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Wednesday 20 February 2013

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव के नाम एक खुला पत्र


माननीय मुख्यमंत्री जी, 

पिछले विधानसभा चुनावों में प्रदेश की जनता ने आपकी पार्टी को पूर्ण बहुमत दिया और आपकी पार्टी ने आपको मुख्यमंत्री चुना, तो लगा कि अब प्रदेश का तेजी से विकास होगा, क्योंकि आपको अपनी कुर्सी बचाने के लिए जोड़-तोड़ की राजनीति नहीं करनी पड़ेगी और न सहयोगी दलों के दबाब में आना पड़ेगा। लेकिन आपका लगभग एक वर्ष का कार्यकाल देखने के बाद हमें बहुत निराशा हुई है। इसके निम्नलिखित कारण हैं-

1. आपका ध्यान केवल अपने अल्पसंख्यक अर्थात् मुस्लिम वोट बैंक को बनाये रखने पर लगा हुआ है और प्रदेश की आर्थिक हालत की चिन्ता किये बिना उसका धन खुले हाथों मुस्लिमों पर लुटा रहे हैं। इसके अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं- केवल मुस्लिमों लड़कियों को परीक्षा पास करने पर हजारों का अनुदान देना, केवल मुस्लिमों को नये-नये वजीफे देना, केवल मस्जिदों के निर्माण और मरम्मत के लिए धन देना, उर्दू विश्वविद्यालय के लिए करोड़ों का धन देना, हज पर अधिक सबसिडी देना आदि-आदि। इसकी तुलना में आपने बहुसंख्यकों को कोई नयी सुविधा नहीं दी है और न उनके मन्दिरों के निर्माण या मरम्मत के लिए कोई धनराशि प्रदान की है। आप इस बात को नहीं समझ रहे हैं कि आपके इस प्रकार के एक तरफा निर्णयों से भले ही आपका मुस्लिम वोट तो बैंक मजबूत हो रहा है, लेकिन आप समाज में एक ऐसे भेदभाव को पैदा और चौड़ा कर रहे हैं, जिसके कुपरिणाम आगे जाकर प्रदेश को भुगतने होंगे।

2. आप भ्रष्टाचार से लड़ने की बात करते हैं, लेकिन अभी तक आपने केवल बसपा सरकार के भ्रष्टाचार को उजागर किया है और उसके कई पूर्व मंत्रियों को अदालत की चौखट तक पहुँचाया है। लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं है। आपको यह भी देखना चाहिए कि आपके वर्तमान मंत्री और नौकरशाह भ्रष्टाचार न करें। लेकिन खेद की बात है कि अभी तक केवल चेहरे बदले हैं और मंत्रियों तथा नौकरशाहों द्वारा प्रदेश की लूट लगातार जारी है, जिस पर लगाम लगाने में आप बुरी तरह असफल रहे हैं। 

3. आप कानून-व्यवस्था बनाये रखने और अपराध रोकने के नाम पर सत्ता में आये थे। लेकिन आपके राज्य में अपराध बढ़े ही हैं और कानून-व्यवस्था बदतर हुई है। अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को मंत्री बनाकर आपने यह स्पष्ट कर दिया है कि आप अपराधों को रोकने के बारे में बिल्कुल गम्भीर नहीं हैं। 

4. आपका नया बजट पूरी तरह दिशाहीन है। इसमें प्रदेश के आधारभूत विकास का कोई ध्यान नहीं रखा गया है। आप प्रदेश में उद्योगपतियों को लाना चाहते हैं और उद्योग खोलना चाहते हैं। यह ठीक है, लेकिन बिना आधारभूत सुविधाओं के और कानून-व्यवस्था के कोई भी उद्योगपति प्रदेश में आना पसन्द नहीं करेगा। यदि आप प्रदेश का विकास चाहते हैं, तो आपको बिजली, सड़क, पानी आदि की मौलिक सुविधाओं में वृद्धि करनी होगी। 

गुजरात और बिहार ने मौलिक सुविधाओं में वृद्धि करके और कानून-व्यवस्था में सुधार करके ही उद्योगपतियों को आकर्षित किया है और अपना विकास किया है। कोई कारण नहीं कि हमारे अपने प्रदेश का विकास न हो सके। इस बारे में यदि आप नरेन्द्र मोदी जी और नीतिश कुमार जी से आवश्यक मार्गदर्शन लें तो प्रदेश के हित के लिए बेहतर होगा।

मुख्यमंत्री जी, यह ध्यान में रखें कि यदि प्रदेश का विकास होगा, तो आपकी पार्टी को भी श्रेय मिलेगा और अपने पिताश्री को देश के प्रधानमंत्री पद पर पहुँचाने का  सौभाग्य भी आपको प्राप्त होगा। इसके विपरीत यदि आप प्रदेश का विकास करने में असफल रहे और केवल अल्पसंख्यकों के एक वर्ग का विकास करते रहे, तो आप बहुसंख्यक समुदाय में अपना समर्थन खो देंगे और आपके पिताश्री का सपना भी टूट जायेगा।

हम तो प्रभु से प्रार्थना ही कर सकते हैं कि वह आपको सही रास्ता दिखाये जिससे प्रदेश का हित हो। हमारी शुभकामनायें आपके साथ हैं।

आपका ही-

विजय कुमार सिंघल
एक सजग नागरिक

(यह पत्र स्पीड-पोस्ट द्वारा मुख्यमंत्री जी को भेजा गया है।)

Saturday 16 February 2013

भोजशाला का विवाद


आजकल मध्यप्रदेश के धार जिले में शहर में स्थित भोजशाला का विवाद सुर्खियों में है। हर साल बसन्त पंचमी पर यह विवाद उभर आता है और हिन्दू-मुस्लिम दोनों समुदायों में संघर्ष का नवीनीकरण कर जाता है। आइए आज इस विवाद को गहराई से समझें।

आज जिसे भोजशाला कहा जाता है, वह कभी संस्कृत का अध्ययन केन्द्र या विश्वविद्यालय था, जो धार के प्रसिद्ध राजा भोज ने बनवाया था। इसका विस्तृत विवरण महाकवि बल्लाल कृत ‘भोजप्रबन्ध’ नामक ग्रंथ में मिलता है। इसका परिसर बहुत विस्तृत था, परन्तु अब केवल एक भवन ही दिखाई देता है। इसी भवन में वाग्देवी अर्थात् सरस्वती की प्रतिमा थी, जिसे सभी विद्याओं और कलाओं की देवी माना जाता है। इस प्रकार यह सरस्वती का मन्दिर भी था। वैसे तो प्रत्येक विद्यालय को परम्परा के अनुसार सरस्वती का मन्दिर ही माना जाता है।

हमलावर अलाउद्दीन खिलजी अपने जेहादी तेवरों के कारण शिक्षा केन्द्रों के दुश्मन के रूप में इतिहास में कुख्यात है। उसने तक्षशिला, वाराणसी और नालन्दा के प्रसिद्ध शिक्षालयों, विश्वविद्यालयों और पुस्तकालयों को धूल-धूसरित किया था। इसी क्रम में सन् 1305 ई. में उसने धार आकर इस संस्कृत विश्वविद्यालय पर आक्रमण किया और उसके सभी आचार्यों की हत्या करके इसको मटियामेट कर दिया। बाद में राजा मेदिनीराय ने वनवासी धर्मयोद्धाओं को साथ लेकर इस्लामी आक्रान्ताओं को भगाया, मगर विश्वविद्यालय का पूर्व रूप कभी नहीं लौट सका। इस स्थान को केवल भोजशाला के नाम से जाना जाता रहा।

