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Wednesday 31 July 2013

महान योद्धा बप्पा रावल



सिंध में अरबों का शासन स्थापित हो जाने के बाद जिस वीर ने उनको न केवल पूर्व की ओर बढ़ने से सफलतापूर्वक रोका था, बल्कि उनको कई बार करारी हार भी दी थी, उसका नाम था बप्पा रावल। बप्पा रावल गहलौत राजपूत वंश के आठवें शासक थे और उनका बचपन का नाम राजकुमार कलभोज था। वे सन् 713 में पैदा हुए थे और लगभग 97 साल की उम्र में उनका देहान्त हुआ था। उन्होंने शासक बनने के बाद अपने वंश का नाम ग्रहण नहीं किया, बल्कि मेवाड़ वंश के नाम से नया राजवंश चलाया था और चित्तौड़ को अपनी राजधानी बनाया।

मुहम्मद कासिम के बारे में अपने लेख में मैं लिख चुका हूँ कि इस्लाम की स्थापना के तत्काल बाद अरबी मुस्लिमों ने फारस (ईरान) को जीतने के बाद भारत पर आक्रमण करने प्रारम्भ कर दिये थे। वे बहुत वर्षों तक पराजित होकर जाते रहे, लेकिन अन्ततः राजा दाहिर के कार्यकाल में सिंध को जीतने में सफल हो गये। उनकी आँधी सिंध से आगे भी भारत को लीलना चाहती थी, किन्तु बप्पा रावल एक सुदृढ़ दीवार की तरह उनके रास्ते में खड़े हो गये। उन्होंने अजमेर और जैसलमेर जैसे छोटे राज्यों को भी अपने साथ मिला लिया और एक बलशाली शक्ति खड़ी की। उन्होंने अरबों को कई बार बुरी तरह हराया और उनको सिंध के पश्चिमी तट तक सीमित रहने के लिए बाध्य कर दिया, जो आजकल बलूचिस्तान के नाम से जाना जाता है।

इतना ही नहीं उन्होंने आगे बढ़कर गजनी पर भी आक्रमण किया और वहाँ के शासक सलीम को बुरी तरह हराया। उन्होंने गजनी में अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया और तब चित्तौड़ लौटे। चित्तौड़ को अपना केन्द्र बनाकर उन्होंने आसपास के राज्यों को भी जीता और एक दृढ़ साम्राज्य का निर्माण किया। उन्होंने अपने राज्य में गांधार, खुरासान, तूरान और ईरान के हिस्सों को भी शामिल कर लिया था। हालांकि इन क्षेत्रों पर उनका अधिकार अधिक समय तक नहीं रह पाया। बहुत दूर होने के कारण वे इन पर प्रभावी नियंत्रण नहीं रख सके।

बप्पा रावल एक न्यायप्रिय शासक थे। वे राज्य को अपना नहीं मानते थे, बल्कि शिवजी के एक रूप ‘एकलिंग जी’ को ही उसका असली शासक मानते थे और स्वयं उनके प्रतिनिधि के रूप में शासन चलाते थे। लगभग 20 वर्ष तक शासन करने के बाद उन्होंने वैराग्य ले लिया और अपने पुत्र को राज्य देकर शिव की उपासना में लग गये। महाराणा संग्राम सिंह (राणा सांगा), उदय सिंह और महाराणा प्रताप जैसे श्रेष्ठ और वीर शासक उनके ही वंश में उत्पन्न हुए थे। उन्होंने अरब की हमलावर सेनाओं को कई बार ऐसी करारी हार दी कि अगले 400 वर्षों तक किसी भी मुस्लिम शासक की हिम्मत भारत की ओर आँख उठाकर देखने की नहीं हुई। बहुत बाद में महमूद गजनवी ने भारत पर आक्रमण करने की हिम्मत की थी और कई बार पराजित हुआ था। इसकी कहानी फिर कभी।

Tuesday 30 July 2013

दहेज की परम्परा और विकृति


हमारी भारतीय संस्कृति में अनेक श्रेष्ठ परम्परायें हैं, लेकिन उनमें से बहुतों का स्वरूप विकृत हो गया है, जिससे उनकी श्रेष्ठता समाप्त होकर निकृष्टता की श्रेणी में पहुँच गयी है। दहेज की परम्परा उनमें से एक है। आज मैं इस परम्परा की विस्तार से चर्चा करना चाहता हूँ।

अभी कुछ समय पहले ही सरकार ने यह कानून बनाया है कि बेटी का भी अपने पिता की पैतृक सम्पत्ति में उतना ही अधिकार होगा, जितना बेटों का होता है। यह कानून अपनी जगह सही है, हालांकि इसके कारण सगे भाई-बहिनों के बीच मुकदमे लड़े जाने लगे हैं। लेकिन प्राचीन भारतीय परम्परा में इसका पालन बिना किसी कानून के ही होता रहा है। दहेज उसी के पालन का एक रूप था। जब कोई पिता अपनी पुत्री का विवाह करता था, तो वह अपनी सम्पत्ति का एक भाग अपनी पुत्री को दहेज के रूप में देता था। हालांकि इसकी माँग वरपक्ष की ओर से कदापि नहीं की जाती थी, फिर भी पिता अपनी पुत्री को दहेज देना अपना कर्तव्य मानता था, ताकि पुत्री को यह अनुभव न हो कि पिता ने उसे अपनी सम्पत्ति का कोई भाग नहीं दिया।

प्राचीन कहानियों में ऐसे उल्लेख आते हैं कि किसी राजा ने अपने दामाद को अपने राज्य का आधा भाग दे दिया। यह भी अपनी पुत्री को सम्पत्ति में भाग देने का एक तरीका था। भगवान श्री राम के विवाह में सीता जी के पिता राजा जनक ने दहेज में प्रचुर सामग्री प्रदान की थी, जिनमें नौकर-चाकर, हाथी-घोड़े और आभूषण भी शामिल थे। क्या कोई कह सकता है कि अयोध्या में इन वस्तुओं की कोई कमी थी या कि राजा दशरथ ने जनक जी से इनकी माँग की थी? बिल्कुल नहीं। दहेज देकर राजा जनक अपने कर्तव्य का ही पालन कर रहे थे।

