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Wednesday 27 November 2013

महाभारत का एक प्रसंग : वयं पंचाधिकं शतम्

जुए में हारने के बाद उसकी शर्तों के अनुसार सम्राट युधिष्ठिर अपने भाइयों और पत्नी द्रोपदी के साथ 12 वर्ष का वनवास का समय बिता रहे थे। एक बार उन्होंने हस्तिनापुर से कुछ ही दूरी पर एक जंगल में अपनी कुटी बनायी। सभी भाई जंगल से लकड़ी लाने, भोजन आदि की व्यवस्था करने और शस्त्रों का अभ्यास करने में व्यस्त रहते थे। शेष समय वे आगंतुक साधु-सन्तों के साथ धर्म-चर्चा किया करते थे। अपने अतिथियों के लिए भोजन आदि की व्यवस्था करने में उनको बहुत कठिनाई होती थी, लेकिन किसी तरह अपना कर्तव्य निभा रहे थे।

जब दुर्योधन को समाचार मिला कि पांडव पास के ही एक वन में रह रहे हैं, तो वह उनका उपहास उड़ाने और उनकी दुर्दशा का आनन्द लेने के लिए वन जाने को तैयार हो गया। धृतराष्ट्र से उसने यह कहकर अनुमति ले ली कि वे आखेट के लिए वन में जा रहे हैं। उसके साथ थोड़े से सैनिक, कुछ भाई और कर्ण भी था। पांडवों की कुटी से कुछ ही दूरी पर एक सरोवर था। दुर्योधन ने पहले वहाँ स्नान करने और खाना-पीना करने का निश्चय कियाजब वे उस सरोवर के पास पहुँचे तो कुछ पहरेदारों ने उसको रोक दिया। उन्होंने बताया कि सरोवर में इस समय गन्धर्वों के राजा चित्रसेन की रानियाँ और परिजन स्नान कर रहे हैं। इसलिए कुछ समय तक वहाँ किसी को जाने की अनुमति नहीं है। यह सुनकर दुर्योधन का अहंकार जाग उठा। बोला- ‘मैं हस्तिनापुर का सम्राट हूँ। यह सारा जंगल मेरा है। मुझे वहाँ जाने से कौन रोक सकता है।’ लेकिन गंधर्व न माने। तब दुर्योधन युद्ध करने को तैयार हो गया। इस युद्ध में चित्रसेन गंधर्व की सेना ने दुर्योधन की सेना को मार भगाया। कर्ण जैसा वीर अपनी जान बचाकर भाग गया और दुर्योधन को चित्रसेन ने पकड़कर बाँध लिया।

दुर्योधन के कुछ भागे हुए सैनिकों ने पांडवों को जाकर यह समाचार दिया। दुर्योधन के पकड़े जाने का समाचार पाकर युधिष्ठिर चिंतित हो गये। भीम और अर्जुन ने तो कहा कि ‘अच्छा हुआ। दुर्योधन हमारा मजाक उड़ाने आया था, उसे अच्छा दंड मिल गया।’ लेकिन युधिष्ठिर ने कहा कि 'यह अच्छा नहीं हुआ। दुर्योधन हमारा भाई है। भले ही आपस में विवाद के समय वे सौ और हम पाँच हैं, लेकिन बाहरी लोगों से विवाद के समय हम एक सौ पाँच हैं (वयं पंचाधिकं शतम्)। तुम दोनों तत्काल जाकर उसको मुक्त कराओ। चित्रसेन हमारा मित्र है, लेकिन आवश्यक होने पर उससे युद्ध भी करना।’

