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Wednesday 22 May 2013

मध्यकालीन इतिहास की धुँधली तस्वीर


किसी गौरवशाली देश का इतिहास भी गौरवशाली होता है। यदि उस देश की नयी पीढ़ी को उस गौरव का बोध कराने की आवश्यकता है, तो उसे उसके इतिहास का ज्ञान कराना चाहिए। प्राचीन काल में इतिहास का ज्ञान प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति को कराया जाता था। आज भी इतिहास एक प्रमुख विषय के रूप में स्कूली विद्यार्थियों को पढ़ाया जाता है। लेकिन खेद इस बात का है कि हमने अपने गौरवशाली इतिहास को इस प्रकार विकृत कर दिया है कि उसकी असली तस्वीर धुँधली हो गयी है और नकली तस्वीर चमक रही है।

भारतीय इतिहास के साथ इस खिलवाड़ के मुख्य दोषी वे वामपंथी इतिहासकार हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता के बाद नेहरू की सहमति से प्राचीन हिन्दू गौरव को उजागिर करने वाले इतिहास को या तो काला कर दिया या धुँधला कर दिया और इस गौरव को कम करने वाले इतिहास-खंडों को प्रमुखता से प्रचारित किया, जो उनकी तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के खाँचे में फिट बैठते थे। ये तथाकथित इतिहासकार अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की उपज थे, जिन्होंने नूरुल हसन और इरफान हबीब की अगुआई में इस प्रकार इतिहास को विकृत किया।

इनकी एकांगी इतिहास दृष्टि इतनी अधिक मूर्खतापूर्ण थी कि वे आज तक महावीर, बुद्ध, अशोक, चन्द्रगुप्त, चाणक्य आदि के काल का सही-सही निर्धारण नहीं कर सके हैं। इसीकारण लगभग 1500 वर्षों का लम्बा कालखंड अंधकारपूर्ण काल कहा जाता है, क्योंकि इस अवधि में वास्तव में क्या हुआ और देश का इतिहास क्या था, उसका कोई पुष्ट प्रमाण कम से कम सरकारी इतिहासकारों के पास उपलब्ध नहीं है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि अलाउद्दीन खिलजी और बख्तियार खिलजी ने अपनी धर्मांधता के कारण दोनों प्रमुख पुस्तकालय जला डाले थे। लेकिन बिडम्बना तो यह है कि भारत के इतिहास के बारे में जो अन्य देशीय संदर्भ एकत्र हो सकते थे, उनको भी एकत्र करने का ईमानदार प्रयास नहीं किया गया। इसकारण मध्यकालीन भारत का पूरा इतिहास अभी भी उपलब्ध नहीं है।

भारतीय इतिहास कांग्रेस पर लम्बे समय तक इनका कब्जा रहा, जिसके कारण इनके द्वारा लिखा या गढ़ा गया अधूरा और भ्रामक इतिहास ही आधिकारिक तौर पर भारत की नयी पीढ़ी को पढ़ाया जाता रहा। वे देश के नौनिहालों को यह झूठा ज्ञान दिलाने में सफल रहे कि भारत का सारा इतिहास केवल पराजयों और गुलामी का इतिहास है और यह कि भारत का सबसे अच्छा समय केवल तब था जब देश पर मुगल बादशाहों का शासन था। तथ्यों को तोड़-मरोड़कर ही नहीं नये ‘तथ्यों’ को गढ़कर भी वे यह सिद्ध करना चाहते थे कि भारत में जो भी गौरवशाली है वह मुगल बादशाहों द्वारा दिया गया है और उनके विरुद्ध संघर्ष करने वाले महाराणा प्रताप, शिवाजी आदि पथभ्रष्ट थे।

अब जबकि भारतीय इतिहास कांग्रेस से इनका एकाधिकार समाप्त हो गया है और छिपाये हुए ऐतिहासिक तथ्य सामने आ रहे हैं, यह स्पष्ट होता जा रहा है कि भारत का मध्यकालीन इतिहास कुछ अपवादों को छोड़कर प्राचीन इतिहास की तरह ही गौरवशाली था और जिसे तथाकथित गुलामी का काल कहा जाता है, वह स्वतंत्रता के लिए निरन्तर संघर्ष का काल था।

मैं भारतीय इतिहास के साथ किये गये इस खिलवाड़ को सामने लाने के लिए कुछ विशेष घटनाक्रमों का विवेचन क्रमशः करूँगा, ताकि इतिहास पर पड़ी हुई धूल की पर्तें कुछ साफ हों।

‘एक’ का महत्व


भारतीय संस्कृति में ऐसी हजारों पुरानी परम्परायें हैं, जो ऊपर से देखने में व्यर्थ और मामूली लगती हैं, लेकिन गहराई से विचार करने पर हमें उनका मर्म और उनकी वैज्ञानिकता समझ में आती है। यह सम्भव है कि हमारे अज्ञान के कारण और काल के प्रभाव से उन परम्पराओं में कुछ विकृतियाँ आ गयी हों, फिर भी हमें उन विकृतियों से दूर रहकर उनका पालन करना चाहिए और उन परम्पराओं की वैज्ञानिकता का लाभ उठाना चाहिए।      

ऐसी ही एक परम्परा है- दान की राशि में एक रुपया जोड़कर देने की। जब कोई व्यक्ति किसी धार्मिक या सामाजिक कार्य में कोई धनराशि दान करता है या किसी मांगलिक अवसर पर कुछ भेंट करता है, तो परम्परा के रूप में यह राशि 21 रु, 51 रु, 101 रु, 501 रु, 1001 रु. के रूप में होती है। अर्थात् एक निश्चित बड़ी राशि में ‘एक’ जुड़ा होता है। कई लोग इस ‘एक’ को जोड़ना व्यर्थ मानते हैं और सीधे 20 रु., 50 रु., 100 रु., 500 रु, 1000 रु या इससे भी अधिक की राशि दे देते हैं। लेकिन सूक्ष्मता से विचार करने पर हम पाते हैं कि दान की बड़ी राशि में ‘एक’ अलग से जोड़ना तो हमारी बहुत ही श्रेष्ठ परम्परा है।

इस परम्परा के दो अर्थ हैं। पहला अर्थ यह है कि किसी राशि में ‘एक रुपया’ जोड़कर देने वाला व्यक्ति इस प्रकार से यह घोषणा करता है कि उसके लिए एक रुपया भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितनी कि शेष राशि। इसलिए इस राशि के प्रत्येक अंश का सदुपयोग ही किया जाना चाहिए।