जैसा कि प्रायः हम परम्परा के साथ होता है, आगे चलकर इस परम्परा ने भी विकृत रूप ले लिया, क्योंकि वरपक्ष द्वारा दहेज की माँग की जाने लगी। यदि वधूपक्ष की आर्थिक स्थिति अच्छी है, तो वह स्वयं ही अपनी क्षमता के अनुसार अधिक से अधिक दहेज देता है, लेकिन यदि वधूपक्ष गरीब है और वरपक्ष द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर माँग की जाती है, तो वह बहुत अनुचित बात हो जाती है। दुर्भाग्य से हिन्दुओं में वरपक्ष द्वारा दहेज के लिए सौदेबाजी भी की जाती है, जो अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है। यह अरब देशों और मुस्लिम समाज की उस परम्परा के ठीक विपरीत है, जिसमें कन्यापक्ष द्वारा वरपक्ष से धन की माँग की जाती है, जिस कारण बहुत से गरीब लड़के कुँवारे रह जाते हैं तथा यौन अपराधों की ओर मुड़ जाते हैं। इस सौदेबाजी में वर और कन्या के गुण महत्वहीन हो जाते हैं, केवल उनकी आर्थिक क्षमता ही महत्वपूर्ण हो जाती है।

यही दहेज का विकृत रूप है, जिसका कुपरिणाम वधुओं को मानसिक रूप से सताने, शारीरिक पीड़ा पहुँचाने और जलाकर मार डालने तक के रूप में सामने आता है। हालांकि अब दहेज हत्या के खिलाफ कठोर कानून बन गया है, लेकिन यह देखने में आया है कि इस कानून का सदुपयोग कम और दुरुपयोग अधिक किया जा रहा है, क्योंकि इसमें वरपक्ष को अपनी सफाई का मौका दिये बिना सीधे ही दोषी ठहरा दिया जाता है।

हमारी परम्परा में स्त्रीधन अर्थात् दहेज को निकृष्ट कहा गया है। इसका अर्थ है कि वरपक्ष द्वारा अपने स्वार्थों के लिए उसका उपयोग नहीं करना चाहिए। उसका उपयोग केवल वधू की सुख-सुविधा के लिए अथवा संकट के समय ही करना चाहिए। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम दहेज की इस परम्परा की विकृतियों को दूर करके इसे प्राचीन काल की श्रेष्ठ परम्परा का रूप दें। किसी भी रूप में दहेज की माँग करना अनुचित है। इसके बजाय हमें वर और कन्या के गुणों को देखना चाहिए।

Thursday 25 July 2013

मिड डे मील योजना में सुधार की आवश्यकता

आये दिन देश भर में मिड डे मील योजना में घोटालों, लापरवाही, बीमारियों और मौतों के समाचार आते रहते हैं। इससे एक बात तो यह सिद्ध होती है कि इस योजना को लागू करते समय इसकी व्यावहारिकता के पहलू पर पर्याप्त विचार नहीं किया गया और वोटों की खातिर इसे अधकचरे रूप में ही लागू कर दिया गया, जिसका कुपरिणाम देश को अपने नौनिहालों की अकाल मृत्यु के रूप में भुगतना पड़ रहा है। यदि तत्काल ही इस योजना में सुधार नहीं किया गया, तो परिणाम इससे भी अधिक भयावह हो सकते हैं।

सबसे पहले तो इस योजना की जिम्मेदारी स्कूलों पर डालना गलत है। अध्यापकों का मुख्य कार्य छात्रों को पढ़ाना है न कि उनके भोजन की व्यवस्था करना। विद्यालयों में केवल एक पार्ट-टाइम कामचलाऊ रसोइया नियुक्त करने से इस योजना को सफलतापूर्वक लागू नहीं किया जा सकता।

दूसरी बात इस योजना के लिए प्रति छात्र जितना धन स्वीकार किया गया है, जो कई जगह केवल 2 या 3 रुपये प्रतिदिन है, वह उनको एक समय का भरपेट भोजन देने के लिए पर्याप्त नहीं है। पौष्टिकता की तो बात करना ही बेकार है, क्योंकि विद्यालयों का उद्देश्य किसी भी तरह इस फालतू जिम्मेदारी को निबटाना मात्र होता है, न कि छात्रों को भोजन उपलब्ध कराना। इसलिए इस योजना का असफल होना अवश्यंभावी था।

मेरी दृष्टि में इस योजना में थोड़ा सा परिवर्तन करके सफलतापूर्वक लागू किया जा सकता है। अगर हम पके हुए भोजन के बजाय भिगोये हुए और अंकुरित किये हुए अन्न जैसे चने, गेंहूँ, मूँग आदि बच्चों को उपलब्ध करायें, तो इससे एक ओर तो भोजन की गुणवत्ता की समस्या खत्म हो जायेगी, दूसरी ओर बच्चों को पौष्टिक और सुपाच्य खुराक भी मिलेगी। बीच-बीच में उस अंकुरित या भिगोये गये अन्न को छौंका जा सकता है, ताकि बच्चों को स्वादिष्ट लगे और विविधता बनी रहे। उनमें साधारण नमक के अलावा मौसम और उपलब्धता के अनुसार गाजर, मूली, टमाटर, प्याज, ककड़ी, खीरा आदि के टुकड़े डालकर इसको अधिक स्वादिष्ट और अधिक पौष्टिक भी बनाया जा सकता है।

यह भोजन पकाये हुए भोजन की तुलना में काफी सस्ता और पौष्टिक भी होगा। यदि मात्र 25 ग्राम चने, 10 ग्राम मूँग और 10 ग्राम गेंहूँ भिगोये जायें, तो एक बच्चे के एक समय के भोजन के लिए पर्याप्त मात्रा में अंकुरित अन्न उपलब्ध हो जाएगा। इसका मूल्य वर्तमान बाजार भाव 40 रुपये किलो चने, 15 रुपये किलो गेंहूँ और 80 रुपये किलो मूँग के हिसाब से केवल 2 रुपये प्रति छात्र प्रति दिन होगा। इसमें अन्य विविध खर्चे जोड़ लिये जायें, तो केवल 2 रुपये 50 पैसे प्रति छात्र प्रति दिन पौष्टिक और स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध कराया जा सकता है।

