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Tuesday 23 April 2013

प्रेम की शक्ति


(यह एक सुनी हुई परन्तु सच्ची कहानी है।)

एक पीर साहब थे, जो एक दरगाह में रहते थे। उनके बारे में मशहूर था कि वे जिसके लिए दुआ कर दें, उसकी मुराद जरूर पूरी होगी। इसलिए उनके ठिकाने पर बहुत मुरीद आते थे। एक मुस्लिम महिला की शादी को कई साल हो गये थे, लेकिन उसकी गोद नहीं भर रही थी। वह पीर साहब के लिए प्रायः खाना लेकर आती थी, ताकि पीर साहब उसके लिए दुआ कर दें। उसने अपनी मुराद बतायी, तो पीर साहब उसके लिए दुआ करने को तैयार हो गये।

अगली बार वह फिर खाना लेकर आयी, तो पीर साहब ने उससे कहा कि तुम यह खाना ले जाओ, मैं इसे नहीं खा सकता, क्योंकि मेरी दुआ कबूल नहीं हुई। खुदा ने कहा है कि तुम्हारी किस्मत में औलाद नहीं है। यह सुनकर वह महिला बहुत रोयी और निराश होकर खाना वापस लेकर जाने लगी।

रास्ते में उसे एक पागल सा दिखने वाला बाबा मिला। बाबा ने उसके हाथ में टिफिन देखा, तो कहा- ‘माँ, तेरे पास खाने के लिए कुछ है? अगर है तो दे, बड़ी भूख लगी है।’ महिला ने सोचा कि खाना इस भूखे का पेट भरने के काम आ जाये तो अच्छा ही है। यह सोचकर उसने अपना खाना उस बाबा को खिला दिया और टिफिन इकट्ठा करके जाने लगी।

बाबा ने भोजन से तृप्त होकर पूछा- ‘माँ, तू रोती क्यों है?’

उसने रोते-रोते कहा- ‘बाबा मेरे कोई औलाद नहीं है। एक हो जाये, तो चैन मिले। पर मेरी किस्मत में एक भी औलाद नहीं है।’

बाबा- ‘बस इतनी सी बात? तू एक के लिए रोती है, चल मैं तुझे दो देता हूँ।’

उस महिला ने सोचा कि जब खुदा ने खुद कहा है कि मेरी किस्मत में औलाद नहीं है, तो इस पागल बाबा के कहने से क्या होगा। खैर, वह अपने बर्तन लेकर चली गयी। ईश्वर की लीला कि शीघ्र ही उसकी कोख हरी हो गयी और समय पाकर उसने दो सुन्दर जुड़वाँ पुत्रों को जन्म दिया। उस महिला की खुशी का ठिकाना नहीं था।

जब वे शिशु एक माह के हो गये, तो उसने उनको लाकर पीर साहब के कदमों में डाल दिया। उनको देखकर पीर साहब बहुत चकित हुए। महिला ने उनको पागल बाबा वाली घटना सुनायी। पीर साहब बोले- ‘यह कैसे हो गया? मुझे तो खुद उसने कहा था कि तुम्हारी किस्मत में औलाद नहीं है। अल्लाह ताला ही कुछ बताये, तो पता चले।’

अगली बार वह महिला वहाँ गयी, तो पीर साहब उसको देखते ही बोले- ‘वह पागल सा बाबा कहाँ है? मैं उसके पैर चूमना चाहता हूँ। अल्लाह ने फरमाया है कि वह बाबा मेरा बहुत बड़ा प्रेमी है। मैं उसकी बात नहीं टाल सकता।’

नरेन्द्र मोदी की स्वीकार्यता


इस समय देश में राजनीतिक परिस्थितियाँ एक विचित्र रूप ले चुकी हैं। एक सरकार पिछले 9 वर्ष से देश का शासन कर रही है और दिन पर दिन अपनी अयोग्यता सिद्ध कर रही है। लोकसभा चुनाव सिर पर हैं और कभी भी घोषित हो सकते हैं। दो प्रमुख मोर्चे मैदान में आने की तैयारी कर रहे हैं। इनमें एक है वर्तमान में सत्तारूढ़ यू.पी.ए., जिसका नेतृत्व कांग्रेस कर रही है और दूसरा है राजग, जिसका नेतृत्व भाजपा के पास है।

यू.पी.ए. ने अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार लगभग घोषित कर दिया है और यह स्पष्ट हो गया है कि वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सिर्फ डमी प्रधानमंत्री हैं, जिनको इसलिए कुर्सी पर चिपकाया गया था कि कोई अन्य नेता अपना पक्का दावा न ठोक दे। मनमोहन सिंह के बारे में ऐसी आशंका शुरू से ही नहीं थी, क्योंकि उनका कोई जन आधार ही नहीं है और न उन्होंने कभी कोई चुनाव लड़ा। उनको केवल इसलिए डमी बनाया गया था कि समय आने पर कांग्रेस के ‘युवराज’ के लिए कुर्सी खाली कर दें। प्रधानमंत्री पद के लिए राहुल गाँधी की उम्मीदवारी पर यूपीए के अन्दर कोई विरोध भी नहीं है, क्योंकि सभी सहयोगी दलों को मालूम है कि कांग्रेस के सहारे के बिना उनका सत्ता में आना लगभग असम्भव है।

