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Wednesday 23 October 2013

सालार मसूद का पूर्ण विनाश

महमूद गजनवी पर अपने लेख में मैं लिख चुका हूँ कि 1001 ई0 से लेकर 1025 ई0 तक महमूद गजनवी ने भारतवर्ष को लूटने की दृष्टि से 17 बार आक्रमण किया तथा मथुरा, थानेसर, कन्नौज व सोमनाथ के अति समृद्ध मंदिरों को लूटने में सफल रहा। सोमनाथ की लड़ाई में उसके साथ उसके भान्जे सैयद सालार मसूद ने भी भाग लिया था। 1030 ई. में महमूद गजनवी की मृत्यु हो गयी।

महमूद गजनवी के अधूरे सपनों को पूरा करने और भारत की समृद्धि को लूटकर अपना स्थायी राज्य कायम करने की कामना से उसके भांजे सैयद सालार मसूद ने एक विशाल सेना लेकर अपने पिता सालार साहू के साथ 1034 ई0 में भारत पर आक्रमण किया। इस अभियान में उसके साथ सैय्यद हुसैन गाजी, सैय्यद हुसैन खातिम, सैय्यद हुसैन हातिम, सुल्तानुल सलाहीन महमी, बढ़वानिया सालार सैफुद्दीन, मीर इजाउद्दीन उर्फ मीर, सैय्यद मलिक दौलतशाह, मियां रज्जब उर्फ हठीले, सैय्यद इब्राहिम और मलिक फैसल जैसे अत्यंत क्रूर सेनापति थे।

इनके साथ जिहाद के नाम पर बर्बर अत्याचार करता हुआ सालार मसूद दिल्ली, मेरठ, बुलंदशहर, बदायूं, और कन्नौज के राजाओं को रौंदता हुआ, मंदिरों-देवस्थानों को ध्वस्त करता हुआ, गोहत्या और इस्लाम न स्वीकार करने वालों को तलवार के घाट उतारता हुआ, बच्चों व स्त्रियों को गुलाम बनाता हुआ, अपार धन-सम्पत्ति लूटता हुआ वह उत्तर प्रदेश के सतरिख (जनपद बाराबंकी) आ पहुंचा। सतरिख में डेरा डालकर सैय्यद सालार मसूद ने चारों दिशाओं में अपनी सेनाएं भेजकर भारत के उत्तर पूर्व के राज्यों को जीतकर महमूद गजनवी के परचम फहराने की घोषणा कर दी।

उसका उद्देश्य अयोध्या पर कब्जा करके उसे अपनी राजधानी बनाने का था। इसलिए पहले उसने अयोध्या के पास स्थित बहराइच पर आक्रमण किया। वहाँ सैय्यद सालार मसूद की विशाल सेना का मुकाबला श्रावस्ती के पराक्रमी राजा सुहेल देव से हो गया। उन्होंने अपने संगठन कौशल तथा सफल व्यूह रचना के बल पर सालार मसूद की विशाल सेना का सामना किया। महाराजा सुहेल देव ने अपने निकटस्थ सभी राजाओं को संगठित कर, सबको साथ लेकर सैय्यद सालार मसूद की सेना को नाकों चने चबवा दिए। महाराजा सुहेल देव का साथ देने वाले राजाओं के नाम ये थे- 1. राय सायब, 2. राय रायब, 3. अर्जुन, 4. भग्गन, 5. गंग, 6. मकरन, 7. शंकर, 8. करन, 9. बीरबल, 10. जयपाल, 11. श्रीपाल, 12. हरपाल, 13. हरकरन, 14. हरखू, 15. नरहर, 16. भल्लर, 17. जुधारी, 18. नारायण, 19. भल्ला, 20. नरसिंह तथा 21. कल्याण।

उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले के पयागपुर क्षेत्र के बघेल तथा टेढ़ी नदी के बीच महाराजा सुहेलदेव सहित 22 हिन्दू राजाओं की सम्मिलित सेना और सैय्यद सालार मसूद की सेना के बीच पांच दिनों तक जमकर युद्ध होता रहा। अन्ततः महाराजा सुहेल देव ने विक्रमी संवत् 1091 में ज्येष्ठ मास के पहले रविवार 10 जून, 1034 ई0 को आक्रांता सैय्यद सालार मसूद को अपने तीर के वार से मौत के घाट उतार दिया। साथ ही उसकी एक लाख तीस हजार सेना का भी सम्पूर्ण रूप में संहार किया। उस युद्ध से एक भी आक्रमणकारी सैनिक बचकर नहीं भाग सका। महाराजा सुहेल देव के इस प्रबल पराक्रम का ही परिणाम था कि अगले 150 वर्षों तक किसी भी आक्रमणकारी को भारतवर्ष पर आक्रमण करने का साहस नहीं हुआ।

हिंदू हृदय सम्राट राजा सुहेल देव पासी ने अपने धर्म का पालन करते हुए, सालार मसूद को इस्लाम की परम्परा के अनुसार कब्र में दफन करा दिया था। कुछ समय पश्चात् तुगलक वंश के आने पर फिरोज शाह तुगलक ने सालार मसूद को इस्लाम का सच्चा संत सिपाही (गाजी) घोषित करते हुए उसकी पक्की कब्र बनवा दी। आज उसी हिन्दुओं के हत्यारे, हिंदू औरतों के बलात्कारी ,मूर्तिभंजक दानव को मूर्ख हिंदू ‘गाजी मियाँ’ तथा ‘गाजी बाबा’ के नाम से एक देवता की तरह पूजते हैं और उसकी कब्र पर मत्था टेकते हैं। कितनी बिडम्बना है कि हिंदू वीर शिरोमणि राजा सुहेल देव पासी सिर्फ पासी समाज के आदर्श बनकर रह गए हैं, जबकि क्रूर हत्यारा आक्रान्ता सालार मसूद हिन्दू समाज का पूजनीय बन गया है। इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं है कि एक आक्रांता की कब्र से स्थानीय मुसलमान अपना जुड़ाव महसूस करते हैं।

भारत के स्कूलों में जो सरकारी इतिहास पढ़ाया जाता है, उसमें महमूद गजनवी और मुहम्मद गोरी के पाठ हैं और उनको अतिरंजित रूप में महान् विजेताओं की तरह याद किया जाता है, लेकिन सालार मसूद की पूर्ण पराजय का कोई जिक्र नहीं किया जाता और न इस बात का कोई स्पष्टीकरण दिया जाता है कि इन दोनों आक्रमणकारियों के बीच जो 150 वर्ष का अन्तर है, उस अवधि में कोई हमला क्यों नहीं हुआ। लेकिन जब हम महाराजा सुहेल देव के पराक्रम की कहानी पढ़ते हैं, तो सारी बातें स्पष्ट हो जाती हैं।

Monday 14 October 2013

हाथों के दर्द की सरल चिकित्सा

हमारी पाँचों कर्मेन्द्रियों में हाथ सबसे प्रमुख हैं। हम अपने लगभग सभी कार्य हाथ की सहायता से करते हैं। इसलिए हाथ का एक पर्यायवाची ‘कर’ भी है। अन्य सभी अंगों की तरह हाथ से ज्यादा काम लेने से इसमें भी थकान आती है और दर्द होने लगता है। कम्प्यूटर पर कार्य करने वालों का तो सारा कार्य ही हाथों से होता है, क्योंकि कीबोर्ड और माउस पर हाथ ही कार्य करते हैं। अधिक देर तक कीबोर्ड पर लगातार कार्य करने से उँगलियों और हथेली में दर्द होने लग जाता है। इसी तरह माउस अधिक चलाने से पूरी हथेली में दर्द होने लगता है और बार-बार क्लिक करने से वह उँगली भी दर्द करने लगती है। यहाँ तक कि क्लिक करना और माउस चलाना बहुत कष्टप्रद हो जाता है। यदि यह समस्या तत्काल दूर न की जाये, तो दर्द स्थायी बन जाता है। 

आजकल कम्प्यूटरों पर कार्य करने वालों की संख्या बहुत बढ़ गयी है, इसलिए हाथों के दर्द की शिकायत भी बहुत बढ़ गयी है। यहाँ मैं कुछ ऐसे उपाय और व्यायाम बता रहा हूँ जिनसे हाथों का दर्द सरलता से और गारंटी से दूर किया जा सकता है।