इस प्रकार के भोजन में न केवल पकाने की समस्या कम होगी, बल्कि भोजन के जहरीले होने का भी कोई प्रश्न नहीं रहेगा। इस भोजन को परोसने के लिए बर्तनों का भी झंझट नहीं है, क्योंकि केवल पत्तों के दोने में दिया जा सकता है। एक बार का भोजन तैयार करने के लिए केवल एक बड़ा भगौना पर्याप्त है। दो रात पहले अन्न को भिगोया जा सकता है और उसके 12 घंटे बाद पानी निकालकर ढककर रखा जा सकता है, जिससे 36 घंटे में अंकुर निकल आयेंगे। इस प्रकार इसको तैयार होने में 48 घंटे लगेंगे। एक विद्यालय में छात्रों की संख्या के अनुसार पर्याप्त आकार के केवल दो भगौने आवश्यक होंगे।

पुराने जमाने के लोग बताते हैं कि पहले उनके स्कूलों में भिगोये हुए चने बँटवाये जाते थे। जनता पार्टी की सरकार के दिनों में जब स्व. श्री राजनारायण स्वास्थ्य मंत्री बने थे, तो उन्होंने स्कूलों में भिगोये हुए चने बँटवाने की बात की थी। वे यह योजना क्यों नहीं लागू कर पाये, इसकी जानकारी मुझे नहीं है। लेकिन इसे अब लागू करके अपने नौनिहालों के भोजन और पौष्टिकता की समस्या को बहुत हद तक कम किया जा सकता है।

Tuesday 23 July 2013

फिर एक गणितीय पहेली : रोटियाँ


एक गाँव के तीन मित्र तीर्थयात्रा पर गये। वहाँ एक दिन उन्होंने मिलकर ढेर सारी रोटियाँ बनायीं। रोटी बनाते-बनाते वे थक गये, तो यह तय करके सो गये कि सुबह रोटियों का बँटवारा करके खायेंगे।

रात में एक व्यक्ति की नींद खुली और उसे भूख लगी, तो उसने रोटियों की तीन बराबर ढेरियाँ बनायीं। एक रोटी बच गयी, तो उसने वह रोटी कुत्ते को डाल दी और एक ढेरी की रोटियाँ खुद खा लीं। बाकी दोनों ढेरियों की रोटियों को उसने उसी जगह रख दिया।

थोड़ी देर बाद दूसरे व्यक्ति की नींद खुली और उसे भी भूख लगी, तो उसने उन रोटियों की तीन बराबर ढेरियाँ बनायीं। एक रोटी फिर बच गयी, तो उसने भी वह रोटी कुत्ते को डाल दी और एक ढेरी की रोटियाँ खुद खा लीं। बाकी दोनों ढेरियों की रोटियों को उसने भी उसी जगह रख दिया।

उसके थोड़ी देर बाद तीसरे व्यक्ति की नींद खुली और उसे भी भूख लगी, तो उसने उन रोटियों की तीन बराबर ढेरियाँ बनायीं। एक रोटी फिर बच गयी, तो उसने भी वह रोटी कुत्ते को डाल दी और एक ढेरी की रोटियाँ खुद खा लीं। बाकी दोनों ढेरियों की रोटियों को उसने भी उसी जगह रख दिया।

सुबह तीनों व्यक्ति उठे और रोटियाँ खाने बैठे। उन्होंने उन रोटियों की तीन बराबर ढेरियाँ बनायीं। एक रोटी फिर बच गयी, तो उन्होंने वह रोटी कुत्ते को डाल दी और एक-एक ढेरी की रोटियाँ तीनों ने खा लीं।

रोटियों की ढेरियाँ बनाने में किसी को भी किसी भी रोटी को तोड़ना नहीं पड़ा।

बताइये कि उन्होंने शुरू में कुल कितनी रोटियाँ बनायी थीं? (इस प्रश्न के अनन्त उत्तर हैं, लेकिन आपको सबसे छोटा उत्तर देना है।)

Friday 12 July 2013

महाभारत का एक प्रसंग - बकासुर वध

वारणावत् के षड्यंत्र से बचकर पांडव बहुत दिनों तक राक्षसों के क्षेत्र में रहे थे और फिर भगवान वेदव्यास के आदेश पर उस वन क्षेत्र से दूसरी ओर अर्थात् उत्तर-पूर्व की ओर आर्यों की आबादी में निकले थे। उनको वेदव्यास से यह सूचना मिल गयी थी कि कांपिल्य नगरी में महाराजा उग्रसेन द्रुपद की पुत्री कृष्णा (द्रोपदी) का स्वयंवर होने वाला है, जिसमें धनुर्वेद की बहुत कठिन प्रतियोगिता रखी गयी है। वेदव्यास का आदेश था कि पांडवों को अवश्य इस प्रतियोगिता में भाग लेना चाहिए और तब तक अपनी पहचान छिपाये रखनी चाहिए।

प्रतियोगिता में अभी कई माह बाकी थे और पांडवों को अपने पहचाने जाने का डर था, इसलिए भगवान वेदव्यास ने ही वहाँ एकचक्रा नामक नगरी में एक परिचित ब्राह्मण के घर गुप्तरूप में उनके निवास की व्यवस्था करा दी थी। वहाँ रहते हुए वे ब्राह्मणों के वेश में भिक्षा के लिए निकलते थे और फिर लौटकर भोजन ग्रहण करते थे। इसी तरह वे दिन व्यतीत कर रहे थे।