दूसरी ओर, राजग में प्रधानमंत्री पद के लिए अभी तक आम राय नहीं बन पायी है। यों भाजपा के अधिकांश कार्यकर्ता और समर्थक गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए प्रत्याशी के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं और आम जनता भी यही चाहती है। लेकिन भाजपा के कुछ शीर्ष नेता बहुत ही महत्वाकांक्षी हैं। वे यह नहीं चाहते कि कोई व्यापक जनाधार और लोकप्रियता वाला व्यक्ति प्रधानमंत्री बने। वे समय-समय पर किसी न किसी का नाम उछालते रहते हैं, ताकि मोदी जी को लेकर भ्रम बना रहे। लेकिन अब भ्रम के बादल लगभग छँटने लगे हैं, क्योंकि भाजपा को वैचारिक समर्थन और कर्मठ कार्यकर्ता देने वाले संघ ने मोदी जी के नाम पर लगभग अपनी मोहर लगा दी है।

परन्तु राजग में भाजपा के दो प्रमुख सहयोगी दल जनता दल (यू) तथा शिव सेना अलग-अलग कारणों से नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी का विरोध कर रहे हैं। इन दोनों के विरोध में एक विचित्र विरोधाभास है। जनता दल (यू) इसलिए विरोध कर रहा है कि उसके अनुसार नरेन्द्र मोदी की छवि मुसलमान-विरोधी की है और शिव सेना इसलिए विरोध में है कि उसके अनुसार नरेन्द्र मोदी की छवि हिन्दू-विरोधी की है। क्या यह अपने आप में एक हास्यास्पद बात नहीं है कि कोई आदमी एक साथ मुसलमान-विरोधी भी हो और हिन्दू-विरोधी भी, फिर भी आम जनता में उसकी स्वीकार्यता सबसे अधिक हो? स्पष्ट है कि मोदी जी न तो मुसलमान-विरोधी हैं और न हिन्दू-विरोधी, बल्कि वे दोनों ही समुदायों के उग्रवाद के विरोधी हैं। उन्होंने अपने भाषणों में स्पष्ट कहा भी है कि उनके लिए देश सबसे पहले है और यही उनकी पंथनिरपेक्षता की एक मात्र कसौटी है।

इतने स्पष्ट दृष्टिकोण के होने के कारण ही मोदी जी को आम जनता में स्वीकार्यता प्राप्त हुई है। वे जहाँ भी भाषण देने जाते हैं अपने प्रखर चिन्तन और ठोस व्यावहारिक दृष्टिकोण से श्रोताओं का मन मोह लेते हैं। वे केवल कहते ही नहीं बल्कि अपने चिन्तन को व्यावहारिक रूप में सत्य सिद्ध करके भी दिखाते हैं। गुजरात की चहुँमुखी प्रगति इसका प्रमाण है, जिसकी प्रशंसा उनके घोर विरोधियों को भी झख मारकर करनी पड़ती हैं। देश-विदेश में गुजरात की प्रगति की चर्चा है और आम भारतीय जनता को यह विश्वास हो गया है कि यदि इस देश को कोई नेता विकास के सही मार्ग पर ले जा सकता है, तो वे सिर्फ नरेन्द्र मोदी हैं।  

अब प्रश्न उठता है कि राजग के प्रमुख सहयोगी दलों के मोदी-विरोध का कारण क्या है? यह कारण बिल्कुल स्पष्ट है। वे जानते हैं कि यदि मोदी जी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके चुनाव लड़ा जाता है, तो भाजपा उम्मीदवारों को आम जनता का इतना समर्थन मिलेगा कि उसकी अपनी सीटों की संख्या 200 को भी पार कर सकती है। ऐसा होने पर सहयोगी दलों का महत्व घट जाएगा। इसलिए वे किसी भी कीमत पर भाजपा की सीटों की संख्या अधिक नहीं बढ़ने देना चाहते। लेकिन यह रवैया अपनी नाक कटाकर दूसरों का अपशकुन करने की नीति की तरह ही मूर्खतापूर्ण कहा जाएगा। सहयोगी दल चाहें या न चाहें, आम भारतीय मोदी जी को अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहता है और वह देखेगा।

क्या मुगल भारतीय थे?


कई सेकूलर सज्जन मुगलों की चर्चा करते समय इस बात पर जोर देते हैं कि भारत पर शासन करने वाले मुगल बादशाह भारतीय थे और इसीलिए उनके विरुद्ध संघर्ष करने वाले लोग विद्रोही थे। यह बात पूरी तरह गलत है। मुगलों का पूरा इतिहास गवाह है कि उनको इस देश से कोई लगाव नहीं था। आइए, इस बात को जरा विस्तार से समझें।

मुगल वंश का पहला बादशाह बाबर पिता की ओर से तैमूर लंग और माता की ओर से चंगेज खाँ का वंशज था। ये दोनों मध्य एशिया में रहने वाले मंगोल मूल के लुटेरे और हत्यारे थे। बाबर में इन दोनों के कुसंस्कार पूरी तरह आये थे। बाबर ने जब भारत पर हमला किया था, तो देश में अफगान मूल के बादशाह इब्राहीम लोदी का शासन था। उसको पानीपत के मैदान में हराकर बाबर भारत का बादशाह बना था।