बाद में भी शताब्दियों तक देश पर मुस्लिम बादशाहों का शासन रहा, इसलिए यह स्थान धीरे-धीरे काल के गाल में समाता गया और वर्तमान में यह केवल एक भवन तक सिमट गया है। इसमें जो सरस्वती की प्रतिमा रखी हुई थी, उसे 1903 में लार्ड कर्जन उठा ले गया और वह प्रतिमा आज भी लन्दन के संग्रहालय में रखी हुई है। इस स्थान पर मुस्लिम बादशाहों के कब्जे के समय बगल में ही कई कब्रें बना दी गयी थीं। उनमें से एक आज कमाल मौला दरगाह या मस्जिद के नाम से जानी जाती है, जिसमें मुसलमान रोज नमाज पढ़ते हैं। लेकिन वे भोजशाला पर भी दावा करते हैं और अदालत के आदेश से उनको केवल शुक्रवार को दिन में 2 घंटे वहाँ नमाज पढ़ने के लिए जाने का अधिकार है। हिन्दुओं को भी केवल बसन्त पंचमी के दिन वहाँ सरस्वती की पूजा करने का अधिकार दिया गया है।

इस बार गड़बड़ यह हो गयी कि बसन्त पंचमी भी शुक्रवार को पड़ गयी। शुक्रवार क्योंकि साल में 52 बार आता है और बसन्त पंचमी केवल एक बार। इसलिए आपसी सद्भाव के लिए मुसलमानों को चाहिए था कि इस शुक्रवार को नमाज केवल अपनी मस्जिद में पढ़ लेते और भोजशाला में हिन्दुओं को पूजा करने देते। परन्तु दुःख इस बात का है कि कठमुल्लों में इतनी समझदारी नहीं है। इसलिए वे अड़ गये कि हम तो वहीं नमाज जरूर पढ़ेंगे।

भोजशाला के इतिहास और उसके चित्र से स्पष्ट है कि इस स्थान के मस्जिद होने का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता। इसके बीच में यज्ञ की वेदी स्पष्ट दिखाई दे रही है। इसलिए इसको मस्जिद कहना महज जिद ही है। जो लोग राम जन्म भूमि के लिए प्रमाणों का रोना रोते रहते हैं, उन्हें इन जीते जागते प्रमाणों का आदर करना चाहिए और इस स्थान पर से मुसलमानों को अपना दावा छोड़ देना चाहिए। पर सवाल वही कि कठमुल्लों में इतनी समझदारी कहाँ हैं?

यहाँ न्यायालय की भूमिका पर भी कुछ प्रश्न उठते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि पूर्व निर्णय के अनुसार मुसलमानों  को शुक्रवार की नमाज और हिन्दुओं को बसन्त पंचमी की पूजा उसी स्थान पर करायी जाये। इस आदेश के पालन में मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने अपने ही कार्यकर्ताओं पर जमकर लाठियाँ चलायीं और प्रतीकात्मक ही सही न्यायालय के आदेश का पालन कराया। जब हम इसकी तुलना दिल्ली की कांग्रेस सरकार से करते हैं, तो दोनों पार्टियों की संस्कृतियों का अन्तर स्पष्ट हो जाता है।

दिल्ली सरकार ने मेट्रो स्टेशन के स्थान पर खड़ी की गयी दीवार को गिराने के न्यायालय के आदेश का पालन करने से यह कहकर इनकार कर दिया था कि उनके पास पर्याप्त पुलिस बल नहीं है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि न्यायालय के आदेशों के पालन का ठेका केवल हिन्दू समाज का है और शर्म-निरपेक्ष पार्टियों का काम केवल कठमुल्लों का तुष्टीकरण करने का है। जब तक यह प्रवृत्ति बनी रहेगी, तब तक भोजशाला जैसे विवादों का समाधान होने की कोई संभावना नहीं है।

कृष्ण और गोपियों का प्रेम


भगवान कृष्ण का सम्पूर्ण जीवन महान् कार्यों और घटनाओं से भरा रहा था। उन्होंने अपने बचपन के केवल 16 वर्ष ब्रज में बिताये थे और उसके बाद ब्रज को हमेशा के लिए छोड़ दिया था। इन 16 वर्षों में उन्होंने कुछ राक्षसों को मारने के अलावा कोई बड़ा कार्य नहीं किया था, लेकिन अपने सहज स्नेह से सभी ब्रजवासियों का हृदय इस प्रकार जीत लिया था कि आज भी ब्रजवासी उनको याद करते हैं।

बहुत से लोग कृष्ण पर गोपियों के साथ छेड़छाड़ करने और अन्य अनुचित आरोप लगाते हैं। ये आरोप पूरी तरह असत्य हैं। कोई चोर, लम्पट या लड़कियों को छेड़ने वाला व्यक्ति उनका प्रेम नहीं जीत सकता। गोपियाँ उनकी बाल-सुलभ क्रीड़ाओं और वंशी बजाने के कारण उनसे प्रेम करती थीं। वे सभी विवाहित महिलाएँ थीं और उनका प्रेम निश्छल था। वैसा ही कृष्ण का भी था। द्वारिका जाने के बाद जब उद्धव जी कृष्ण का संदेश लेकर गोपियों के पास पहुँचे, तो उनके प्रेम को देखकर दंग रह गये। गोपियों ने उनसे कहा- “उद्धव जी महाराज, आप अपना ज्ञान अपने पास रखिये। हमें नहीं चाहिए आपका ज्ञानी, ध्यानी, पराक्रमी कृष्ण। हमें तो अपना वही नटखट, गाय चराने वाला, माखन चुराने वाला, वंशी बजाने वाला, मन मोहने वाला कृष्ण चाहिए।” प्रेम की यह पराकाष्ठा देखकर उद्धव जी अपना सारा ज्ञान भूल गये।

जहाँ तक कृष्ण और राधा के प्रेम की बात है, पूरे महाभारत में एक बार भी राधा का नाम नहीं आया है, हालांकि उसमें किसी अन्य गोपी का नाम भी नहीं है। राधा भी उन्हीं गोपियों में से एक रही होगी। वैसे उसे रिश्ते में कृष्ण की मामी बताया जाता है। यह सम्भव है कि उसका प्रेम कृष्ण के प्रति कुछ अधिक रहा हो। ब्रज को छोड़ते समय कृष्ण अपनी प्रिय वंशी राधा को ही अपनी निशानी के रूप में दे गये थे। उसके बाद उन्होंने जीवनभर कभी वंशी नहीं बजायी। यह त्याग और निश्छल प्रेम की पराकाष्ठा नहीं तो क्या है? ऐसे पवित्र सम्बंध को कलंकित करना अनुचित ही नहीं घोर पातक है।

ब्रज छोड़ने के बाद जीवनभर कृष्ण एक बार भी ब्रज में नहीं गये। न कभी नन्द बाबा से मिले, न यशोदा मैया से। न गोप बालकों से मिले, न गोपियों से। लेकिन एक क्षण को भी वे ब्रज को भूल नहीं पाये। मैं स्वयं ब्रजवासी होने के कारण जानता हूँ कि ब्रजवासी कृष्ण के प्रति कैसी भावना रखते हैं। कभी वापस ब्रज न लौटने का उलाहना वे कृष्ण को आज भी देते हैं। उन्होंने कृष्ण को छलिया, ठग, नटवर, निर्मोही, घमंडी जैसे कई नाम दिये, लेकिन उनको प्रेम करना बन्द नहीं किया। कृष्ण और राधा के बहाने उन्होंने अपनी प्रेम भावनायें व्यक्त की हैं। ‘तू आ जा रे मोहन प्यारे, तुझे राधा बुलाती है।’

