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Saturday 16 February 2013

भोजशाला का विवाद


आजकल मध्यप्रदेश के धार जिले में शहर में स्थित भोजशाला का विवाद सुर्खियों में है। हर साल बसन्त पंचमी पर यह विवाद उभर आता है और हिन्दू-मुस्लिम दोनों समुदायों में संघर्ष का नवीनीकरण कर जाता है। आइए आज इस विवाद को गहराई से समझें।

आज जिसे भोजशाला कहा जाता है, वह कभी संस्कृत का अध्ययन केन्द्र या विश्वविद्यालय था, जो धार के प्रसिद्ध राजा भोज ने बनवाया था। इसका विस्तृत विवरण महाकवि बल्लाल कृत ‘भोजप्रबन्ध’ नामक ग्रंथ में मिलता है। इसका परिसर बहुत विस्तृत था, परन्तु अब केवल एक भवन ही दिखाई देता है। इसी भवन में वाग्देवी अर्थात् सरस्वती की प्रतिमा थी, जिसे सभी विद्याओं और कलाओं की देवी माना जाता है। इस प्रकार यह सरस्वती का मन्दिर भी था। वैसे तो प्रत्येक विद्यालय को परम्परा के अनुसार सरस्वती का मन्दिर ही माना जाता है।

हमलावर अलाउद्दीन खिलजी अपने जेहादी तेवरों के कारण शिक्षा केन्द्रों के दुश्मन के रूप में इतिहास में कुख्यात है। उसने तक्षशिला, वाराणसी और नालन्दा के प्रसिद्ध शिक्षालयों, विश्वविद्यालयों और पुस्तकालयों को धूल-धूसरित किया था। इसी क्रम में सन् 1305 ई. में उसने धार आकर इस संस्कृत विश्वविद्यालय पर आक्रमण किया और उसके सभी आचार्यों की हत्या करके इसको मटियामेट कर दिया। बाद में राजा मेदिनीराय ने वनवासी धर्मयोद्धाओं को साथ लेकर इस्लामी आक्रान्ताओं को भगाया, मगर विश्वविद्यालय का पूर्व रूप कभी नहीं लौट सका। इस स्थान को केवल भोजशाला के नाम से जाना जाता रहा।

बाद में भी शताब्दियों तक देश पर मुस्लिम बादशाहों का शासन रहा, इसलिए यह स्थान धीरे-धीरे काल के गाल में समाता गया और वर्तमान में यह केवल एक भवन तक सिमट गया है। इसमें जो सरस्वती की प्रतिमा रखी हुई थी, उसे 1903 में लार्ड कर्जन उठा ले गया और वह प्रतिमा आज भी लन्दन के संग्रहालय में रखी हुई है। इस स्थान पर मुस्लिम बादशाहों के कब्जे के समय बगल में ही कई कब्रें बना दी गयी थीं। उनमें से एक आज कमाल मौला दरगाह या मस्जिद के नाम से जानी जाती है, जिसमें मुसलमान रोज नमाज पढ़ते हैं। लेकिन वे भोजशाला पर भी दावा करते हैं और अदालत के आदेश से उनको केवल शुक्रवार को दिन में 2 घंटे वहाँ नमाज पढ़ने के लिए जाने का अधिकार है। हिन्दुओं को भी केवल बसन्त पंचमी के दिन वहाँ सरस्वती की पूजा करने का अधिकार दिया गया है।

इस बार गड़बड़ यह हो गयी कि बसन्त पंचमी भी शुक्रवार को पड़ गयी। शुक्रवार क्योंकि साल में 52 बार आता है और बसन्त पंचमी केवल एक बार। इसलिए आपसी सद्भाव के लिए मुसलमानों को चाहिए था कि इस शुक्रवार को नमाज केवल अपनी मस्जिद में पढ़ लेते और भोजशाला में हिन्दुओं को पूजा करने देते। परन्तु दुःख इस बात का है कि कठमुल्लों में इतनी समझदारी नहीं है। इसलिए वे अड़ गये कि हम तो वहीं नमाज जरूर पढ़ेंगे।

भोजशाला के इतिहास और उसके चित्र से स्पष्ट है कि इस स्थान के मस्जिद होने का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता। इसके बीच में यज्ञ की वेदी स्पष्ट दिखाई दे रही है। इसलिए इसको मस्जिद कहना महज जिद ही है। जो लोग राम जन्म भूमि के लिए प्रमाणों का रोना रोते रहते हैं, उन्हें इन जीते जागते प्रमाणों का आदर करना चाहिए और इस स्थान पर से मुसलमानों को अपना दावा छोड़ देना चाहिए। पर सवाल वही कि कठमुल्लों में इतनी समझदारी कहाँ हैं?

यहाँ न्यायालय की भूमिका पर भी कुछ प्रश्न उठते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि पूर्व निर्णय के अनुसार मुसलमानों  को शुक्रवार की नमाज और हिन्दुओं को बसन्त पंचमी की पूजा उसी स्थान पर करायी जाये। इस आदेश के पालन में मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने अपने ही कार्यकर्ताओं पर जमकर लाठियाँ चलायीं और प्रतीकात्मक ही सही न्यायालय के आदेश का पालन कराया। जब हम इसकी तुलना दिल्ली की कांग्रेस सरकार से करते हैं, तो दोनों पार्टियों की संस्कृतियों का अन्तर स्पष्ट हो जाता है।

दिल्ली सरकार ने मेट्रो स्टेशन के स्थान पर खड़ी की गयी दीवार को गिराने के न्यायालय के आदेश का पालन करने से यह कहकर इनकार कर दिया था कि उनके पास पर्याप्त पुलिस बल नहीं है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि न्यायालय के आदेशों के पालन का ठेका केवल हिन्दू समाज का है और शर्म-निरपेक्ष पार्टियों का काम केवल कठमुल्लों का तुष्टीकरण करने का है। जब तक यह प्रवृत्ति बनी रहेगी, तब तक भोजशाला जैसे विवादों का समाधान होने की कोई संभावना नहीं है।

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