बाबर का बड़ा पुत्र हुमायूँ बाबर के साथ ही आया था। बाबर के मरने के बाद वह बादशाह बना, लेकिन शीघ्र ही शेरशाह सूरी के हाथों हारकर जान बचाकर भारत से भाग गया। बाद में जब शेरशाह सूरी के वंशज अयोग्य और कमजोर निकले, तो वह पुनः भारत लौटा और दिल्ली का बादशाह बना। जब वह भारत से हारकर भाग रहा था तो रास्ते में अकबर का जन्म हुआ था। इधर-उधर भागते रहने के कारण उसकी कोई शिक्षा भी नहीं हो सकी। लेकिन जब हुमायूँ दोबारा भारत का बादशाह बना, तो उसके मरने के बाद अकबर को बादशाह बनाया गया, जब वह केवल 13-14 साल का था।

इससे स्पष्ट है कि पहले तीन मुगल बादशाहों का तो जन्म भी भारत में नहीं हुआ था। हाँ, अकबर के बाद के सभी मुगल बादशाहों का जन्म भारत में ही हुआ था। फिर भी उन्हें भारतीय नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता, जब उन्होंने इस देश के प्रति कोई लगाव दिखाया हो। उनके मन में हमेशा यह बात रहती थी कि वे महान् तैमूर लंग के वंशज हैं। इसलिए उनके मन में कभी भारतीयता के संस्कार जाग्रत नहीं हुए। उनको केवल एक बात का श्रेय दिया जा सकता है कि अन्य विदेशी हमलावरों और अंग्रेजों की तरह उन्होंने इस देश को लूटा तो जरुर, पर लूटे हुए धन को भारत से बाहर नहीं ले गए, बल्कि यहीं अपने ऐशो-आराम में खर्च किया।

यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि भारत में जन्म लेना या मरना या दोनों ही भारतीय होने की एक मात्र शर्त नहीं है। इनसे वे भारत के नागरिक तो हो सकते हैं, लेकिन सच्चे भारतीय नहीं। इसे यों समझिये कि अंग्रेजों ने भारत में 200 वर्ष तक राज्य किया, उनकी कई पीढि़याँ यहीं पैदा हुईं और मरीं, लेकिन फिर भी उन्हें हमेशा विदेशी ही माना गया और उनका राज्य समाप्त होने को आजादी का नाम दिया गया। यही मुगल बादशाहों के बारे में कहा जाना चाहिए। यदि हम मुगलों को भारतीय मानते हैं तो हमें उनसे संघर्ष करने वाले महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी और छत्रसाल बुन्देला आदि को विद्रोही तथा देशद्रोही मानना पड़ेगा। यह किसी भी भारतीय को स्वीकार नहीं होगा।

एक बात यह भी है कि भारतीय होने के लिए भारत में जन्म लेना भी अनिवार्य शर्त नहीं है। उदाहरण के लिए, हम सुनीता विलियम को देख सकते हैं। वे न तो भारत में पैदा हुईं और न कभी यहाँ लम्बे समय तक रहीं। फिर भी वे स्वयं को गर्व से भारतीय कहती हैं और तिरंगे झंडे को प्यार करती हैं। यही भारतीयता है।

मुगलों को अभारतीय मानने का अर्थ यह नहीं है कि भारत के मुसलमान भी अभारतीय हैं। वास्तव में भारत के अधिकांश लगभग 95 प्रतिशत मुसलमान मूलतः हिन्दुओं के ही वंशज हैं, इसलिए उनको भारतीय ही माना जाना जाता है। केवल 5 प्रतिशत मुसलमान ऐसे हैं जो विदेशी हमलावरों के वंशज हैं। अगर वे भी स्वयं को भारतीय कहते और मानते हैं, तो हमें कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन स्वयं को बाबर और औरंगजेब की औलाद मानने वालों को हम भारतीय नहीं कह सकते।

Wednesday 10 April 2013

हिन्दू होने का दर्द


घोषित इस्लामी देश पाकिस्तान से अल्पसंख्यक हिन्दूओं द्वारा अपनी जान और इज्जत बचाकर भारत आने की घटनायें नयी नहीं हैं। कहने को पाकिस्तान में ‘अल्पसंख्यकों को पूरा संरक्षण’ दिया जाता है, लेकिन वास्तविकता सबको मालूम है। हर महीने अनेक हिन्दू लड़कियों के बलात अपहरण और उनको जबर्दस्ती कलमा पढ़वाकर निकाह कराने के समाचार आते रहते हैं। ऐसी प्रत्येक घटना पर थोड़े दिन शोर मचता है, फिर सब चुप हो जाते हैं और यह सिलसिला चलता रहता है। ऐसी हालत में यह आश्चर्यजनक नहीं है कि कुछ माह पहले सैकड़ों पाकिस्तानी हिन्दू परिवारों के 480 सदस्य वैध तरीके से तीर्थ यात्रा के बहाने भारत आये और अब यहाँ से वापस जाना ही नहीं चाहते। वे भारत में ही शरण चाहते हैं क्योंकि पाकिस्तान में उनकी जान-माल और इज्जत को भारी खतरा है। उनके लिए भारत के अलावा और कोई सुरक्षित ठिकाना नहीं है, क्योंकि भारत में ईश्वर की दया से अभी भी हिन्दू बहुसंख्या में हैं।

