोलन का नाम दिया था, क्योंकि यह व्यवस्था में समूल परिवर्तन के लिए था।

जैसा कि स्वाभाविक है इस आन्दोलन से कांग्रेस और उसकी तत्कालीन सर्वेसर्वा इन्दिरा गाँधी को बहुत बेचैनी होती थी। उन्होंने इस आन्दोलन को कुचलने के लिए सभी हथकंडे अपनाये। छात्रों पर जगह-जगह लाठी चार्ज किया गया। पटना में तो यहाँ तक कि स्वयं जयप्रकाश नारायण की बूढ़ी काया पर बेरहमी से लाठियाँ बरसाई गईं। नानाजी देशमुख इस आन्दोलन में जे.पी. के साथ उनकी छाया की तरह रहते थे। उन्होंने जे.पी. के ऊपर पड़ने वाली लाठियों को अपने शरीर पर झेला और जे.पी. की रक्षा की। इन्दिरा सरकार की धूर्तता की पराकाष्ठा तो यह थी कि जनता को जे.पी. की सभाओं में जाने से रोकने के लिए ठीक उसी समय टी.वी. पर ‘बाॅबी’ जैसी फिल्मों का प्रसारण किया जाता था।

इन हथकंडों के बावजूद जनता में कांग्रेस के प्रति असंतोष बढ़ता जा रहा था। कई राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की दुगर्ति हुई और कई उपचुनावों में भी कांग्रेस को धूल चाटनी पड़ी। उस समय लग रहा था कि अगले लोकसभा चुनावों में, जो 1976 में होने वाले थे, कांग्रेस की हार निश्चित है।
तभी इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने समाजवादी नेता राज नारायण की याचिका पर रायबरेली लोकसभा क्षेत्र से इन्दिरा गाँधी का चुनाव रद्द कर दिया, क्योंकि उन्हें चुनाव जीतने के लिए भ्रष्ट हथकंडे अपनाने का दोषी पाया गया था। न्याय का तकाजा था कि न्यायालय के निर्णय का सम्मान करते हुए इन्दिरा गाँधी अपने पद से त्यागपत्र दे देतीं और किसी अन्य कांग्रेसी नेता को प्रधानमंत्री बनातीं, लेकिन अपने शाश्वत कुर्सी-मोह के कारण वे पद से चिपकी रहीं। इतना ही नहीं जनता में भारी असंतोष फूटने पर उन्होंने कुछ दिन बाद ही आपात्स्थिति की घोषणा कर दी और जनता के तमाम मौलिक अधिकार स्थगित कर दिये। संविधान में आपात्स्थिति का प्रावधान देश पर कोई भयंकर संकट आने की स्थिति के लिए किया गया था, परन्तु इन्दिरा गाँधी ने अपनी कुर्सी पर आये संकट को ही देश पर आया संकट मान लिया और संविधान का दुरुपयोग किया।

आपात्काल घोषित होते ही उन्होने अन्य विपक्षी नेताओं के साथ ही जय प्रकाश नारायण को भी गिरफ्तार कर लिया, जिसका कोई औचित्य नहीं था। कारावास में जे.पी. को बीमार करने का पूरा षड्यंत्र रचा गया और जब वास्तव में उनके गुर्दे बिल्कुल बेकार हो गये, तब उन्हें छोड़ा गया। इसके बाद वे अधिक समय जीवित नहीं रहे।

आपात्काल में विपक्षी दलों के नेताओं तथा कार्यकर्ताओं, छात्रों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं पर कैसे-कैसे जुल्म ढाये गये, इसकी कहानी आगे किसी लेख में।

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