बड़े भाई का आदेश पाकर भीम और अर्जुन दोनों चल दिये। चित्रसेन पांडवों का मित्र था। वह जानता था कि पांडव क्यों वनवास भोग रहे हैं। उसने सोचा था कि दुर्योधन के पकड़े जाने का समाचार सुनकर पांडव बहुत प्रसन्न होंगे। लेकिन भीम और अर्जुन ने उससे जाकर कहा कि ‘दुर्योधन हमारा भाई है। महाराज युधिष्ठिर का आदेश है कि तुम उसको तत्काल छोड़ दो। नहीं तो तुम्हें हमारे साथ युद्ध करना पड़ेगा।’ चित्रसेन पांडवों का बहुत सम्मान करता था। उसने कहा कि ‘वैसे तो दुर्योधन का अपराध ऐसा है कि उसको जीवित छोड़ना गलत होता, लेकिन आपके कहने से मैं उसे मुक्त किये दे रहा हूँ।’ दुर्योधन को छुड़वाकर भीम और अर्जुन लौट आये।

जब दुर्योधन को पता चला कि वह पांडवों की कृपा से मुक्त हुआ है, तो उसे बहुत ग्लानि हुई। वह कहने लगा कि अब मैं जीवित नहीं रहना चाहता और जलकर मर जाऊँगा। तब कर्ण ने उसको रोका और समझाया। कर्ण ने उसको वचन दिया कि मैं युद्ध में पांडवों को हराकर तुम्हारे इस अपमान का बदला लूँगा। काफी कहने-सुनने के बाद दुर्योधन ने आत्महत्या का इरादा त्याग दिया।

वे चुपचाप हस्तिनापुर लौट आये। उन्होंने अपनी वन यात्रा का कोई समाचार धृतराष्ट्र को नहीं दिया। लेकिन महात्मा विदुर के गुप्तचरों को सारा समाचार ज्ञात हो गया और तब विदुर ने यह समाचार धृतराष्ट्र को दिया। यह सुनकर धृतराष्ट्र बहुत चिन्तित हुए और उन्होंने न केवल दुर्योधन को फटकारा, बल्कि आगे से कभी आखेट के लिए भी वन में जाने पर रोक लगा दी।

अस्वीकृत करने का अधिकार

काफी कहने-सुनने और इंतजार के बाद चुनाव आयोग ने मतदाताओं को अपने चुनाव क्षेत्र के सभी उम्मीदवारों को अस्वीकृत करने का अधिकार दिया है। इस अधिकार को 'None Of The Above' अर्थात् ‘उपरोक्त में किसी को नहीं’ अथवा ‘कोई नहीं’ और संक्षेप में ‘नोटा’ कहा जा रहा है। आगे होने वाले सभी चुनावों में सभी प्रत्याशियों के बटनों के अलावा एक ‘नोटा’ का बटन भी इलैक्ट्रानिक मतदान मशीनों में होगा, जिसे दबाकर मतदाता सभी प्रत्याशियों को अस्वीकृत कर सकता है।

यह अधिकार देकर चुनाव आयोग ने 'सभी प्रत्याशियों को अस्वीकृत करने' की अवधारणा को मान्यता प्रदान की, इसके लिए उसे धन्यवाद दिया जाना चाहिए। लेकिन खेद है कि अभी भी यह अधिकार अधूरा और लगभग निरर्थक है। इसका कारण यह है कि मतगणना में ऐसे मतों को पूरी तरह उपेक्षित या निरस्त कर दिया जाएगा। इसका प्रभाव ठीक उतना ही होगा, जितना किसी मतदाता द्वारा अपना वोट न डालने का होता है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि अभी भी चुनाव आयोग ऐसे मतदाताओं के मत को कोई महत्व देने को तैयार नहीं है, जो सभी प्रत्याशियों को अयोग्य मानते हैं।

पिछले चुनावों में कई ऐसे समाचार पढ़ने को मिले थे, कि कुछ मतदाताओं ने किसी प्रत्याशी को वोट देने के बजाय ऐसी बातें लिखकर मतपेटी में डाल दी थीं- ‘सभी चोर हैं’, ‘सभी खून चूसने वाले हैं’ आदि। ऐसे मतों को गणना के समय निरस्त कर दिया जाता था। यदि किसी क्षेत्र में सभी अयोग्य प्रत्याशी खड़े हो जाते हैं, तो प्रबुद्ध मतदाता वोट डालने के लिए घर से न निकलना ही ठीक समझता है। सभी को अस्वीकृत करने का अधिकार मिल जाने से यह आशा की जा रही थी कि अब ऐसे प्रबुद्ध मतदाताओं को अपनी भावनायें व्यक्त करने का कानूनी मार्ग मिल जाएगा। लेकिन ‘नोटा’ से यह आशा पूरी नहीं होती।

