Pages

Wednesday 29 February 2012

1946 का नौसैनिक विद्रोह


जो घटना भारत की आजादी का तात्कालिक और प्रमुख कारण बनी, वह थी सन् 1946 में भारत के नौसैनिकों का विद्रोह। भारत की आजादी के ठीक पहले हुए इस विद्रोह को जलसेना विद्रोह अथवा बम्बई विद्रोह के नाम से जाना जाता है। इस विद्रोह का स्वतःस्फूर्त प्रारम्भ नौसेना के सिगनल्स प्रशिक्षण पोत ‘आई.एन.एस. तलवार’ से हुआ था। नाविकों द्वारा खराब खाने की शिकायत करने पर अंग्रेज कमान अफसरों ने नस्ली अपमान और प्रतिशोध का रवैया अपनाया। इस पर 18 फरवरी को नाविकों ने भूख हड़ताल कर दी। यह हड़ताल अगले दिन ही कैसल, फोर्ट बैरकों और बम्बई बंदरगाह के 22 जहाजों तक फैल गयी। 19 फरवरी को एक हड़ताल कमेटी का गठन किया गया। नाविकों की माँगों में बेहतर खाने और गोरे तथा भारतीय नौसैनिकों के लिए समान वेतन के साथ ही आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों और सभी राजनैतिक बंदियों की रिहाई तथा इंडोनेशिया से सैनिकों को वापस बुलाये जाने की माँग भी शामिल हो गयी। इससे पता चलता है कि यह विद्रोह वास्तव में स्वतंत्रता संग्राम का ही एक भाग था।
20 फरवरी को इस विद्रोह को कुचलने के लिए सैनिक टुकड़ियां बम्बई लायी गयीं। नौसैनिकों ने अपनी कार्रवाहियों के तालमेल के लिए पाँच सदस्यीय कार्यकारिणी को चुना, लेकिन शान्तिपूर्ण हड़ताल और पूर्ण विद्रोह के बीच चुनाव की दुविधा उनमें बनी हुई थी, जो काफी हानिकारक सिद्ध हुई। 20 फरवरी को उन्होंने अपने-अपने जहाजों पर लौटने के आदेश का पालन किया, जहाँ सेना के गार्डों ने उनको घेर लिया। अगले दिन कैसल बैरकों में नाविकों द्वारा घेरा तोड़ने की कोशिश करने पर लड़ाई शुरू हो गयी। इस लड़ाई में किसी पक्ष का पलड़ा भारी नहीं रहा और दोपहर बाद 4 बजे युद्ध-विराम घोषित कर दिया गया। एडमिरल गाडफ्रे अब बमबारी करके नौसेना को नष्ट करने की धमकी दे रहा था। इसी समय लोगों की भीड़ गेटवे आॅफ इंडिया पर नौसैनिकों के लिए खाना और अन्य सहायता सामग्री लेकर उमड़ पड़ी।
इस विद्रोह की खबर फैलते ही कराची, कोलकाता, मद्रास और विशाखापत्तनम के भारतीय नौसैनिक तथा दिल्ली, ठाणे और पुणे स्थित कोस्ट गार्ड भी इस हड़ताल में शामिल हो गये। 22 फरवरी को हड़ताल का चरम बिन्दु था, जब 78 जहाज, 20 तटीय प्रतिष्ठान और 20000 नौसैनिक इसमें शामिल हो चुके थे। इसी दिन कम्यूनिस्ट पार्टी के आह्वान पर बम्बई में आम हड़ताल हुई। नौसैनिकों के समर्थन में शान्तिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे मजदूर प्रदर्शनकारियों पर सेना और पुलिस की टुकड़ियों ने बर्बर हमला किया, जिसमें करीब 300 लोग मारे गये और 1700 घायल हुए। इसी दिन सुबह कराची में भारी लड़ाई के बाद ही ‘हिन्दुस्तान’ जहाज के नौसैनिकों से आत्मसमर्पण कराया जा सका। अंग्रेजों के लिए हालत बहुत नाजुक थी, क्योंकि ठीक इसी समय बम्बई के वायु सेना के पायलट और हवाई अड्डे के कर्मचारी भी नस्ली भेदभाव के विरुद्ध हड़ताल पर चले गये थे तथा कलकत्ता और अन्य कई हवाई अड्डों के पायलटों ने भी उनके समर्थन में हड़ताल कर दी थी। इससे भी बढ़कर छावनी क्षेत्रों में सेना के भीतर भी असन्तोष होने तथा विद्रोह की सम्भावना की गुप्त रिपोर्टों ने अंग्रेजों को भयाक्रान्त कर दिया था।