सामान्य अवस्था में ऐसे पीडि़त परिवारों को उस देश की सरकार द्वारा तत्काल शरण दे दी जाती है, जिसमें वे शरण लेना चाहते हैं। लेकिन हमारे महान् भारत की महान सेकूलर सरकार ऐसा नहीं कर रही है और उन परिवारों को जबर्दस्ती पाकिस्तान में धकेल देना चाहती है, चाहे वहाँ उनका कुछ भी किया जाए। इन निरीह परिवारों का अपराध बस इतना है कि वे हिन्दू हैं और अपना धर्म-ईमान छोड़ने को तैयार नहीं हैं। हिन्दू होना ही उनका सबसे बड़ा दोष है। यदि वे पाकिस्तानी हिन्दू न होकर बंगलादेशी होते, तो यहाँ उनके लिए तमाम सेकूलर लोग पलक पाँवड़े बिछाये होते। उनको न केवल अघोषित शरण दी जाती, बल्कि खुले रूप में मस्जिदों में निवास का प्रबंध भी कर दिया जाता। बाद में यथा समय उनको राशन कार्ड, आधार कार्ड और वोटर कार्ड ही नहीं पासपोर्ट तक बनवा दिया जाता।

इन परिवारों की गलती यह है कि वे पूरे वैध तरीके से पासपोर्ट बनवाकर और वीजा लेकर भारत आये हैं और गायब नहीं हुए हैं। अगर वे क्रिकेट मैंच देखने के बहाने आये होते और गायब हो गये होते, तो देश के किसी भी हिस्से में मजे में रह रहे होते। अगर वे बंगलादेशी घुसपैठियों की तरह ‘गर्दनिया पासपोर्ट’ लेकर रात के अँधेरे में चुपके से घूसे होते तो, देश की राजधानी तक में खुलेआम रह रहे होते। उनके तमाम भाईबन्द उनके लिए रहने, खाने और काम करने तक का इंतजाम कर देते। मतदाता बनकर वे चुनाव तक लड़ सकते थे और एमएलए एमपी भी बन सकते थे। लेकिन फिर बात वही कि उनका सबसे बड़ा दोष हिन्दू होना और वैध तरीके से आना है।

इन निरीह हिन्दुओं की सहायता करने के लिए कोई भी संगठन आगे नहीं आ रहा है। वे भी नहीं जो हर बात पर बयान दागते रहते हैं और मोमबत्तियाँ जलाते रहते हैं। हिन्दुओं के स्वयंभू रहनुमा विश्व हिन्दू परिषद भी उनकी दयनीय दशा पर कान में रुई ठूँसे बैठे हैं। ऐसे में सरकार को क्या पड़ी है कि वह इनको शरण देकर अपनी सेकूलरिटी पर दाग लगाये?

यहाँ तथाकथित मानवाधिकार संगठनों के शमनाक रवैये पर भी बोलना आवश्यक है। सभी आतंकवादियों, हत्यारों, नक्सलवादियों और बलात्कारियों तक के मानवाधिकारों के ये स्वयंभू प्रवक्ता इन हिन्दुओं की दयनीय दशा पर होठ सिले बैठे हैं। इन्होंने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि ये मानवाधिकार नहीं ‘दानवाधिकार’ संगठन हैं। शायद ये हिन्दुओं को तो मानव मानते ही नहीं, वरना गाँधी के तीनों बन्दर एक साथ बने न बैठे रहते। धिक्कार!

शान्ति काल के दंगाई


प्रचलित अखबारी भाषा में ‘शान्ति काल’ उस समय से कहते हैं जब देश में साम्प्रदायिक दंगे न हो रहे हों। लेकिन देश में कुछ लोग हैं, और हमेशा होते हैं, जिनको शान्ति पसन्द नहीं आती। इसलिए वे अपनी आदत अथवा स्वार्थ से मजबूर होकर ऐसे कार्य करते रहते हैं जिनसे यह शान्ति जल्दी से जल्दी भंग हो और देश में दंगे हों। दूसरे शब्दों में, वे आगामी दंगों की भूमिका बनाते रहते हैं। इसलिए ऐसे लोगों को मैं ‘शान्ति काल के दंगाई’ कहता हूँ। ये लोग स्वयं भले ही दंगों में भाग न लेते हों, लेकिन दंगों की आग लगाने में सबसे आगे रहते हैं और फिर प्रायः उसको बुझाने की कोशिश करने वालों के साथ भी नजर आते हैं। यानी दोनों हाथ लड्डू।

ऐसे महान व्यक्तियों को कई वर्गों में रखा जा सकता है। यहाँ मैं एक-एक करके इनकी चर्चा करूँगा।

1. इस सूची में सबसे ऊपर हैं जेहादी आतंकवादी। इनको शान्ति से घोर दुश्मनी है। हालांकि स्वयं को शान्ति दूत बताते हैं। जब भी देश में काफी दिनों तक शान्ति रह जाती है, तो वे कोई न कोई ऐसी हरकत जैसे बम धमाके, अपहरण, हत्यायें आदि कर डालते हैं, जिससे शान्ति भंग हो। इनको विदेशों से आतंकवाद फैलाने के लिए खाद-पानी मिलता रहता है और अपने देश से गुप्त या प्रकट समर्थन भी।

2. दूसरे क्रमांक पर हैं मुसलमान और हिन्दू कठमुल्ले। वे समय-समय पर ऐसे बयान दागते रहते हैं कि देश के दोनों प्रमुख समुदायों के बीच घृणा और अविश्वास बना रहे तथा बढ़ता रहे। ओवैसी, बुखारी, मदनी आदि को इस श्रेणी में रखा जा यकता है। बैठे-बैठे बेहूद फतवे पादते रहना इनका प्रमुख कार्य है। ये स्वयं को मुसलमानों या अन्य वर्ग के वोटों का ठेकेदार मानते हैं और आश्चर्य है कि तमाम सेकूलर दल इनके झाँसे में आ जाते हैं, भले ही वे अपने बल पर एक पार्षद को भी नहीं जिता सकते। कई अतिवादी हिन्दू संगठन और व्यक्ति भी इसी श्रेणी में आते हैं।