इस परम्परा का दूसरा अर्थ यह है कि इसमें एक रुपया भेंटकर्ता की श्रद्धा का प्रतीक है और शेष राशि उसकी सामथ्र्य का द्योतक है। विभिन्न व्यक्तियों की सामथ्र्य उनकी आर्थिक स्थिति के अनुसार अलग-अलग हो सकती है, परन्तु सबकी श्रद्धा बराबर होती है। इसी समानता की घोषणा के लिए प्रत्येक राशि के साथ ‘एक रुपया’ अलग से जोड़ा जाता है। इसलिए दान या भेंट की राशि में श्रद्धा का प्रतीक ‘एक’ जुड़ा होना आवश्यक है। यदि कोई व्यक्ति ऐसा नहीं करता, तो उसका अर्थ यह निकलता है कि उसके द्वारा दिया जाने वाला दान या भेंट की जाने वाली राशि श्रद्धा से रहित है और उसकी आर्थिक सामथ्र्य का प्रदर्शन मात्र है, जो अहंकार को बढ़ाने वाला है।

इन दोनों अर्थों को ध्यान में रखते हुए हमें दान या भेंट की राशि में ‘एक’ जोड़ने की परम्परा का पालन अवश्य करना चाहिए। वैसे यह परम्परा घाते की प्रथा से आयी है। जैसे दूध नापने वाला अन्त में थोड़ा सा दूध और डाल देता है या अनाज तौलने वाला थोड़ा सा अनाज और डाल देता है, इसी तरह दान या भेंट देने वाला सभी कमी-वेशी को पूरा करने के लिए राशि में ‘एक’ जोड़ देता है। यह भारतीय संस्कृति की महानता है कि इस मामूली बात के द्वारा इतना बड़ा सन्देश दिया गया है।

पैगम्बर और भगवान्


एक बार अकबर ने बीरबल से पूछाः "तुम्हारे भगवान और हमारे खुदा में बहुत फर्क है। हमारा खुदा तो अपना पैगम्बर भेजता है जबकि तुम्हारा भगवान बार-बार आता है। यह क्या बात है ?"

बीरबलः "जहाँपनाह ! इस बात का कभी व्यवहारिक तौर पर अनुभव करवा दूँगा। आप जरा थोड़े दिनों की मोहलत दीजिए।"

चार-पाँच दिन बीत गये। बीरबल ने एक आयोजन किया। अकबर को यमुनाजी में नौका-विहार कराने ले गये। कुछ नावों की व्यवस्था पहले से ही करवा दी थी। उस समय यमुनाजी छिछली न थीं। उनमें अथाह जल था। बीरबल ने एक युक्ति की कि जिस नाव में अकबर बैठा था, उसी नाव में एक दासी को अकबर के नवजात शिशु के साथ बैठा दिया गया। सचमुच में वह नवजात शिशु नहीं था। मोम का बालक पुतला बनाकर उसे राजसी वस्त्र पहनाये गये थे ताकि वह अकबर का बेटा लगे। दासी को सब कुछ सिखा दिया गया था।

नाव जब बीच मझधार में पहुँची और हिलने लगी तब 'अरे.... रे... रे.... ओ.... ओ.....' कहकर दासी ने स्त्री चरित्र करके बच्चे को पानी में गिरा दिया और रोने बिलखने लगी। अपने बालक को बचाने-खोजने के लिए अकबर धड़ाम से यमुना में कूद पड़ा। खूब इधर-उधर गोते मारकर, बड़ी मुश्किल से उसने बच्चे को पानी में से निकाला। वह बच्चा तो क्या था मोम का पुतला था।

अकबर कहने लगाः "बीरबल ! यह सारी शरारत तुम्हारी है। तुमने मेरी बेइज्जती करवाने के लिए ही ऐसा किया।"

बीरबलः "जहाँपनाह ! आपकी बेइज्जती के लिए नहीं, बल्कि आपके प्रश्न का उत्तर देने के लिए ऐसा ही किया गया था। आप इसे अपना शिशु समझकर नदी में कूद पड़े। उस समय आपको पता तो था ही इन सब नावों में कई तैराक बैठे थे, नाविक भी बैठे थे और हम भी तो थे ! आपने हमको आदेश क्यों नहीं दिया ? हम कूदकर आपके बेटे की रक्षा करते !"

अकबरः "बीरबल ! यदि अपना बेटा डूबता हो तो अपने मंत्रियों को या तैराकों को कहने की फुरसत कहाँ रहती है? खुद ही कूदा जाता है।"

बीरबलः "जैसे अपने बेटे की रक्षा के लिए आप खुद कूद पड़े, ऐसे ही हमारे भगवान जब अपने बालकों को संसार एवं संसार की मुसीबतों में डूबता हुआ देखते हैं तो वे पैगम्बर-वैगम्बर को नहीं भेजते, वरन् खुद ही प्रगट होते हैं। वे अपने बेटों की रक्षा के लिए आप ही अवतार ग्रहण करते है और संसार को आनंद तथा प्रेम के प्रसाद से धन्य करते हैं। आपके उस दिन के सवाल का यही जवाब है.

Sunday 19 May 2013

अंधविश्वास, विज्ञान व हिंदु धर्म


(यह लेख मेरे एक मित्र श्री बाल कृष्ण करनाणी जी का लिखा हुआ है. वे भी एक ब्लॉगर हैं. श्री करनाणी जी के अनुरोध पर मैं इस लेख को अपने ब्लॉग पर डाल रहा हूँ, हालाँकि इसकी हर बात से मेरा सहमत होना आवश्यक नहीं है.)


आजकल विज्ञान की हर बात पर आंख बंद कर विश्वास किया जाता है, हालांकि इसने हमें कुछ भौतिक सुविधाओं के अलावा केवल बीमारी व प्रदूषण ही दिया है। इसी प्रकार हमारे प्राचीन वैज्ञानिक (ऋषि-मुनि) कुछ कहते हैं, कम्पनियां (ब्राह्मण व ढोंगी साधु-संत) उसका अलग अर्थ निकाल कर लूट रहे हैं। विज्ञान की परमाणु शक्ति का दुरुपयोग बम आदि में किया जाता है। इस प्रकार विज्ञान कई वस्तुओं का मना करते हैं जैसे अलमुनियम के बर्तन, रिफाइंड तेल, आम नहाने के साबुन, फिर भी कम्पनियां बेचकर लूट मचा रही हैं। जब आधुनिक युग में थोड़े से समय मे इतना अंधविश्वास फैल गया, तो क्या भारत के लाखों साल पुराने समाज में विश्वास नहीं फैलेगा?