प्रेम की भावनायें मनुष्य में स्वाभाविक हैं। अन्य समाजों में इनको व्यक्त करने के अन्य तरीके हैं। रोमियो-जूलियट, लैला-मँजनू, शीरीं-फरहाद, हीर-राँझा जैसी अनेक प्रेम कहानियाँ संसार में प्रचलित हैं। लेकिन भारत में राधा और कृष्ण के माध्यम से प्रेम की भावनायें प्रकट की जाती हैं। इसमें धर्म और अध्यात्म का भी अंश होने के कारण लौकिक प्रेम सीमा के भीतर ही रहता है और विकृत रूप लेने से बच जाता है।

भगवान कृष्ण का चरित्र कितना महान् था, इसका एक प्रमाण महाभारत में मिलता है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में अग्र पूजा के समय कृष्ण के सगे फुफेरे भाई शिशुपाल ने कृष्ण की निन्दा में तमाम तरह की बातें कहीं, लेकिन लम्पटता का आरोप तो उसने भी नहीं लगाया। इसके विपरीत उसने कृष्ण को ‘नपुंसक’ कहा। इससे सिद्ध होता है कि कृष्ण वास्तव में चरित्रवान् और जितेन्द्रिय थे, क्योंकि प्रायः ऐसे लोगों को ही नपुंसक कहकर गाली दी जाती है।

कृष्ण ने केवल एक विवाह किया था रुकमिणी के साथ। उनकी सहमति से कृष्ण ने उनका हरण किया और फिर विधिवत् विवाह किया था। बहुत बाद में उनको सामाजिक दबाब से बाध्य होकर सत्राजित् की पुत्री सत्यभामा के साथ विवाह करना पड़ा था।

Saturday 9 February 2013

महाभारत के लिए दोषी - 4


1- भीष्म
महाभारत के युद्ध के लिए सर्वाधिक ब्लागरों-पाठकों ने भीष्म को सबसे बड़ा दोषी ठहराया है। उनमें श्री रंजन माहेश्वरी, श्री चुन्नू जी, श्री प्रकाश चन्द्र गुप्ता और श्री सुरेन्द्र सिंह ने उनको सीधे दोषी बताया है, जबकि श्री विजय कुमार शुक्ल, श्री विजय बाल्याण, श्री बालकृष्ण और श्री अजय प्रताप ने शान्तनु को दोषी बताया है, जिनको मैं भीष्म के खाते में गिन रहा हूँ। मैं इन सभी सज्जनों के मत से पूरी तरह सहमत हूँ। भीष्म को दोषी ठहराने के पक्ष में अनेक सुदृढ़ तर्क दिये गये हैं, जिनका मैं क्रमशः उल्लेख करूँगा।

भीष्म का सबसे बड़ा दोष यह था कि उन्होंने अपने पिता शान्तनु की कामवासना को सन्तुष्ट करने के लिए आजीवन अविवाहित रहने और कभी राज्य न लेने की कठोर प्रतिज्ञा कर डाली। उन्होंने प्रतिज्ञा करने से पहले यह नहीं सोचा कि पिता के बजाय अपने देश और वंश के प्रति भी उनका कोई कर्तव्य है। इस प्रतिज्ञा का पालन करने में अपना पूरा जीवन लगा दिया और इसकी आड़ में अपने अनेक कर्तव्यों की अवहेलना की। जब कोई व्यक्ति राष्ट्र से बड़ा हो जाता है, तो उसका कुपरिणाम राष्ट्र को भोगना ही  पड़ता है। भीष्म इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं।

भीष्म एक अपराजेय योद्धा थे। अपने इस गुण का उपयोग उन्होंने हस्तिनापुर राज्य के हित में नहीं बल्कि अपने व्यक्तिगत अहं को संतुष्ट करने में किया। सबसे पहले तो वे अपने बीमार और कमजोर भाई विचित्रवीर्य के लिए काशी की तीन राजकुमारियों को पकड़ लाये। वह सन्तान उत्पन्न करने में अक्षम था। जब वह निस्संतान मर गया, तो राष्ट्र के हित में उन्हें स्वयं राजा का दायित्व स्वीकार करना चाहिए था। यदि विचित्रवीर्य की विधवाओं से नियोग ही कराना था, तो यह कार्य उन्हें स्वयं ही करना चाहिए था, जिसका आदेश माता सत्यवती ने उनको स्वयं दिया था। उस समय सत्यवती के पिता ने उन्हें अपने वचन से मुक्त कर दिया था। अगर वे उसी समय अपनी प्रतिज्ञा को तोड़ देते तो देश और उनके वंश का बहुत हित होता, परन्तु उन्होंने वैसा नहीं किया।

यही गलती उन्होंने दूसरी बार तब की, जब वे जन्मांध धृतराष्ट्र के लिए गांधार की सर्वगुण सम्पन्न सुंदरी राजकुमारी को लगभग जबर्दस्ती ले आये। उन्होंने यह नहीं सोचा कि इस तरह वे एक राजकुमारी के साथ ही नहीं पूरे गांधार के साथ घोर अन्याय कर रहे हैं, जिसका कुपरिणाम उन्हें भोगना पड़ा।

उनकी तीसरी गलती यह थी कि वे धृतराष्ट्र के मूर्खतापूर्ण निर्णयों को मानते गये। समर्थ होते हुए भी उन्होंने वारणावत के षड्यंत्र के लिए दुर्योधन को कोई दंड नहीं दिया। यदि वे उसी समय यह घोषणा कर देते कि दुर्योधन युवराज होने के योग्य नहीं है, बल्कि दंडनीय है, तो न तो हस्तिनापुर का विभाजन होता और न महाभारत का युद्ध होता। यह जानते हुए भी कि केवल युधिष्ठिर ही राज्य के वैध उत्तराधिकारी हैं, उन्होंने हस्तिनापुर के विभाजन को स्वीकृति दी। उन्होंने हमेशा हस्तिनापुर की रक्षा करने की प्रतिज्ञा की थी, परन्तु विभाजन की स्वीकृति देकर इस प्रतिज्ञा को उन्होंने स्वयं ही तोड़ दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि वे धृतराष्ट्र के सामने पूरी तरह विवश हो जाते थे। अगर वे इस बात पर अड़ जाते कि मैं राज्य का विभाजन नहीं होने दूँगा, तो कुरुवंश विनाश से बच जाता।

उनका चौथा और सबसे बड़ा अपराध यह था कि द्यूतक्रीड़ा के समय वे दुर्योधन और शकुनि को मनमानी करते हुए तथा पांडवों और द्रोपदी का घोर अपमान करते हुए देखते रहे। वे चाहते तो तत्काल दुर्योधन को दंड दे सकते थे जो पूरी तरह उचित होता। लेकिन वे अपने दाँत पीसने के सिवा कुछ नहीं कर सके। यह उनकी अकर्मण्यता की पराकाष्ठा थी, जिसने कुरुवंश के विनाश पर अन्तिम मोहर लगा दी।