3. तीसरे नम्बर पर हैं मुस्लिम तुष्टीकरण करने वाले दल और नेता। इनके लिए देश के ऊपर सबसे पहला हक मुसलमानों का है, बाकी देशवासी बाद में आते हैं। इसलिए कहीं पर भी सत्ता में आते ही ऐसे कानून और योजनायें बनाते हैं, जिनसे कुछ मुट्ठीभर मुसलमानों को सीधे फायदे हों तथा वे फायदे अन्य समुदायों को न हों। मुस्लिमों के लिए आरक्षण की घोषणा करना, केवल मुस्लिम बच्चों को वजीफा देना, उर्दू को अनावश्यक महत्व देना आदि इनके कुछ कार्य हैं। वे कभी भी ऐसी योजनायें नहीं निकालते, जिनसे सभी देशवासियों का फायदा हो। वे यह कभी नहीं सोचते कि अगर संसाधन केवल एक वर्ग के लिए खर्च किये जायेंगे, तो दूसरे वर्गों में उस वर्ग के प्रति अच्छे विचार तो नहीं ही बनेंगे। जैसे केवल मुस्लिम लड़कियों को परीक्षा पास करने पर हजारों रुपये का इनाम देना और बाकी लड़कियों को कुछ न देना आदि। वे पूरी बेशर्मी से मुस्लिम तुष्टीकरण करते हैं और इस बात को छिपाते भी नहीं हैं।

4. चौथे नम्बर हैं अपने सेकूलर मीडिया चैनल। इस बिरादरी में कुछ समाचारपत्रों को भी शामिल किया जा सकता है। उनकी तो रोटी ही भड़काने वाले समाचारों से चलती है। तिल का ताड़ बनाना और पहाड़ को राई से भी कम दिखाना इनका ही कमाल है। वे ऐसे वक्तव्यों और समाचारों को बार-बार पूरी बेशर्मी से नमक-मिर्च लगाकर दिखाते रहते हैं, जिनसे देश में खौफ और घृणा का वातावरण पैदा हो। यदि कोई विभिन्न समुदायों के बीच एकता या सद्भाव की बात करता है, तो ये चैनल सबसे पहले उसी की छीछालेदर करते हैं। यों उन पर नजर रखने के लिए तमाम संस्थायें बनी हुई हैं, लेकिन उनका कोई प्रभाव इन पर नहीं पड़ता।

5. इस सूची में आखिरी नम्बर पर हैं सेकूलर कुबुद्धिजीवी। वे स्वयं को सेकूलर अर्थात् धर्मनिरपेक्ष कहते हैं, पर वास्तव में केवल हिन्दू धर्म निरपेक्ष और मुस्लिम धर्म सापेक्ष हैं। हिन्दुओं की हर बात का विरोध करना और मुस्लिमों के सभी सही-गलत कार्यों को जायज बताना इनका प्रमुख कार्य है। दूसरे शब्दों में वे पूरी तरह शर्म-निरपेक्ष हैं। घोर अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता की बातें करते हुए उन्हें कोई लज्जा महसूस नहीं होती। ऐसे लोग सभी सेकूलर दलों में और निर्दलीय भी पाये जाते हैं।

यों तो इनमें से प्रत्येक श्रेणी के लोगों की और भी छीछालेदर की जा सकती है, पर मैंने ये संक्षेप में ही लिखा है। जब तक शान्ति काल के ये दंगाई देश में रहेंगे, तब तक देश में स्थायी शान्ति और सद्भाव स्थापित होना लगभग असम्भव है।

Saturday 6 April 2013

कृष्ण और द्रोपदी का आदर्श सम्बंध


कृष्ण और द्रोपदी महाभारत के दो प्रमुख पात्र हैं। कृष्ण ने इस महायुद्ध में पांडव पक्ष का नेतृत्व किया था और उनको विजयी बनाया था। द्रोपदी इस महायुद्ध का प्रमुख कारण थी, क्योंकि उसी के अपमान का बदला लेने के लिए पांडव यह युद्ध करने को बाध्य हुए थे। इन दोनों में आपस में कोई सीधा रक्त सम्बंध नहीं था, फिर भी दोनों एक-दूसरे से बहुत गहरे से जुड़े हुए थे और उनका सम्बंध बहुतों के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है। इस पवित्र सम्बंध को गहराई से समझने के लिए हमें दोनों की पृष्ठभूमि में जाना होगा।

द्रोपदी पांचाल देश के महाराजा यज्ञसेन द्रुपद की पुत्री थी। उसका जन्म द्रुपद की प्रतिशोध भावना के कारण हुआ था। एक बार द्रुपद ने अपने सहपाठी ओर घनिष्ठ मित्र द्रोण को अपने दरबार में केवल साधारण ब्राह्मण कहकर अपमानित किया था। द्रोण ने इसका बदला लेने के लिए अपने शिष्य पांडवों द्वारा उनको पराजित कराया था और फिर मुक्त कर दिया था। द्रुपद अपने अपमान की इसी ज्वाला में जल रहे थे और द्रोण को पराजित करके अपने अपमान का बदला लेना चाहते थे। बदले की इसी आग से उनके पुत्र धृष्टद्युम्न और पुत्री कृष्णा (द्रोपदी) का जन्म हुआ था। उनके जन्म से ही उनको यह सिखाया-पढ़ाया गया था कि आचार्य द्रोण से अपने पिता के अपमान का बदला लेना ही उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य है। इसी कारण रूपक के रूप में यह कहा जाता है कि दोनों का जन्म अग्नि से हुआ था।

