Pages

Wednesday 7 March 2012

गाँधी के बाद उनके नाम का अभिशाप

जीवित रहते हुए मूर्खात्मा गाँधी ने देश की जो कुसेवा की और हानि पहुँचायी, उससे कई गुना अधिक हानि उन्होंने मरने के बाद अपने नाम के दुरुपयोग से पहुँचायी। मेरा संकेत फिरोज खान को उनके द्वारा अपना ‘गाँधी’ कुलनाम देने से है, जिसने नेहरू की बेटी इन्दिरा से विवाह किया और उसकी सन्तानों ने नेहरू और गाँधी दोनों नामों का जमकर फायदा उठाया और देश को लूटा। इसे पूरा समझने के लिए जरा विस्तार में जाने की आवश्यकता है।
नेहरू का विवाह 1916 में कमला कौल नाम की युवती से हुआ था, जो एक सुसंस्कृत कश्मीरी हिन्दू ब्राह्मण परिवार की पुत्री थी। इसके विपरीत नेहरू पश्चिमी सभ्यता में ढले हुए थे और उनका खान-पान ही नहीं आचार-विचार सभी कमला जी के विपरीत थे। विवाह के तुरन्त बाद 1917 में उनके एक पुत्री पैदा हुई, जिसका नाम इन्दिरा था। कुछ समय बाद एक पुत्र भी पैदा हुआ, जो 2 दिन बाद मर गया। इसके बाद ही कमला नेहरू अवसाद में चली गयीं। इसका एक कारण यह भी था कि नेहरू का ध्यान राजनैतिक आन्दोलनों में और अन्य सुन्दर महिलाओं में लगा रहता था। इसलिए वे अपनी पत्नी और पुत्री पर पर्याप्त ध्यान न दे सके। इसके परिणाम स्वरूप कमला क्षयरोग से ग्रस्त हो गयीं। पहले भुवाली में उनका इलाज चला, फिर यूरोप गयीं। वहीं उनका देहान्त 1936 में हो गया। उस समय इन्दिरा 19 वर्ष की युवती थीं।
बीमार माँ और अन्यत्र व्यस्त बाप की पुत्री इन्दिरा का भटकना स्वाभाविक था। इलाहाबाद में एक मुस्लिम-पारसी परिवार उनके निवास आनन्द भवन में शराब की आपूर्ति किया करता था। उनका एक लड़का फिरोज खान प्रायः माल देने आता था, वहीं इन्दिरा से उसका परिचय हो गया। यह फिरोज एक मुस्लिम बाप और पारसी माँ की सन्तान था, परन्तु अपना धर्म पारसी बताता था। इन्दिरा की पढ़ायी भी अच्छी तरह नहीं चली। किसी तरह उसने हाईस्कूल पास किया। फिर इंटर की पढ़ाई के लिए उसे शान्तिनिकेतन भेजा गया। वहाँ उसका मन पढ़ाई में कम लगता था और अनुशासन तोड़ा करती थी। इसलिए उसे शान्तिनिकेतन से निकाल दिया गया। उसने लंदन के आॅक्सफोर्ड विद्यालय में प्रवेश के लिए परीक्षा दी, परन्तु फेल हो गयी। उन्हीं दिनों फिरोज भी वहाँ लंदन स्कूल आॅफ इकाॅनाॅमिक्स में पढ़ते थे। दोनों की मुलाकात दोबारा लन्दन में हुई, तो उनके बीच प्रेम हो गया और कहा जाता है कि वहीं एक मसजिद में दोनों ने विवाह कर लिया। फिरोज भी अपनी पढ़ाई कभी पूरी नहीं कर सके।
जब वे दोनों इलाहाबाद लौटे और नेहरू को उनके विवाह की जानकारी हुई, तो वे बहुत नाराज हुए। उन्होंने अपनी बेटी इन्दिरा को गाँधी के पास भेजा, ताकि वे समझाकर उसे लाइन पर ला सकें। परन्तु वह किसी भी तरह फिरोज को छोड़ने को तैयार नहीं हुई। तब गाँधी ने फिरोज को अपना कुलनाम ‘गाँधी’ रखने की सलाह दे डाली, ताकि वह हिन्दू लगे। एक घोषणापत्र द्वारा फिरोज ने अपना नाम बदल लिया और फिर दोनों का विवाह हिन्दू रीति-रिवाजों के साथ कर दिया गया। नेहरू का दामाद बन जाने पर उसे कई सुविधायें भी मिल गयीं और वह नेता बन गया।
मूर्खात्मा गाँधी ने शायद यह कल्पना नहीं की होगी कि इस प्रकार अपने कुलनाम का उपयोग करने की अनुमति देकर वे देश को कितनी हानि पहुँचा रहे हैं। उनका सारा जीवन झूठ पर आधारित था, इसलिए अपनी पुस्तक ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में गाँधी ने इस घटना का संकेत भी नहीं किया है। नेहरू के कोई बेटा नहीं था, इसलिए इन्दिरा-फिरोज का परिवार ही उनका परिवार माना गया। नेहरू ने इन्दिरा को अपने उत्तराधिकारी की तरह तैयार किया, हालांकि उसमें इसकी पर्याप्त योग्यता नहीं थी। इस प्रकार फिरोज के परिवार ने गाँधी और नेहरू दोनों के नाम का जमकर लाभ उठाया। भारत की जनता क्योंकि मूर्ख और भावुक है, इसलिए वह इन्दिरा को नेहरू और गाँधी दोनों की बेटी मानती रही।
फिरोज-इन्दिरा के दोनों पुत्रों राजीव और संजय ने किस प्रकार देश को लूटा, लोकतंत्र की हत्या की और करोड़ों-अरबों की जायदाद एकत्र की इसकी कहानी सब जानते हैं। यदि मूर्खात्मा गाँधी ने अपना नाम उनको न दिया होता, तो शायद ऐसा न होता। इस प्रकार गाँधी ही नहीं उनका नाम भी देश के लिए अभिशाप सिद्ध हुआ।