वे चाहते तो उस समय भी महायुद्ध को रोक सकते थे, जब श्रीकृष्ण दूत बनकर आये थे और केवल 5 गाँव लेकर सन्धि करने को तैयार थे। परन्तु भीष्म धृतराष्ट्र को कमजोर सी सलाह देने के अलावा कुछ नहीं कर सके। हालांकि वे अच्छी तरह जानते थे कि अब वंश का विनाश होने जा रहा है। कहने को तो वे यह कहते थे कि उनके लिए कौरव और पांडव समान हैं, परन्तु युद्ध में वे खुलकर कौरवों के पक्ष में लड़े और पांडव सेना का विनाश किया। यदि वे इन्द्रप्रस्थ को भी हस्तिनापुर का भाग मानते थे, तो उन्हें किसी भी ओर से नहीं लड़ना चाहिए था, बल्कि यह कहना चाहिए था कि जो जीतेगा मैं उसके साथ रहूँगा। वास्तव में वे दिग्भ्रमित हो गये थे और अपना कर्तव्य भूल गये थे। उन्होंने युद्ध में अपने प्राण दे देने को ही अपना प्रायश्चित माना था, जिसका तब कोई अर्थ नहीं रह गया था।

इस तरह के कई प्रबल कारण हैं जिनको देखते हुए भीष्म को महाभारत के युद्ध के लिए सबसे अधिक दोषी माना जा सकता है। भगवान कृष्ण के अलावा भीष्म के पास ही ऐसी शक्ति थी कि वे इस महाविनाश को रोक सकते थे, परन्तु उन्होंने अपनी शक्ति का कभी सदुपयोग नहीं किया।

महाभारत के लिए दोषी - 3


4- दुर्योधन
जो व्यक्ति युद्ध के लिए सबसे अधिक लालायित था और जिसने यह घोषणा की थी कि मैं बिना युद्ध के सुई की नोंक के बराबर भूमि भी नहीं दूँगा, उस दुर्योधन को महाभारत युद्ध के लिए केवल एक पाठक श्री चन्द्र प्रकाश ने सीधे जिम्मेदार ठहराया है। उसका पूरा जीवन केवल र्ष्या, द्वेष और प्रतिशोध से भरा हुआ था। उसने बचपन में ही भीम को विष देकर मार डालने का प्रयत्न किया था, जिससे वे नागों की सहायता से ही बच सके थे। थोड़ा बड़ा होने पर उसने वारणावत में पांडवों को जीवित जलाकर मार डालने का षड्यंत्र किया था, जिसे विदुर जी ने अपनी सूझ-बूझ से विफल कर दिया था। उसे पांडवों का अस्तित्व तक स्वीकार नहीं था। उसने अज्ञात कुल-गोत्र वाले कर्ण को अपना मित्र बनाकर अंग प्रदेश का राज्य दे दिया था, केवल इसलिए कि वह धनुष युद्ध में अर्जुन के समकक्ष था। वह परिवार के किसी भी वरिष्ठ व्यक्ति की कोई बात नहीं मानता था और कई बार उनके साथ उद्दंडता का व्यवहार कर देता था। वह केवल अपने मामा शकुनि के कहने पर चलता था और केवल उसको ही अपना हितैषी समझता था। वह अपनी माता का कहना भी नहीं मानता था और अपने अंधे पिता पर दबाब डालकर मनमाने निर्णय करा लेता था। उसने महायुद्ध रोकने के सभी प्रयत्नों को विफल कर दिया था। इसलिए दुर्योधन को महाभारत युद्ध के लिए दोषी पात्रों की सूची में इतना ऊपर रखा गया है।

3- शकुनि
केवल तीन पाठकों श्री राजीव गुप्ता, श्री अर्जुन और श्री लक्ष्मी कान्त ने शकुनि को महाभारत युद्ध के लिए सबसे अधिक दोषी ठहराया है। गांधार का यह राजकुमार समस्त कुरुवंश और विशेष रूप से भीष्म से इसलिए नाराज था कि उन्होंने उसकी सर्वगुण सम्पन्न सुन्दरी बहिन को एक जन्मांध से जबर्दस्ती ब्याह दिया। इससे क्षुब्ध होकर उसकी बहिन गांधारी ने अपनी आँखों पर स्वयं ही पट्टी बाँध ली। इसी का बदला लेने के लिए शकुनि ने  हस्तिनापुर में ही रहकर पांडवों और कौरवों के बीच वैमनस्य के बीज बोये, ताकि उस वंश का पूर्ण विनाश हो जाये। एक ओर तो वह धृतराष्ट्र को यह याद दिलाता रहा कि जन्मांध होने के कारण उनको राजसिंहासन से वंचित रखकर अन्याय किया गया है, तो दूसरी ओर वह दुर्योधन का हितैषी होने का नाटक करता रहा और उसे हमेशा भड़काता रहा, ताकि पांडु और धृतराष्ट्र की सन्तानों में कभी मेल न हो और वे आपस में लड़कर नष्ट हो जायें। वह अपने इस उद्देश्य में पूर्ण सफल रहा। उसने दुर्योधन को कभी भी पांडवों के प्रति कोमल नहीं होने दिया। वह दुर्योधन के सभी षड्यंत्रों में भागीदार ही नहीं, उनका मूल योजनाकार था। इसलिए यह उचित ही है कि उसे महाभारत युद्ध के लिए दोषी लोगों में काफी ऊपर रखा गया है।

2- धृतराष्ट्र
लगभग सभी विचारक धृतराष्ट्र को महाभारत युद्ध के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार पात्रों में से एक मानते हैं। 5 ब्लागरों-पाठकों श्री प्रवीण शर्मा, श्री आर्यन, श्री प्रसन्न प्रभाकर, श्री गोपाल और श्री नरेश ने उनको सबसे अधिक दोषी माना है। धृतराष्ट्र कभी इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर पाये कि जन्मांध होने के कारण वे राजा बनने के अधिकारी नहीं थे। वे इसे अपने साथ किया गया अन्याय मानते रहे और पांडु के प्रतिनिधि के रूप में राजसिंहासन पाने पर भी उसे अपना ही समझते रहे। इतना ही नहीं उन्होंने पांडु के बड़े पुत्र युधिष्ठिर, जो न केवल वय में सबसे बड़े थे, बल्कि राजसिंहासन के लिए सर्वथा योग्य भी थे, के साथ हमेशा अन्याय किया।

युधिष्ठिर के वापस आते ही उन्हें राज्य सौंप देना चाहिए था, क्योंकि वे ही पांडु के सही उत्तराधिकारी थे। लेकिन धृतराष्ट्र सिंहासन से चिपके रहे। उन्होंने युधिष्ठिर के बजाय अपने अयोग्य पुत्र दुर्योधन को युवराज बना दिया और उसे राज्य सौंपने की योजनायें बनाते रहे। उनको भगवान वेदव्यास, विदुर जी, भीष्म और गांधारी तक ने बार-बार समझाया था कि वे जो कर रहे हैं, उससे कुरुवंश विनाश की ओर बढ़ रहा है। परन्तु वे न माने और पुत्र-मोह में वंश का सर्वनाश होते देखते रहे। वे केवल शकुनि और दुर्योधन की बातों पर विश्वास करते थे। वे अपने वास्तविक हितैषी विदुर जी की बातों से वे इतना चिढ़ते थे, मानो वे उनके महामंत्री न होकर शत्रु हों।

