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Wednesday 27 November 2013

महाभारत का एक प्रसंग : वयं पंचाधिकं शतम्

जुए में हारने के बाद उसकी शर्तों के अनुसार सम्राट युधिष्ठिर अपने भाइयों और पत्नी द्रोपदी के साथ 12 वर्ष का वनवास का समय बिता रहे थे। एक बार उन्होंने हस्तिनापुर से कुछ ही दूरी पर एक जंगल में अपनी कुटी बनायी। सभी भाई जंगल से लकड़ी लाने, भोजन आदि की व्यवस्था करने और शस्त्रों का अभ्यास करने में व्यस्त रहते थे। शेष समय वे आगंतुक साधु-सन्तों के साथ धर्म-चर्चा किया करते थे। अपने अतिथियों के लिए भोजन आदि की व्यवस्था करने में उनको बहुत कठिनाई होती थी, लेकिन किसी तरह अपना कर्तव्य निभा रहे थे।

जब दुर्योधन को समाचार मिला कि पांडव पास के ही एक वन में रह रहे हैं, तो वह उनका उपहास उड़ाने और उनकी दुर्दशा का आनन्द लेने के लिए वन जाने को तैयार हो गया। धृतराष्ट्र से उसने यह कहकर अनुमति ले ली कि वे आखेट के लिए वन में जा रहे हैं। उसके साथ थोड़े से सैनिक, कुछ भाई और कर्ण भी था। पांडवों की कुटी से कुछ ही दूरी पर एक सरोवर था। दुर्योधन ने पहले वहाँ स्नान करने और खाना-पीना करने का निश्चय कियाजब वे उस सरोवर के पास पहुँचे तो कुछ पहरेदारों ने उसको रोक दिया। उन्होंने बताया कि सरोवर में इस समय गन्धर्वों के राजा चित्रसेन की रानियाँ और परिजन स्नान कर रहे हैं। इसलिए कुछ समय तक वहाँ किसी को जाने की अनुमति नहीं है। यह सुनकर दुर्योधन का अहंकार जाग उठा। बोला- ‘मैं हस्तिनापुर का सम्राट हूँ। यह सारा जंगल मेरा है। मुझे वहाँ जाने से कौन रोक सकता है।’ लेकिन गंधर्व न माने। तब दुर्योधन युद्ध करने को तैयार हो गया। इस युद्ध में चित्रसेन गंधर्व की सेना ने दुर्योधन की सेना को मार भगाया। कर्ण जैसा वीर अपनी जान बचाकर भाग गया और दुर्योधन को चित्रसेन ने पकड़कर बाँध लिया।

दुर्योधन के कुछ भागे हुए सैनिकों ने पांडवों को जाकर यह समाचार दिया। दुर्योधन के पकड़े जाने का समाचार पाकर युधिष्ठिर चिंतित हो गये। भीम और अर्जुन ने तो कहा कि ‘अच्छा हुआ। दुर्योधन हमारा मजाक उड़ाने आया था, उसे अच्छा दंड मिल गया।’ लेकिन युधिष्ठिर ने कहा कि 'यह अच्छा नहीं हुआ। दुर्योधन हमारा भाई है। भले ही आपस में विवाद के समय वे सौ और हम पाँच हैं, लेकिन बाहरी लोगों से विवाद के समय हम एक सौ पाँच हैं (वयं पंचाधिकं शतम्)। तुम दोनों तत्काल जाकर उसको मुक्त कराओ। चित्रसेन हमारा मित्र है, लेकिन आवश्यक होने पर उससे युद्ध भी करना।’