वर्तमान रूप में ‘नोटा’ का अधिकार चुनाव आयोग द्वारा प्रबुद्ध मतदाताओं के साथ किया गया एक भद्दा मजाक है। यदि चुनाव आयोग ‘नोटा’ बटन को दबाने की गिनती भी नहीं करना चाहता, तो फिर इस अधिकार का कोई अर्थ नहीं है। यदि मतदाता को यह पता होगा कि उसका मत रद्दी की टोकरी में फेंक दिया जाएगा, तो वह मतदान करने जाने का कष्ट ही क्यों करेगा। अगर वर्तमान ‘नोटा’ से यह आशा की जा रही है कि इससे मतदान प्रतिशत बढ़ जाएगा, तो वह आशा कभी पूरी नहीं होगी, बल्कि मतदान प्रतिशत गिरने की पूरी संभावना है।

इसलिए चुनाव आयोग को चाहिए कि ‘नोटा’ को भी सामान्य मतगणना में शामिल करे और यदि ‘नोटा’ को मिलने वाले मत सबसे अधिक मत पाने वाले प्रत्याशी से भी अधिक हों, तो उस क्षेत्र में किसी को विजयी घोषित नहीं करना चाहिए और वहाँ फिर से चुनाव होना चाहिए, चाहे कितना भी खर्चा हो।

इसके साथ ही अस्वीकृत किये गये सभी प्रत्याशियों को अगले 5 साल तक किसी भी चुनाव, जिनमें विधान सभा, विधान परिषद और राज्यसभा भी शामिल हैं, में खड़े होने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। ऐसा प्रावधान करने पर ही सबको अस्वीकृत करने का अधिकार सार्थक और प्रभावी होगा।

मुहम्मद गोरी के आक्रमण

सालार मसूद पर लिखे अपने लेख में मैं लिख चुका हूँ कि सन् १९३४ ई. में बहराइच के पास घाघरा के किनारे महाराजा सुहेल देव पासी के नेतृत्व में 22 हिन्दू राजाओं की सेनाओं ने सालार मसूद की विशाल सेना का समूल नाश कर दिया था। इसके बाद पूरे 150 वर्षों तक किसी इस्लामी आक्रमणकारी की हिम्मत भारत की ओर आँख उठाकर देखने की नहीं हुई थी।

लेकिन समय कभी एक सा नहीं रहता। ईसा की बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में दिल्ली और अजमेर में सम्राट पृथ्वी राज चौहान का शासन था। उनके पिता सोमेश्वर चौहान अजमेर के शासक थे, जिनके साथ दिल्ली के शासक राजा अनंग पाल तोमर तृतीय की दूसरी पुत्री का विवाह हुआ था। अनंगपाल की पहली पुत्री का विवाह कन्नौज के राठौर राजा विजय पाल के साथ हुआ था, जिनका पुत्र जयचन्द था। इस प्रकार जयचन्द पृथ्वीराज चौहान के मौसेरे भाई लगते थे। दिल्ली के शासक अनंगपाल के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उन्होंने योग्य जानकर पृथ्वीराज चौहान को अपना उत्तराधिकारी बना दिया था। इस प्रकार पृथ्वीराज के पास दिल्ली और अजमेर दोनों का शासन आ गया।

स्वाभाविक रूप से जयचन्द को यह बात पसन्द नहीं आयी, इसलिए वह प्रारम्भ से ही पृथ्वीराज से द्वेष मानता था। अगर इतना ही होता, तो गनीमत थी, लेकिन गड़बड़ यह हो गयी कि पृथ्वीराज चौहान जयचन्द की पुत्री संयोगिता को लेकर भाग गये, जो उनको पसन्द करती थी। यहीं से जयचन्द के मन में पृथ्वीराज चौहान के प्रति घृणा उत्पन्न हो गयी और वह किसी भी कीमत पर पृथ्वीराज को नीचा दिखाने लगा।