लेकिन द्रोण को पराजित करना सरल नहीं था। वे परशुराम के शिष्य थे और अपने समय के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे। धनुषयुद्ध में वे लगभग अपराजेय थे। इसलिए द्रुपद ने अपने पुत्र धृष्टद्युम्न को स्वयं द्रोण के पास ही धनुर्वेद की शिक्षा लेने भेजा। द्रोण ने उसके जन्म का उद्देश्य जानते हुए भी उसको शिक्षा देना स्वीकार किया और उसे श्रेष्ठ योद्धा बनाया।

इसके साथ-साथ द्रुपद चाहते थे कि उनकी पुत्री द्रोपदी का विवाह आर्यावर्त के सर्वश्रेष्ठ योद्धा से हो, जो द्रोण को पराजित कर सके। उन्होंने सबसे पहले अर्जुन के बारे में सोचा, जिसने उनको पराजित करके बन्दी बनाया था। परन्तु उनको पता चला कि अर्जुन की मृत्यु वारणावत में अग्निकांड में हो गयी है, इसलिए उन्होंने दूसरे योद्धाओं के बारे में विचार किया। तब उनका ध्यान यादवों के एकछत्र नेता कृष्ण की ओर गया, जो अपने अनेक महान् वीरतापूर्ण कार्यों से आर्यावर्त के सर्वश्रेष्ठ योद्धा के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके थे।

उन्होने कृष्ण को पांचाल आमंत्रित किया और उनके आने पर उनसे अपनी पुत्री द्रोपदी का पाणिग्रहण करने की प्रार्थना की। उस समय तक द्रोपदी आर्यावर्त की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थी। उनसे विवाह करके कोई भी राजा या राजकुमार स्वयं को धन्य मानता। लेकिन जब कृष्ण को पता चला कि द्रुपद का असली उद्देश्य द्रोण से अपने अपमान का बदला लेना है और इसके लिए अपने जामाता का उपयोग करना चाहते हैं, तो कृष्ण ने उनकी पुत्री के साथ विवाह करने से विनम्रतापूर्वक मना कर दिया, क्योंकि वे स्वयं को किसी के व्यक्तिगत प्रतिशोध का मोहरा नहीं बनने देना चाहते थे।

कृष्ण के अस्वीकार से द्रुपद बहुत निराश हुए। उनकी निराशा को देखते हुए कृष्ण ने उनसे कहा कि मैं द्रोपदी को बहिन के रूप में देखता हूँ और एक भाई की तरह उसके योग्य सर्वश्रेष्ठ वर का चुनाव करने में आपकी सहायता करना चाहता हूँ। द्रुपद ने उनको बताया कि वे आर्यावर्त के सर्वश्रेष्ठ योद्धा या धनुर्धर के साथ ही द्रोपदी का विवाह करना चाहते हैं, ताकि वह द्रोण को पराजित करके उनके अपमान का बदला चुका सके। उस समय तक कृष्ण को विदुर और महामुनि व्यास से यह पता चल गया था कि पांडव जीवित बच गये हैं। लेकिन उन्होंने द्रुपद को यह बात नहीं बतायी। इसके बजाय उन्होंने सलाह दी कि द्रोपदी के स्वयंवर में धनुर्वेद की एक बहुत कठिन प्रतियोगिता रखिये। जो उस प्रतियोगिता में विजयी होगा, वह सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होगा। उसके साथ द्रोपदी का विवाह करने पर द्रुपद की इच्छा पूरी हो सकती है।

द्रुपद को उनकी सलाह जँच गयी और फिर उन्होंने जो प्रतियोगिता रखी और जिस प्रकार अर्जुन ने वह कठिन शर्त पूरी करके द्रोपदी के साथ विवाह किया, वह कहानी सबको मालूम है। कृष्ण ने ही द्रोपदी को संकेत करके समझाया था कि वह कर्ण से विवाह करने से मना कर दे। इस योजना के सफल होने के कारण द्रुपद कृष्ण का बहुत सम्मान करते थे और उनकी पुत्री द्रोपदी भी कृष्ण को अपने सगे बड़े भाई जितना प्यार और सम्मान देती थी।

बाद में कृष्ण ने अपनी सगी बहिन सुभद्रा का विवाह अर्जुन से कराया, तो स्वाभाविक रूप से सबको यह चिन्ता हुई कि द्रोपदी अपनी सौत को किस प्रकार स्वीकार करेगी। इसका समाधान करने के लिए कृष्ण की सलाह पर ही सुभद्रा ने द्रोपदी को अपना परिचय अर्जुन की पत्नी के बजाय कृष्ण की बहिन के रूप में दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि वे दोनों हमेशा सगी बहिनों की तरह प्यार और सद्भाव के साथ रहीं। कृष्ण और द्रोपदी का सम्बंध एक आदर्श भाई-बहिन की तरह हमेशा बना रहा। द्रोपदी उनके ऊपर बहुत विश्वास करती थी और उनकी सलाह पर चलती थी। कृष्ण भी हर संकट के समय उनकी सहायता करते थे, जैसा कि महाभारत की कई घटनाओं से पता चलता है।