बड़े भाई का आदेश पाकर भीम और अर्जुन दोनों चल दिये। चित्रसेन पांडवों का मित्र था। वह जानता था कि पांडव क्यों वनवास भोग रहे हैं। उसने सोचा था कि दुर्योधन के पकड़े जाने का समाचार सुनकर पांडव बहुत प्रसन्न होंगे। लेकिन भीम और अर्जुन ने उससे जाकर कहा कि ‘दुर्योधन हमारा भाई है। महाराज युधिष्ठिर का आदेश है कि तुम उसको तत्काल छोड़ दो। नहीं तो तुम्हें हमारे साथ युद्ध करना पड़ेगा।’ चित्रसेन पांडवों का बहुत सम्मान करता था। उसने कहा कि ‘वैसे तो दुर्योधन का अपराध ऐसा है कि उसको जीवित छोड़ना गलत होता, लेकिन आपके कहने से मैं उसे मुक्त किये दे रहा हूँ।’ दुर्योधन को छुड़वाकर भीम और अर्जुन लौट आये।

जब दुर्योधन को पता चला कि वह पांडवों की कृपा से मुक्त हुआ है, तो उसे बहुत ग्लानि हुई। वह कहने लगा कि अब मैं जीवित नहीं रहना चाहता और जलकर मर जाऊँगा। तब कर्ण ने उसको रोका और समझाया। कर्ण ने उसको वचन दिया कि मैं युद्ध में पांडवों को हराकर तुम्हारे इस अपमान का बदला लूँगा। काफी कहने-सुनने के बाद दुर्योधन ने आत्महत्या का इरादा त्याग दिया।

वे चुपचाप हस्तिनापुर लौट आये। उन्होंने अपनी वन यात्रा का कोई समाचार धृतराष्ट्र को नहीं दिया। लेकिन महात्मा विदुर के गुप्तचरों को सारा समाचार ज्ञात हो गया और तब विदुर ने यह समाचार धृतराष्ट्र को दिया। यह सुनकर धृतराष्ट्र बहुत चिन्तित हुए और उन्होंने न केवल दुर्योधन को फटकारा, बल्कि आगे से कभी आखेट के लिए भी वन में जाने पर रोक लगा दी।

अस्वीकृत करने का अधिकार

काफी कहने-सुनने और इंतजार के बाद चुनाव आयोग ने मतदाताओं को अपने चुनाव क्षेत्र के सभी उम्मीदवारों को अस्वीकृत करने का अधिकार दिया है। इस अधिकार को 'None Of The Above' अर्थात् ‘उपरोक्त में किसी को नहीं’ अथवा ‘कोई नहीं’ और संक्षेप में ‘नोटा’ कहा जा रहा है। आगे होने वाले सभी चुनावों में सभी प्रत्याशियों के बटनों के अलावा एक ‘नोटा’ का बटन भी इलैक्ट्रानिक मतदान मशीनों में होगा, जिसे दबाकर मतदाता सभी प्रत्याशियों को अस्वीकृत कर सकता है।

यह अधिकार देकर चुनाव आयोग ने 'सभी प्रत्याशियों को अस्वीकृत करने' की अवधारणा को मान्यता प्रदान की, इसके लिए उसे धन्यवाद दिया जाना चाहिए। लेकिन खेद है कि अभी भी यह अधिकार अधूरा और लगभग निरर्थक है। इसका कारण यह है कि मतगणना में ऐसे मतों को पूरी तरह उपेक्षित या निरस्त कर दिया जाएगा। इसका प्रभाव ठीक उतना ही होगा, जितना किसी मतदाता द्वारा अपना वोट न डालने का होता है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि अभी भी चुनाव आयोग ऐसे मतदाताओं के मत को कोई महत्व देने को तैयार नहीं है, जो सभी प्रत्याशियों को अयोग्य मानते हैं।