ऐसे कठिन समय में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेता अंग्रेजों के तारणहार की भूमिका में आये, क्योंकि सेना के सशस्त्र विद्रोह और मजदूरों द्वारा उनके समर्थन से भारतीय पूँजीपति वर्ग और राष्ट्रीय आन्दोलन का रूढ़िवादी नेतृत्व स्वयं आतंकित हो गया था। मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना की सहायता से कांग्रेस के नेता सरदार बल्लभ भाई पटेल ने काफी कोशिशों के बाद 23 फरवरी को नौसैनिकों को आत्मसमर्पण के लिए तैयार कर लिया। उनको यह आश्वासन दिया गया था कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग उन्हें अन्याय और प्रतिशोध का शिकार नहीं होने देंगे। बाद में सेना के अनुशासन की दुहाई देते हुए सरदार पटेल ने अपना वायदा तोड़ दिया और नौसैनिकों के साथ विश्वासघात किया। इसका कारण सरदार पटेल ने अपने एक पत्र में यह बताया था कि स्वतन्त्र भारत में हमें भी सेना की आवश्यकता होगी।
उल्लेखनीय है कि जवाहरलाल नेहरू ने नौसैनिकों के विद्रोह का यह कहकर विरोध किया था कि ‘हिंसा के उच्छृंखल उद्रेक को रोकने की आवश्यकता है।’ इतना ही नहीं तथाकथित ‘महात्मा’ गाँधी ने 22 फरवरी को कहा कि ‘हिंसात्मक कार्रवाई के लिए हिन्दुओं-मुसलमानों का एक साथ आना एक अपवित्र बात है।’ नौसैनिकों की निन्दा करते हुए उन्होंने कहा था कि यदि उन्हें कोई शिकायत है, तो वे चुपचाप अपनी नौकरी छोड़ दें। नौसैनिकों को यह नायाब सलाह देने वाले कांग्रेसी नेता यह भूल गये कि वे स्वयं विधायिकाओं में जाकर पूरी निर्लज्जता से सभी सुविधायें भोग रहे थे। नौसैनिक विद्रोह ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के वर्ग चरित्र को एकदम बेनकाब कर दिया था। इस विद्रोह और उनके समर्थन में उठ खड़ी हुई जनता की निन्दा में इनके नेता बढ़-चढ़कर भाग ले रहे थे, लेकिन ब्रिटिश सत्ता की बर्बर दमनात्मक कार्रवाइयों के खिलाफ उन्होंने चूँ तक नहीं की।
भले ही यह नौसैनिक विद्रोह तात्कालिक दृष्टि से असफल रहा, लेकिन इसने अंग्रेजों के मन में यह बात बैठा दी थी कि जिन भारतीय सेनाओं के बल पर उनका साम्राज्य टिका हुआ था, वे सेनाएँ कभी भी उनका साथ छोड़ सकती हैं और फिर उनको अपना अस्तित्व तक बचाना कठिन हो जाएगा। 1857 के ‘सिपाही विद्रोह’ का कटु अनुभव वे भूले नहीं थे। इसी लिए वे शीघ्र से शीघ्र भारत छोड़कर जाना चाहते थे। इस कार्य में सौदेबाजी के लिए उन्हें कांग्रेस-मुस्लिम लीग जैसी पार्टियाँ तथा उनके सत्तालोलुप नेता भी मिल गये और वे देश के टुकड़े करके भाग खड़े हुए। यह इतिहास की बिडम्बना ही कही जायेगी कि जिस विद्रोह ने अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाने के लिए सबसे अधिक मजबूर किया, उसे भारत के स्वतंत्रता इतिहास में आज भी उचित स्थान नहीं मिल पाया है। इसके बजाय सारा श्रेय सुविधायें भोगने वाले और सौदेबाजी करने वाले सत्तालोलुप नेताओं ने लूट लिया।