1. सबसे पहले तो जैसे ही हाथों या उँगलियों में दर्द प्रारम्भ हो, सभी कार्य बन्द कर देने चाहिए और कुछ मिनट हाथों को विश्राम देना चाहिए। यदि सम्भव हो, तो उसी समय हाथों को ठंडे पानी से धो लेना चाहिए। इससे दर्द से तत्काल बहुत आराम मिल जायेगा।

2. फिर नीचे लिखे व्यायाम करने चाहिए।
उँगलियाँ- दोनों हाथ आगे करके उँगलियों को फैला लीजिए। अब उँगलियों की हड्डियों पर जोर डालते हुए धीरे-धीरे मुट्ठी बन्द कीजिए और झटके से खोलिए। मुट्टी बन्द करते समय एक बार अँगूठा बाहर रहेगा और एक बार भीतर। ऐसा 10-10 बार कीजिए।

कलाई- (1) दोनों हाथ आगे करके हथेलियों को फैला लीजिए और उँगलियों को मिला लीजिए। अँगूठा भी उँगलियों से चिपका रहेगा। अब हथेली को खड़ा रखते हुए भीतर की ओर कलाई पर से मोडि़ये। फिर पूर्व स्थिति में लाइ़ए। ऐसा 10-15 बार कीजिए। (2) अब हथेली को खड़ा रखते हुए बाहर की ओर कलाई पर से मोडि़ये। फिर पूर्व स्थिति में लाइ़ए। ऐसा 10-15 बार कीजिए। (3) दोनों मुट्ठियाँ बन्द कर लीजिए। अँगूठा भीतर रहेगा। कलाई को स्थिर रखकर मुट्ठियों को गोलाई में एक दिशा में 10 बार घुमाइए। इसी प्रकार 10 बार उल्टी दिशा में घुमाइए।

कोहनी- (1) दोनों हाथ सामने करके हथेलियों को ऊपर की ओर खोलकर फैला लीजिए। उँगलियाँ और अँगूठा चिपके रहेंगे। अब हाथ को सीधा रखकर झटके से कोहनी पर से मोड़ते हुए उँगलियों से कंधों को छूइए। फिर खोल लीजिए। ऐसा 10-10 बार कीजिए। (2) यही क्रिया हाथों को दायें-बायें फैलाकर 10-10 बार कीजिए। (3) यही क्रिया दोनों हाथों को ऊपर खड़ा करके 10-10 बार कीजिए।

इन सभी व्यायामों को करने में मुश्किल से 5 मिनट लगते हैं। इसलिए ये कभी भी और कहीं भी किये जा सकते हैं। वैसे इनको अपने नियमित दैनिक व्यायामों में शामिल कर लेना चाहिए।

3. यदि हाथों में दर्द अधिक हो और स्थायी हो गया हो, तो ताली बजाने से धीरे-धीरे ठीक हो जाता है। इसके लिए प्रतिदिन किसी भी समय कम से कम एक हजार बार तालियाँ बजानी चाहिए। तालियाँ न अधिक जोर से और न अधिक धीरे से बजायी जायें। सारी उँगलियाँ खोलकर आराम से इस तरह तालियाँ बजाइए कि सारी उँगलियाँ और दोनों हथेलियाँ आपस में टकरायें। ताली बजाने से और भी अनेक लाभ होते हैं, जिनको आप स्वयं अनुभव कर लेंगे।

महाभारत का एक प्रसंग : तब तेरा धर्म कहाँ था?

महाभारत के युद्ध के 17वें दिन जब वीरवर अर्जुन और महावीर कर्ण के बीच भीषण संग्राम हो रहा था, तब लड़ते-लड़ते कर्ण के रथ का पहिया जमीन में धँस गया। कर्ण रथ से उतरकर पहिये को निकालने लगा। तब अर्जुन ने मौका अच्छा जानकर बाण तान लिया और छोड़ने ही वाला था कि मौत सामने देखकर कर्ण चिल्लाया- ‘क्या कर रहे हो, अर्जुन? यह धर्म युद्ध नहीं है, मैं निहत्था हूँ!’