Tuesday 6 March 2012

गाँधी वध और उसके बाद

अंग्रेजों द्वारा भारत छोड़ने और सत्ता के हस्तांतरण के साथ ही यह स्पष्ट हो गया था कि देश के विभाजन और लाखों हिन्दुओं के कत्ल और माता-बहिनों के अपमान के लिए कांग्रेस और उसके सत्तालोलुप नेता, विशेष तौर पर गाँधी जिम्मेदार थे। इससे सभी देशभक्त भारतीयों का हृदय क्रोध से उबल रहा था। हद तो तब हो गयी, जब पाकिस्तान ने कबाइलियों के नाम पर कश्मीर में हमला कर दिया और मूर्खात्मा गाँधी उसी समय उसे 55 करोड़ रुपये भुगतान कराने के लिए अड़ गये। जो गाँधी देश की हत्या और हिंसा रोकने के लिए प्रतीकात्मक अनशन भी न कर सके, वे पाकिस्तान को 55 करोड़ दिलवाने के लिए अनशन पर बैठ गये। यह देशद्रोहिता की हरकत नहीं तो क्या थी?
सभी देशभक्त भारतीय अनुभव कर रहे थे कि गाँधी अब देश के ऊपर बोझ बन चुके हैं। लेकिन लोग समझ नहीं पा रहे थे कि गाँधी द्वारा आगे भी भयादोहन करने से कैसे बचा जाये। ऐसे में एक प्रखर देशभक्त नाथूराम गोडसे ने इस मूर्खात्मा को संसार से उठा देने का निश्चय कर लिया। नाथूराम गोडसे कोई सामान्य अपराधी नहीं थे, बल्कि सुशिक्षित, विद्वान्, पत्रकार और एक समाचार पत्र के सम्पादक थे। वे यह जानते थे कि गाँधी वध एक कठिन कार्य है और इसको करने वाले को कठोर दण्ड तो भुगतना ही होगा, साथ में चारों ओर से भत्र्सना का भी सामना करना पड़ेगा। फिर भी उन्होंने यह कार्य करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। वे चाहते तो पेशेवर हत्यारों द्वारा यह कार्य करा सकते थे, परन्तु उन्होंने स्वयं यह कार्य करना तय किया, क्योंकि वे किसी और को बलि का बकरा नहीं बनाना चाहते थे। इतना ही नहीं, गाँधी वध के बाद वे वहाँ से भागे नहीं और न किसी और को कोई हानि पहुँचायी, हालांकि उनके पास भागने का पूरा मौका था। इससे उनके चरित्र की महानता का पता चलता है।
30 जनवरी 1948 को हुए गाँधी वध के बाद नेहरू तथा कांग्रेस के नेताओं को हिन्दू राष्ट्रवादियों के साथ अपनी दुश्मनी निकालने का पूरा मौका मिल गया। हालांकि नाथूराम गोडसे का उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कोई सम्बंध नहीं था और इस कार्य की योजना उन्होंने हिन्दू महासभा के कुछ समर्थकों के साथ मिलकर बनायी थी। लेकिन नेहरू के लिए इतना ही पर्याप्त था कि बचपन में नाथूराम कभी शाखा जाया करते थे। इसी बहाने से उन्होंने संघ को न केवल बदनाम किया और उस पर प्रतिबंध लगा दिया, बल्कि संघ के तत्कालीन सरसंघचालक परमपूज्य श्री गुरुजी को भी जेल में डाल दिया। इतना ही नहीं, अहिंसा का जाप करने वाले गाँधीवादी कांग्रेसियों ने गाँधी वध के बाद हिंसा का नंगा नाच किया और विशेष तौर पर संघ से सम्बंध रखने वाले मराठी ब्राह्मणों को निशाना बनाकर हत्यायें तथा उपद्रव किये। लेकिन संघ कार्यकर्ताओं की महानता देखिये कि उन्होंने बदले में कांग्रेसियों पर हाथ नहीं उठाया, बल्कि केवल अपनी रक्षा की।