Friday 17 February 2012

आजादी कैसे आई?


स्वतंत्रता दिवस की प्रत्येक वर्षगाँठ पर और अन्य सभी मौकों पर हमें जोर-शोर से यह सुनाया जाता है कि देश को आजादी गाँधी की अहिंसा और कांग्रेस के आन्दोलनों के कारण मिली। लेकिन जिन्हें स्वतंत्रता संग्राम का साधारण सा ज्ञान भी है वे यह जानते हैं कि स्वतंत्रता के कारण कुछ दूसरे ही थे और कम से कम ऐसा तो कतई नहीं कहा जा सकता कि मूर्खात्मा गाँधी और कांग्रेस के आन्दोलनों के कारण देश स्वतंत्र हुआ। कांग्रेस ने अपना अन्तिम आन्दोलन ”भारत छोड़ो“ के नाम से 1942 में चलाया था, जो अक्षम नेतृत्व और दिशाहीनता के कारण बुरी तरह असफल रहा था। इस आन्दोलन के बाद कांग्रेस बहुत हताश और उदासीन अवस्था में आ गयी थी। 1942 जैसे आन्दोलन चलाकर तो कांग्रेस अगले सौ वर्षों में भी देश को आजाद नहीं करा सकती थी। आश्चर्य यह है कि यह सफेद झूठ उन गाँधी के नाम पर बोला जाता है जो सत्य को ही ईश्वर मानते थे।
भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के आस-पास कई अन्य एशियाई देश भी स्वतंत्र हुए थे, जैसे वर्मा, श्रीलंका, इजरायल, अफगानिस्तान आदि, जहाँ न कोई गाँधी था और न कोई कांग्रेस। वास्तव में द्वितीय विश्व युद्ध के कारण इंग्लैंड की आर्थिक और सामरिक स्थिति बुरी तरह चरमरा गयी थी और अंग्रेजों ने तत्कालीन विपरीत परिस्थितियों से बाध्य होकर संसार के सभी देशों से अपने हाथ खींच लिये थे। दूसरा कारण यह भी था कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुए ब्रिटेन के आम चुनावों में चर्चिल की कट्टरवादी कंजरवेटिव पार्टी हार गयी थी और उदारवादी लेबर पार्टी सत्ता में आयी थी, जिसके प्रधानमंत्री जार्ज एटली ने ब्रिटेन के सभी उपनिवेशों को स्वतंत्र करने का सैद्धांतिक फैसला कर लिया था। इसलिए वे शीघ्र से शीघ्र भारत छोड़कर जाने का निश्चय कर चुके थे।
लेकिन यह कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि भारत का समस्त स्वतंत्रता संग्राम निरर्थक था और इनका कोई असर नहीं हुआ था। निश्चय ही कांग्रेस के आन्दोलनों के कारण देश में जागरूकता का वातावरण बना था और इसी कारण उन परिस्थितियों का निर्माण हुआ था जिनसे बाध्य होकर अंग्रेजों को चले जाना पड़ा। लेकिन जो तात्कालिक घटना इसका प्रमुख कारण बनी, वह थी सन् 1946 में भारत के नौसैनिकों का विद्रोह। यह एक बिडम्बना ही है कि स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को पढ़ाते समय इस प्रमुख घटना को पूरी तरह उपेक्षित कर दिया जाता है और आजादी दिलवाने का सारा श्रेय एक विशेष पार्टी और उसमें भी एक विशेष परिवार को दे दिया जाता है। भले ही यह नौसैनिक विद्रोह तात्कालिक दृष्टि से असफल रहा, लेकिन इसने अंग्रेजों के मन में यह बात बैठा दी कि जिन भारतीय सेनाओं के बल पर उनका साम्राज्य टिका हुआ है, वे सेनाएँ कभी भी उनका साथ छोड़ सकती हैं और फिर उनको अपना अस्तित्व तक बचाना कठिन हो जाएगा। 1857 के ”सिपाही विद्रोह“ का कटु अनुभव वे भूले नहीं थे। इसी कारण वे शीघ्र से शीघ्र भारत छोड़कर जाना चाहते थे। इस कार्य में सौदेबाजी के लिए उन्हें कांग्रेस-मुस्लिम लीग जैसी पार्टियाँ तथा उनके सत्तालोलुप नेता भी मिल गये और वे देश के टुकड़े करके भाग खड़े हुए।
यह इतिहास की बिडम्बना ही कही जायेगी कि जिस नौसैनिक विद्रोह ने अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाने के लिए सबसे अधिक मजबूर किया, उसे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में आज भी उचित स्थान नहीं मिल पाया है। इसके बजाय सारा श्रेय सुविधायें भोगने वाले और सौदेबाजी करने वाले नेताओं ने लूट लिया।