एक दिन जब वे विश्राम कर रहे थे, तो उन्होंने अपने आतिथेय ब्राह्मण के घर में रोने-धोने की आवाज सुनी। वे उनकी बातचीत को ध्यान लगाकर सुनने लगे। सभी रो रहे थे और अपने-अपने प्राण देने की बात कर रहे थे। महारानी कुंती से यह न देखा गया। वे उनके पास आकर पूछने लगीं कि आप लोग क्यों रो रहे हैं और प्राण देने की क्या बात है? बहुत पूछने पर गृहस्वामी ब्राह्मण ने बताया- ‘इस नगरी के पास एक पहाड़ी की गुफा में बकासुर नामक एक राक्षस रहता है। उससे नगर के शासक ने यह समझौता कर रखा है कि प्रतिदिन उसके पास एक व्यक्ति उसका भोजन लेकर आया करेगा। इस तरह रोज ही कोई न कोई व्यक्ति उसका भोजन लेकर जाता था और राक्षस उसको भी मार देता था। कल हमारी बारी आयी है, इसलिए हममें से किसी को जाना पड़ेगा और अपने प्राण देने पड़ेंगे।’

कुंती को यह जानकर बहुत दुःख हुआ। उन्होंने उस ब्राह्मण से कहा कि तुम चिन्ता मत करो। मेरे तो पाँच पुत्र हैं, मैं उनमें से किसी को राक्षस का भोजन लेकर भेज दूँगी। यह सुनकर ब्राह्मण कहने लगा- ‘आप हमारी अतिथि हैं, मैं आपके प्राण संकट में नहीं डाल सकता, यह बहुत बड़ा पाप होगा।’ लेकिन कुंती ने उसे समझाया कि मेरे पुत्र बहुत बलशाली हैं, वे राक्षस को अवश्य मार डालेंगे। काफी कहने पर ब्राह्मण मान गया।

अगले दिन कुंती ने भीम को भेज दिया। भीम भोग्य सामग्री से भरे छकड़े को खींचते हुए उस पहाड़ी के पास पहुँचे। वे जानबूझकर आराम से चलते हुए गये थे और देर से पहुँचे थे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने आवाज लगायी- ‘बक, तुम कहाँ हो? मैं तुम्हारा भोजन लाया हूँ, आ जाओ।’ यह कहकर वे स्वयं ही उस खाद्य सामग्री को उदरस्थ करने लगे।

भीम की आवाज सुनकर बक को बड़ा आश्चर्य हुआ। आज तक किसी ने उसे नाम से पुकारने की हिम्मत नहीं की थी। उसके भोजन का समय हो चुका था और अभी तक भोजन न आने पर वह क्रोधित था। वह क्रोध में दहाड़ते हुए आया, तो देखा कि भोजन लाने वाला आदमी खुद ही उसका भोजन खाये जा रहा है। अत्यन्त क्रोध में भरकर वह भीम की पीठ पर मुक्के बरसाने लगा। भीम ने कहा- ‘जरा रुक जाओ। मुझे भोजन तो कर लेने दो।’

जब भीम का पेट भर गया, तो वे बक से बोले- ‘बक! तुम बहुत दिनों से इस नगर के लोगों को सता रहे हो। अब समय आ गया है कि उसका हिसाब चुकता कर लिया जाये।’ यह कहकर उन्होंने बक को मार-मार कर भुरकस बनाना शुरू किया। बक भूखा तो था ही, काफी ठुकाई होने के बाद जब वह शिथिल पड़ गया, तो भीम ने उसकी दोनों बाँहें तोड़ डालीं। इससे वह जानवर की तरह डकराने लगा। फिर वे उसकी छाती पर कूदने लगे। जब वह मरणासन्न हो गया, तो भीम ने उसकी गरदन मरोड़ दी, जिससे वह सदा के लिए शान्त हो गया। इसके बाद भीम उसकी लाश को उसी छकड़े पर लाद लाये और अंधेरा होने के कुछ देर बाद ही उसकी लाश उस नगर के मुख्य द्वार के बाहर डाल दी।

दूसरे दिन सुबह नगर के लोगों ने देखा कि बक की लाश नगर के बाहर पड़ी हुई है, तो उनको बहुत आश्चर्य हुआ। वे उस ब्राह्मण के घर आये, जिसकी कल बारी थी और पूछने लगे कि उसने ऐसा कैसे किया। तब उस ब्राह्मण ने बताया कि यह उसके घर में रह रहे एक अतिथि परिवार के युवक ने किया है। नगर के लोग उस अतिथि का अभिनन्दन करने के लिए जोर देने लगे। यह जानकर ब्राह्मण पांडवों को बुलाने भीतर गया, तो देखा कि वहाँ कोई नहीं था। वास्तव में उस घर के बाहर लोगों की भीड़ इकट्ठी होते देखकर ही पांडव सारा मामला समझ गये थे और अपनी पहचान छिपाने के लिए पिछले दरवाजे से निकलकर चले गये थे, जिससे किसी को उनका पता नहीं चला।

स्वयं कष्ट उठाते और अपरिचित रहते हुए भी सबकी भलाई के लिए कार्य करना पांडवों का स्वभाव था। बकासुर वध की इस घटना से इस बात की पुष्टि होती है।

Tuesday 9 July 2013

रेलवे द्वारा टिकटों की कालाबाजारी

शीर्षक पढ़कर चौंकिये मत। मैं बहुत गम्भीरता से कह रहा हूँ कि रेल विभाग टिकटों की जमकर कालाबाजारी कर रहा है। जब किसी वस्तु की जानबूझकर नकली कमी पैदा की जाती है और फिर उसे ऊँचे और मनमाने मूल्य पर बेचा जाता है, तो उसे कालाबाजारी कहा जाता है। रेल विभाग ठीक यही कर रहा है।