इस कांड की जाँच प्रारम्भ होने पर शीघ्र ही यह स्पष्ट हो गया कि गाँधी वध में संघ का कोई हाथ नहीं है और यह हिन्दू महासभा के मुट्ठीभर कार्यकर्ताओं का काम था। लेकिन पोंगा पंडित नेहरू की क्षुद्रता देखिये कि उन्होंने संघ पर से प्रतिबंध तब भी नहीं हटाया और न श्री गुरुजी को रिहा किया। इस कारण संघ के कार्यकर्ताओं को सत्याग्रह करना पड़ा। इस सत्याग्रह में इतने स्वयंसेवकों ने अपनी गिरफ्तारी दी जितने किसी भी आन्दोलन में कांगे्रस के कार्यकर्ताओं ने भी नहीं दी थी। तब नेहरू ने बहाना बनाया कि संघ का कोई संविधान नहीं है, इसलिए संघ गैरकानूनी है। इस हिसाब से तो नेहरू की सरकार भी गैरकानूनी थी, क्योंकि तब तक भारत का भी कोई संविधान नहीं था। फिर भी संघ के कुछ कार्यकर्ताओं ने संविधान तैयार किया और तब श्री गुरुजी की रिहाई हुई और संघ से प्रतिबंध हटा।
नाथूराम गोडसे पर गाँधी वध का जो केस चला, उसमें एक बार भी संघ का नाम नहीं आया। फिर भी पूरी निर्लज्जता से कांग्रेसी और उनके चमचे कम्यूनिस्ट आज भी संघ को ‘गाँधी का हत्यारा’ बताते रहते हैं। अपने बयान में नाथूराम गोडसे ने अपने कार्य के समर्थन में जो कुछ कहा उसे सुनकर अदालत में मौजूद सबकी आँखें गीली हो गयीं। न्यायाधीश महोदय को लिखना पड़ा कि यदि उस समय अदालत में उपस्थित लोगों को जूरी बना दिया जाता, तो वे प्रचण्ड बहुमत से नाथूराम को निर्दोष होने का फैसला देते। फिर भी न्यायाधीश ने कानून का सम्मान करते हुए नाथूराम को फाँसी की सजा सुनायी और नाथूराम गोडसे ने उसे स्वीकार किया।
मूर्खात्मा गाँधी तो चले गये, लेकिन हमारे देश की जनता में सदा के लिए हीरो बन गये। यह इस कांड का उल्टा परिणाम हुआ। नाथूराम गोडसे यदि उस समय उनका वध न करते, तो एक-दो साल में गाँधी स्वयं घुट-घुटकर मर जाते। लेकिन एक बात और है कि नाथूराम ने गाँधी के वध का पाप अपने सिर लेकर एक अन्य तरह से भी देश का उपकार किया। कल्पना कीजिए कि यदि गाँधी किसी धर्मान्ध मुसलमान के हाथों से मारे जाते, जिसकी पूरी संभावना थी, तो देश में कितनी भयंकर हिंसा होती।
मरने के बाद भी गाँधी और उनका नाम देश के लिए अभिशाप बने रहे और आज तक बने हुए हैं। इसकी चर्चा आगे की जाएगी।