Wednesday 8 February 2012

अहिंसा का अतिरेक अर्थात् मूर्खता

अहिंसा एक अच्छा गुण है और धर्म का एक अंग है- ‘परम धरम श्रुति विदित अहिंसा’, ‘अहिंसा परमो धर्मः’ आदि। लेकिन यह बात व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर तक ही सत्य है। यह किसी शासन का मूल सिद्धांत नहीं बन सकता। उदाहरण के लिए, सरकार को अपराधियों को दंड देना ही पड़ता है और कई बार मृत्यु दंड भी दिया जाता है। प्रत्येक देश को अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए सेना बनानी पड़ती है और दुश्मन देशों से युद्ध भी करना पड़ता है, जिसमें भारी हिंसा होती है। गाँधी ने अहिंसा पर जोर दिया, यह तो ठीक था, लेकिन उसी को अपना और पूरे देश का मूल सिद्धान्त बना लेना गलत था। गाँधी का विचार था कि अहिंसा से विदेशी शक्ति देश को छोड़कर चली जाएगी। स्पष्ट रूप से यह सोच गलत ही नहीं मूर्खतापूर्ण है।
गाँधी से पहले महात्मा बुद्ध ने अहिंसा पर जोर दिया था। वह एक ऐतिहासिक आवश्यकता थी, क्योंकि उस समय वैदिक धर्म का पालन करने वालों में बहुत विकृतियाँ आ गयी थीं। वे पशुबलि और मानवबलि तक देने लगे थे। बुद्ध ने इसका विरोध किया और अहिंसा पर जोर दिया। इससे ये बुराइयाँ समाप्त हो गयीं। यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन आगे चलकर बुद्ध ने हर प्रकार की हिंसा का विरोध करना शुरू कर दिया। किसी सद्गुण का अतिरेक भी अवगुण बन जाता है। ऐसा ही यहाँ हुआ। बुद्ध से प्रभावित होकर सम्राट अशोक ने अपनी सेनाओं को कम कर दिया और बौद्ध धर्म अपना लिया। इसका परिणाम यह हुआ कि हमारा देश जो हमेशा शक्तिशाली रहा था, धीरे-धीरे कमजोर हो गया। आगे चलकर विदेशी आतताइयों ने हमारे देश पर एक के बाद एक कई आक्रमण किये और अन्ततः देश गुलाम हो गया। मेरे विचार से यह बुद्ध की अहिंसा के कारण ही हुआ।