रेलवे ने सभी गाडि़यों में सभी श्रेणी की टिकटों का एक बड़ा भाग विभिन्न वर्गों के कोटे और तत्काल कोटे के नाम पर अलग कर रखा है, जिनका आरक्षण आम यात्रियों को नहीं किया जाता। अगर सभी कोटों को जोड़ा जाये तो आधी से कुछ कम सीटें रेलवे ने अपने हाथ में रखी हुई हैं और बाकी सीटों का ही आरक्षण किया जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि सीटें उपलब्ध होते हुए भी आम यात्री को लम्बी प्रतीक्षा सूची में पड़े रहना पड़ता है। कुल सीटों का लगभग 20 प्रतिशत भाग रेलवे तत्काल कोटे के नाम पर कालाबाजार में बेचता है।

जो यात्री महीनों पहले से टिकटों की प्रतीक्षा सूची में हैं और टिकटों का पूरा पैसा जमा करा चुके हैं, उनको छोड़कर तत्काल कोटे के नाम पर नये आने वाले लोगों को अधिक पैसे लेकर सीटें पकड़ा देना प्रतीक्षारत यात्रियों के साथ अन्याय और बेईमानी नहीं तो क्या है? रेलवे में तत्काल जैसा कोई कोटा होना ही नहीं चाहिए, क्योंकि जो लोग महीनों पहले से अपनी यात्रा की योजना बना चुके हैं, उनको हर हालत में प्राथमिकता मिलनी चाहिए। यदि किसी को अचानक जाना पड़ता है, तो वह आम यात्री की तरह सामान्य बोगी में जा सकता है या यदि उसके पास अधिक पैसा है तो हवाई यात्रा या अन्य साधनों से जा सकता है।

इसलिए रेलवे को चाहिए कि सभी प्रकार के अलग-अलग कोटे समाप्त करके केवल एक विवेकाधीन कोटा रखा जाये, जिसका आकार 5 प्रतिशत से अधिक न हो और जिसका लाभ विशिष्ट व्यक्तियों को ही मिले। इससे दलालों का झंझट खत्म होगा और आम यात्रियों को बिना परेशानी के टिकट मिलेगा।

दूसरी बात, रेलवे को एक महीने या उससे भी पहले आरक्षण कराने वाले यात्रियों को सीट मिलने की गारंटी देनी चाहिए, क्योंकि इस सेवा पर रेलवे का एकाधिकार है। यदि उसके पास साधन उपलब्ध नहीं हैं, तो एक माह का समय वैकल्पिक व्यवस्था करने के लिए पर्याप्त है। रेलवे की अकर्मण्यता का परिणाम वे यात्री क्यों भुगतें, जो महीनों पहले से टिकट का पूरा पैसा जमा करा चुके हैं?

तीसरी बात, प्रतीक्षा सूची के यात्रियों से बिना सीट दिये टिकटों के पैसों में से कटौती करना गलत है, क्योंकि जब तक रेल विभाग यात्री को सीट मिलने की गारंटी नहीं देता, तब तक लिपिकीय खर्च के अलावा अन्य कोई भी कटौती करने का अधिकार उसे नहीं है। यह इसलिए भी कि प्रतीक्षा सूची की राशि पर कोई भी ब्याज यात्री को नहीं मिलता, जबकि रेलवे को उससे करोड़ों की आय होती है।

Friday 5 July 2013

पहेली - बनियों की बारात

यह उस जमाने की बात है, जब जातिवाद अपने चरम पर था। (अब तो वह मायावती, मुलायम सिंह और लालू प्रसाद की कृपा से खत्म (?) हो गया है।) एक गाँव से बनियों की एक बारात जा रही थी। उसमें पूरे 100 बाराती थे। कुछ ब्राह्मण थे, कुछ जाट थे और बाकी बनिये थे। जब बारात जनवासे पहुँची तो लड़की वालों ने उनके लिए पूरी 100 थालियाँ लगायीं।

भोजन के लिए बैठने से पहले ब्राह्मण अड़ गये कि हम तो एक-एक आदमी दो-दो थालियों में खायेंगे। तब जाट भी अड़ गये कि हम तो एक-एक आदमी चार-चार थालियों में खायेंगे। बात बिगड़ते देखकर शर्म के मारे बनियों ने कहा कि कोई बात नहीं, हम चार-चार आदमी एक-एक थाली में खा लेंगे। इस तरह बात बन गयी। न कोई बाराती बचा और न कोई थाली बची।

बताइये कि बारात में कितने-कितने ब्राह्मण, जाट और बनिये थे?

(नोट- इस पहेली के दो उत्तर हैं। आप कोई एक या दोनों उत्तर बता सकते हैं।)



उत्तर - मान लो बारात में क ब्राह्मण, ख जाट और ग बनिये हैं। तो प्रश्नानुसार-
क + ख + ग = 100 (यह समी. 1 है)

अब थालियों के अनुसार-
2क + 4ख + ग/4 = 100
इसमें 4 का गुणा करने पर-
8क + 16ख + ग = 400 (यह समी. 2 है)

समी. 2 में से समी. 1 घटाने पर-
7क़ + 15ख = 300
या 7क = 300 - 15ख
या क = 15 (20 - ख)/7

क पूर्णांक हो, इसके लिए आवश्यक है कि (20 - ख) में 7 का पूरा-पूरा भाग जाये। ख के ऐसे दो मान हैं - 6 और 13। इसके अनुसार क के मान क्रमशः 30 और 15 आते हैं। इन मानों को समी. 1 में रखने पर ग के मान क्रमशः 64 और 72 आते हैं।

इस प्रकार इस पहेली के दो उत्तर हैं- पहला, 30 ब्राह्मण, 6 जाट और 64 बनिये तथा दूसरा, 15 ब्राह्मण, 13 जाट और 72 बनिये।

भगवान श्री परशुराम : आदर्श क्षत्रिय की खोज

पौराणिक युग में जिस चरित्र ने भारत के इतिहास पर सबसे अधिक प्रभाव डाला था, वे थे भगवान श्री परशुराम। परशुराम को पौराणिक लोग ईश्वर के दस अवतारों में से एक मानते हैं। लेकिन हम यहां उनकी चर्चा उन्हें एक सामान्य मानव और महापुरुष मानकर ही कर रहे हैं। वे भृगुवंशी ब्राह्मण थे और ऋषि जमदग्नि के पुत्र थे। उनकी माता का नाम रेणुका था। बचपन में उनका नाम ‘राम’ था। बाद में परशु नामक शस्त्र को धारण करने और उसके चालन में निपुण होने के कारण उनका नाम 'परशुराम' पड़ गया।