उस समय मुहम्मद शहाबुद्दीन गोरी 1173 में किसी तरह गजनी का सुलतान बन गया था। उसने कई तुर्क गुलाम पाल रखे थे, जिनको उसने अच्छी सैनिक और प्रशासनिक शिक्षा दिलायी थी। वह उन पर बहुत विश्वास करता था। उसके शासन में कई गुलाम सेना और प्रशासन में ऊँचे पदों पर पहुँच गये थे और वे सभी मुहम्मद गोरी के लिए प्राण तक देने को तैयार रहते थे। ऐसे गुलामों के सेनापतित्व में मुहम्मद गोरी ने अफगास्तिान के आसपास के राज्यों को जीत लिया और गजनी को राजधानी बनाकर अपना शासन चलाने लगा।

उसकी नजर शुरू से ही भारत की ओर थी। सबसे पहले उसने ११८६ में लाहौर को जीता और सियालकोट के किले पर कब्जा कर लिया। कहा जाता है कि इसमें उसे जम्मू के तत्कालीन हिन्दू शासक की भी सहायता मिली थी। लाहौर के बाद उसने गुजरात की ओर रुख किया, लेकिन गुजरात के राजा भीमदेव सोलंकी ने उसे बुरी तरह परास्त कर दिया। वहाँ से मुहम्मद गोरी जान बचाकर भागा और फिर कभी गुजरात की ओर मुख नहीं किया। लेकिन लाहौर को केन्द्र बनाकर भारत के विभिन्न भागों की ओर नजर गढ़ाये रहा।

कहा जाता है कि इसी समय कन्नौज के राजा जयचन्द ने गोरी को पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण करने की सलाह दी और वायदा किया कि इसमें वह गोरी की पूरी सहायता करेगा। इसी धारणा के आधार पर यह माना जाता है कि जयचन्द ने गोरी को बुलाया था। आज भी ‘जयचन्द’ का नाम देशद्रोहिता का पर्याय बना हुआ है।

गोरी और पृथ्वीराज चौहान की सेनाओं के बीच पहला युद्ध सन् 1191 ई. में थाणेश्वर के पास तराइन के मैदान में हुआ था। गोरी के पास 1 लाख 20 हजार सैनिकों की विशाल सेना थी, जिसमें हजारों की संख्या में घुड़सवार भी थे। उधर पृथ्वीराज चौहान की सेना भी एक लाख के लगभग थी और उनकी सेना में हजारों हाथी थे। इस युद्ध में गोरी की भारी पराजय हुई, क्योंकि उसकी घुड़सवार सेना हाथियों का मुकाबला नहीं कर सकी। गोरी की अधिकांश सेना मारी गयी और बचे-खुचे साथी गोरी का साथ छोड़कर इधर-उधर भाग गये। जयचन्द की सहायता भी उसके काम नही आयी। घायल अवस्था में गोरी पकड़ा गया।

जब गोरी को पकड़कर सम्राट पृथ्वीराज चौहान के सामने लाया गया, तो वह जान बख्शने के लिए गिड़गिड़ाने लगा और माफी माँगने लगा। उसने कुरान की कसम खायी कि अब कभी भारत की ओर नहीं आऊँगा। पृथ्वीराज के मंत्रियों और सलाहकारों ने उसे माफ न करने की सलाह दी, लेकिन पृथ्वीराज चौहान सूर्यवंशी थे, इसलिए अपनी पुरानी परम्परा पर डटे रहे कि शरण में आये व्यक्ति को माफ कर देना चाहिए। पृथ्वीराज चौहान की यह भूल आगे चलकर बहुत घातक हुई, जिससे देश सैकड़ों वर्षों के लिए विधर्मियों का गुलाम हो गया। कहा तो यह जाता है कि पृथ्वीराज चौहान ने 17 बार गोरी को माफ किया था। लेकिन इस दावे में विश्वसनीयता कम है।