हिंदू धर्म के रीति-रिवाज, परम्पंराओं व कर्म-कांड का धर्म से कोई सम्बंध नहीं था। ये सब स्वास्थ्य के लिए थे, जिन्हें धर्म व दिनचर्या से जोड़ दिया गया और जनता को गहरा विश्वास हो गया। इसका उस समय कि कंम्पनियों (साधु व पंडित) ने विभिन्न प्रकार से फायदा उठाया। उसी लूट का फल है अंधविश्वास। आज इनके गुण न देख कर अंधविरोध होने लगा। मुझे कुछ परम्पराओं कि थोड़ी जानकारी है, लिख रहा हूँ।

तिलक से पता लगता है कि 24 घंटे जीवन है कि नहिं। अगर तिलक जो कुंकुंम (हल्दी, चूना व नीबू का बना) व चावल लगाने पर नहिं सूखता, तो समझो जीवन केवल 5-6 घंटे का रह गया है।

जनेऊ को मल-मूत्र करते समय कान पर लपेटने से गुर्दे व आँत के रोग काबू में रहते हैं। आज जनेऊ के बहाने ब्राह्मण भोज कर कुरीति चला रखी है।

सूर्य को अर्घ देने से नेत्र ज्योति बढ़ती है व क्षय रोग ठीक होता है। यह करने का सही समय वह है जब अंधविश्वास, विज्ञान व हिंदु धर्म सूर्य लाल रंग में हो व नाभि पर किरणें पड़नी चाहिए। यह केवल 15 मिनट का समय होता है, परन्तु लोग 12 बजे तक अर्घ देते हैं। ताँबे के बर्तन में पानी रात का हो। उसकी धार में से देखें व श्वास खींचें, इससे कापरआक्साईड मिलता है, जो क्षय रोग के स्ट्रेप्टोमाइसिन टीके का आधार है।

रजस्वला के समय पूर्ण विश्राम की आवश्यकता होती है। पहले बड़ों के सामने छोटे नहीं बैठते थे। फिर सास के सामने बहू का बैठना बिलकुल असंभव। इस समय विकृत किरणें निकलती हैं, जिसके कारण सामने वाले अपने को असहज महसूस करते हैं। कभी-कभी तो पौधों की पत्तियां सिकुड़ जाती हैं। अब इसका पता कैसे लगे? हर जगह जानकार नहीं मिलते, तब अछूत का रास्ता निकाला गया। माहवारी से 7 दिन तक सहवास करने से होने वाली संतान अपंग व बीमार रहती है।

कर्ण छेदन को आजकल श्रृंगार में ले रखा है, जबकि इसे प्रथम माहवारी के समय ऊपर की तरफ से करते हैं, जो एक्युपंचर के नियम पर होना चाहिये। इससे गर्भाशय के रोग नियंत्रण में रहते हैं। गहने ऐक्युप्रैसर के नियम से बनते थे। अंगूठे के पास की अंगुली रक्त व प्रदर का नियंत्रण करती है। उसके पास वाली कम रक्त आता है तो चालु करती है। इसी प्रकार पाजेब पैर का दर्द रोकती है। सभी गहने शरीर के प्रमाप को देख कर उसी के अनुसार बनाये जाते थे। ज्यादा भारी होने पर शीशा आदि मिलाया जाता था।

अब आवश्यकता है कि योग की तरह ही अन्य भारतीय रीति-रिवाजों के रहस्य पता किये जायें।

-- बाल कृष्ण करनाणी

Monday 13 May 2013

पाकिस्तान में नवाज शरीफ की ताजपोशी


यों तो पाकिस्तान के आम चुनाव उनका अन्दरूनी मामला है, लेकिन पड़ोसी होने के नाते वहाँ की प्रमुख राजनैतिक घटनाओं का प्रभाव भारत पर पड़ना अवश्यम्भावी है. पाकिस्तान में संपन्न हुए इन चुनावों की कई विशेषताएं रहीं-

१. कई कट्टरपंथी ताकतों और आतंकवादी संगठनों ने इन चुनावों को गैर इस्लामी बताते हुए घोर विरोध किया. एक राज्य में तो महिलाओं को भी मतदान नहीं करने दिया गया. फिर भी लगभग ६०% मतदान हुआ, जितना आज तक कभी हुआ था. यह एक अच्छा लक्षण है और इस बात की पहचान है की अब पाकिस्तान की जनता भी लोकतंत्र का महत्त्व समझ गयी है.

२. चुनाव प्रचार में कई जगह हिंसा हुई, जिनमें ५० से अधिक लोगों की जान गयी, लेकिन फिर भी उम्मीदवारों और पार्टियों ने चुनाव प्रचार बंद नहीं किया. इसका अर्थ है कि वे अपनी जान हथेली पर रखकर भी पाकिस्तान में लोकतंत्र की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहते हैं. इसका परिणाम यह हुआ कि मतदान लगभग शान्तिपूर्ण निबट गया.

३. इन चुनावों में धांधली की शिकायतें नहीं आयीं, इससे पता चलता है कि वहाँ के चुनाव आयोग ने अपनी जिम्मेदारी को पूरी निष्ठा से निभाया. मीडिया ने भी अपना दायित्व बखूबी निभाया. यह भविष्य के लिए बहुत शुभ लक्षण है.

४. नवाज शरीफ की पार्टी लगभग पूरे बहुमत के साथ सत्ता में आई. मैं अपने लेख "लाहौर से कारगिल तक" (लिंक देखिये- http://khattha-meetha.blogspot.in/2013/01/blog-post_5687.html  ) में लिख चुका हूँ कि "यदि पाकिस्तान के किसी नेता पर विश्वास किया जा सकता है तो वे केवल नवाज शरीफ हैं।" यह प्रसन्नता की बात ही कही जायेगी कि वे ही नवाज शरीफ फिर से पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री के रूप में सत्ता में आ रहे हैं. वे भारत के साथ अपने देश के मधुर सम्बन्धों का महत्त्व जानते हैं और चुनाव प्रचार में भी उन्होंने इस बात को बार-बार दोहराया था. पाकिस्तान की जनता ने उनको बहुमत देकर यह सिद्ध किया है कि वह भी भारत के साथ मधुर सम्बन्ध बनाये रखना चाहती है, क्योंकि उसके देश की प्रगति के लिए यही एकमात्र रास्ता है.

५. इन चुनावों ने यह सिद्ध कर दिया है कि भले ही पाकिस्तान में कट्टरपंथी और आतंकवादी अशांति फैलाते रहते हैं, लेकिन उनको आम जनता का समर्थन नहीं है और इस्लाम के नाम पर यह आतंकवाद अब आगे अधिक लम्बा नहीं खिंच सकता, भले ही पाकिस्तान की सेना उनको खाद-पानी देती रहे.

६. नवाज शरीफ ने यह संकेत दिया है कि वे अपने शासन में सेना पर लगाम लगाकर रखेंगे. यह एक अच्छी नीति है. अगर ऐसा होता है तो भारत यह उम्मीद कर सकता है कि अब कम से कम कश्मीर के मामले में सेना अपनी करतूतों से बाज आयेगी.

इतने शुभ लक्षणों के होते हुए भी भारत को पूरी तरह सावधान रहने की आवश्यकता है, क्योंकि कट्टरपंथी तत्व, आतंकवादी संगठन और सेना यों आसानी से पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत नहीं होने देंगे और देर-सवेर खुराफातें जरुर करेंगे.

अभी तो हम नवाज शरीफ और उनके देश पाकिस्तान को अपनी शुभकामनायें ही दे सकते हैं.

दरियादिली या नालायिकी?