इसका प्रत्यक्ष प्रभाव हम आज तिब्बत में देख सकते हैं। अहिंसा की अपनी मूर्खतापूर्ण नीति के कारण तिब्बत ने कोई सेना नहीं बनायी। इससे चीनी भेड़िये ने उसे सरलता से निगल लिया और हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री पोंगा पंडित नेहरू पंचशील का जाप करते रह गये। आगे चलकर इसका कुपरिणाम भारत को भी भुगतना पड़ा और 1962 में चीन के हाथों अपमानित होना पड़ा।
गाँधी की  अहिंसा न केवल मूर्खतापूर्ण थी बल्कि एक तरफा भी थी। वे यह तो चाहते थे कि सभी आन्दोलनकारी और हिन्दू समाज अहिंसक बना रहे, लेकिन सरकारों तथा दूसरे समुदायों से ऐसा कभी नहीं कहते थे कि आप भी अहिंसा अपनाइए। इसके विपरीत उन्होंने मुस्लिमों की हिंसा को एक बार यह कहकर उचित ठहराया था कि वे तो अपने धर्म का पालन कर रहे थे। क्या यह बात हास्यास्पद नहीं है? एक अन्य अवसर पर उन्होंने स्पष्ट कहा था कि आम हिन्दू कायर और आम मुसलमान गुंडा होता है। इसका मतलब यह है कि गाँधी को दोनों समाजों का अन्तर मालूम था, परन्तु अपने को ‘महात्मा’ कहलाने के मोह के कारण वे कभी दूसरों की हिंसा की निन्दा नहीं कर सके। वे केवल हिन्दुओं से यह चाहते थे कि वे हिंसा को सहन करें और अहिंसक बने रहें।
जब भी देश में साम्प्रदायिक दंगे होते थे, गाँधी हमेशा हिन्दू-बहुल स्थानों में जाकर हिन्दुओं को हिंसा करने से रोकते थे। वे कभी मुस्लिम-बहुल स्थानों में नहीं गये। अगर वे वहाँ जाते, तो उन्हें अपनी अहिंसा की शक्ति का पता तुरन्त चल जाता। वहाँ तो वे दूसरे लोगों को भेजते थे। उदाहरण के लिए, कानपुर के दंगों में मुसलमानों को समझाने के लिए उन्होंने गणेश शंकर विद्यार्थी को भेज दिया। वे दो दिन के अन्दर ही मुसलमान गुंडों के हाथों मारे गये। गलियों में खींचकर उनकी हत्या कर दी गयी। इस पर गाँधी की मूर्खतापूर्ण टिप्पणी देखिये- ‘विद्यार्थी जी बहुत भाग्यशाली रहे, जो दंगे रोकने में शहीद हो गये।’ यह देश का दुर्भाग्य है कि ऐसे अनेक उदाहरणों के बावजूद गाँधी के प्रति देशवासियों का मोह कम नहीं हुआ और इसकी भारी कीमत देश को चुकानी पड़ी। गाँधी की मूर्खतापूर्ण अहिंसा के कारण देश में कितनी हिंसा हुई, इसे सब जानते हैं। इसके बारे में हम आगे बात करेंगे।