अपराध और दंड


मेरे मित्र भाई वनवारी ‘अकेला’ ने अपराधियों को सजा देने के बारे में पिछले दिनों दो लेख लिखे हैं। मैं उनके दोनों लेखों से लगभग पूरी तरह असहमत हूँ। इन लेखों की कमियों की ओर ध्यान दिलाकर अपने विचार प्रकट करने के लिए यह लेख लिखा जा रहा है।

1. यह कहना गलत है कि सजा से अपराधों में कमी नहीं आती। वास्तव में सजा देने का मुख्य उद्देश्य अपराधों में कमी करना नहीं, बल्कि अपराधियों को यह भय दिखाना है कि यदि वे अपराध करेंगे, तो उनको दंड अवश्य मिलेगा। इस डर के कारण अपराधी अपराध करने से पहले कई बार सोचने को मजबूर होता है। अगर यह भय न हो, तो वह खुलकर अपराध करेगा। इसलिए दंड के कारण अपराधों में एक प्रकार से कमी ही होती है।

2. यह कहना भी गलत है कि सजा अपराधियों के लिए चुनौती का काम करती है। ऐसे एक-दो मानसिक रूप से अधिक बीमार अपराधी हो सकते हैं, लेकिन सामान्य अपराधी तो सजा से डरते हैं। दंड व्यवस्था जितनी कठोर होगी, समाज में अपराधों की संख्या उतनी ही कम होगी।

3. यह ठीक है कि अपराधी की मानसिकता रुग्ण होती है और उसका इलाज होना चाहिए। लेकिन यह इलाज क्षमा करना नहीं हो सकता। उसके बंदी बनाकर जेल में डालना भी एक प्रकार का इलाज ही है। यदि कोई अपराधी मानसिक रूप से अधिक बीमार है, तो उसके मानसिक चिकित्सालय में बन्द करके रखा जाता है और इलाज भी किया जाता है। किसी भी हालत में अपराधी को खुला छोड़ना उचित नहीं है।

4. यह कहना गलत है कि जेल से छोटे अपराधी बड़े अपराधी बनकर निकलते हैं। ऐसे मामले बहुत कम होते हैं। ज्यादातर तो भविष्य में अपराध करने से बचते हैं। जो बड़े अपराधी बनकर निकलते हैं, तो यह जेल व्यवस्था की कमी है, न्याय व्यवस्था की नहीं। जेल में सजा प्राप्त अपराधियों को सुधारने के लिए उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। उनको बड़े अपराधियों से दूर रखा जाना चाहिए। कैदियों के अच्छे चाल-चलन के आधार पर सजा को कम भी किया जाता है। उनको किसी व्यवसाय का प्रशिक्षण भी देना चाहिए, ताकि बाहर आकर वे सम्मानपूर्वक अपनी आजीविका कमा सकें।

5. यह कहना बिल्कुल गलत है कि सजा के रूप में समाज अपराधी से बदला लेता है। वास्तव में यह समाज का दायित्व है कि वह अपराधी को उचित दंड दे। यह दायित्व न्यायपालिका के माध्यम से निभाया जाता है। कोई भी व्यक्ति स्वयं किसी अपराधी को दंड नहीं देता। कानून हाथ में लेना भी अपराध है।

6. किसी अपराधी को क्षमा करने के पूर्व बहुत सी बातों का विचार किया जाता है। हर अपराधी क्षमा योग्य नहीं होता। जब तक यह विश्वास न हो कि वह आगे कोई अपराध नहीं करेगा, तब तक क्षमा नहीं देनी चाहिए। अगर अपराधियों को उदारता से क्षमा किया जाएगा, तो अपराधों की संख्या बहुत बढ़ जाएगी। दंडनीय अपराधी को दंड न देना या क्षमा कर देना भी अपराध है। जैन समाज में जो क्षमा पर्व होता है, वह अनजाने में की गई गलतियों के लिए होता है, जानबूझकर किये गये अपराधों के लिए नहीं।

7. न्यायपालिका, जेल आदि को समाप्त करके मनोचिकित्सालय बनाने का सुझाव स्पष्ट रूप से गलत है। सबकी अपनी-अपनी भूमिका होती है। समाज की व्यवस्था के लिए सभी आवश्यक हैं। यदि न्यायपालिका अपराधी को उचित दंड नहीं देती, तो वह अपने कर्तव्य से हट जाती है। तुलसीदास जी ने भी रामचरित मानस में लिखा है-
          जो नहिं दंड करौं खल तोरा।
          भ्रष्ट होइ श्रुति मारग मोरा।।

इसलिए भाई साहब वनवारी जी, न्याय व्यवस्था में अपना विश्वास बनाये रखिये। आपने जो लिखा है, उसका स्रोत क्या है? अगर ये आपके अपने विचार हैं, तो कहना पड़ेगा कि आप सत्य मार्ग से बहुत दूर चले गये हैं।