आज के "अमर उजाला" में एक समाचार है जिसने मेरा ध्यान आकर्षित किया है. संक्षेप में समाचार इस प्रकार है-

विगत २५ अप्रैल को राहुल गाँधी भोपाल हवाई अड्डे जा रहे थे. वहां उनको एक अखबार बेचने वाला लड़का मिला, जिसने उनसे अख़बार खरीदने का आग्रह किया. राहुल गाँधी ने अख़बार ले लिया और उसको एक हज़ार का नोट दिया. लड़के ने वह नोट यह कहकर वापस कर दिया कि उसके पास १००० के छुट्टे नहीं हैं. फिर वह अख़बार की कीमत लिये बिना चला गया. वह लड़का कक्षा ५ में पढ़ता है और डाक्टर बनना चाहता है. इस पर कांग्रेसी नेताओं को उस लड़के पर दया आई और उन्होंने लड़के को गोद लेना तय किया है तथा उस लड़के को हर माह १००० रुपये दिए जायेंगे.

यदि यह समाचार सत्य है तो इस पर कई प्रश्न उठते हैं-

१. राहुल गाँधी की जेब में केवल १-१ हज़ार के नोट क्यों रखे हुए थे? उनसे वे क्या खरीदना चाहते थे? क्या वे अपने साथ १०-१० के कुछ नोट नहीं ले जा सकते? हज़ार के नोट वे किसको दिखाना चाहते हैं?

२. अगर राहुल के पास छोटे नोट नहीं थे, तो क्या उनके साथ चलने वाले दूसरे लोगों के पास भी नहीं थे? क्या सभी इतने रईस हैं कि हज़ार से नीचे के नोट लेकर नहीं चलते?

३. राहुल गाँधी को क्या इतना भी पता नहीं कि एक अख़बार केवल ३ या ४ रुपये का आता है? अगर उनको इतना भी मालूम नहीं तो वे किस आधार पर आम जनता की पार्टी होने का दावा करते हैं?

४. क्या राहुल गाँधी इतने बड़े मूर्ख हैं जो यह भी नहीं समझ सकते कि एक मामूली अख़बार बेचने वाले लड़के के पास हज़ार के नोट के छुट्टे नहीं हो सकते? क्या इतना बड़ा मूर्ख प्रधान मंत्री के पद के लायक है?

५. कांग्रेस ने उस लड़के को हर महीने हज़ार रुपये देने का वायदा किया है. मैं नहीं मानता कि कभी ऐसा होगा, क्योंकि कांग्रेस के सारे वायदे झूठे ही होते हैं. लेकिन अगर यह वायदा सही मान लिया जाये, तो इसे कांग्रेस कि दरियादिली कहेंगे या मूर्खता, जो एक मेहनती लड़के को मुफ्तखोरी की आदत डालना चाहती है? क्या इससे अच्छा यह न होता कि वे उसकी स्कूल फीस देने कि व्यवस्था कर देते और उसके पिता को कहीं ऐसा काम दिला देते कि उस लड़के को अख़बार न बेचने पड़ें?

वारणावत का षड्यंत्र


दुर्योधन ने पांडवों को अपने रास्ते से हटाने के लिए अनेक षड्यंत्र किये थे। उनमें से वारणावत का षड्यत्र सबसे भीषण था। इसमें उसने न केवल सभी पांडवों बल्कि उनकी माता कुन्ती को भी जीवित जलाकर मार डालने का उपाय किया था। इस भयंकर षड्यंत्र से वे विदुर जी की सूझ-बूझ से ही निकल पाये थे।

पांडव अपनी शिक्षा पूर्ण कर चुके थे और युवराज के रूप में उनमें से सबसे वरिष्ठ युधिष्ठिर का नाम भी घोषित किया जा चुका था। यह लगभग निश्चित था कि समय आने पर उनका भारत के सम्राट के रूप में राजतिलक होगा और कौरव केवल साधारण राजकुमार बनकर रहेंगे। यही बात दुर्योधन सहन नहीं कर सकता था, इसलिए उसने पांडवों को उनकी माता सहित मार डालने का षड्यंत्र रचा। इस षड्यंत्र में उसका मामा शकुनि पूर्ण भागीदार था और कर्ण भी। दुयोधन का अंधा बाप धृतराष्ट्र उसकी मुट्ठी में था, इसलिए वह वही करता था, जो दुर्योधन चाहता था।

उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में वारणावत नामका एक स्थान है, जो मेरठ से लगभग 42 किमी है। वहाँ महाभारत के समय में वार्षिक समारोह या मेला आयोजित किया जाता था, जिसमें कुरु सम्राट शामिल होते थे। उस वर्ष दुर्योधन ने अपने पिता को समझाया कि इस बार युवराज युधिष्ठिर को वहाँ भेजा जाय, ताकि वहाँ की जनता भी अपने युवराज को देख ले। अंधा राजा फौरन इसके लिए तैयार हो गया और उसने आदेश निकाल दिया कि सभी पांडव अपनी माता के साथ इस समारोह में जायेंगे।

दुर्योधन ने उनके रहने के लिए एक ऐसा भवन बनाया, जिसकी दीवारें अत्यन्त ज्वलनशील पदार्थों से बनी हुई थीं। उसने अपने एक विश्वस्त आदमी विरोचन को उस भवन के निर्माण की देखरेख करने के बहाने वहाँ नियुक्त कर दिया और उसी को आग लगाने की जिम्मेदारी भी सौंप दी। जब विदुर को पता लगा कि सभी पांडवों और माता कुन्ती को भी इस समारोह में भेजा जा रहा है, तो उनका माथा ठनका। उन्होने अपने गुप्तचरों को भेजकर पता लगा लिया कि भवन ज्वलनशील पदार्थों से बनाया गया है और सभी को जलाकर मार डालने की योजना है। वे खुलकर राजा के आदेश का विरोध नहीं कर सकते थे, इसलिए उन्होंने पांडवों के बचाव का प्रबंध कर दिया।

सबसे पहले तो उन्होंने गुप्त शब्दों में युधिष्ठिर को इस षड्यंत्र के प्रति सतर्क कर दिया। उन्होंने कूट शब्दों में युधिष्ठिर से कहा- ‘जंगल की अग्नि सभी जानवरों को जलाकर भस्म कर देती है, लेकिन बिलों में रहने वाले जन्तु उस आग से अपनी रक्षा कर लेते हैं।’ इन शब्दों का उपयोग गुप्त संकेत के रूप में किया गया था, जैसे कि आजकल कम्प्यूटर में पासवर्ड होते हैं। युधिष्ठिर बहुत बुद्धिमान थे। वे जानते थे कि चाचा विदुर कभी कोई निरर्थक बात नहीं कहते। इससे वे समझ गये कि चाचा ने उनको आग से सावधान रहने और बचने का उपाय करने के लिए कहा है। महाभारत में इस प्रसंग के समय यह उल्लेख है कि विदुर और युधिष्ठिर ने एक गुप्त भाषा ‘मधुरा’ में बात की थी, ताकि कोई तीसरा व्यक्ति उस बातचीत को न समझ सके।