Sunday 4 March 2012

गाँधी का सबसे बड़ा अपराध


मूर्खात्मा गाँधी ने देश के प्रति जो अनेकानेक अपराध किये थे, उनमें से कुछ की चर्चा मैं अपने लेखों की पिछली कड़ियों में कर चुका हूँ। अब सवाल है कि गाँधी का सबसे बड़ा अपराध क्या है? मेरे विचार से देश के प्रति गाँधी का सबसे बड़ा अपराध यह है कि उन्होंने नेहरू जैसे अयोग्य, विलासी और पश्चिमी मानसिकता वाले व्यक्ति को प्रधानमंत्री के रूप में देश पर थोप दिया। ऐसा करके गाँधी ने अपनी तानाशाही प्रवृत्ति का एक बार फिर निर्लज्ज परिचय दिया।
उल्लेखनीय है कि 16 कांग्रेस कमेटियों में से किसी ने भी नेहरू के नाम का प्रस्ताव प्रधानमंत्री पद के लिए नहीं किया था। 13 कमेटियों ने सरदार पटेल के नाम का प्रस्ताव दिया था, जो इस पद के लिए सर्वाधिक योग्य थे और निर्विवाद रूप से देशभक्त थे। जब नेहरू को पता लगा कि किसी ने भी उनके नाम का प्रस्ताव नहीं किया है और सरदार पटेल प्रधानमंत्री बन सकते हैं, तो वे गाँधी के सामने जाकर गिड़गिड़ाये और एक प्रकार से धमकाया भी। इससे गाँधी डर गये और कांग्रेस को नेहरू का नाम स्वीकार करने पर अड़ गये। सरदार पटेल, डा. राजेन्द्र प्रसाद तथा अन्य नेता गाँधी का बहुत सम्मान करते थे, इसलिए उन्होंने गाँधी की बात मान ली और पीछे हट गये। गाँधी ने नेहरू को प्रधानमंत्री बनने का कारण यह बताया था कि यदि उनको प्रधानमंत्री न बनाया गया, तो वे रूठकर कांग्रेस से अलग हो सकते हैं और कांग्रेस और देश का नुकसान कर सकते हैं। इससे स्पष्ट है कि वास्तव में नेहरू ने गाँधी और कांग्रेस को ब्लैकमेल किया था।
अब जरा देखा जाये कि देश की आजादी के आंदोलन में नेहरू का क्या योगदान था। कांग्रेस के आन्दोलनों का इतिहास बताता है कि हर आन्दोलन में नेहरू सबसे आगे रहकर सबसे पहले जेल चले जाते थे। बस यही उनका योगदान था। वे सबसे पहले जेल जाकर हीरो बन जाते थे। जेल में वे ए क्लास की सुविधायें भोगते थे और पार्टी के बाकी लोग अंग्रेजों की लाठियाँ और अत्याचार सहन करते थे। नेहरू के लिए जेल यात्रा पिकनिक से कम नहीं थी। उन्होंने आजादी के लिए कभी कोई कष्ट सहन नहीं किया, लेकिन सौदेबाजी करने और सत्ता की मलाई चाटने में सबसे आगे रहे। लेडी माउंटबेटन से उनका प्रेम प्रसंग था। उनके माध्यम से उनका लार्ड माउंटबेटन पर प्रभाव था, जिसका उन्होंने पूरा फायदा उठाया और सफल सौदेबाजी में सत्ता हथिया ली।
नेहरू ने प्रधानमंत्री बनने के बाद देश का जो बेड़ा गर्क किया, उसे सब जानते हैं। उनकी ‘योग्यता’ का सबसे बड़ा सबूत कश्मीर आज भी हमारा सिरदर्द बना हुआ है। सरदार पटेल ने 542 रियासतों को एक कर डाला, लेकिन केवल एक मामला (कश्मीर का) नेहरू ने जबर्दस्ती अपने हाथ में रखा, और उनकी नालायकी देखिए कि वही लटक गया और आज तक लटका हुआ है। अगर कश्मीर का मामला भी सरदार पटेल के हाथ में होता, तो कब का हल हो गया होता। नेहरू ने अपनी मूर्खतापूर्ण नीतियों से देश का जो अपमान कराया और विकास के नाम पर विनाश का बीज बोया, उसकी चर्चा आगे की जाएगी।
मूर्खात्मा गाँधी ने पोंगा पंडित नेहरू जैसे अयोग्य व्यक्ति को बलपूर्वक प्रधानमंत्री बनाकर देश की जो कुसेवा की, उसका फल हम आज तक भोग रहे हैं और कौन जानता है कब तक भोगेंगे।