Monday 6 February 2012

‘वैलेंटाइन डे’ अर्थात् शूपर्णखाँ संस्कृति

शूपर्णखाँ रामायण का एक विलक्षण नारी पात्र है। वह लंका के राजा रावण की लाड़ली बहिन थी। रावण ने क्षणिक क्रोध के वशीभूत होकर उसके पति विद्युत्जिह्व की हत्या कर दी थी। इस कारण रावण उससे डरता था और उसकी मनमानियों को सहन करता था। इसलिए अपने भाई की तरह ही वह भी निरंकुश हो गयी थी और समाज में आतंक फैला रखा था। कोई भी वस्तु या व्यक्ति उसे पसन्द आने पर उसको हस्तगत करके ही वह संतुष्ट होती थी।
इसी क्रम में एक दिन जंगल में विचरण करते समय उसने भगवान श्रीराम को देखा। देखते ही उन पर मोहित हो गयी और सोचने लगी कि यह पुरुष तो मुझे मिलना ही चाहिए। बिना आगा-पीछा सोचे ही वह सीधे श्रीराम के पास पहुँच गयी और अपना मंतव्य इन शब्दों में प्रकट किया-
 तुम सम पुरुष न मो सम नारी।
 यह संयोग विधि रचा बिचारी।।

उसने यह भी नहीं सोचा कि श्रीराम के साथ उनकी धर्मपत्नी सीताजी हैं और किसी अन्य महिला की ओर आकर्षित होना मर्यादाओं के विपरीत होगा। श्रीराम के समझाने-बुझाने का भी उस पर कोई असर नहीं हुआ। शूपर्णखाँ की अपनी हर इच्छा पूरी करने की जिद के कारण ही उसका अपमान हुआ और आगे खर-दूषण का वध हुआ, सीताजी का हरण हुआ, राम-रावण युद्ध हुआ और सम्पूर्ण राक्षस संस्कृति का विनाश हुआ।
आज वही शूपर्णखाँ संस्कृति ‘वैलेंटाइन डे’ के रूप में हमारे सामने है। इस संस्कृति का मूल मंत्र है- ‘तुम सम पुरुष न मो सम नारी।’ या इसका उल्टा भी हो सकता है- ‘मो सम पुरुष न तुम सम नारी।’ कहने का तात्पर्य है कि किसी भी महिला या पुरुष की ओर आकर्षित हो जाना और उसे किसी भी कीमत पर प्राप्त करने की इच्छा होना ही शूपर्णखाँ संस्कृति है। इस इच्छा को पूरा करने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं, समाज की मर्यादाओं को तार-तार कर सकते हैं और समाज को कितनी भी हानि पहुँचा सकते हैं। इसलिए इस संस्कृति को वास्तव में विकृति ही कहना चाहिए।
इस विकृति के अनेक रूप हमें दिखायी पड़ते हैं। अपने मन पसन्द व्यक्ति (महिला या पुरुष) के पीछे हाथ धोकर पड़ जाना, उसे तरह-तरह से प्रभावित करने की उचित-अनुचित हरकतें करना, समाज में अश्लीलता फैलाना और प्रभावित करने में असफल रह जाने पर अपराध तक कर डालना इस विकृति के कुछ रूप हैं।
अत्यन्त खेद जनक है कि हमारी किशोर और युवा पीढ़ी शूपर्णखाँ संस्कृति के जाल में बुरी तरह फँसी हुई है। अपने जीवन का जो बहुमूल्य समय उन्हें ज्ञान प्राप्त करने, अपना स्वास्थ्य बनाने तथा देश की सेवा हेतु स्वयं को तैयार करने में लगाना चाहिए, उस समय को वे इस निरर्थक संस्कृति की भेंट चढ़ा देते हैं। हर साल 14 फरवरी के आसपास इस संस्कृति का ज्वार आता है। यह समय परीक्षाओं की तैयारी करने और पढ़ाई में कठिन परिश्रम करने के लिए आदर्श होता है, परन्तु ऐसा करने के बजाय आज की नई पीढ़ी इसको इस निरर्थक परम्परा के पालन में नष्ट कर देती है।