इतना ही नहीं विदुर जी ने एक सुरंग खोदने वाला भी उनके पास भेज दिया। उसने गुप्त संकेत बताकर अपनी विश्वसनीयता सिद्ध की और फिर दिन-रात मेहनत करके इतनी लम्बी सुरंग खोद दी कि वे भवन से बाहर निकलकर जंगल में जा सकें। इसी के साथ ही पांडवों ने उन दिनों आस-पास के जंगलों को शिकार के बहाने छान मारा ताकि बाहर सुरक्षित निकलने का मार्ग देख सकें और भटककर कौरवों के हाथ न पड़ जायें।

जब सुरंग तैयार हो गयी, तो पांडवों ने जिस दिन विरोचन को महल में आग लगानी थी, उससे एक दिन पहले ही एक महिला को उसके 5 पुत्रों के साथ भोजन पर बुलाया और उनको नशे में धुत करके भीतर ही सुला दिया। फिर विरोचन के कमरे का दरवाजा बाहर से बन्द कर दिया और स्वयं महल में आग लगाकर सुरंग के रास्ते बाहर निकल गये। महल वास्तव में बहुत ज्वलनशील था, इसलिए शीघ्र ही पूरा आग की लपटों में समा गया। विरोचन भी जलकर मर गया, उसे अपना बचाव करने का भी मौका नहीं मिला।

जलते महल से बाहर निकलकर पांडव रात ही रात में जंगल को पार करके पूर्व की दिशा में गंगा के किनारे पहुँच गये। गंगा नदी के पार राक्षसों का क्षेत्र था, जहाँ जाना खतरे से खाली नहीं था, लेकिन गंगा के पार न जाने पर कौरवों को उनका पता चल जाता और वे आसानी ने पांडवों की हत्या कर देते। इसलिए उन्होंने गंगा को पार करके राक्षसों के क्षेत्र में जाना ही उचित समझा। विदेर जी ने एक नाव का प्रबंध कर रखा था, जिसमें बैठकर वे प्रातः होने से पहले ही गंगा के पार पहुँच गये।

इधर हस्तिनापुर में जब पांडवों के जलकर मरने का समाचार पहुँचा, तो दिखावे के लिए कौरवों ने बहुत आँसू बहाये, लेकिन मन ही मन खुश भी हुए कि पांडु का पूरा वंश समाप्त हो गया।  विरोचन भी जलकर मर गया था, यह जानकर दुर्योधन का माथा ठनका था, लेकिन प्रकट में उसने कुछ नहीं किया। जले हुए भवन में 5 पुरुषों और एक महिला की लाश जली हुई मिली थी, इसलिए सबने यह मान लिया कि पाँचों पांडव अपनी माता कुंती सहित जल मरे। वैसे दुर्योधन ने अपने गुप्तचर छोड़े भी थे, लेकिन वे पांडवों का कोई सुराग नहीं पा सके, क्योंकि पांडव तो राक्षसों के क्षेत्र में थे, जहाँ तक गुप्तचर नहीं पहुँच सकते थे।

भाजपा और कांग्रेस का अन्तर

कर्नाटक में भले ही भाजपा की सरकार चली गयी और कांग्रेस की सरकार आ गयी, लेकिन इन चुनावों ने इन दोनों प्रमुख पार्टियों के बीच का सांस्कृतिक अन्तर स्पष्ट कर दिया है।

भाजपा ने येदीयुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटाने में कोई संकोच नहीं किया, क्योंकि उनका नाम किसी घोटाले में आ गया था। हालांकि ये आरोप केवल आरोप ही थे और आजतक उन पर कोई भ्रष्टाचार का मामला सिद्ध नहीं हुआ। फिर भी भाजपा के दिग्गजों ने यह नहीं सोचा कि येदीयुरप्पा के कारण ही भाजपा दक्षिण के किसी राज्य में पहली बार पूर्ण बहुमत से सत्ता में आयी थी। उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि येदीयुरप्पा अगर पार्टी से निकल गये, तो वे अपने साथ भाजपा के वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा खींच ले जायेंगे और अगले चुनावों में भाजपा का सत्ता में लौटना कठिन होगा। यह सब जानते हुए भी उन्होंने येदीयुरप्पा को कुर्सी से हटा दिया। अन्ततः वही हुआ जिसकी सम्भावना थी। येदीयुरप्पा की पार्टी ने भाजपा के पूरे 10 प्रतिशत वोट काट लिये और इसी कारण कांग्रेस फिर से बहुमत पा गयी।

दूसरी ओर कांग्रेस है, जिसके अनेक मंत्री तमाम घोटालों में लिप्त पाये गये हैं। 2जी घोटाला, कामनवैल्थ घोटाला, आदर्श घोटाला, कोयला घोटाला और अब रेलवे रिश्वत कांड, लेकिन कांग्रेस ने आखिरी क्षण तक अपने मंत्रियों का बचाव किया है। बहुत छीछालेदर होने के बाद ही उसने द्रमुक के ए. राजा को मंत्रिमंडल से हटाया और सुरेश कलमाडी को भी, परन्तु वे फिर वापस उसी कुर्सी पर आ गये। हालांकि उनके खिलाफ कई आरोप सिद्ध हो चुके हैं।

कोयला घोटाले में तो सीबीआई की जाँच रिपोर्ट भी आ गयी है और वे आरोप सत्य पाये गये हैं, लेकिन कानून मंत्री ने पूरी निर्लज्जता से सीबीआई की रिपोर्ट को अदालत में जमा होने से पहले ही न केवल देखा, बल्कि उसमें मनमाने परिवर्तन भी किये। इस करतूत के लिए उनको सुप्रीमकोर्ट ने भी जमकर लताड़ा है। अगर कोई शर्मदार आदमी होता, तो कब का स्तीफा देकर चला गया होता, परन्तु विपक्ष की भारी और मजबूत माँग के बाद भी कांग्रेस उनको बचा रही है। रेलवे रिश्वत कांड भी अपने आप में विचित्र है। यह लगभग सिद्ध हो चुका है कि बंसल के भांजे, भतीजे और पुत्र तक उनकी ओर से रिश्वत ले रहे थे और नियुक्तियां करा रहे थे, लेकिन आज तक कांग्रेस ने उनसे इस्तीफा देने को नहीं कहा।

इन घटनाओं से कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों की संस्कृतियों में अन्तर बिल्कुल स्पष्ट हो गया है। यदि हम देश का भला चाहते हैं, तो हमें तत्काल ही कांग्रेस संस्कृति से देश का पिंड छुड़ाना होगा।

हानिकारक परन्तु अनिवार्य : चीनी और नमक


कुछ दिन पहले मैंने चाय के बारे में लिखा था, जिस पर बहुत से सज्जन सहमत हुए तो बहुत से असहमत रहे. आज मैं ऐसी दो वस्तुओं के बारे में लिख रहा हूँ, जो स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक हैं, परन्तु आवश्यक भी हैं. वे हैं चीनी और नमक.