Saturday 3 March 2012

देश की हत्या - 2


जैसा कि मैं पिछली कड़ी में लिख चुका हूँ, प्रारम्भ में भारत को स्वतंत्रता देने की तिथि जून 1948 तय हुई थी, परन्तु कांग्रेस और मुस्लिम लीग के सत्ता-लोलुप नेताओं ने अंग्रेजों पर जोर डालकर उन्हें 10 महीने पहले अगस्त 1947 में ही भारत छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। यदि उन्होंने ऐसा दबाब न डाला होता, तो इस दस महीने के कीमती समय का उपयोग आबादी की शान्तिपूर्ण अदला-बदली और संसाधनों, प्रशासन तथा सेनाओं के विभाजन आदि के लिए किया जा सकता था। परन्तु लीगी और कांग्रेसी नेताओं की सत्ता की हवस ने इस मौके को गवाँ दिया।

देश का विभाजन अपरिहार्य हो जाने पर कांग्रेसी नेताओं की जिम्मेदारी थी कि वे कम से कम आबादी की अदला-बदली के कार्य को योजनाबद्ध तरीके से सम्पन्न कराते, परन्तु अपनी लापरवाही के कारण उन्होंने ऐसा करने का कोई प्रयास नहीं किया। जब मुसलमानों ने पाकिस्तान माँगा था और देश के 95 प्रतिशत मुसलमान इसके पक्ष में थे, तो न्याय का तकाजा था कि देश के सारे मुसलमान पाकिस्तान चले जाते और वहाँ से सभी गैर-मुसलमान भारत में आ जाते। मुहम्मद अली जिन्ना इसके लिए पूरी तरह तैयार थे, परन्तु ‘सेकूलर’ कहलाने के मोह में मूर्खात्मा गाँधी और पोंगा पंडित नेहरू ने कह दिया कि किसी भी मुसलमान को जबर्दस्ती पाकिस्तान नहीं भेजा जाएगा।

दूसरे शब्दों में, उन्होंने भारत में रह रहे मुसलमानों को इस बात की पूरी छूट दे दी कि वे चाहें तो पाकिस्तान चले जायें और न चाहें तो न जायें। किसी ने उन मूर्ख नेताओं से यह नहीं पूछा कि जब आधे से अधिक मुसलमानों को भारत में ही रोककर रखना था, तो पाकिस्तान किसके लिए बनाया था, हुजूर? यह तो वही बात हुई कि कोई ट्यूमर निकालने के लिए आपरेशन किया जाये और आधे से अधिक ट्यूमर ही नहीं कैंची भी पेट में छोड़ दी जाये। इस मूर्खतापूर्ण नीति का परिणाम यह हुआ कि जो मुसलमान पढ़े-लिखे, खाते-पीते और सरकारी नौकरियों में थे, वे सब तो अधिकांश में पाकिस्तान चले गये और जो अनपढ़, गरीब, धर्मांध मुसलमान थे और चाहते हुए भी पाकिस्तान न जा सके, वे भारत में ही रहकर सदा के लिए हमारा सिरदर्द बन गये।

इतना ही नहीं, लापरवाही की हद तो यह थी कि जो हिन्दू पाकिस्तान से भारत में आना चाहते थे, उनको सुरक्षित ढंग से यहाँ लाने की कोई व्यवस्था न तो पाकिस्तान की सरकार ने की और न भारत की सरकार ने पाकिस्तान से ऐसा कोई आग्रह किया। उनको पूरी तरह भगवान भरोसे छोड़ दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि अधिकांश हिन्दुओं को पाकिस्तान में ही अपनी जान, माल और इज्जत अर्थात् सर्वस्व गवाँ देना पड़ा। लाखों लोगों की हत्याएं हुई, हजारों माँ-बहनों की इज्जत लुटी और उनके लिए कांग्रेसी नेताओं और मूर्खात्मा गाँधी के मुँह से ‘उफ’ तक न निकली। इस भारी हिंसा के बावजूद वे पूरी निर्लज्जता से यह दावा करते रहे कि देश को आजादी अहिंसा से मिली है। क्या इससे बड़ा झूठ कोई हो सकता है? यदि यही अहिंसा है, तो फिर हिंसा किसे कहेंगे?