यदि इतना ही होता, तो गनीमत थी। खेद तो यह है कि अपनी इच्छा पूर्ति में असफल रह जाने वाले व्यक्ति हताशा में गलत से गलत कार्य और अपराध तक कर डालते हैं। अन्य व्यक्ति द्वारा प्रणय निवेदन ठुकराने पर हमला करना, तेजाब फेंकना, हत्या करना और उससे भी बढ़कर आत्महत्या तक कर डालना ऐसी प्रतिक्रियाओं के कुछ रूप हैं। प्रणय निवेदन स्वीकार होने पर अनुचित और समय-पूर्व शारीरिक सम्बंध बना लेना भी एक अपराध ही है, क्योंकि इसका कुपरिणाम उन्हें और सम्पूर्ण समाज को आगे चलकर भुगतना पड़ता है।
केवल अपनी प्रसार या दर्शक संख्या और विज्ञापनों के रूप में धन कमाने पर ध्यान रखने वाले समाचार पत्र और समाचार चैनल इस विकृति को बढ़ावा देने के सबसे बड़े अपराधी हैं। वे यह नहीं सोचते कि इस बेकार की परम्परा से समाज की जड़ें खोखली हो रही हैं, समाज में अमर्यादित आचरण फैल रहा है, जिसके कारण अपराधों की बाढ़ आ गयी है। आये दिन यौन-अपराधों के जो समाचार आते रहते हैं उनकी जड़ में कहीं न कहीं समाचार पत्रों और चैनलों द्वारा फैलायी गयी अपसंस्कृति ही मूल कारण होती है।
किशोरों-किशोरियों के माता-पिता इस मामले में पूरी तरह असहाय होते हैं। किसी भी व्यक्ति के लिए अपनी संतानों पर दिन-रात नजर रखना न तो सम्भव है और न व्यावहारिक ही। यह तो नई पीढ़ी को स्वयं सोचना चाहिए कि इस अप-संस्कृति में फँसने के कारण उनके स्वास्थ्य, कैरियर और पारिवारिक जीवन को कितनी हानि पहुँच रही है। यह विकृति हमारी नई पीढ़ी को खोखला कर रही है। आज का युवा वर्ग अपनी महान् भारतीय संस्कृति की मर्यादाओं को तोड़ रहा है और इतना असहनशील हो गया है कि थोड़ी सी निराशा में बुरी से बुरी प्रतिक्रिया कर डालता है।
भारतीय सेना में योग्य अफसरों की कमी अकारण ही नहीं है। इसका मूल कारण यही है कि आज का युवा वर्ग शारीरिक और मानसिक बल बढ़ाने के बजाय नारी वर्ग की तरह बाहरी सौंदर्य और ग्लैमर के पीछे दीवाना हो गया है। एक बार जब इंग्लैंड की सेनाओं ने फ्रांस को युद्ध में बुरी तरह हराया था, तो कई विद्वानों ने टिप्पणी की थी कि फ्रांस की पराजय युद्ध भूमि में नहीं बल्कि पेरिस ने नृत्यगृहों में हुई है, क्योंकि उस समय फ्रांस का युवा वर्ग नाचघरों के जाल में फँसा हुआ था और अपने राष्ट्रीय दायित्वों के प्रति लापरवाह था। वह दिन हमारे देश के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा यदि कभी हमें भी इससे मिलती-जुलती टिप्पणी करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
अब समय आ गया है कि देश के कर्णधार, राजनेता, विचारक, साहित्यकार, समाचार पत्र, समाचार चैनल और शिक्षक वर्ग इस अप-संस्कृति के विनाशकारी परिणामों को पहचाने और इस पर रोक लगाये। यह कार्य कानून बनाने से नहीं होगा, बल्कि नई पीढ़ी को उचित शिक्षा देने और उनका सही मार्गदर्शन करने से ही होगा। इस विकृति की रोकथाम किये बिना युवा पीढ़ी को और उसके परिणाम-स्वरूप देश को विनाश की ओर जाने से बचाने का और कोई उपाय नहीं है। इसमें जितनी देर की जायेगी, परिणाम उतना ही भयावह होगा।