अन्यायमूर्ति


यह शब्द ‘अवकाशप्राप्त न्यायमूर्ति’ अथवा 'अभूतपूर्व न्यायमूर्ति' का संक्षेप नहीं है, बल्कि इसका तात्पर्य किसी न्यायमूर्ति का न्याय से विश्वास हट जाने से है। जी हाँ, मैं मार्कण्डेय काटजू की बात कर रहा हूँ। कई लोगों का यह अनुमान है कि इनको किसी पागल या सेकूलर जूं ने काट लिया था, इसलिए इनका नाम ‘काटजूं’ पड़ा था, जो बिगड़कर ‘काटजू’ रह गया है। काटने की यह घटना भले ही हुई हो, लेकिन उनके नामकरण का कारण यह नहीं है। वास्तव में उनके पूरखे कश्मीरी पंडित थे, जो मध्यप्रदेश में जावरा में आकर बस गये। उनके बाबा कैलाशनाथ काटजू प्रख्यात वकील थे, जिन्होंने लालकिले में आजाद हिन्द फौज के सेनानियों पर चले मुकदमे में सेनानियों का बचाव किया था। बाद में वे नेहरू मंत्रिमंडल में कानून मंत्री बने और आगे चलकर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री तथा उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल भी रहे। उनके सुपुत्र शिव नाथ काटजू इलाहाबाद हाईकोर्ट में न्यायाधीश रहे। उनके भी सुपुत्र ये मार्कंडेय काटजू भी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश पद को सुशोभित कर चुके हैं।

इतनी प्रबल कानूनी पारिवारिक परम्परा होने के बाद भी मैं इन काटजू को अन्यायमूर्ति कह रहा हूँ तो इसके पर्याप्त कारण हैं। पहली बात तो यह कि वे प्रेस परिषद के अध्यक्ष होते हैं। उनसे यह उम्मीद की जाती है कि वे प्रेस की स्वतंत्रता और नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करेंगे। पर लगता है कि वे केवल अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा कर रहे हैं। तभी तो आये दिन एक से एक विलक्षण बयान दागते रहते हैं। एक बार उन्होंने देश की 90 प्रतिशत जनता को मूर्ख बताया था। हालांकि उनके निष्कर्ष से किसी को असहमति नहीं है, लेकिन जो कारण वे समझ रहे हैं, वह सही नहीं है। लेकिन इस बयान का यह अर्थ तो निकलता ही है कि वे स्वयं को उन 90 प्रतिशत में शामिल नहीं मानते, बल्कि 10 प्रतिशत उस विशिष्ट वर्ग में शामिल मानते हैं, जो मूर्ख नहीं है।

फिलहाल इन अन्यायमूर्ति की चर्चा इसलिए की जा रही है कि उन्होंने मुम्बई के बम धमाकों में सह-अपराधी पाये गये अभिनेता संजय दत्त को माफ करने की अपील की है, जिनको सर्वोच्च न्यायालय ने मात्र 5 वर्ष की कड़ी कैद की सजा सुनायी है। अन्यायमूर्ति ने संजय को माफ करने के तीन कारण बताये हैं। आइये इन कारणों की जाँच पड़ताल करें-

1. अपराध के समय संजय दत्त ‘केवल’ 33 वर्ष का मासूम था। वाह, मासूमियत की क्या विलक्षण परिभाषा है! उस समय तक यह मासूम अभिनेता दो शादियां और एक तलाक कर चुका था, एक बच्चा भी पैदा कर चुका था और तमाम फिल्में भी कर चुका था। बम धमाकों के हथियार उसने मासूमियत में नहीं जानबूझकर अपने घर में छुपाये थे और पोल खुलने की संभावना नजर आते ही उनको नष्ट करने का आदेश अपने गुर्गों को दिया था। समझना कठिन है कि उसे किस आधार पर मासूम कहा जा सकता है? अभी कुछ दिन पहले तक ऐसे ही सज्जन 16 साल के बच्चों को शारीरिक सम्बंध बनाने लायक परिपक्व बता रहे थे। अब उससे दूने से भी अधिक आयु के व्यक्ति को मासूम बता रहे हैं।

2. संजय दत्त ने पिछले 20 वर्ष में बहुत भुगता है। क्या भुगता है? उसने कई फिल्में की हैं, तीसरी शादी की है और दो बच्चे भी पैदा किये हैं। इतने कष्ट भुगते हैं! वाह!! अगर यही भुगतना कहा जाता है, तो फिर मजा लेना किससे कहते हैं? उससे ज्यादा तो उन 300 लोगों के परिवारों ने भुगता होगा, जिनकी मौत उन धमाकों में हुई। इन अन्यायमूर्ति को उनकी चिन्ता बिल्कुल नहीं है।

3. संजय दत्त के परिवार ने देश की बहुत सेवा की है। क्या देश की तथाकथित सेवा करने वाले को अपराध करने का भी अधिकार मिल जाता है? इस हिसाब से तो सभी देशसेवकों के ऊपर से सभी मामले हटा लेने चाहिए और उनको खुलकर अपराध करने और देश को लूटने का अधिकार दे देना चाहिए।

स्पष्ट है कि इन अन्यायमूर्ति को न्याय से कुछ लेना-देना नहीं हे। वे केवल एक कांग्रेसी परिवार के चिराग को उसके अपराध की सजा से मुक्त कराना चाहते हैं। वैसे स्वयं संजय दत्त ने माफी की अपील करने से मना कर दिया है, फिर भी ये अन्यायमूर्ति राष्ट्रपति को इस हेतु पत्र लिख चुके हैं। ‘मुद्दई सुस्त गवाह चुस्त’ वाली कहावत यहाँ चरितार्थ हो रही है।