जो भी हो, आजाद होकर अपने देश पहुँचते ही गोरी अपनी कसम को भूल गया और फिर से भारत पर हमला करने की तैयारियाँ करने लगा। लगभग एक वर्ष बाद ही सन् 1192 ई. में उसने अधिक बड़ी सेना लेकर फिर भारत पर हमला कर दिया। उसी तराइन के मैदान में उसका मुकाबला फिर पृथ्वीराज चौहान और उनके सहयोगियों की सेनाओं से हुआ। इसका परिणाम भी पहले जैसा ही रहने वाला था। लेकिन यहाँ गोरी ने एक चाल चली।

हिन्दू राजाओं का नियम था कि युद्ध हमेशा सूर्योंदय के बाद और सूर्यास्त से पहले लड़े जाते थे। सूर्यास्त होते ही युद्ध बन्द कर दिया जाता था। गोरी इस नियम को जानता तो था, लेकिन अपनी संस्कृति के अनुसार उसे मानता नहीं था। उसने एक दिन भोर में ही पृथ्वीराज की सेना पर आक्रमण कर दिया। तब तक उनकी सेना तैयार तो क्या जाग भी नहीं पायी थी। इसलिए थोड़े समय में ही पृथ्वीराज की सेना का बहुत बड़ा भाग नष्ट हो गया और बची हुई सेना बिखर गयी। जब तक पृथ्वीराज चौहान कुछ समझ पाते तब तक उनको गोरी के सैनिकों ने पकड़ लिया और बंदी बना लिया।

गोरी पिछली हार को भूला नहीं था और उसे अपनी कुरान की कसम भी याद थी। लेकिन उसने पृथ्वीराज को न केवल छोड़ने से इनकार कर दिया, बल्कि उनकी आँखें भी जलती सलाखों से फुड़वा दीं। इतिहासकारों ने तो लिखा है कि बाद में गोरी ने पृथ्वीराज को मरवा दिया और उनको अफगानिस्तान में ही एक कब्र में गढ़वा दिया।

लेकिन यह कथा प्रसिद्ध है कि पृथ्वीराज के साथी और दरबारी कवि चन्दबरदाई ने गोरी से कहा कि पृथ्वीराज में आवाज के अनुसार वाण छोड़ने की कला है, जो और किसी में नहीं है। गोरी इस कला का प्रदर्शन देखने को तैयार हो गया। उसने एक जगह घंटा लटकवा दिया और उसे दूर से बजाने का इंतजाम किया। वह भी एक अन्य मंच पर ऊपर बैठा था। तभी चन्दबरदाई ने एक दोहा कहा-
चार बाँस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण।
ता ऊपर सुलतान है मत चूके चौहान ।।

जैसे ही घंटा बजाया गया, वैसे ही पृथ्वीराज ने वाण छोड़कर घंटे को गिरा दिया। इस पर गोरी आश्चर्य से ‘वाह ! वाह !!’ चिल्ला पड़ा। पृथ्वीराज ने इसे अच्छा मौका समझा। गोरी के बैठने के स्थान का कुछ संकेत तो चन्दबरदाई ने दे ही दिया था। जब उन्होंने गोरी की आवाज सुनी तो उसी दिशा में वाण छोड़ दिया। वाण सीधा गोरी के सीने में घुस गया और उसका प्राणान्त हो गया। इसके बाद चन्दबरदाई और पृथ्वीराज भी नहीं बचे। कहा तो यह जाता है कि चन्दबरदाई ने पहले पृथ्वीराज को मारा, फिर खुद भी मर गये। लेकिन ऐसा लगता है कि गोरी के सैनिकों ने ही उन दोनों को मार डाला।