ऐसा लगता था कि उनकी बाहर की ही नहीं अन्दर की आँखें भी फूट गयी थीं। उनकी यही बुद्धिहीनता और पांडवों के प्रति आन्तरिक घृणा ही उनके वंश के विनाश का कारण बनी। एक राजा होने के नाते यह उनका दायित्व था कि वे हस्तिनापुर राज्य और अपनी प्रजा को विनाश से बचायें, परन्तु वे अपने इस दायित्व को निभाने में पूरी तरह असफल रहे। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि विदुर जी ने उनके अयोग्य होने का जो मत व्यक्त किया था, वह पूर्णतः सत्य था। यह जानते हुए भी कि उनके पुत्र दुर्योधन और साले शकुनि ने पांडवों को वारणावत में जलाकर मारने का षड्यंत्र किया था, उन्होंने उनको कोई दंड नहीं दिया। यदि वे केवल शकुनि को ही तत्काल हस्तिनापुर से निकाल देते, तो भी कुरुवंश विनाश से बच जाता। उन्होंने अपने पुत्र को राजा बनाने के लिए हस्तिनापुर राज्य के दो टुकड़े कर दिये और इस प्रकार गृहयुद्ध का बीज बो दिया। इसलिए यदि धृतराष्ट्र को महाभारत युद्ध के लिए बहुत अधिक जिम्मेदार माना जाता है, तो उचित ही है।

महाभारत के लिए दोषी - 2



7- कर्ण
कर्ण को भी किसी पाठक ने सर्वाधिक दोषी नहीं ठहराया है, लेकिन वह भी दोषमुक्त नहीं है। अपनी हीनभावना के कारण उसने ही दुर्योधन को यह सलाह दी थी कि द्रोपदी के वस्त्र उतरवा सकते हो। उसने द्रोपदी को वेश्या कहकर भी अपमानित किया। ये घटनायें ही पांडवों के रोष को प्रज्ज्वलित करने का मूल कारण बनीं। उसने एक बार भी दुर्योधन को युद्ध से रोकने का प्रयास नहीं किया, बल्कि हमेशा दुर्योधन को यह विश्वास दिलाता रहा कि युद्ध को तो मैं अकेला ही जीत लूँगा। यहाँ तक कि जब पांडवों ने गंधर्वों के चंगुल से दुर्योधन को बचाया था और ग्लानिवश दुर्योधन जलकर मर जाने को तैयार हो गया था, तो कर्ण ने ही उसे रोका था और यह वचन दिया था कि मैं पांडवों से तुम्हारे अपमान का बदला लूँगा। इसलिए कर्ण भी महाभारत के लिए दोषी था, हालांकि उसका दोष अन्य कई पात्रों की तुलना में कम था, जैसा कि हम आगे देखेंगे।

6- द्रोणाचार्य
दो पाठकों श्री सचिन सोनी और श्री विक्रम यादव ने द्रोणाचार्य को महाभारत युद्ध के लिए सर्वाधिक दोषी माना है, हालांकि चुन्नू जी ने उनके तर्कों को जमकर विरोध किया है। सचिन जी का कहना है कि द्रोणाचार्य दुर्योधन को सही शिक्षा देने में असफल रहे, इसलिए वे दोषी हैं। मेरे विचार से यह आरोप मूलतः गलत है। प्रत्येक शिक्षक अनेक छात्रों को पढ़ाता है, लेकिन सभी बराबर के योग्य नहीं होते। अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुसार वे कम या अधिक योग्य बनते हैं। उन्होंने दुर्योधन को भी वही शिक्षा दी थी, जो कि युधिष्ठिर को दी थी। लेकिन उनकी शिक्षा को दुर्योधन का मामा शकुनि व्यर्थ कर देता था, वह लगातार अपने भांजे को पांडवों के प्रति भड़काता रहता था। एक वेतनभोगी शिक्षक के रूप में वे इससे अधिक कुछ नहीं कर सकते थे। इसलिए द्रोणाचार्य महाभारत युद्ध के लिए अधिक दोषी नहीं ठहराये जा सकते। उन्होंने भी युद्ध रोकने का प्रयास किया था, परन्तु जब बड़े-बड़ों के प्रयास बेकार हो गये, तो वे अकेले क्या कर सकते थे। फिर भी वे दोषी थे, क्योंकि उन्होंने केवल आजीविका के लिए असत्य का साथ दिया और इस भूल का मूल्य उन्हें अपने प्राण देकर चुकाना पड़ा।

5- द्रोपदी
यह मेरे लिए घोर आश्चर्यजनक है कि भीष्म के बाद सबसे अधिक संख्या में पाठकों ने द्रोपदी को महाभारत युद्ध के लिए सबसे ज्यादा दोषी माना है। उनको 5 व्यक्तियों चन्द्र प्रकाश जी, अर्जुन जी, गोपाल जी, विनोद शर्मा जी एवं रवि दत्त जी ने सबसे अधिक दोषी ठहराया है। इन सबकी राय इस धारणा पर आधारित है कि यदि द्रोपदी दुर्योधन को ‘अंधे की औलाद’ न कहती, तो यह युद्ध न होता। सबसे पहली बात तो यह है कि यह धारणा पूरी तरह गलत है। व्यास कृत महाभारत में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है कि द्रोपदी ने कभी इन शब्दों का प्रयोग या उच्चारण किया था। यह किसी धूर्त की अपनी कल्पना है। द्रोपदी जैसी सुशिक्षित और सुसंस्कृत नारी अपने वरिष्ठ ससुर के लिए ऐसे शब्द का प्रयोग करेगी, यह कदापि विश्वसनीय नहीं है।

यदि वादी-तोष न्याय से यह मान भी लिया जाये कि द्रोपदी ने दुर्योधन से ऐसे शब्द कभी कहे थे, तो भी महाभारत युद्ध का यह अकेला कारण नहीं हो सकता। इस तथाकथित अपमान से काफी पहले से ही दुर्योधन सभी पांडवों से द्वेष मानता था। उसने उनको वारणावत में जलाकर मार डालने का भी षड्यंत्र किया था, जिसमें से वे विदुर जी की सूझ-बूझ से ही जीवित निकल पाये थे। द्रोपदी स्वयंवर के समय से ही वह द्रोपदी से घृणा करता था। एक तो वह उसे पाने में असफल रहा था और दूसरे द्रोपदी ने उसके मित्र कर्ण को सूत-पुत्र होने के कारण वरण करने से इनकार कर दिया था। तीसरे, द्रोपदी का विवाह पांडवों के साथ हो गया था, जिनको वह अपना भाई नहीं शत्रु मानता था। इतने कारण दुर्योधन को उत्तेजित और पागल करने के लिए पर्याप्त थे। इसमें ‘अंधे का पुत्र’ जैसे शब्दों के होने या न होने से कोई अन्तर पड़ने वाला नहीं था। इसलिए द्रोपदी को दोषी नहीं माना जा सकता।

फिर भी मैंने इस सूची में द्रोपदी को अन्य कई पात्रों से ऊपर पाँचवें क्रम पर रखा है तो उसका कारण यह है कि अपने चीरहरण के बाद उसने कौरवों का समूल नाश करके अपने अपमान का बदला लेने का प्रण कर लिया था। उसने अपने बाल खोल लिये थे और वह अपने पतियों को लगातार याद दिलाती रहती थी कि उन्हें उसके अपमान का बदला लेना है। इसी कारण वह 12 वर्ष के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास के समय अपने मायके में सुरक्षित रहने के बजाय अपने पतियों के साथ ही वन-वन भटकने को तैयार हुई थी। यदि पांडव उसके अपमान को बदला लेने को तैयार न होते, तो वह अपने पिता और भाइयों को कौरवों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए मजबूर कर देती। इसलिए द्रोपदी को महाभारत युद्ध के लिए बहुत सीमा तक दोषी ठहराया जा सकता है। लेकिन उसका दोष कुछ अन्य पात्रों की तुलना में फिर भी कम था, जिनकी चर्चा हम आगे करेंगे।