पिछले चुनावों में कई ऐसे समाचार पढ़ने को मिले थे, कि कुछ मतदाताओं ने किसी प्रत्याशी को वोट देने के बजाय ऐसी बातें लिखकर मतपेटी में डाल दी थीं- ‘सभी चोर हैं’, ‘सभी खून चूसने वाले हैं’ आदि। ऐसे मतों को गणना के समय निरस्त कर दिया जाता था। यदि किसी क्षेत्र में सभी अयोग्य प्रत्याशी खड़े हो जाते हैं, तो प्रबुद्ध मतदाता वोट डालने के लिए घर से न निकलना ही ठीक समझता है। सभी को अस्वीकृत करने का अधिकार मिल जाने से यह आशा की जा रही थी कि अब ऐसे प्रबुद्ध मतदाताओं को अपनी भावनायें व्यक्त करने का कानूनी मार्ग मिल जाएगा। लेकिन ‘नोटा’ से यह आशा पूरी नहीं होती।

वर्तमान रूप में ‘नोटा’ का अधिकार चुनाव आयोग द्वारा प्रबुद्ध मतदाताओं के साथ किया गया एक भद्दा मजाक है। यदि चुनाव आयोग ‘नोटा’ बटन को दबाने की गिनती भी नहीं करना चाहता, तो फिर इस अधिकार का कोई अर्थ नहीं है। यदि मतदाता को यह पता होगा कि उसका मत रद्दी की टोकरी में फेंक दिया जाएगा, तो वह मतदान करने जाने का कष्ट ही क्यों करेगा। अगर वर्तमान ‘नोटा’ से यह आशा की जा रही है कि इससे मतदान प्रतिशत बढ़ जाएगा, तो वह आशा कभी पूरी नहीं होगी, बल्कि मतदान प्रतिशत गिरने की पूरी संभावना है।

इसलिए चुनाव आयोग को चाहिए कि ‘नोटा’ को भी सामान्य मतगणना में शामिल करे और यदि ‘नोटा’ को मिलने वाले मत सबसे अधिक मत पाने वाले प्रत्याशी से भी अधिक हों, तो उस क्षेत्र में किसी को विजयी घोषित नहीं करना चाहिए और वहाँ फिर से चुनाव होना चाहिए, चाहे कितना भी खर्चा हो।

इसके साथ ही अस्वीकृत किये गये सभी प्रत्याशियों को अगले 5 साल तक किसी भी चुनाव, जिनमें विधान सभा, विधान परिषद और राज्यसभा भी शामिल हैं, में खड़े होने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। ऐसा प्रावधान करने पर ही सबको अस्वीकृत करने का अधिकार सार्थक और प्रभावी होगा।

मुहम्मद गोरी के आक्रमण

सालार मसूद पर लिखे अपने लेख में मैं लिख चुका हूँ कि सन् १९३४ ई. में बहराइच के पास घाघरा के किनारे महाराजा सुहेल देव पासी के नेतृत्व में 22 हिन्दू राजाओं की सेनाओं ने सालार मसूद की विशाल सेना का समूल नाश कर दिया था। इसके बाद पूरे 150 वर्षों तक किसी इस्लामी आक्रमणकारी की हिम्मत भारत की ओर आँख उठाकर देखने की नहीं हुई थी।

लेकिन समय कभी एक सा नहीं रहता। ईसा की बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में दिल्ली और अजमेर में सम्राट पृथ्वी राज चौहान का शासन था। उनके पिता सोमेश्वर चौहान अजमेर के शासक थे, जिनके साथ दिल्ली के शासक राजा अनंग पाल तोमर तृतीय की दूसरी पुत्री का विवाह हुआ था। अनंगपाल की पहली पुत्री का विवाह कन्नौज के राठौर राजा विजय पाल के साथ हुआ था, जिनका पुत्र जयचन्द था। इस प्रकार जयचन्द पृथ्वीराज चौहान के मौसेरे भाई लगते थे। दिल्ली के शासक अनंगपाल के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उन्होंने योग्य जानकर पृथ्वीराज चौहान को अपना उत्तराधिकारी बना दिया था। इस प्रकार पृथ्वीराज के पास दिल्ली और अजमेर दोनों का शासन आ गया।