उस युग में ब्राह्मणों का कार्य केवल शास्त्रों का पठन-पाठन और यज्ञ करना हुआ करता था। अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा से अवश्य देते थे, लेकिन स्वयं नहीं चलाते थे, क्योंकि क्षत्रिय उनकी रक्षा करते थे और उन्हें स्वयं अस्त्र-शस्त्र चलाने की आवश्यकता नहीं हुआ करती थी। लेकिन परशुराम का युग आने तक बहुत से क्षत्रिय स्वच्छंद हो गये थे। वे मर्यादाओं का पालन नहीं करते थे और ब्राह्मणों का अपमान तक कर देते थे।

उस समय कार्तवीर्य अर्जुन, जिसे सहस्रबाहु भी कहा जाता है, का अत्याचार बहुत बढ़ गया था। अपने दम्भ में आकर एक दिन उसने परशुराम के पिता जमदग्नि की हत्या उनके ही आश्रम में कर डाली। उस समय परशुराम बाहर गये थे। जब वे लौटे तो उन्हें अर्जुन की करतूतों का पता चला। तब से उनको केवल उसी से नहीं बल्कि पूरे क्षत्रिय वर्ग से घृणा हो गयी। उन्होंने शस्त्र धारण करने का निश्चय किया और अत्याचारी क्षत्रियों के भार से पृथ्वी को मुक्त करने का संकल्प किया।

वे अपने इस संकल्प में सफल रहे। उन्होंने न केवल कार्तवीर्य अर्जुन का सपरिवार संहार किया, बल्कि उसके सहायक अन्य क्षत्रियों को भी दण्ड दिया। उनका संघर्ष अयोध्या में शासन करने वाले इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियों से नहीं हुआ, क्योंकि वे अत्याचार नहीं करते थे। उन्होंने ब्राह्मण युवकों को शस्त्र धारण करने की प्रेरणा दी और केवल ब्राह्मणों तथा चरित्रवान क्षत्रियों को ही अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा दिया करते थे।

एक बार जब उनको पता चला कि मिथिला के राजा जनक की पुत्री के स्वयंवर में एक क्षत्रिय ने शिवजी के प्राचीन धनुष को तोड़ डाला है, तो वे यह सोचकर क्रोधित हुए कि ऐसा कौन क्षत्रिय पैदा हो गया, तो इतना गुणवान और शक्तिशाली है। वे उसी समय मिथिला आ धमके। उस समय तक राम और सीता का विवाह हो चुका था और दशरथ अयोध्या लौट रहे थे। परशुराम ने उनको मार्ग में ही रोक लिया और उनसे धनुष तोड़ने का कारण पूछा। तब श्रीराम ने अपनी विनयशीलता और वाक्पटुता से उनको निरुत्तर किया।

भगवान परशुराम ने समझ लिया कि यह क्षत्रिय साधारण क्षत्रिय नहीं है, बल्कि अत्यन्त श्रेष्ठ, चरित्रवान् और वीर क्षत्रिय है। इसके हाथों में देश और धर्म का भविष्य सुरक्षित है। वे आदर्श क्षत्रिय की खोज में थे ही। भगवान श्रीराम के रूप में उनकी खोज पूरी हुई। प्रतीक रूप में उन्होंने श्रीराम को अपना एक अस्त्र प्रदान कर दिया। फिर सन्तुष्ट होकर वन को गमन किया।

अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा वे तब भी दिया करते थे। परशुराम को अमर माना जाता है। सम्भव है बाद में अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देने वाले ब्राह्मण स्वयं को परशुराम कहते हों। कहा जाता है कि महाभारत के भीष्म को परशुराम ने ही धनुष चालन की शिक्षा दी थी। कर्ण ने भी स्वयं को ब्राह्मण बताकर उनसे शिक्षा प्राप्त की थी। परशुराम के बारे में अनेक कहानियां प्रचलित हैं। वे ऐसे पहले पौराणिक चरित्र थे, जो शस्त्र और शास्त्र दोनों में ही निपुण थे।

मुहम्मद बिन कासिम का आक्रमण

अपनी स्थापना के समय से ही इस्लाम के अनुयायियों का यह सपना रहा है कि वे अपने दीन को पूरी दुनिया में फैलायें यानी सबको इस्लाम के झंडे तले ले आयें, जिससे सभी जगह इस्लामी परिभाषा की ‘शान्ति’ हो। यह आर्यों की ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ या ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ जैसी उदात्त भावना नहीं थी, बल्कि घोर साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा थी। इस्लाम के प्रत्येक खलीफा का यह धार्मिक कर्तव्य माना जाता था कि वे संसार के अधिक से अधिक लोगों के मुसलमान बनायें। इस कर्तव्य या कहिए कि महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए खूनी संघर्ष और सामूहिक जनसंहार करने में भी उनको कोई संकोच नहीं था।

आज के सेकूलर लोग भले ही यह दावा करें कि इस्लाम का प्रसार तलवार के जोर से नहीं हुआ था, लेकिन कटु सत्य यही है कि इस्लाम केवल तलवार के बल पर ही फैला था। अरब देशों से इसकी शुरूआत हुई और शीघ्र ही इसकी आँधी ने उत्तरी अफ्रीका, पश्चिमी एशिया और यूरोप के कुछ भागों को आक्रांत कर लिया था। यूनान, मिश्र और रोम की विकसित और महान् सभ्यतायें इसने जड़ मूल से मिटा दीं। इनकी जगह घोर मतान्धता की असभ्यता फैल गयी। यहूदी और पारसी समुदाय को इसने या तो इस्लाम को अपनाने या अपने मूल वतनों को छोड़कर भागने को मजबूर कर दिया। बहुत से लोगों ने इस्लाम को मान लिया, क्योंकि अपने प्राण सबको प्यारे होते हैं, लेकिन फिर भी बहुत से लोग इधर-उधर निकलकर चले गये और हिन्दुस्तान जैसे देशों में बस गये।