महाभारत के लिए दोषी - 1



जब मैंने अपना लेख महाभारत के लिए दोषी कौन अपने ब्लाग पर डाला था, तो यह अन्दाज तो था कि उसे अच्छा उत्तर मिलेगा, लेकिन यह नहीं सोचा था कि इतना अच्छा उत्तर मिलेगा। पहले ही दिन इस लेख को 100 से अधिक कमेंट मिले और ब्लागर तथा पाठक बंधुओं ने खुलकर अपने विचार व्यक्त किये। अब मैं इन विचारों का सारांश और अपना निष्कर्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह चर्चा क्योंकि काफी लम्बी है, इसलिए तीन या चारकिस्तों में पूरी हो पायेगी।

मैंने सम्भावित दोषी लोगों की सूची में 8 व्यक्तियों को रखा था। इनके अलावा कुछ अन्य को अन्य सम्भावितों में रखा था। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इन दोनों सूचियों से बाहर के व्यक्तियों को भी कुछ सज्जनों ने दोषी बताया। कई सज्जनों ने, जिनमें भाई बनवारी जी, प्रसन्न प्रभाकर जी, हेमंत पटेल जी और किशोर जी शामिल हैं, ने समय, भाग्य अथवा ईश्वर को इस महायुद्ध के लिए दोषी माना। यदि इस मत को स्वीकार किया जाये, तो सभी व्यक्ति निर्दोष सिद्ध हो जायेंगे, क्योंकि दुनिया में सब कुछ ईश्वर की मर्जी से ही होता है। उसकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता ऐसा माना जाता है। फिर तो सारी चर्चा ही बेकार है। इसलिए मैं इस मत को छोड़ रहा हूँ। हम केवल महाभारत के पात्रों की चर्चा कर रहे हैं।

मेरी सूचियों से बाहर के जिन व्यक्तियों को कुछ सज्जनों ने दोषी माना, उनमें भीष्म के पिता शान्तनु के नाम से मुझे बहुत आश्चर्य हुआ है। भाई विजय कुमार शुक्ल जी, विजय बाल्याण जी, अजय प्रताप जी और बालकृष्ण जी ने ऐसा मत व्यक्त किया है। लेकिन मेरी दृष्टि में शान्तनु को महाभारत युद्ध के लिए दोषी ठहराना कुछ अतिरंजित बात है। निस्संदेह वे बुढ़ापे में कामवासना के शिकार होने के दोषी थे, परन्तु केवल यह दोष उनको महाभारत के लिए दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं है।

दूसरी बात, उन्होंने भीष्म को कोई प्रतिज्ञा लेने के लिए नहीं कहा था, वे तो सत्यवती के पिता की शर्त को ठुकराकर लौट आये थे। यह तो भीष्म ही थे, जिन्होंने स्वयं यह प्रतिज्ञा ली, जिसके कारण आगे चलकर महाविनाशकारी युद्ध हुआ। इसलिए जो शान्तनु को दोषी बता रहे हैं, वे प्रकारान्तर से भीष्म को ही दोषी ठहरा रहे हैं। इसलिए इस मत को मैं भीष्म के सन्दर्भ में ले रहा हूँ।

अब रह जाते हैं 10 व्यक्ति, जिनमें मेरी संभावित सूची के 8 व्यक्तियों के अलावा कृष्ण और विदुर ये दो नाम और हैं। हम क्रमशः इनकी चर्चा करेंगे। रोचकता और तारतम्य बनाये रखने के लिए हम काउंट डाउन प्रोग्रामों की तरह सबसे कम दोषी की चर्चा पहले और सबसे अधिक दोषी की चर्चा बाद में करेंगे। यह क्रम मैंने आप सबके तर्कों और अपनी बुद्धि के अनुसार दिया है। आप इस क्रम से सहमत ही हों यह आवश्यक नहीं है। आप अपना क्रम देने के लिए स्वतंत्र हैं।

10- विदुर
विदुर जी को दोषी बताने वाले हैं श्री राॅकी आहूजा। उनका कहना है कि विदुर ने धृतराष्ट्र को राजा बनाने में अडंगा लगा दिया, जिससे उनके मन में अपमान की आग जलने लगी। इसी कारण महाभारत हुआ। मेरा मानना है कि विदुर जी ने प्राचीन स्वीकृत परम्परा के अनुसार ही जन्मांध को राजा बनाने से मना किया था और उनके इस मत को सभी ने स्वीकार किया था। बाद में पांडु ने अपने प्रतिनिधि के रूप में धृतराष्ट्र को राजा बना दिया, तो वे कुछ नहीं कर सके। फिर भी उन्होंने धृतराष्ट्र को हमेशा देश के हित में सही सलाह दी थी। उन्होंने महाभारत का युद्ध रोकने के लिए बहुत प्रयत्न किया था। परन्तु धृतराष्ट्र ने उनकी नहीं सुनी। इसलिए विदुर जी को दोषी ठहराना मूलतः गलत ही नहीं अनुचित और अन्याय है। इसीलिए मैंने उनको अन्य संभावितों की सूची में भी नहीं रखा था।

9- कृष्ण
कृष्ण को चार पाठकों सर्वश्री राज हैदराबादी, अभिलेख सिंह, शशि रंजन एवं दामोदर बागड़ी ने सबसे अधिक दोषी माना है। उनका कहना है कि कृष्ण सर्व समर्थ थे, अगर वे चाहते, तो महाभारत रोक सकते थे, परन्तु उन्होने जानबूझकर विनाश होने दिया, क्योंकि वे कुछ लोगों को मारना चाहते थे। एक सज्जन ने तो यहाँ तक आरोप लगाया है कि कृष्ण ने कई योद्धाओं को अनावश्यक रूप से मरवाया था। मेरा विचार है कि कृष्ण के ऊपर ऐसा आरोप लगाना अनुचित है। उन्होने अपने पूरे जीवन में किसी के भी प्राण अकारण नहीं लिये। इसके विपरीत उन्होनं कई लोगों को प्राणदान दिया था, जैसे रैवतक युद्ध में जरासंध को और रुकमिणी हरण के समय रुक्मी को। उन्होंने अपने स्तर पर महाभारत का युद्ध रोकने का पूरा प्रयास किया था। जब दोनों ओर के दूत आ चुके और असफल रहे, तब वे स्वयं दूत बनकर कौरवों के दरबार में गये। उन्होंने युद्ध के संभावित परिणाम बताकर कौरवों को समझाने की पूरी कोशिश की। यहाँ तक कि युधिष्ठिर की ओर से न्यूनतम 5 गाँव लेकर संतुष्ट हो जाने की माँग भी रख दी। लेकिन जब दुर्योधन ने स्पष्ट कह दिया कि बिना युद्ध के सुई की नोंक के बराबर भी भूमि नहीं दूँगा, तो उनके सारे प्रयास बेकार हो गये। इसलिए कृष्ण को महाभारत के लिए दोषी ठहराना उनके प्रति अन्याय है।