यह सुनकर अर्जुन ठिठक गया, लेकिन जबाब दिया भगवान कृष्ण ने-
‘अच्छा तो, महाशय, अब तुझे धर्म की याद आ रही है! तू क्या जानता है धर्म क्या होता है?
तब तेरा धर्म कहाँ था, जब तुमने दुर्योधन के साथ मिलकर वारणावत में पांडवों को जीवित ही जलाकर मारने की कोशिश की थी?
तब तेरा धर्म कहाँ गया था, जब तुमने शकुनि के साथ मिलकर द्यूतक्रीड़ा के बहाने पांडवों का सर्वस्व हरण कर लिया था?
तब तेरा धर्म कहाँ चला गया था, जब तुमने महारानी द्रोपदी को भरी सभा में नंगा करने की सलाह दी थी?
तब तेरा धर्म कहाँ उड़ गया था, जब तुम सात मुस्टंडों ने एक निहत्थे बालक को घेरकर मार डाला था?’

भगवान कृष्ण एक-एक करके कर्ण की करतूतें गिना रहे थे और बार-बार पूछते थे- ‘कु ते धर्मस्तदा गतः?’ बता तब तेरा धर्म कहाँ चला गया था?

कर्ण के पास कोई उत्तर नहीं था। भगवान ने फिर उसे फटकारा- ‘तू नीच, तू हमें क्या धर्म सिखाएगा? हमें अच्छी तरह मालूम है कि हमारा धर्म क्या है!’

तब भगवान ने अर्जुन से कहा- ‘अर्जुन, तुम इस दुष्ट की बातों में मत आओ। आजीवन पाप करने वाला और पापियों का साथ देने वाला यह आदमी धर्म की बात करने का अधिकारी नहीं है। इसे धर्म का नाम तक लेने का अधिकार नहीं है। तुम अभी इसका सिर काट दो, ताकि इसे पता चल जाये कि सच्चा धर्म क्या होता है।’

तब अर्जुन ने कर्ण को धर्म का जो सबक सिखाया, वह सबको मालूम है।

जब हम आज की परिस्थिति में इस प्रसंग पर विचार करते हैं, तो समानता स्पष्ट हो जाती है। जिन तथाकथित धर्मों में सहिष्णुता, मानवता और न्याय नाम की कोई चीज नहीं है, वे हिन्दुओं को बार-बार यह याद दिलाते हैं कि यह कार्य हिन्दू धर्म के सिद्धान्तों के विपरीत है। हिन्दुओं को चाहिए कि वे ऐसे मामलों में भगवान कृष्ण के वचनों का स्मरण करें और अर्जुन की तरह अपना कर्तव्य निश्चित करें।

Saturday 12 October 2013

महमूद गजनवी के आक्रमण

मुहम्मद बिन कासिम के बारे में अपने लेख में मैं लिख चुका हूँ कि सन् 711 में सिंध के राजा दाहिर को हराने के बाद मुस्लिम सुल्तानों के पैर सिंध में जम गये थे। लेकिन वे कभी अपने राज्य का विस्तार नहीं कर सके, क्योंकि गुजरात और राजपूताना के राजा बप्पा रावल और उनके वंशजों ने कभी उनको सिंध के पूर्व में आगे नहीं बढ़ने दिया। हालांकि वे कभी भी कासिम के उत्तराधिकारियों से सिंध छीनने में सफल नहीं हो सके, लेकिन उस समय की परिस्थितियों में 300 वर्षों से अधिक समय तक इस्लामी आँधी को रोक रखना भी मामूली बात नहीं थी।

कासिम के बाद भारत पर पहला बड़ा आक्रमण गजनी के सुल्तान महमूद ने किया था, जो भारतीय इतिहास में महमूद गजनवी के नाम से कुख्यात है। वह अफगानिस्तान के एक शहर गजनी का शासक था और उसने अपनी शक्ति इतनी बढ़ा ली थी कि सम्पूर्ण अफगानिस्तान के साथ ही उसने इसके दक्षिण में पेशावर और सिंध के लगभग सभी भागों को अपने अधीन कर लिया था। इसी से उसे प्रेरणा मिली कि इस्लाम को भारत में फैलाया जाये। उसने सुना था कि भारत के मन्दिरों में बहुत दौलत है और वहाँ के राजााओं के पास भी अकूत सम्पत्ति है, इसलिए वह दौलत लूटने के साथ ही इस्लाम को फैलाना चाहता था।