चीनी 

आजकल परिष्कृत की हुई चीनी का बहुत उपयोग किया जाता है। यह स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हानिकारक है, हालांकि इसके बुरे प्रभावों का पता हमें दीर्घकाल में ही चल पाता है। परन्तु इसके बिना हमारा गुजारा भी नहीं है, क्योंकि कई खाद्य पदार्थों और दूध में मीठा डालना आवश्यक होता है। ऐसी स्थिति में चीनी की जगह गुड़ का उपयोग करना चाहिए। गुड़ के साथ जाड़ों में गुनगुना और गर्मियों में ठंडा दूध पीना बहुत आनंददायक होता है. उसमें कुछ ऐसे तत्व होते हैं, जैसे कैल्शियम, जो मीठा पचाने में सहयोग करते हैं।

लेकिन अच्छा गुड़ भी आजकल आसानी से उपलब्ध नहीं होता। इसलिए यदि दूध में चीनी की जगह शहद डाला जाये तो सोने में सुहागा हो जाये। परन्तु शहद डालने से पहले दूध को पर्याप्य ठंडा कर लेना चाहिए. मेरी सलाह है कि चीनी का प्रयोग कम से कम करें और मिठाइयों के सेवन में भी संयम रखें। चाय छोड़ देने से चीनी की मात्रा पर अपने आप नियंत्रण हो जाता है, क्योंकि चाय के साथ हमारे शरीर में प्रतिदिन अनावश्यक चीनी पहुँचती रहती है।

नमक

यहाँ नमक से हमारा तात्पर्य साधारण या समुद्री नमक से है। लोग इसके हानिकारक प्रभावों से अनभिज्ञ होते हैं और उसे भोजन के एक अनिवार्य अंग के रूप में सेवन करते हैं। वे बहुत गलती पर हैं। नमक के प्रयोग से भोजन का स्वाद भले ही बढ़ जाता हो, परन्तु यह हमारे शरीर के लिए बिल्कुल आवश्यक नहीं है और इसको हमारा शरीर स्वीकार नहीं कर पाता। वास्तव में शरीर के लिए जितना नमक आवश्यक है, वह सब्जियों और फलों में प्राकृतिक रूप से होता है और इनका पर्याप्त सेवन करने से उसकी पूर्ति पर्याप्त मात्रा में हो जाती है। यदि आप किसी दिन बिना नमक की सब्जी खाकर देखें, तो उस सब्जी में उपलब्ध प्राकृतिक नमक और उसके विलक्षण स्वाद का अनुभव कर सकते हैं।

समुद्री नमक प्राकृतिक नमक का स्थानापन्न नहीं है। यह बिल्कुल अनावश्यक पदार्थ है, जिसको बाहर निकालने के लिए हमारे शरीर को बहुत श्रम करना पड़ता है। इसलिए नमक का सेवन कम से कम करें। यदि किसी दिन सब्जी में नमक कम पड़ा हो, तो उसे ईश्वर की कृपा मानें और भूलकर भी ऊपर से नमक न डालें। नमक को शरीर से बाहर निकालने के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी पीना अनिवार्य है। साधारण समुद्री नमक की तुलना में सैंधा नमक शरीर के लिए कम हानिकारक होता है। आवश्यक होने पर इसका प्रयोग किया जा सकता है। इसी कारण धार्मिक व्रतों में समुद्री नमक का पूर्णतः निषेध होता है और सेंधा नमक प्रयोग करने की अनुमति होती है।

Saturday 4 May 2013

स्वास्थ्य की दुश्मन है चाय


हमारे स्वास्थ्य की सबसे बड़ी दुश्मन है चाय। यह घर-घर में पी जाती है और दिन में कई बार भी पी जाती है। इसके कारण हमारे स्वास्थ्य का सत्यानाश हो रहा है। इसमें कोई पौष्टिक तत्व नहीं होता, बल्कि हानिकारक नशीली वस्तुएँ होती हैं। इसको कुछ दिन तक नियमित पीने से इसकी लत लग जाती है और यदि एक दिन भी समय पर चाय न मिले, तो दर्द से सिर फटने लगता है और शरीर शिथिल हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि यह एक नशा है और नशे के अलावा कुछ नहीं है।

चाय को गर्म-गर्म पिया जाता है, इससे आँतों पर इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। हमारे शरीर में ठंडी वस्तुओं को गर्म करने की व्यवस्था तो है, परन्तु गर्म वस्तुओं को ठंडा करने की कोई व्यवस्था नहीं है। इसलिए गर्म-गर्म चाय पेट और आँतों में काफी समय तक पड़ी रहती है और हमारी पाचन शक्ति को बिगाड़ देती है। चाय के प्रयोग से आँतें धीरे-धीरे निर्बल हो जाती हैं और मल निष्कासन प्रणाली भी शिथिल हो जाती है। इससे सड़ा हुआ मल आँतों में जमता रहता है और तरह-तरह की बीमारियाँ पैदा करता है। नियमित चाय पीने वाले प्रायः भूख न लगने की शिकायतें करते पाये गये हैं। इसका कारण यही है कि पाचन शक्ति कमजोर हो जाने के कारण कोई भी भोजन ठीक से पचता नहीं है, इसलिए खुलकर भूख भी नहीं लगती।

बहुत से लोगों में बेड टी की आदत होती है अर्थात् सोकर उठने पर सबसे पहले बिस्तर पर ही चाय पीते हैं। यह आदत अति हानिकारक है। उन्हें चाय पीने के बाद ही शौच होता है, इससे वे समझते हैं कि चाय पेट साफ करती है। जबकि बात इससे ठीक उल्टी है। चाय पीने के बाद शौच इसलिए आ जाता है कि उससे आँतों में प्रतिक्रिया होती है, जिसके कारण शौच निकल जाता है। यदि इसके बजाय वे केवल एक गिलास सादा या गुनगुना जल पी लें, तो पेट अधिक अच्छी तरह साफ होगा और चाय के कुप्रभावों से भी बचे रहेंगे। बेड टी की आदत यूरोप के ठंडे देशों में तो कुछ हद तक स्वीकार्य है, परन्तु भारत जैसे गर्म देशों में बिल्कुल स्वीकार्य नहीं है।

चाय में जो विषैले तत्व पाये जाते हैं, उनकी तो चर्चा करना ही व्यर्थ है, क्योंकि सभी जानते हैं कि चाय पीने वालों को कैंसर और डायबिटीज होने की सम्भावना सबसे अधिक होती है। इसके अन्य कई हानिकारक प्रभाव भी होते हैं, जो निम्नलिखित दोहे में बताये गये हैं-
कफ काटन, वायु हरण, धातुहीन, बल क्षीण।
लोहू को पानी करै, दो गुण, अवगुण तीन।।