स्वाभाविक रूप से जयचन्द को यह बात पसन्द नहीं आयी, इसलिए वह प्रारम्भ से ही पृथ्वीराज से द्वेष मानता था। अगर इतना ही होता, तो गनीमत थी, लेकिन गड़बड़ यह हो गयी कि पृथ्वीराज चौहान जयचन्द की पुत्री संयोगिता को लेकर भाग गये, जो उनको पसन्द करती थी। यहीं से जयचन्द के मन में पृथ्वीराज चौहान के प्रति घृणा उत्पन्न हो गयी और वह किसी भी कीमत पर पृथ्वीराज को नीचा दिखाने लगा।

उस समय मुहम्मद शहाबुद्दीन गोरी 1173 में किसी तरह गजनी का सुलतान बन गया था। उसने कई तुर्क गुलाम पाल रखे थे, जिनको उसने अच्छी सैनिक और प्रशासनिक शिक्षा दिलायी थी। वह उन पर बहुत विश्वास करता था। उसके शासन में कई गुलाम सेना और प्रशासन में ऊँचे पदों पर पहुँच गये थे और वे सभी मुहम्मद गोरी के लिए प्राण तक देने को तैयार रहते थे। ऐसे गुलामों के सेनापतित्व में मुहम्मद गोरी ने अफगास्तिान के आसपास के राज्यों को जीत लिया और गजनी को राजधानी बनाकर अपना शासन चलाने लगा।

उसकी नजर शुरू से ही भारत की ओर थी। सबसे पहले उसने ११८६ में लाहौर को जीता और सियालकोट के किले पर कब्जा कर लिया। कहा जाता है कि इसमें उसे जम्मू के तत्कालीन हिन्दू शासक की भी सहायता मिली थी। लाहौर के बाद उसने गुजरात की ओर रुख किया, लेकिन गुजरात के राजा भीमदेव सोलंकी ने उसे बुरी तरह परास्त कर दिया। वहाँ से मुहम्मद गोरी जान बचाकर भागा और फिर कभी गुजरात की ओर मुख नहीं किया। लेकिन लाहौर को केन्द्र बनाकर भारत के विभिन्न भागों की ओर नजर गढ़ाये रहा।

कहा जाता है कि इसी समय कन्नौज के राजा जयचन्द ने गोरी को पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण करने की सलाह दी और वायदा किया कि इसमें वह गोरी की पूरी सहायता करेगा। इसी धारणा के आधार पर यह माना जाता है कि जयचन्द ने गोरी को बुलाया था। आज भी ‘जयचन्द’ का नाम देशद्रोहिता का पर्याय बना हुआ है।

गोरी और पृथ्वीराज चौहान की सेनाओं के बीच पहला युद्ध सन् 1191 ई. में थाणेश्वर के पास तराइन के मैदान में हुआ था। गोरी के पास 1 लाख 20 हजार सैनिकों की विशाल सेना थी, जिसमें हजारों की संख्या में घुड़सवार भी थे। उधर पृथ्वीराज चौहान की सेना भी एक लाख के लगभग थी और उनकी सेना में हजारों हाथी थे। इस युद्ध में गोरी की भारी पराजय हुई, क्योंकि उसकी घुड़सवार सेना हाथियों का मुकाबला नहीं कर सकी। गोरी की अधिकांश सेना मारी गयी और बचे-खुचे साथी गोरी का साथ छोड़कर इधर-उधर भाग गये। जयचन्द की सहायता भी उसके काम नही आयी। घायल अवस्था में गोरी पकड़ा गया।

जब गोरी को पकड़कर सम्राट पृथ्वीराज चौहान के सामने लाया गया, तो वह जान बख्शने के लिए गिड़गिड़ाने लगा और माफी माँगने लगा। उसने कुरान की कसम खायी कि अब कभी भारत की ओर नहीं आऊँगा। पृथ्वीराज के मंत्रियों और सलाहकारों ने उसे माफ न करने की सलाह दी, लेकिन पृथ्वीराज चौहान सूर्यवंशी थे, इसलिए अपनी पुरानी परम्परा पर डटे रहे कि शरण में आये व्यक्ति को माफ कर देना चाहिए। पृथ्वीराज चौहान की यह भूल आगे चलकर बहुत घातक हुई, जिससे देश सैकड़ों वर्षों के लिए विधर्मियों का गुलाम हो गया। कहा तो यह जाता है कि पृथ्वीराज चौहान ने 17 बार गोरी को माफ किया था। लेकिन इस दावे में विश्वसनीयता कम है।