इतने पर भी इस्लाम की रक्त पिपासा शान्त नहीं हुई। उनकी निगाह प्रारम्भ से ही हिन्दुस्तान की महान् सभ्यता पर गढ़ी हुई थी। यूरोप में आगे बढ़ती इस्लामी आँधी को तो स्पेन के योद्धाओं ने रोक दिया, इसलिए अब उनका पूरा ध्यान हिन्दुस्तान की ओर लगा। जब से इस्लाम अस्तित्व में आया था, लगभग तभी से इस्लाम के झंडाबरदार अपनी धर्मांध और बर्बर सेनाएँ लेकर हिन्दुस्तान से टकरा रहे थे। सिंध क्षेत्र भारत की धुर पश्चिमी सीमा पर था। इसलिए फारस (ईरान) पर कब्जा करने के बाद इस्लाम का सीधा टकराव सिंध से हुआ।

सन् 638 ई. से 711 ई. तक के 74 वर्षों के काल में नौ इस्लामी खलीफाओं ने कम से कम 15 बार सिंध पर आक्रमण किया और 14 बार पराजित होकर भाग गये। पन्द्रहवें आक्रमण का नेतृत्व कर रहा था मुहम्मद बिन कासिम, जो उस समय केवल 17 साल का था। वह दस हजार घुड़सवारों की सेना के साथ आया था। यह आक्रमण जल और थल दोनों रास्तों से किया गया था। पहले उसने देबाल के बंदरगाह पर कब्जा कर लिया, जो आजकल की कराची के निकट है। यही वह क्षण था, जिसके बारे में मुहम्मद अली जिन्ना के कथन का सन्दर्भ देकर पाकिस्तान के बच्चों को पढ़ाया जाता है कि जिस दिन पहले मुसलमान का पैर सिंध में पड़ा था, उसी दिन पाकिस्तान की नींव रख दी गयी थी।

उस समय सिंध पर राजा दाहिर सेन का शासन था। वह ब्राह्मण पिता चच और क्षत्रिय माता सोहन्दी का पुत्र था। चच से पहले सिंध पर राजपूत क्षत्रिय राजा साहसी राय का शासन था, जिसके पुरखे पिछले 600 वर्षों से सिंध पर राज कर रहे थे। साहसी राय के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उन्होंने अपने कश्मीरी ब्राह्मण मंत्री चच को अपना उत्तराधिकारी बना दिया। साहसी राय के बाद चच सिंध का राजा बन गया। राजा साहसी राय की रानी सोहन्दी ने दरबारियों की सलाह से उससे विवाह कर लिया। राजा दाहिर उनका ही पुत्र था।

दुर्भाग्य से चच अधिक दूरदर्शी नहीं था। अपने दम्भ में उसने सिंध के प्रमुख समुदायों लोहाणों, गुर्जरों और जाटों को अपमानित करके ऊँचे पदों से हटा दिया, जिससे ये समुदाय उसने रुष्ट हो गये। चच अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहा। उसके बाद उसके छोटे भाई चन्दर ने शासन सँभाला। उसने एक नयी गलती यह की कि बौद्धधर्म स्वीकार कर लिया और बौद्ध को अपना राज धर्म घोषित कर दिया। परन्तु वह भी केवल सात वर्ष ही शासन कर सका।

उसके बाद सन् 679 ई. में दाहिर सेन राजा बने। वे बहुत दूरदशी थे। उन्होंने सभी समुदायों को साथ लेकर चलने का संकल्प लिया और फिर से सनातन हिन्दू धर्म अपना लिया। हालांकि उनके राज्य में बौद्धों को भी पूरी धार्मिक स्वतंत्रता थी। राजा दाहिर अपना शासन राजधानी आलोर से चलाते थे। उन्होंने देबाल बंदरगाह पर प्रशासन की दृष्टि से अपना सूबेदार नियुक्त किया हुआ था। उनके शासन काल में सिंध बहुत समृद्ध था और समुद्र के रास्ते दूर-दूर के देशों से उनका व्यापार होता था।

उन दिनों ईरान में इस्लामी खलीफा का शासन था। हजाज उसका मंत्री था। खलीफा के पूर्वजों ने सिंध को फतह करने के बहुत मंसूबे बनाये थे, परन्तु कभी सफल नहीं हुए थे। लेकिन एक अरब व्यापारी के जहाज को समुद्री लुटेरों द्वारा लूटे जाने की घटना को बहाना बनाकर खलीफा ने अपने सेनापति अब्दुल्ला के नेतृत्व में सेना को सिंध पर आक्रमण करने भेजा। इस सेना को राजकुमार जयशाह के नेतृत्व में सिंध की सेना ने बुरी तरह हराया। अब्दुल्ला को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।

जब युद्धभूमि में हार का समाचार खलीफा तक पहुँचा, तो वह बहुत तिलमिलाया। फिर उसने एक नौजवान सैनिक मोहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में एक बड़ी सेना भेजी। कासिम ने सीधे युद्ध लड़ने से पहले कूटनीति से काम लिया। उस समय देबाल का सूबेदार ज्ञानबुद्ध नामक सरदार था, जो कि बौद्ध था। कासिम ने उसे सिंध की गद्दी का लालच देकर अपनी ओर फोड़ लिया। इससे देबाल में उपस्थित सेना निष्क्रिय हो गयी। लेकिन अरब सेना के देबाल पहुँचने का समाचार राजा दाहिर को मिल चुका था। उनका पुत्र जय शाह अपनी सेना के साथ तैयार होकर देबाल आ गया। लेकिन ज्ञानबुद्ध के विश्वासघात के कारण सिंध के सैनिक हार गये और देबाल पर अरबों का कब्जा हो गया।