Friday 3 February 2012

मूर्खता का दस्तावेज - ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’

1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन कांग्रेस द्वारा छेड़ा गया सबसे बड़ा आन्दोलन था। उस समय द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था और अंग्रेजों की सारी ताकत जर्मनी के नेतृत्व में लड़ रहे धुरी राष्ट्रों के विरुद्ध लगी हुई थी। ऐसे समय में कांग्रेसी नेताओं का यह सोचना उचित ही था कि एक बड़ा आन्दोलन खड़ा करके अंग्रेजों को भारत से जाने के लिए बाध्य किया जा सकता है। वास्तव में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस भी यही सोच रहे थे, परन्तु कांग्रेस द्वारा अपेक्षित सहयोग न मिलने के कारण वे चोरी-छिपे भारत से बाहर निकल गये और जर्मनी तथा जापान की सहायता से देश को अंग्रेजी शासन से मुक्त कराने में लग गये।
नेताजी की अनुपस्थिति में कांग्रेसी नेताओं ने यह अत्यन्त महत्वपूर्ण आन्दोलन बहुत ही मूर्खतापूर्ण ढंग से चलाया। उन्होंने अंग्रेजों के लिए तो कहा- ‘भारत छोड़ो’ और देशवासियों से कहा- ‘करो या मरो’। लेकिन यह किसी ने नहीं बताया कि करना क्या है? दूसरे शब्दों में, गाँधी-नेहरू आदि कांग्रेसी नेताओं ने इस आन्दोलन को चलाने के लिए कोई कार्यक्रम नहीं बनाया और न किसी का मार्गदर्शन किया। यह आश्चर्य की बात है कि पहले कई आन्दोलन चला चुकी कांग्रेस के नेताओं ने इस बारे में बिल्कुल नहीं सोचा। इसका परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक आन्दोलनकारी ने अपनी मर्जी से कार्यवाही की। सबने ‘करो या मरो’ नारे का अर्थ यह निकाला कि ‘हिंसा करो और मरो।’ अहिंसा का दम्भ भरने वाले गाँधी और कांग्रेस के अन्य नेताओं ने हिंसा के लिए यह पृष्ठभूमि क्यों तैयार की, क्या इसका उत्तर कोई दे सकता है? इस आन्दोलन में जमकर हिंसा हुई और इसके कारण अंग्रेजों ने बड़ी सरलता से इस आन्दोलन को कुचल दिया।
मूर्खात्मा गाँधी और कांग्रेस ने इस आन्दोलन का कोई कार्यक्रम तो बनाया ही नहीं, यह भी नहीं सोचा कि यदि नेता गिरफ्तार हो गये, तो आन्दोलन कैसे चलेगा। अंग्रेजों ने चतुराई दिखाते हुए सभी प्रमुख नेताओं को आन्दोलन प्रारम्भ होने से एक दिन पहले ही गिरफ्तार कर लिया। इस कारण आन्दोलनकारी नेतृत्व विहीन हो गये और उनका मार्गदर्शन करने वाला कोई नहीं रहा। बिना कप्तान के जहाज का जो हाल होता है, वही हाल इस आन्दोलन का हुआ और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का यह सबसे महत्वपूर्ण आन्दोलन अपने चरम पर पहुँचने से पहले ही काल-कवलित हो गया। लेकिन यह मूर्खात्मा गाँधी और अन्य कांग्रेसी नेताओं की मूर्खता का जीता-जागता दस्तावेज अवश्य बन गया।
इस आन्दोलन के बाद कांग्रेस कभी कोई आन्दोलन नहीं चला सकी। 1947 में आजादी भी कांग्रेस के किसी पराक्रम के कारण नहीं मिली, बल्कि विश्व युद्ध के कारण कमजोर हो गये अंग्रेजों ने अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों से बाध्य होकर भारत छोड़ा था, जैसा कि हम आगे देखेंगे।