आधे से अधिक मुसलमानों को भारत में ही रखने के पीछे नेहरू की धूर्तता भी थी। वे यह जानते थे कि स्वतंत्रता संग्राम और देश के विभाजन में कांग्रेस की जो भूमिका रही है, उसके कारण अधिकांश हिन्दू जनता कांग्रेस से घृणा करती है और वे कभी कांग्रेस को वोट नहीं देंगे। इसलिए नेहरू ने मुसलमानों के रूप में अपना सुरक्षित वोट बैंक बना लिया। यह वोट बैंक 1977 तक हमेशा कांग्रेस को वोट देता रहा और कांग्रेस लगातार सत्ता में आती रही। 1977 में मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट क्यों नहीं दिया, इसके कारणों की चर्चा आगे कभी करूँगा।

जब आधे से अधिक मुसलमान विभाजन के बाद भी भारत में ही रह गये, तो उन्हें अन्य देशवासियों की तरह सामान्य नागरिक के रूप में रहना चाहिए था और देश के संविधान और कानून का पालन करना चाहिए था। परन्तु पोंगा पंडित नेहरू की देशद्रोहिता की कोई सीमा नहीं थी। उन्होंने न केवल मुसलमानों को भारत में जानबूझकर रोका, बल्कि उनको अल्पसंख्यक के नाम पर ऐसे विशेषाधिकार भी दे दिये, जिनके वे पात्र ही नहीं थे। भारत में जो समुदाय वास्तव में अल्पसंख्यक हैं, जैसे ईसाई, पारसी, यहूदी आदि, उन्होंने कभी अपने लिए विशेषाधिकार नहीं माँगे, परन्तु मुसलमानों ने, जो अच्छी खासी संख्या में हैं, अपने लिए ‘मुस्लिम पर्सनल ला’ के नाम से अलग नागरिक कानून बनवा लिया और तमाम सुविधायें प्राप्त कीं। वास्तव में नेहरू और कांग्रेस अपने वोट बैंक की सुरक्षा के लिए उनको हर प्रकार से संतुष्ट करने का प्रयास करते रहे और आज भी कर रहे हैं।

मूर्खात्मा गाँधी और पोंगा पंडित नेहरू की देशद्रोहितापूर्ण नीतियों और करतूतों की सूची बहुत लम्बी है। उनकी चर्चा क्रमशः आगे की कड़ियों में की जाएगी।