आज भी पृथ्वीराज चौहान की कब्र अफगानिस्तान में बनी हुई है। वहाँ के निवासी उस कब्र पर जूते मारकर उनका अपमान करते हैं, क्योंकि उन्होंने गोरी को मारा था। यह परम्परा ही इस बात का प्रमाण है कि पृथ्वीराज द्वारा गोरी को मारने की यह घटना सत्य है। इतिहासकारों द्वारा इसका उल्लेख न किया जाना स्वाभाविक है, क्योंकि कोई दरबारी इतिहासकार अपने मालिक को नीचा नहीं दिखाता।

जो भी हो। गोरी युद्ध जीतने के बाद तत्काल गजनी लौट गया था, क्योंकि वहाँ विद्रोह सिर उठाने लगा था। जाने से पहले उसने अपने एक गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली का सुलतान बना दिया था। उसी से गुलाम वंश चला। तभी से दिल्ली और पूरे भारत में इस्लामी राज्य की शुरूआत हुई। उसकी कहानी आगे के लेखों में दी जायेगी।

Wednesday 13 November 2013

पांडवों का रोष झूठा नहीं था

मेरी एक फेसबुक मित्र और कवियित्री श्रीमती सरिता शर्मा ने कुछ दिन पूर्व अपनी एक हिन्दी गजल फेसबुक पर डाली थी, जिसका एक शेर निम्नलिखित है-
धृतराष्ट्र गद्दियों पर, पांचाली निर्वस्त्रा 
पांडव नाकारा झूठा रोष लिये फिरते।

मुझे इसमें पांडवों के लिए ‘नाकारा’ और ‘झूठा’ शब्द खल गये। तब सरिता जी ने मुझसे कहा कि आप इस बात से क्यों असहमत हैं, उसका कारण दीजिए। इस बात का उत्तर विस्तार से देने की आवश्यकता थी, इसलिए वह उत्तर मैं अब दे रहा हूँ। 

कौरवों की सभा में द्रोपदी का चीरहरण एक असहनीय अपमानजनक घटना थी, जिस पर पांडवों को गहरा रोष था और उसी के कारण महाभारत का महाविनाशकारी युद्ध हुआ। पांडवों के रोष को झूठा और पांडवों को नाकारा केवल इसलिए कहना उचित नहीं है कि उन्होंने इस अपमान का बदला तत्काल नहीं लिया। इस तरह की कार्यवाही के लिए पूरी योजना बनाने और शक्ति संचय करने की आवश्यकता होती है, जिसमें बहुत समय लगता है। यही पांडवों ने किया। उन्होंने जुए की शर्तों के अनुसार 12 वर्ष का वनवास और 13 वर्ष का अज्ञातवास भोगा और उस समय का उपयोग हथियारों के संग्रह तथा मैत्री सम्बंध बनाने में किया। फिर उचित समय आने पर एक नारी के उस अपमान का पूरा-पूरा बदला सभी कौरवों का समूल नाश करके लिया। इसलिए पांडवों को नाकारा नहीं कहा जा सकता।

यह सोचना भी सही नहीं है कि पांडवों ने अपना रोष उसी समय प्रकट नहीं किया था। ध्यान देने योग्य है कि भीम ने उसी समय भरी सभा में यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं दुर्योधन की जाँघ तोड़ दूँगा और दुःशासन का खून पियूँगा। भीम ने अपनी इन प्रतिज्ञाओं को समय आने पर पूरा किया। द्रोपदी ने भी वहीं प्रतिज्ञा की थी कि जब तक अपने बालों को दुःशासन के खून से नहीं धो लूँगी, तब तक इनको खुला रखूँगी। महाबली भीम ने उसकी इस प्रतिज्ञा को भी पूरा कराया। इसलिए पांडवों के रोष को झूठा नहीं कहा जा सकता। 

पांडवों को सिर्फ इसलिए नाकारा कहना उचित नहीं है कि उन्होंने उसी समय बदला नहीं लिया। कल्पना कीजिए कि यदि पांडव उसी समय द्रोपदी के अपमान का बदला लेने को तैयार हो जाते, तो क्या होता? सारे कौरव मिलकर उनके ऊपर टूट पड़ते, जिनमें भीष्म, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य भी शामिल होते। 10-20 को मारकर पांडव वहीं मर जाते, वहीं उनकी हत्या कर दी जाती और विश्वविजयी सम्राट धर्मराज युधिष्ठिर एवं उनके महान् बलशाली और गुणवान भाइयों की कहानी वहीं समाप्त हो जाती। यह सोचकर ही युधिष्ठिर ने अपने और अपने भाइयों के रोष को नियंत्रित रखा और उचित समय आने पर ही उसको प्रकट किया। 