महमूद गजनवी ने भारत के विभिन्न भागों पर 17 बार आक्रमण किये थे। कभी लाहौर, कभी कश्मीर, कभी राजपूताना के कुछ क्षेत्र उसने जीते भी, उसने मथुरा, कन्नौज तक भी धावे किये, लेकिन कभी वह अपने पैर नहीं जमा सका और हर बार उसे तुरन्त ही वापस भागना पड़ा। इसका कारण यह था कि वह अचानक ही किसी स्थान पर धावा करता था और आसपास के शासकों को इकट्ठे होने का मौका नहीं मिलता था, लेकिन जैसे ही वे एक साथ मिलकर उसके मुकाबले को आते थे, वैसे ही वह लूट का माल और अपनी जान लेकर वापस भाग जाता था।

1024 में अपने 17वें आक्रमण में वह अपनी सारी सेना के साथ आया और इस बार उसका लक्ष्य था सोमनाथ का विश्व प्रसिद्ध मन्दिर, जहाँ की दौलत के बारे में उसने बहुत सुन रखा था। उस समय तक बप्पा रावल के वंशज भी कमजोर हो गये थे और कई राज्यों में बँट गये थे।

फिर भी महमूद को सोमनाथ में जीत आसानी से नहीं मिली। गुजरात और राजपूताना के शासकों और जनता ने उसका जमकर मुकाबला किया, हजारों-लाखों हिन्दुओं ने अपने प्राणों की बलि दी। लेकिन कुछ लोगों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और विश्वासघात के कारण वह सोमनाथ पर कब्जा करने में सफल हुआ। उसने सबसे पहले मन्दिर के पुजारियों को मारा और सारी सम्पत्ति लूटने के साथ ही वहाँ के शिवलिंग को भी तोड़ डाला। सोमनाथ से उसने इतनी सम्पत्ति लूटी कि उसे सैकड़ों खच्चरों और ऊँटों पर लादकर गजनी ले गया।

जो लोग यह कहते हैं कि महमूद गजनवी केवल सम्पत्ति लूटने आया था, इस्लाम का प्रचार करने नहीं, वे झूठ बोलते हैं। सत्य तो यह है कि महमूद ने खुलकर कहा था कि ”मैं बुतशिकन (मूर्तिभंजक) हूँ, बुतपरस्त (मूर्तिपूजक) नहीं।“ वह हिन्दुओं से कितनी घृणा करता था, इसका पता इस बात से चलता है कि उसने शिवलिंग के टुकड़ों को खच्चरों पर लदवाकर गजनी भेज दिया था, जहाँ उनको एक प्रमुख मस्जिद की सीढि़यों पर लगा दिया गया, ताकि उन पर नमाज पढ़ने आने वालों के पैर पड़ें। वे टुकड़े आज भी वहीं लगे हुए हैं। महमूद गजनवी की मानसिकता उसके साथ ही समाप्त नहीं हुई। आज भी भारत में कुछ लोग उसी मानसिकता से ग्रस्त हैं और गजनवी के फिर आने का इन्तजार करते हैं। यह मानसिकता ही इस्लामी आतंकवाद का मूल कारण है।

महमूद गजनवी द्वारा लूटी गयी अपार सम्पत्ति को देखकर लगभग 5 वर्ष बाद उसके भांजे सालार मसूद ने भारत पर स्थायी कब्जा करने की नीयत से लगभग 1 लाख सैनिकों की सेना के साथ भारत पर आक्रमण किया था और समूचे उत्तर भारत को पार करते हुए बहराइच तक पहुँच गया था। उसका उद्देश्य वाराणसी के विश्वविख्यात विश्वेश्वर महादेव के मन्दिर को तोड़ना और उसकी सम्पत्ति को लूटना था। लेकिन बहराइच में घाघरा के किनारे 22 हिन्दू राजाओं की सेनाओं ने राजा सुहेलदेव पासी के नेतृत्व में उसकी सारी सेना को गाजर-मूली की तरह काट डाला। इसकी कहानी अगली बार विस्तार से बताऊँगा। यह गौरवशाली कहानी स्वतंत्र भारत के इतिहासकारों ने जानबूझकर छिपायी है। लेकिन सत्य कभी हमेशा छिपा नहीं रह सकता।

गांधी जयन्ती पर झूठ!