8- युधिष्ठिर
किसी पाठक ने युधिष्ठिर को महाभारत युद्ध के लिए सीधे दोषी नहीं बताया है, लेकिन वे दोषमुक्त नहीं हैं। उन्होंने यह जानते हुए भी कि द्यूतक्रीड़ा के माध्यम से उनके सर्वस्व हरण का षड्यंत्र किया गया है, वे द्यूत खेलने गये, शौक के लिए नहीं, धृतराष्ट्र के आदेश के पालन के लिए। उनकी गलती केवल यह थी कि उन्होंने अपने भाइयों और पत्नी तक को दाँव पर लगा दिया। यदि वे सर्वस्व हारने के बाद उठकर चले जाते, तो महाभारत का युद्ध न होता, भले ही उनको सारा जीवन जंगल में बिताना पड़ता। लेकिन मात्र इतने दोष से वे महाभारत के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार नहीं ठहरते। उन्होंने तो अपने वचन का पालन करने के लिए बारह वर्ष वन में और एक वर्ष अज्ञातवास में बिताया। वारणावत के षड्यंत्र के लिए भी उन्होंने दुर्योधन को क्षमा कर दिया था। लेकिन जब दुर्योधन दुष्टता की सीमाओं को पार कर गया, तो फिर युद्ध करना उनका कर्तव्य बन गया।

महाभारत युद्ध के लिए दोषी कौन?


महाभारत मेरा प्रिय महाकाव्य है। इसके पात्रों की विलक्षणता और विचित्र घटनाक्रमों से मैं चमत्कृत हूँ। महाभारत पढ़ते हुए कई बार मन में प्रश्न उठता है कि वह जो महाविनाशकारी युद्ध हुआ, उसके लिए किस व्यक्ति को सबसे अधिक दोषी माना जा सकता है? विकल्प के रूप में हमारे सामने कई नाम हैं-

1. धृतराष्ट्र - जिसने अपने पुत्र-मोह में सारे वंश और देश का सर्वनाश करा दिया।

2. दुर्योधन - उसने अपनी महत्वाकांक्षा और द्वेष के कारण धर्म-अधर्म की चिन्ता नहीं की और जानबूझकर अपने वंश को सर्वनाश की ओर ढकेल दिया।

3. शकुनि - उसने अपनी बहन को जन्मांध से ब्याहने का बदला लेने के लिए कुरुवंश का सर्वनाश कराया। वह अपमान सहकर भी हस्तिनापुर में बना रहा और दुर्योधन की महत्वाकांक्षा में हवा भरता रहा। उसी ने कौरवों और पांडवों में द्वेष पैदा किया।

4. भीष्म - उन्होंने अपनी व्यक्तिगत प्रतिज्ञा के पालन के दम्भ में देश-हित की चिन्ता नहीं की। यह जानते हुए भी कि दुर्योधन असत्य के रास्ते पर है और पांडव सत्य के मार्ग पर हैं, उन्होंने असत्य का साथ दिया।

5. कर्ण - अपनी जातिगत हीनभावना के कारण वह अर्जुन और पांडवों से द्वेष करता रहा और दुर्योधन को हमेशा यह विश्वास दिलाता रहा कि युद्ध को तो मैं अकेला ही जीत लूँगा।

6. युधिष्ठिर - उन्होंने अपने भाइयों और पत्नी तक को जुए में दाँव पर लगाकर अनजाने ही युद्ध और विनाश के बीज बोये थे।

7. द्रोपदी - उन्होंने अपने पतियों को अपने अपमान का बदला चुकाने के लिए युद्ध करने पर मजबूर किया।

8. द्रोणाचार्य - पांचाल नरेश द्रुपद के प्रति अपनी व्यक्तिगत दुर्भावना के कारण उन्होंने युद्ध को रोकने की कोशिश नहीं की और असत्य का पक्ष लिया।

इनके अलावा और भी कई नाम हो सकते हैं, जिनको महाभारत युद्ध के लिए दोषी ठहराया जा सकता है, जैसे- द्रुपद, धृष्टद्युम्न, कृष्ण, पांडु, कुन्ती, गांधारी, दुःशासन, कृपाचार्य, अश्वत्थामा आदि।

मैं यह जानना चाहता हूँ कि अन्य ब्लागर एवं पाठक बंधु इस बारे में क्या सोचते हैं। कृपया सब अपनी-अपनी राय कारण सहित बतायें। उन सबका मनन करके मैं अपना निष्कर्ष प्रस्तुत करूँगा।

Tuesday 5 February 2013

कठमुल्लों का आतंकवाद


न तो संगीत मुसलमानों के लिए कोई नई चीज है और न मुस्लिम महिलायें संगीत के क्षेत्र में कोई अजूबा हैं। लम्बे समय से अनेक मुस्लिम संगीतकारों और गायकों ने अपनी पहचान बना रखी है। नौशाद से लेकर ए.आर. रहमान तक और मुहम्मद रफी से लेकर शान तक अनेक मुस्लिमों का नाम संगीत के क्षेत्र में जाना पहचाना है। बिस्मिल्ला खाँ, जाकिर हुसैन, गुलाम अली, साबिर भाई आदि कितने ही नाम हैं, जो संगीत के क्षेत्र में अत्यन्त आदर के साथ लिये जाते हैं। महिलाओं की बात की जाये, तो बेगम अख्तर, नूरजहाँ, सुरैया आदि कितने ही नाम हैं, जिनकी पूरी सूची बनायी जाये तो शायद कभी खत्म न हो।

अभी कुछ वर्ष पहले तक रूना लैला मंच पर अपनी गायकी से हजारों-लाखों को थिरकने पर मजबूर कर देती थीं। कुछ ही दिन पहले पाकिस्तान से आये गायकों और गायिकाओं ने ‘सुरक्षेत्र’ नामक टी.वी. कार्यक्रम में अपनी गायकी के झंडे गाड़े थे। आश्चर्य है कि इन सबके लिए किसी ने यह नहीं कहा कि संगीत गैर-इस्लामी है। वह है भी नहीं। लेकिन जैसे ही कश्मीर की तीन साधारण लड़कियों ने एक बैंड बनाया और मंच पर अपने कार्यक्रम देने शुरू किये, वैसे ही कठमुल्लों के पिछवाड़े में खुजली होने लगी और फतवा पाद दिया कि यह गैर-इस्लामी है।

कई लोग इस मूर्खतापूर्ण फतवे के बहाने इस्लाम को दोषी ठहरायेंगे और उसका मजाक बनायेंगे, बना भी रहे हैं। लेकिन यह स्पष्ट है कि इस फतवे से इस्लाम का कोई लेना-देना नहीं है। अगर होता, तो इन लड़कियों से पहले जो मुस्लिम संगीतकार, गीतकार, गायक, कलाकार हुए हैं, उनके खिलाफ कब का फतवा निकल चुका होता। यह तो उन कठमुल्लों के इस्लाम का अपना संस्करण है, जो मुस्लिम महिलाओं को चौदहवीं शताब्दी के वातावरण से बाहर नहीं आने देना चाहते। उनको डर है कि यदि महिलायें भी पुरुषों की बराबरी पर आ गयीं, तो उनकी रोजी-रोटी बन्द हो जायेगी।

उनका डर गलत नहीं है, लेकिन क्या हम ऐसे कठमुल्लों की रोजी-रोटी के लिए लाखों-करोड़ों बच्चियों को कैद कर देंगे? भारत जैसे महान् लोकतंत्र में इसकी इजाजत कदापि नहीं दी जा सकती। हमें कठमुल्लों के इस आतंकवाद का खुलकर और जमकर विरोध करना चाहिए। इसको मैंने ‘कठमुल्लों का आतंकवाद’ इसलिए कहा है कि ऐसे फतवों से एक व्यक्ति नहीं बल्कि उसका पूरा परिवार और नाते-रिश्तेदार तक आतंकित हो जाते हैं और न केवल उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाता है बल्कि उनके जान-माल तक को खतरा पैदा हो जाता है। यह आतंकवाद नहीं तो क्या है?