यदि चीरहरण के कारण किसी को नाकारा और उनके रोष को झूठा कहा जा सकता है, तो वे हैं भीष्म, कृपाचार्य और द्रोणाचार्य। ये तीनों केवल जबानी विरोध करके रह गये। कृपाचार्य और द्रोणाचार्य तो कौरवों के वेतनभोगी शिक्षक थे। अगर वे अपनी आजीविका का ध्यान रखकर चुप हो गये, तो बात समझ में आती है, लेकिन भीष्म तो उसी कुल में सबसे वरिष्ठ थे। उनको यह जघन्य कार्य किसी भी कीमत पर तत्काल रोकना चाहिए था। वे ऐसा करने में समर्थ भी थे। लेकिन वे भी केवल शाब्दिक रोष प्रकट करते हुए बैठे रह गये। इसलिए मैं द्रोपदी के अपमान और उसके कारण हुए महाभारत के युद्ध का सबसे अधिक दोषी भीष्म को मानता हूँ। 

Monday 11 November 2013

मुलायम उवाच

‘हम उत्तर प्रदेश का विकास गुजरात की तरह करेंगे: मुलायम सिंह यादव’

यह है ताजा अखबारी समाचारों का एक शीर्षक। इस समाचार के प्रत्येक अंश को ठीक से समझना जरूरी है। इस समाचार के कई अर्थ निकलते हैं-

1. पहला अर्थ यह निकलता है कि उत्तर प्रदेश अभी तक विकसित नहीं है। यह वास्तव में सच है। मुलायम सिंह तीन-तीन बार उ.प्र. के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और वर्तमान में उनके सुपुत्र पिछले दो साल से इसी प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। इतने पर भी यह मान लेना कि उ.प्र. का अभी तक विकास नहीं हुआ है, अपनी ही नाकामी को स्वीकार करना है। 

2. दूसरा अर्थ यह निकलता है कि गुजरात एक विकसित प्रदेश है। यह बात भी सत्य है। हालांकि आज तक मुलायम सिंह या उनके सपूत ने इस सत्य को स्वीकार करने का साहस नहीं किया था। सार्वजनिक रूप से वे यही कहते रहे हैं कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जी द्वारा गुजरात का विकास करने के सभी दावे खोखले हैं। यह बात दूसरी है कि मुख्यमंत्री बनते ही अखिलेश यादव ने एक सम्मेलन में नरेन्द्र मोदी से गर्मजोशी से मुलाकात की थी। इसका अर्थ यह समझा गया था कि उन्होंने मोदी जी से अपने प्रदेश का विकास करने के लिए मार्गदर्शन लिया होगा।

3. ‘गुजरात की तरह’ विकास करने की बात से यह मतलब निकलता है कि जिस रास्ते पर चलकर मोदी जी ने गुजरात का विकास किया है, मुलायम सिंह यादव उसी रास्ते पर चलकर उत्तर प्रदेश का विकास करना चाहते हैं। लेकिन अखिलेश ने मोदी जी से मुलाकात के बाद भी ‘विकास’ का जो रास्ता अपने चलने के लिए चुना वह ठीक उल्टा ही है। उदाहरण के लिए, गुजरात में मोदी जी ने कोई भी योजना किसी जाति या सम्प्रदाय विशेष के लिए नहीं चलायी है। वहाँ सारी योजनायें क्षेत्रों के आधार पर चलायी जाती हैं, जिनका लाभ उस क्षेत्र में रहने वाला कोई भी व्यक्ति उठा सकता है, चाहे वह किसी भी जाति या सम्प्रदाय से सम्बंध रखता हो। इसके विपरीत उ.प्र. में सभी योजनायें एक सम्प्रदाय विशेष या जाति विशेष के लिए चलायी गयी हैं, जैसे केवल मुस्लिम लड़कियों को हाईस्कूल या इंटर पास करने पर 20 या 30 हजार की इनाम देना, केवल मुस्लिम लड़कियों को विवाह के लिए राशि देना आदि।