इस दोहे में चाय में जो दो गुण बताये गये हैं अर्थात् कफ को काटना और गैस को दूर करना, वे चाय के कारण नहीं, बल्कि गर्म पानी के कारण होते हैं। साधारण गुनगुना पानी पीकर भी ये लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं। इसलिए चाय की कोई आवश्यकता नहीं है। चाय के साथ चीनी भी हमारे शरीर में बड़ी मात्रा में प्रतिदिन चली जाती है, जो स्वयं बहुत हानिकारक है। इसलिए चाय पीना तो तत्काल बन्द कर देना चाहिए। जो चाय के लती हैं, उनको एकदम चाय छोड़ देने से एक-दो दिन थोड़ा कष्ट होगा, लेकिन यदि वे उसे झेल जायें, तो फिर कोई कष्ट नहीं होगा और स्वास्थ्य सुधार की राह पकड़ लेगा।

यदि कभी चाय की तलब उठे भी, तो उसके स्थान पर निम्नलिखित वस्तुओं में से कोई भी वस्तु ली जा सकती है, जो स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक हैं-
1) एक गिलास शीतल जल
2) एक कप गुनगुना दूध
3) एक गिलास मट्ठा या लस्सी
4) सब्जियों का एक कप सूप
5) किसी फल का एक गिलास रस
6) एक गिलास पानी में आधे नीबू का रस (नमक और चीनी के बिना)

यहाँ हमने चाय के बारे में जो कुछ भी कहा है, वह काफी के बारे में भी उतना ही सत्य है, बल्कि काफी चाय से दुगुनी हानिकारक होती है। इसलिए चाय और काफी दोनों भूलकर भी नहीं पीनी चाहिए। यदि कोई मित्र या सम्बंधी आपसे इन वस्तुओं के लिए आग्रह करे, तो विनम्रतापूर्वक मना कर दें और केवल शीतल जल की माँग करें। इससे उनको बुरा नहीं लगेगा। मैंने पिछले 16 वर्षों से चाय-काफी की एक बूँद भी नहीं पी है। मेरे सभी मित्र और सम्बंधी मेरे इस नियम के बारे में जानते हैं, इसलिए अधिक आग्रह नहीं करते। मेरा स्वास्थ्य मेरी उम्र के व्यक्तियों की तुलना में बहुत अच्छा है। हाल ही में मैंने अपने स्वास्थ्य की जाँच करायी है, जिसमें रक्तचाप, हृदय, शुगर आदि सभी पूर्णतया सामान्य पाये गये हैं।

चीन का कमीनापन और भारत सरकार की मूर्खता


मैं अपने लेख ‘नेहरू की मूर्खता की चरम सीमा : पंचशील’ 
(लिंक देखें-  http://khattha-meetha.blogspot.in/2013/01/blog-post.html ) में लिख चुका हूँ कि चीन दुनिया का सबसे अधिक कमीना देश है, पाकिस्तान से भी ज्यादा। उसका एक शब्द भी विश्वास करने लायक नहीं है। उसके लिए किसी भी समझौते का मूल्य उतना भी नहीं है, जितना मूल्य उस कागज का है, जिस पर वह लिखा गया है।

आज हम इन शब्दों की सत्यता का अनुभव कर रहे हैं। हमारी सीमा में खुलेआम 19 किलोमीटर अन्दर आकर तम्बू लगाकर बैठ जाना एक बेहद कमीनी हरकत है। उस पर सीना जोरी भी कि हम नहीं हटेंगे, जो चाहो कर लो।

इस स्थिति के उत्पन्न होने में अपनी ढुलमुल सरकार और उसके बेहद कमजोर प्रधानमंत्री को पूरी तरह जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। चीन तो वही कर रहा है, जो उसके स्वभाव में है और हमेशा से करता आया है। यह हमारी ही सरकार की मूर्खता है कि हम उसके इरादों को कभी नहीं समझ सके और यदि समझे भी तो उनसे आँखें बन्द कर लीं।

चीन के इरादों को समझना कभी कठिन नहीं था। अभी कुछ ही महीने पहले चीन ने पाक अधिकृत कश्मीर में मजदूरों के बहाने अपने सैनिक स्थायी रूप से तैनात कर दिये थे। भले ही वह इलाका इस समय पाकिस्तान के कब्जे में है, लेकिन भारत उसे अपना क्षेत्र मानता है और वह है भी । इसलिए उसको किसी तीसरे देश की सैनिक उपस्थिति पर आपत्ति करने और कार्यवाही करने का पूरा अधिकार है। लेकिन हमारी सरकार सदा की तरह बयानबाजी करने तक सीमित रह गयी। यदि उसी समय कोई कठोर कदम उठाया होता, जो कि पूरी तरह उचित और स्वाभाविक होता, तो चीन की हिम्मत इतनी नहीं बढ़ती कि हमारे ही क्षेत्र में आकर कब्जा करके बैठ जाये।

जो मूर्खता भारत सरकार ने पाक अधिकृत कश्मीर के मामले में की, वही मूर्खता अब लद्दाख के मामले में कर रही है। बयान पर बयान दिये जा रहे हैं और वार्ताएँ आयोजित की जा रही हैं, जिनका कोई परिणाम न तो निकलना था, न निकला। और अब तो चीन ने साफ कह दिया है कि उसका वापस जाने का कोई इरादा नहीं है।

अब प्रश्न उठता है कि इस समस्या का क्या इलाज है? इसका इलाज भारत के इस प्राचीन सूत्र में छिपा हुआ है- ‘शठे शाठ्यं समाचरेत्।’ अब यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि चीन के मामले में सीधी उँगली से घी नहीं निकलेगा और भारत को उँगली टेढ़ी करनी ही पड़ेगी। चीन से सीधे युद्ध करना तो अन्तिम उपाय है, लेकिन इसके अलावा भी कई उपाय हैं।

सबसे पहले तो भारत को चीन के साथ अपनी सीमा पर आवागमन तत्काल बन्द कर देना चाहिए। जो भी चीनी माल भारत में आता है या भारतीय माल चीन जाता है, उसको बिना चेतावनी दिये तत्काल बन्द कर देना प्रभावी उपाय है। भारत में चीन के आधे माल का बाजार है। उसको रोक देने पर चीन की अर्थव्यवस्था का भट्टा बैठना तय है। भले ही भारत के कुछ व्यापारियों को इसके कारण हानि होगी, लेकिन उसके कारण देश का अपमान सहन नहीं किया जाना चाहिए।

दूसरा उपाय चीन के साथ राजदूतों के सम्पर्क को स्थगित करना है। भारत को अपना राजदूत वापस बुलाकर चीन के राजदूत को तत्काल वापस भेज देना चाहिए और दूतावास को अस्थायी रूप से बन्द कर देना चाहिए। भारत के जो नेता चीन जाने वाले हैं उनको अपनी यात्रा रद्द कर देनी चाहिए और चीनी प्रधानमंत्री की यात्रा भी रद्द कर देनी चाहिए। इससे चीन के सामने यह स्पष्ट हो जाएगा कि भारत अपने स्वाभिमान पर चोट बर्दाश्त नहीं करेगा।

