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Wednesday 27 November 2013

महाभारत का एक प्रसंग : वयं पंचाधिकं शतम्

जुए में हारने के बाद उसकी शर्तों के अनुसार सम्राट युधिष्ठिर अपने भाइयों और पत्नी द्रोपदी के साथ 12 वर्ष का वनवास का समय बिता रहे थे। एक बार उन्होंने हस्तिनापुर से कुछ ही दूरी पर एक जंगल में अपनी कुटी बनायी। सभी भाई जंगल से लकड़ी लाने, भोजन आदि की व्यवस्था करने और शस्त्रों का अभ्यास करने में व्यस्त रहते थे। शेष समय वे आगंतुक साधु-सन्तों के साथ धर्म-चर्चा किया करते थे। अपने अतिथियों के लिए भोजन आदि की व्यवस्था करने में उनको बहुत कठिनाई होती थी, लेकिन किसी तरह अपना कर्तव्य निभा रहे थे।

जब दुर्योधन को समाचार मिला कि पांडव पास के ही एक वन में रह रहे हैं, तो वह उनका उपहास उड़ाने और उनकी दुर्दशा का आनन्द लेने के लिए वन जाने को तैयार हो गया। धृतराष्ट्र से उसने यह कहकर अनुमति ले ली कि वे आखेट के लिए वन में जा रहे हैं। उसके साथ थोड़े से सैनिक, कुछ भाई और कर्ण भी था। पांडवों की कुटी से कुछ ही दूरी पर एक सरोवर था। दुर्योधन ने पहले वहाँ स्नान करने और खाना-पीना करने का निश्चय कियाजब वे उस सरोवर के पास पहुँचे तो कुछ पहरेदारों ने उसको रोक दिया। उन्होंने बताया कि सरोवर में इस समय गन्धर्वों के राजा चित्रसेन की रानियाँ और परिजन स्नान कर रहे हैं। इसलिए कुछ समय तक वहाँ किसी को जाने की अनुमति नहीं है। यह सुनकर दुर्योधन का अहंकार जाग उठा। बोला- ‘मैं हस्तिनापुर का सम्राट हूँ। यह सारा जंगल मेरा है। मुझे वहाँ जाने से कौन रोक सकता है।’ लेकिन गंधर्व न माने। तब दुर्योधन युद्ध करने को तैयार हो गया। इस युद्ध में चित्रसेन गंधर्व की सेना ने दुर्योधन की सेना को मार भगाया। कर्ण जैसा वीर अपनी जान बचाकर भाग गया और दुर्योधन को चित्रसेन ने पकड़कर बाँध लिया।

दुर्योधन के कुछ भागे हुए सैनिकों ने पांडवों को जाकर यह समाचार दिया। दुर्योधन के पकड़े जाने का समाचार पाकर युधिष्ठिर चिंतित हो गये। भीम और अर्जुन ने तो कहा कि ‘अच्छा हुआ। दुर्योधन हमारा मजाक उड़ाने आया था, उसे अच्छा दंड मिल गया।’ लेकिन युधिष्ठिर ने कहा कि 'यह अच्छा नहीं हुआ। दुर्योधन हमारा भाई है। भले ही आपस में विवाद के समय वे सौ और हम पाँच हैं, लेकिन बाहरी लोगों से विवाद के समय हम एक सौ पाँच हैं (वयं पंचाधिकं शतम्)। तुम दोनों तत्काल जाकर उसको मुक्त कराओ। चित्रसेन हमारा मित्र है, लेकिन आवश्यक होने पर उससे युद्ध भी करना।’

बड़े भाई का आदेश पाकर भीम और अर्जुन दोनों चल दिये। चित्रसेन पांडवों का मित्र था। वह जानता था कि पांडव क्यों वनवास भोग रहे हैं। उसने सोचा था कि दुर्योधन के पकड़े जाने का समाचार सुनकर पांडव बहुत प्रसन्न होंगे। लेकिन भीम और अर्जुन ने उससे जाकर कहा कि ‘दुर्योधन हमारा भाई है। महाराज युधिष्ठिर का आदेश है कि तुम उसको तत्काल छोड़ दो। नहीं तो तुम्हें हमारे साथ युद्ध करना पड़ेगा।’ चित्रसेन पांडवों का बहुत सम्मान करता था। उसने कहा कि ‘वैसे तो दुर्योधन का अपराध ऐसा है कि उसको जीवित छोड़ना गलत होता, लेकिन आपके कहने से मैं उसे मुक्त किये दे रहा हूँ।’ दुर्योधन को छुड़वाकर भीम और अर्जुन लौट आये।

जब दुर्योधन को पता चला कि वह पांडवों की कृपा से मुक्त हुआ है, तो उसे बहुत ग्लानि हुई। वह कहने लगा कि अब मैं जीवित नहीं रहना चाहता और जलकर मर जाऊँगा। तब कर्ण ने उसको रोका और समझाया। कर्ण ने उसको वचन दिया कि मैं युद्ध में पांडवों को हराकर तुम्हारे इस अपमान का बदला लूँगा। काफी कहने-सुनने के बाद दुर्योधन ने आत्महत्या का इरादा त्याग दिया।

वे चुपचाप हस्तिनापुर लौट आये। उन्होंने अपनी वन यात्रा का कोई समाचार धृतराष्ट्र को नहीं दिया। लेकिन महात्मा विदुर के गुप्तचरों को सारा समाचार ज्ञात हो गया और तब विदुर ने यह समाचार धृतराष्ट्र को दिया। यह सुनकर धृतराष्ट्र बहुत चिन्तित हुए और उन्होंने न केवल दुर्योधन को फटकारा, बल्कि आगे से कभी आखेट के लिए भी वन में जाने पर रोक लगा दी।

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