इससे स्पष्ट है कि मुलायम सिंह यादव का यह कथन, जो सामान्य रूप से स्वागत योग्य होना चाहिए था, वास्तव में उत्तर प्रदेश की जनता को मूर्ख बनाने के लिए एक चुनावी वायदा मात्र है।

तीन गणितीय पहेलियाँ

यहाँ हम फिर तीन ऐसी पहेलियाँ दे रहे हैं, जिनमें अंकों के बदले अक्षरों का प्रयोग किया गया है। हर अलग-अलग अंकों के बदले अलग-अलग अक्षरों का प्रयोग किया गया है, और किसी अंक के लिए हर जगह उसी अक्षर का प्रयोग किया गया है। 

1. बार-बार
निम्नलिखित भिन्न पर ध्यान दीजिए, जिसमें परिणाम में दशमलव के कुछ अंक बार-बार दोहराये जाते हैं-

- - -
------- = .ANDAGAINANDAGAIN......
TIME

आपकी सुविधा के लिए बता दें कि भिन्न में अंश के अन्तिम दो अंक समान हैं।
बताइये कि AGAIN का संख्यात्मक मान क्या है?

2. नाम में क्या रखा है?
प्रो. लाल क्लब में खाना खाकर बैठे ही थे कि एक दादा टाइम आदमी उनके कमरे में घुस आया और बिना अभिवादन किये यों बोलने लगा- ”मेरा नाम TED MARGIN है। इसके अक्षरों को अलग-अलग तरीकों से लिखने पर GREAT MIND भी बनता है और GRAND ITEM भी। लेकिन मैं कहना चाहता हूँ कि मेरे नाम का प्रत्येक अक्षर 1 से 9 तक के किसी एक अंक के बराबर है और यह भी जान लो कि
A×R×M
---------- = 2
A+R+M
इसके अलावा TED=MAR+GIN और MAD बड़ा है ART से, हालांकि RAT दोनों से बड़ा है। तुम्हें यह भी बता दूँ कि अगर मैं तुम्हें बता दूँ कि इनमें M किस अंक के बराबर है, तो तुम मेरे नाम के सभी अक्षरों और 1 से 9 तक के अंकों में तुरन्त सही-सही सम्बंध बना लोगे।“
वह और भी बहुत कुछ बकना चाहता था, लेकिन तभी एक बेयरा आकर उसे पकड़कर बाहर ले गया। प्रो. लाल चकरा गये। क्या आप बता सकते हैं कि उस आदमी के नाम के अक्षर किस-किस अंक के बराबर हैं?

3. दो चश्मी हे-हे
प्रो. दास निम्नलिखित समीकरण पर कार्य कर रहे थे-
AB = CDE
जहाँ प्रत्येक अक्षर किसी अंक को व्यक्त करता है और B E का एक गुणक है।
वे बड़बड़ाये- ”ओह ! इसके तो बहुत से हल हैं, जैसे- 76 = 493 तथा अगर A=9 तो हम ले सकते हैं- 94=812 या 96=813.“ यह कहते-कहते उन्होंने अपना मुँह बिचकाया और अपना चश्मा धारण किया। इतना करते ही उन्हें जो दिखायी दिया, वह इस प्रकार था-
AABB = CCDDEE
”हा, यह है कोई समीकरण!“ वे खुश हो गये, ”इसका एक ही हल होना चाहिए।“
यदि A, B, C, D तथा E अलग-अलग अंकों को व्यक्त करते हों, B E का कोई गुणक हो और E 1 के बराबर न हो, तो बताइये कि ABCDE किस संख्या को व्यक्त करता है?