देबाल के पतन का समाचार आलोर में राजा दाहिर को मिला, तो वे अपनी सेना लेकर युद्ध के लिए आ गये। 20 जून, सन् 712 ई. के दिन रावर नामक स्थान पर राजा दाहिर की सेना ने कासिम की सेना का मुकाबला किया। उन्होंने बहुत वीरता दिखाई, लेकिन आँख में तीर लग जाने के कारण वे हाथी से गिर गये और गिरते ही अरब सैनिकों ने तीरों और भालों से उनके शरीर को छलनी कर दिया। अपने राजा को मृत देखकर सिंधी सेना का मनोबल टूट गया और वे हार गये।

सिंध पर कासिम का कब्जा हो गया। इसके फौरन बाद उसने अपना असली चरित्र दिखा दिया। जिन बौद्धों ने उसकी सहायता की थी, उनको ही उसने गाजर-मूली की तरह काट डाला। उसने तक्षशिला विश्वविद्यालय को पूरी तरह नष्ट कर दिया। हजारों पुरुषों, बच्चों और वृद्धों को या तो बलात् मुसलमान बना लिया गया या कत्ल कर दिया गया। महिलाओं का शीलभंग किया गया और बहुत सी कन्याओं को गुलाम बनाकर ईराक में खलीफा के पास भेज दिया गया। तभी से सिंध हमेशा के लिए मुस्लिम शासकों का गुलाम हो गया। हालांकि कासिम भी अधिक समय सिंध में नहीं रह सका। किसी बात पर नाराज होकर नये खलीफा ने उसे वापस बुला लिया और जेल में डाल दिया, जहाँ यातनाओं से उसका प्राणान्त हो गया।

अरबों का राज्य केवल सिंध के कुछ भाग और पंजाब के दक्षिणी भाग तक ही सीमित रहा। वह सारा क्षेत्र आजकल पाकिस्तान में शामिल है। लेकिन अरबों का राज्य सिंध के पूर्व में बिल्कुल नहीं बढ़ सका, क्योंकि गुजरात के बप्पा रावल ने उनको ऐसी करारी हार दी कि लगभग 500 वर्षों तक मुसलमान शासकों की हिम्मत भारत की ओर आँख उठाकर देखने की भी नहीं हुई। इसकी कहानी अगली बार।

महाभारत का एक पात्र - युयुत्सु

यह बात तो सभी जानते हैं कि धृतराष्ट्र के गांधारी से सौ पुत्र थे। लेकिन यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि धतराष्ट्र का एक पुत्र और था, जो एक वणिक वर्ग की महिला दासी से उत्पन्न हुआ था। उसका नाम था- युयुत्सु। जिस प्रकार दासी से उत्पन्न होने पर भी विदुर जी को राजकुमारों का सा सम्मान दिया गया था, उसी प्रकार युयुत्सु को भी राजकुमारों जैसा सम्मान और अधिकार प्राप्त था, क्योंकि वह धृतराष्ट्र का पुत्र था।

राजकुमारों की तरह ही उसकी भी शिक्षा-दीक्षा हुई और वह काफी योग्य सिद्ध हुआ। वह एक धर्मात्मा था, इसलिए दुर्योधन की अनुचित चेष्टाओं को बिल्कुल पसन्द नहीं करता था और उनका विरोध भी करता था। इस कारण दुर्योधन और उसके अन्य भाई उसको महत्व नहीं देते थे और उसका मजाक भी उड़ाते थे। उसने युद्ध रोकने का अपने स्तर पर बहुत प्रयास किया था और दरबार में भी ऐसे ही विचार प्रकट करता था, लेकिन उसकी बात नक्कारखाने में तूती की तरह बनकर रह जाती थी।

जब महाभारत का युद्ध प्रारम्भ होने वाला था, तो वह भी मजबूरीवश दुर्योधन के पक्ष में लड़ने के लिए मैदान में उपस्थित हो गया था। उसी समय युद्ध प्रारम्भ होने से ठीक पहले महाराज युधिष्ठिर ने कौरव सेना को सुनाते हुए घोषणा की - ‘मेरा पक्ष धर्म का है। जो धर्म के लिए लड़ना चाहते हैं, वे अभी भी मेरे पक्ष में आ सकते हैं। मैं उसका स्वागत करूँगा।’ इस घोषणा को सुनकर केवल युयुत्सु कौरव पक्ष से निकलकर आया और पांडव पक्ष में शामिल हो गया। युधिष्ठिर ने गले लगाकर उसका स्वागत किया। कौरवों ने उसको बनिया-महिला का बेटा और कायर कहकर अपमानित किया। लेकिन उसने अपना निर्णय नहीं बदला।

महाभारत के युद्ध में युयुत्सु ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। युधिष्ठिर ने उसको सीधे युद्ध के मैदान में नहीं उतारा, बल्कि उसकी योग्यता को देखते हुए उसे योद्धाओं के लिए हथियारों और रसद की आपूर्ति व्यवस्था का प्रबंध देखने के लिए नियुक्त किया। उसने अपने इस दायित्व को बहुत जिम्मेदारी के साथ निभाया और अभावों के बावजूद पांडव पक्ष को हथियारों और रसद की कमी नहीं होने दी।

युद्ध के बाद भी उसकी भूमिका महत्वपूर्ण रही। महाराज युधिष्ठिर ने उसे अपना मंत्री बनाया। धृतराष्ट्र के लिए जो भूमिका विदुर जी ने निभाई थी, लगभग वही भूमिका युधिष्ठिर के लिए युयुत्सु ने निभाई थी। इतना ही नहीं, जब युधिष्ठिर महाप्रयाण करने लगे और उन्होंने परीक्षित को राजा बनाया, तो युयुत्सु को उसका संरक्षक बना दिया। इतिहास गवाह है कि युयुत्सु ने इस दायित्व को भी अपने जीवने के अंतिम क्षण तक पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ निभाया था।

यह माना जाता है कि आजकल के उत्तर प्रदेश के पश्चिमी और राजस्थान के पूर्वी भागों में रहने वाले जो जाट जाति के लोग हैं वे उन्हीं महात्मा युयुत्सु के वंशज हैं।