हर साल 2 अक्तूबर आता है और झूठ बोलने के चैनल चालू हो जाते हैं। यों तो मोहनदास कर्मचन्द गाँधी को ‘सत्य के पुजारी’ कहा जाता है, पर उनके ही नाम पर और उनके ही बारे में पूरी निर्लज्जता से झूठ बोले जाते हैं। यों तो उनके बारे में अनेक झूठे दावे किये जाते हैं, पर जो दो झूठ ज्यादा दोहराये जाते हैं, मैं यहाँ उनकी चर्चा करूँगा।

उनके बारे में सबसे पहला और सबसे बड़ा झूठ यह बोला जाता है कि उन्होंने और कांग्रेस ने देश को आजादी दिलायी। यह बिल्कुल गलत दावा है। आजादी के लिए गाँधी ने और उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने जितने भी आन्दोलन चलाये थे (1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन सहित) वे सभी बुरी तरह असफल रहे थे। ऐसे आन्दोलन चलाकर तो अगले 100 वर्ष में भी गाँधी और कांग्रेस देश को आजाद नहीं करा सकते थे। वास्तव में देश को आजादी क्रांतिकारियों के बलिदान और 1946 में हुए नौसेना विद्रोह के कारण मिली थी। उसके साथ ही दूसरे विश्व युद्ध में अंग्रेजों की कमर टूट जाना भी एक बड़ा कारण था। इसलिए अंग्रेजों ने अपने सभी उपनिवेशों को आजाद करने का निर्णय कर लिया था।

1947 के आस-पास के समय और भी अनेक देश अंग्रेजी दासता से मुक्त हुए थे, जैसे श्रीलंका, बर्मा, अफगानिस्तान, इस्रायल आदि, जहाँ न कोई गाँधी था और न कोई कांग्रेस जैसी पार्टी। इसलिए यह कहना सरासर झूठ है कि गाँधी या कांग्रेस ने आजादी दिलायी। कांग्रेस को केवल अंग्रेजों से सत्ता झटकने का श्रेय दिया जा सकता है, वह भी देश की हत्या करके। उस समय और कोई बड़ी पार्टी नहीं थी, इसलिए अंग्रेजों ने अपने पिट्ठू नेहरू और उसकी कांग्रेस को सत्ता सौंपकर चले जाना ही उचित समझा। इतना स्पष्ट सत्य होते हुए भी आज भी पूरी बेशर्मी से यह झूठ बोला जाता है कि गाँधी और कांग्रेस ने आजादी दिलायी।

गाँधी के बारे में दूसरा बड़ा झूठ यह बोला जाता है कि वे अहिंसा के पुजारी थे और आजादी अहिंसा से प्राप्त हुई। सत्य तो यह है कि गाँधी अहिंसा के नहीं बल्कि कायरता के पुजारी थे। तभी वे क्रांतिकारियों का विरोध करते थे। उन्होंने भगत सिंह आदि की फाँसी रुकवाने की कोई कोशिश नहीं की थी, बल्कि अंग्रेजों को वह ‘शुभ कार्य’ जल्दी कर डालने की सलाह दी थी। यह कहना भी गलत है कि आजादी अहिंसा से मिली। वास्तव में आजादी से पहले 1946 में नोआखाली आदि में भयंकर दंगे हुए थे, जिनमें हजारों-लाखों की जानें गयी। देश की हत्या होने के बाद भी पाकिस्तान के हिस्से में रहने वाले हिन्दुओं पर अमानुषिक अत्याचार हुए, जिनमें लाखों लोगों के प्राण गये। उस समय की नालायक नेहरू की सरकार तो उनको सुरक्षित भारत लाने का इंतजाम भी नहीं कर सकी और न गाँधी ने उनके लिए कुछ किया। इसलिए तथाकथित आजादी अहिंसा से नहीं बल्कि घोर हिंसा के बाद मिली थी।

ये सत्य हमारे स्कूलों में नहीं पढ़ाये जाते, बल्कि उनके दिमाग में यही झूठ भरे जाते हैं कि आजादी अहिंसा से और गाँधी के कारण मिली। अब यह झूठ बोलना बन्द कर दिया जाना चाहिए।