Thursday 1 March 2012

देश की हत्या - 1


यह स्पष्ट हो जाने के बाद कि अंग्रेजों ने भारत को छोड़ने का फैसला कर लिया है और देश आजाद होने वाला है, प्रमुख राजनैतिक पार्टियों और नेताओं का दायित्व था कि वे देश की एकता को बचाने और सत्ता के शान्तिपूर्ण हस्तांतरण कराने की योजना तैयार करते। उस समय प्रमुख राजनैतिक पार्टियाँ थीं- कांग्रेस, मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा। मुस्लिम लीग घोषित रूप से मुसलमानों की प्रतिनिधि संस्था थी, लेकिन हिन्दू महासभा के बारे में यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अधिकांश हिन्दू जनता कांग्रेस के साथ थी। इसलिए स्वाभाविक ही अंग्रेजों ने कांग्रेस और लीग इन दो पार्टियों को ही महत्व दिया। यह गाँधी की परीक्षा की घड़ी भी थी। वे पिछले 25-30 वर्षों से अपनी ओर से हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करने का प्रयास करते रहे थे और इसके लिए मुसलमानों की अनेक अनुचित बातों को मानते या सहन करते रहे थे। लेकिन जैसा कि मैं पहले भी लिख चुका हूँ, मुसलमानों को किसी भी तरह संतुष्ट करना और उनसे कोई बात मनवा लेना लगभग असम्भव है। इस सत्यता का अनुभव आजादी के मौके पर पूरी तरह हो गया। मुस्लिम लीग किसी भी कीमत पर पाकिस्तान बनाना चाहती थी। उनका तर्क यह था कि अंग्रेजों के आने से पहले मुसलमान ही इस देश पर राज्य करते थे, इसलिए अंग्रेजों के जाने के बाद राज्य उनको ही मिलना चाहिए, क्योंकि वे हिन्दू बहुमत वाले देश में अल्पसंख्यकों की तरह नहीं रहना चाहते और यदि ऐसा न हो, तो उन्हें अलग देश दे दिया जाये। डा. अम्बेडकर ने मुस्लिम लीग के रवैये से तंग आकर एक बार कह डाला था कि ‘मुस्लिम लीग की माँगें हनुमान की पूँछ की तरह बढ़ती जा रही हैं।’
मुस्लिम लीग ने देश के विभाजन पर जोर डालने और हिन्दुओं को धमकाने के लिए ‘डायरेक्ट एक्शन’ अर्थात् खुलेआम गुंडागिर्दी तक की घोषणा कर डाली और वैसा किया भी। न्याय का तकाजा था कि तत्कालीन सरकार और कांग्रेस इस गुंडागिर्दी के खिलाफ जमकर लड़ते, लेकिन अहिंसा की आड़ लेकर कांग्रेस ने इसके सामने घुटने टेक दिये और देश का विभाजन करने को तैयार हो गये। हालांकि गाँधी किसी भी कीमत पर देश की अखण्डता को बनाये रखना चाहते थे। उन्होंने देश को वचन दिया था कि देश का विभाजन मेरी लाश पर होगा। मूर्खात्मा गाँधी तो देश की अखण्डता बचाये रखने के लिए एक बार यहाँ तक तैयार हो गये थे कि पूरा देश मुहम्मद अली जिन्ना को सौंप दिया जाये। लेकिन कांग्रेस के कुछ नेताओं के कड़े विरोध के कारण गाँधी की यह मूर्खतापूर्ण योजना पूरी नहीं हुई।
अन्ततः यह स्पष्ट हो गया कि देश का विभाजन होगा ही और देश के कई मुस्लिम बहुल इलाके पाकिस्तान में चले जायेंगे। गाँधी न केवल लीग से बल्कि कांग्रेस से भी निराश हो गये थे और उन्होंने स्पष्ट स्वीकार किया था कि अब कोई मेरी बात नहीं सुनता। ऐसी स्थिति में अपने वचन का पालन करने के लिए गाँधी को या तो आत्महत्या कर लेनी चाहिए थी या आमरण अनशन करना चाहिए था। परन्तु जो गाँधी जरा-जरा सी बात पर अनशन करने बैठ जाते थे, वे देश की हत्या होते देखते रहे और आत्महत्या करना तो दूर उन्होंने प्रतीकात्मक अनशन भी नहीं किया। आखिर क्यों? यदि उस समय गाँधी आत्महत्या कर लेते, तो नाथूराम गोडसे जैसे देशभक्त उनके खून से अपने हाथ रंगने के पाप से बच जाते और शायद देश का विभाजन भी रुक जाता।
अब प्रश्न उठता है कि कांग्रेस के तत्कालीन नेता देश का विभाजन करने को क्यों तैयार हो गये? इसके दो कारण मेरी समझ में आते हैं- एक, कांग्रेस के नेताओं ने हमेशा अहिंसा का जाप किया था, इसलिए उनमें मुस्लिम लीग की गुंडागिर्दी का सामना करने की ताकत या हिम्मत बिल्कुल नहीं रह गयी थी। दो, कांग्रेस के नेता असफल आन्दोलनों के कारण हताश हो गये थे और सत्ता पाने के इस अवसर को किसी भी कीमत पर छोड़ना नहीं चाहते थे। यही कारण है कि पहले सत्ता हस्तांतरण की तारीख जून 1948 तय हुई थी, परन्तु कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं ने अंग्रेजों पर जोर डालकर उन्हें 10 महीने पहले अगस्त 1947 में ही भारत छोड़ने के लिए तैयार कर लिया। जब देश का विभाजन अपरिहार्य हो गया, तो कांग्रेसी नेताओं की जिम्मेदारी थी कि वे इस कार्य को योजनाबद्ध तरीके से सम्पन्न करते, परन्तु अपनी अयोग्यता और लापरवाही के कारण वे ऐसा भी नहीं कर सके और देश को उनकी नालायकी की भारी कीमत चुकानी पड़ी। इसके बारे में अगली कड़ी में विस्तार से।