इसके अलावा भारत को सीमा पर अपनी सेना का दबाब बढ़ाना चाहिए। जहां भी सम्भव है, भारत को चीन के इलाकों में घुसपैठ कर लेनी चाहिए और जहां चीन ने घुसपैठ की है, वहां उन पर गोलाबारी करनी चाहिए। भले ही आगे चलकर पूर्ण युद्ध हो जाए। भारत को युद्ध की पूरी तैयारी रखनी चाहिए, हालांकि चीन पूर्ण युद्ध करने की हिम्मत नहीं कर सकता।

कूटनीतिक उपायों के तहत भारत को चीन के विरोधी देशों जैसे ताईवान, जापान, वियतनाम आदि से सम्पर्क घनिष्ट करने चाहिए।

यदि ये उपाय अपनाये जायेंगे, तो जल्दी ही चीन की नाक में नकेल पड़ जाएगी और वह अपने कमीनेपन से बाज आ जाएगा।

महाभारत का एक पात्र : सात्यकि


एक बार किसी कारणवश अर्जुन को अकेले ही 6 वर्ष के प्रवास पर जाना पड़ा। उसने इस समय का उपयोग देशाटन करने में किया। उत्तर, पूर्वोत्तर, पूर्व और दक्षिण भारत में दीर्घकाल तक भ्रमण करने के बाद वह पश्चिम भारत में आया और वहाँ द्वारिका में पूरे एक वर्ष तक रहा, जो उसकी ननिहाल भी थी।

द्वारिका के लोग यह जानकर बहुत प्रसन्न हुए कि उनकी बुआ कुंती का पुत्र अर्जुन, जो एक श्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में विख्यात हो चुका है, द्वारिका में निवास कर रहा है। उनमें से एक व्यक्ति था युयुधान। वह यादवों के एक सरदार सत्यक का पुत्र था, इसलिए उसको सात्यकि भी कहा जाता था। वह एक श्रेष्ठ यादव योद्धा था और बचपन से ही भगवान कृष्ण का अनुगामी था। जब उसे यह पता चला कि अर्जुन काफी दिनों तक द्वारिका में ही रहेंगे, तो उसने अर्जुन से प्रार्थना की कि मुझे धनुर्वेद की शिक्षा दीजिए। अर्जुन ने उसको सुपात्र जानकर धनुर्वेद की शिक्षा दी और दिव्यास्त्रों को छोड़कर अपना लगभग सारा ज्ञान उसे दे दिया। इससे सात्यकि अत्यन्त श्रेष्ठ धनुर्धर बन गया।

जब महाभारत का युद्ध निश्चित हो गया और कृष्ण को यादवों की सेना दुर्योधन के पक्ष में लड़ने के लिए भेजनी पड़ी, तो उस समय सात्यकि उस सेना का एक प्रमुख सेनापति था। उसने कृष्ण से कहा कि मैं अपने गुरु अर्जुन के विरुद्ध नहीं लड़ सकता, विशेषतः इसलिए भी कि पांडवों का पक्ष धर्म का था। इस पर कृष्ण ने उसको स्वतंत्र कर दिया और वह महाभारत में पांडवों की ओर से लड़ने के लिए गया। उसके इस निर्णय से अर्जुन इतना प्रसन्न हुआ कि उसने सात्यकि को यह वचन दिया कि यदि तुम मेरी दृष्टि में रहते हुए युद्ध करोगे, तो मैं तुम्हारा कोई अनिष्ट नहीं होने दूँगा।

भगवान कृष्ण सात्यकि की योग्यता और निष्ठा पर बहुत विश्वास करते थे। जब वे पांडवों के शांति दूत बनकर हस्तिनापुर गये, तो अपने साथ केवल सात्यकि को ले गये। कौरवों के सभा कक्ष में प्रवेश करने से पहले उन्होंने सात्यकि से कहा कि वैसे तो मैं अपनी रक्षा करने में पूर्ण समर्थ हूँ, लेकिन यदि कोई बात हो जाये और मैं मारा जाऊँ या बन्दी भी बना लिया जाऊँ, तो फिर हमारी सेना दुर्योधन की सहायता के वचन से मुक्त हो जाएगी और ऐसी स्थिति में तुम उसके सेनापति रहोगे और उसका कोई भी उपयोग करने के लिए स्वतंत्र होगे। सात्यकि बहुत समझदार था। वह समझ गया कि कृष्ण क्या कहना चाहते हैं। इसलिए वह पूर्ण सावधान होकर सभा कक्ष के दरवाजे के बाहर ही डट गया।

सात्यकि पर विश्वास के कारण ही दुर्योधन के व्यवहार को देखकर सभा कक्ष में कृष्ण ने कौरवों को धमकाया था कि दूत के रूप में आये हुए मेरे साथ यहाँ कोई अनिष्ट करने से पहले आपको यह सोच लेना चाहिए कि जब हमारी यादव सेना के पास यह समाचार पहुँचेगा, तो वह हस्तिनापुर की सड़कों पर क्या गजब ढायेगी। यह सुनते ही सारे कौरव काँप गये और उन्होंने दुर्योधन को कोई मूर्खता करने से रोक दिया।

अर्जुन ने सात्यकि को उसकी रक्षा करने का जो वचन दिया था, समय आने पर उसका पालन किया। एक दिन सात्यकि कौरव पक्ष के एक योद्धा भूरिश्रवा के साथ द्वन्द्व युद्ध में उलझ गया। दोनों ही श्रेष्ठ योद्धा थे। पहले उनमें धनुर्युद्ध हुआ, फिर गदा युद्ध हुआ और अन्त में तलवार युद्ध हुआ। लड़ते-लड़ते अचानक सात्यकि के हाथ की तलवार छूट गयी। भूरिश्रवा ने उसको तलवार उठाने तक का मौका भी नहीं दिया और उसके बालों को पकड़कर उसका सिर काटने के लिए तलवार चलायी। उधर अर्जुन कुछ दूर से इस द्वन्द्व युद्ध को देख रहा था। जब उसे सात्यकि के प्राण खतरे में लगे, तो उसने शीघ्रता से एक बाण इस प्रकार छोड़ा कि भूरिश्रवा का तलवार वाला हाथ कोहनी के पास से कटकर गिर गया।

इस तरह सात्यकि की जान बच गयी। लेकिन भूरिश्रवा अर्जुन के इस हस्तक्षेप से बहुत नाराज हुआ। युद्ध के नियमों के अनुसार जब दो बराबर के योद्धा आपस में लड़ रहे हों, तो किसी तीसरे को उनके बीच में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। भूरिश्रवा अर्जुन के इस नियमविरुद्ध कार्य के विरोध में युद्ध क्षेत्र में ही धरना देकर बैठ गया। यह देखकर सात्यकि को जाने क्या सूझा कि उसने अचानक तलवार उठाकर धरने पर बैठे भूरिश्रवा का सिर काट डाला। सात्यकि को श्रेष्ठ योद्धा ही नहीं मनुष्यों में भी श्रेष्ठ कहा जाता था। लेकिन उसने क्रोध में आकर यह अत्यन्त अनुचित और जघन्य कार्य किया।