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Tuesday 6 March 2012

गाँधी वध और उसके बाद

अंग्रेजों द्वारा भारत छोड़ने और सत्ता के हस्तांतरण के साथ ही यह स्पष्ट हो गया था कि देश के विभाजन और लाखों हिन्दुओं के कत्ल और माता-बहिनों के अपमान के लिए कांग्रेस और उसके सत्तालोलुप नेता, विशेष तौर पर गाँधी जिम्मेदार थे। इससे सभी देशभक्त भारतीयों का हृदय क्रोध से उबल रहा था। हद तो तब हो गयी, जब पाकिस्तान ने कबाइलियों के नाम पर कश्मीर में हमला कर दिया और मूर्खात्मा गाँधी उसी समय उसे 55 करोड़ रुपये भुगतान कराने के लिए अड़ गये। जो गाँधी देश की हत्या और हिंसा रोकने के लिए प्रतीकात्मक अनशन भी न कर सके, वे पाकिस्तान को 55 करोड़ दिलवाने के लिए अनशन पर बैठ गये। यह देशद्रोहिता की हरकत नहीं तो क्या थी?
सभी देशभक्त भारतीय अनुभव कर रहे थे कि गाँधी अब देश के ऊपर बोझ बन चुके हैं। लेकिन लोग समझ नहीं पा रहे थे कि गाँधी द्वारा आगे भी भयादोहन करने से कैसे बचा जाये। ऐसे में एक प्रखर देशभक्त नाथूराम गोडसे ने इस मूर्खात्मा को संसार से उठा देने का निश्चय कर लिया। नाथूराम गोडसे कोई सामान्य अपराधी नहीं थे, बल्कि सुशिक्षित, विद्वान्, पत्रकार और एक समाचार पत्र के सम्पादक थे। वे यह जानते थे कि गाँधी वध एक कठिन कार्य है और इसको करने वाले को कठोर दण्ड तो भुगतना ही होगा, साथ में चारों ओर से भत्र्सना का भी सामना करना पड़ेगा। फिर भी उन्होंने यह कार्य करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। वे चाहते तो पेशेवर हत्यारों द्वारा यह कार्य करा सकते थे, परन्तु उन्होंने स्वयं यह कार्य करना तय किया, क्योंकि वे किसी और को बलि का बकरा नहीं बनाना चाहते थे। इतना ही नहीं, गाँधी वध के बाद वे वहाँ से भागे नहीं और न किसी और को कोई हानि पहुँचायी, हालांकि उनके पास भागने का पूरा मौका था। इससे उनके चरित्र की महानता का पता चलता है।
30 जनवरी 1948 को हुए गाँधी वध के बाद नेहरू तथा कांग्रेस के नेताओं को हिन्दू राष्ट्रवादियों के साथ अपनी दुश्मनी निकालने का पूरा मौका मिल गया। हालांकि नाथूराम गोडसे का उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कोई सम्बंध नहीं था और इस कार्य की योजना उन्होंने हिन्दू महासभा के कुछ समर्थकों के साथ मिलकर बनायी थी। लेकिन नेहरू के लिए इतना ही पर्याप्त था कि बचपन में नाथूराम कभी शाखा जाया करते थे। इसी बहाने से उन्होंने संघ को न केवल बदनाम किया और उस पर प्रतिबंध लगा दिया, बल्कि संघ के तत्कालीन सरसंघचालक परमपूज्य श्री गुरुजी को भी जेल में डाल दिया। इतना ही नहीं, अहिंसा का जाप करने वाले गाँधीवादी कांग्रेसियों ने गाँधी वध के बाद हिंसा का नंगा नाच किया और विशेष तौर पर संघ से सम्बंध रखने वाले मराठी ब्राह्मणों को निशाना बनाकर हत्यायें तथा उपद्रव किये। लेकिन संघ कार्यकर्ताओं की महानता देखिये कि उन्होंने बदले में कांग्रेसियों पर हाथ नहीं उठाया, बल्कि केवल अपनी रक्षा की।
इस कांड की जाँच प्रारम्भ होने पर शीघ्र ही यह स्पष्ट हो गया कि गाँधी वध में संघ का कोई हाथ नहीं है और यह हिन्दू महासभा के मुट्ठीभर कार्यकर्ताओं का काम था। लेकिन पोंगा पंडित नेहरू की क्षुद्रता देखिये कि उन्होंने संघ पर से प्रतिबंध तब भी नहीं हटाया और न श्री गुरुजी को रिहा किया। इस कारण संघ के कार्यकर्ताओं को सत्याग्रह करना पड़ा। इस सत्याग्रह में इतने स्वयंसेवकों ने अपनी गिरफ्तारी दी जितने किसी भी आन्दोलन में कांगे्रस के कार्यकर्ताओं ने भी नहीं दी थी। तब नेहरू ने बहाना बनाया कि संघ का कोई संविधान नहीं है, इसलिए संघ गैरकानूनी है। इस हिसाब से तो नेहरू की सरकार भी गैरकानूनी थी, क्योंकि तब तक भारत का भी कोई संविधान नहीं था। फिर भी संघ के कुछ कार्यकर्ताओं ने संविधान तैयार किया और तब श्री गुरुजी की रिहाई हुई और संघ से प्रतिबंध हटा।
नाथूराम गोडसे पर गाँधी वध का जो केस चला, उसमें एक बार भी संघ का नाम नहीं आया। फिर भी पूरी निर्लज्जता से कांग्रेसी और उनके चमचे कम्यूनिस्ट आज भी संघ को ‘गाँधी का हत्यारा’ बताते रहते हैं। अपने बयान में नाथूराम गोडसे ने अपने कार्य के समर्थन में जो कुछ कहा उसे सुनकर अदालत में मौजूद सबकी आँखें गीली हो गयीं। न्यायाधीश महोदय को लिखना पड़ा कि यदि उस समय अदालत में उपस्थित लोगों को जूरी बना दिया जाता, तो वे प्रचण्ड बहुमत से नाथूराम को निर्दोष होने का फैसला देते। फिर भी न्यायाधीश ने कानून का सम्मान करते हुए नाथूराम को फाँसी की सजा सुनायी और नाथूराम गोडसे ने उसे स्वीकार किया।
मूर्खात्मा गाँधी तो चले गये, लेकिन हमारे देश की जनता में सदा के लिए हीरो बन गये। यह इस कांड का उल्टा परिणाम हुआ। नाथूराम गोडसे यदि उस समय उनका वध न करते, तो एक-दो साल में गाँधी स्वयं घुट-घुटकर मर जाते। लेकिन एक बात और है कि नाथूराम ने गाँधी के वध का पाप अपने सिर लेकर एक अन्य तरह से भी देश का उपकार किया। कल्पना कीजिए कि यदि गाँधी किसी धर्मान्ध मुसलमान के हाथों से मारे जाते, जिसकी पूरी संभावना थी, तो देश में कितनी भयंकर हिंसा होती।
मरने के बाद भी गाँधी और उनका नाम देश के लिए अभिशाप बने रहे और आज तक बने हुए हैं। इसकी चर्चा आगे की जाएगी।

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