यह बिडम्बना ही है कि ऐसे मूर्खतापूर्ण फतवों को लागू करने के लिए तमाम नौजवान और संगठन आगे आ जाते हैं। उससे भी अधिक बिडम्बनापूर्ण बात यह है कि हमारी जिस सरकार पर समाज की रक्षा का और उससे भी आगे बढ़कर संविधान और लोकतंत्र की रक्षा का भार है, वह ऐसे कठमुल्लों के सामने बेबस हो जाती है। कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने उन बच्चियों का समर्थन तो किया, लेकिन यह समर्थन कवेल बयान देने तक सीमित रहा। उन्होंने एक बार भी न तो किसी कठमुल्ले की निन्दा की और न उनके खिलाफ केस दर्ज किया। इसका परिणाम यह हुआ कि वे बेचारी बच्चियाँ प्रतिभा होते हुए भी घर की चारदीवारी में कैद होने को मजबूर हो गयीं।

अब सवाल उठता है कि जब सरकारें तक इतनी बेबस हैं, तो कठमुल्लों के आतंकवाद’ का मुकाबला कौन और कैसे करेगा? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि यह साहस स्वयं मुस्लिम समाज के जागरूक नौजवानों को ही करना चाहिए। आगे आने पर उन्हें सरकारों और दूसरे समाजों का भी आवश्यक समर्थन मिलेगा। जब तक वे कठमुल्लों के खिलाफ खुलकर आगे नहीं आयेंगेे, तब तक इस आतंकवाद से मुक्ति पाना असम्भव है।

Sunday 3 February 2013

कौआ कान ले गया!



किसी ने एक आदमी से कहा- ‘देखो, कौआ तुम्हारा कान ले गया!’। उस आदमी ने अपना कान तो टटोलकर देखा नहीं, बल्कि पहले आदमी की बात को सही मानकर कौए के पीछे दौड़ पड़ा। ठीक यही मूर्खता की है भारत के कुछ मुसलमानों ने फिल्म विश्वरूपम् के मामले में। सिर्फ यह जानकर कि इस फिल्म में तालिबानियों के आतंकवाद को दिखाया गया है, उन्होंने यह मान लिया कि इस फिल्म में जरूर इस्लाम का अपमान किया गया होगा, जिससे मुसलमानों की भावनायें आहत हो जायेंगी। यह सोचकर उन्होंने फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की माँग कर दी और तमिलनाडु में प्रतिबंध लगवा भी दिया। उन्होंने फिल्म की जाँच करके प्रदर्शन के लिए प्रमाणपत्र जारी करने वाले फिल्म सेंसर बोर्ड पर भी विश्वास नहीं किया।

अब जब कि यह फिल्म पूरे भारत में प्रदर्शित हो गयी है और इसे देखकर यह ज्ञात हो गया है कि इसमें इस्लाम या मुसलमानों को अपमानित करने वाली कोई बात नहीं है, यह एकदम स्पष्ट हो गया है कि इस पर प्रतिबंध लगाने की माँग न केवल बेतुकी और मूर्खतापूर्ण थी, बल्कि यह हमारी न्याय-व्यवस्था और संवैधानिक संस्थाओं का अपमान भी था। यह लिखने का मेरा उद्देश्य कमल हासन का समर्थन करना नहीं है, बल्कि भारतीय मुसलमानों के एक वर्ग की उस प्रवृत्ति की भत्र्सना करना है, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार करती है। इस समस्त प्रकरण से कमल हासन को आर्थिक लाभ या हानि हुई हो या न हुई हो, वह अलग बात है, उससे हमारा कोई लेना-देना नहीं है।

भारतीय मुसलमानों की इस प्रवृत्ति की तुलना जब हम हिन्दू समाज की प्रवृत्ति से करते हैं, तो दोनों समाजों और संस्कृतियों का अन्तर स्पष्ट हो जाता है। अभी कुछ माह पूर्व ही एक फिल्म प्रदर्शित हुई थी- ‘ओ माई गौड’, जिसमें भारत के पोंगा पंडितों और ढोंगी साधुओं की हास्यास्पद मान्यताओं और हथकंडों की जमकर बखिया उधेड़ी गयी थी। इससे अवश्य ही बहुत से हिन्दुओं की धार्मिक भावनायें आहत हुई होंगी, लेकिन कहीं से भी इस फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की माँग नहीं उठी। इसके विपरीत हिन्दू समाज के एक बड़े वर्ग ने इस फिल्म को रुचिपूर्वक देखा और सराहा। इस फिल्म में एक कहानी बनाकर जो कुछ दिखाया गया है, वह स्वामी दयानन्द सरस्वती जी महाराज ने खुलकर कहा था और वही आज भी आर्य समाज के तमाम नेता और प्रचारक दिन-रात कहते हैं।

कल्पना कीजिए कि यदि किसी फिल्म में मुसलमान मजहबी नेताओं, मुल्लों-कठमुल्लों के हथकंडों को इस प्रकार दिखाया गया और उनकी मूर्खतापूर्ण मान्यताओं की खिल्ली उड़ाई गयी, तो क्या मुस्लिम समाज की प्रतिक्रिया भी उतनी ही संतुलित रहेगी, जितनी ‘ओ माई गौड’ के बारे में हिन्दू समाज की रही है? कोई बड़े से बड़ा सेकूलर भी इस सवाल का उत्तर ‘हाँ’ में नहीं दे सकता। स्पष्ट है कि मुसलमानों की धार्मिक भावनायें कुछ ज्यादा ही नाजुक हैं, जो जरा-जरा सी बात से आहत हो जाती हैं और सड़कों पर उतर आती हैं।

लेकिन कुछ प्रशंसनीय अपवाद भी हैं। कई मुस्लिम कलाकारों जैसे आमिर खान, सलमान खान आदि ने इस फिल्म की सराहना की है और उस पर प्रतिबंध लगाने की माँग को गलत बताया है। इसी प्रकार तमिलनाडु के अलावा अन्य प्रदेशों के मुसलमानों के बड़े वर्ग ने ऐसी मूर्खतापूर्ण माँग से स्वयं को अलग रखा और फिल्म को खूब रुचि के साथ देखा। उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के प्रति गहरी सहानुभूति रखने वाले दल की सरकार है, लेकिन इस बात के लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की प्रशंसा करनी होगी कि वे इस मामले में कठमुल्लों के दबाब में नहीं आये और प्रदेश भर में फिल्म को सफलतापूर्वक प्रदर्शित करा दिया। ये कुछ ऐसे लक्षण हैं, जिनसे पता चल रहा है कि मुस्लिम समाज में भी अब जागरूकता आ रही है और वह कठमुल्लों की बातों पर अपनी बुद्धि भी लगाने लगा है। यदि यह प्रवृत्ति इसी प्रकार बढ़ती है तो इससे देश का भला ही होगा।