जो भी हो, आजाद होकर अपने देश पहुँचते ही गोरी अपनी कसम को भूल गया और फिर से भारत पर हमला करने की तैयारियाँ करने लगा। लगभग एक वर्ष बाद ही सन् 1192 ई. में उसने अधिक बड़ी सेना लेकर फिर भारत पर हमला कर दिया। उसी तराइन के मैदान में उसका मुकाबला फिर पृथ्वीराज चौहान और उनके सहयोगियों की सेनाओं से हुआ। इसका परिणाम भी पहले जैसा ही रहने वाला था। लेकिन यहाँ गोरी ने एक चाल चली।

हिन्दू राजाओं का नियम था कि युद्ध हमेशा सूर्योंदय के बाद और सूर्यास्त से पहले लड़े जाते थे। सूर्यास्त होते ही युद्ध बन्द कर दिया जाता था। गोरी इस नियम को जानता तो था, लेकिन अपनी संस्कृति के अनुसार उसे मानता नहीं था। उसने एक दिन भोर में ही पृथ्वीराज की सेना पर आक्रमण कर दिया। तब तक उनकी सेना तैयार तो क्या जाग भी नहीं पायी थी। इसलिए थोड़े समय में ही पृथ्वीराज की सेना का बहुत बड़ा भाग नष्ट हो गया और बची हुई सेना बिखर गयी। जब तक पृथ्वीराज चौहान कुछ समझ पाते तब तक उनको गोरी के सैनिकों ने पकड़ लिया और बंदी बना लिया।

गोरी पिछली हार को भूला नहीं था और उसे अपनी कुरान की कसम भी याद थी। लेकिन उसने पृथ्वीराज को न केवल छोड़ने से इनकार कर दिया, बल्कि उनकी आँखें भी जलती सलाखों से फुड़वा दीं। इतिहासकारों ने तो लिखा है कि बाद में गोरी ने पृथ्वीराज को मरवा दिया और उनको अफगानिस्तान में ही एक कब्र में गढ़वा दिया।

लेकिन यह कथा प्रसिद्ध है कि पृथ्वीराज के साथी और दरबारी कवि चन्दबरदाई ने गोरी से कहा कि पृथ्वीराज में आवाज के अनुसार वाण छोड़ने की कला है, जो और किसी में नहीं है। गोरी इस कला का प्रदर्शन देखने को तैयार हो गया। उसने एक जगह घंटा लटकवा दिया और उसे दूर से बजाने का इंतजाम किया। वह भी एक अन्य मंच पर ऊपर बैठा था। तभी चन्दबरदाई ने एक दोहा कहा-
चार बाँस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण।
ता ऊपर सुलतान है मत चूके चौहान ।।

जैसे ही घंटा बजाया गया, वैसे ही पृथ्वीराज ने वाण छोड़कर घंटे को गिरा दिया। इस पर गोरी आश्चर्य से ‘वाह ! वाह !!’ चिल्ला पड़ा। पृथ्वीराज ने इसे अच्छा मौका समझा। गोरी के बैठने के स्थान का कुछ संकेत तो चन्दबरदाई ने दे ही दिया था। जब उन्होंने गोरी की आवाज सुनी तो उसी दिशा में वाण छोड़ दिया। वाण सीधा गोरी के सीने में घुस गया और उसका प्राणान्त हो गया। इसके बाद चन्दबरदाई और पृथ्वीराज भी नहीं बचे। कहा तो यह जाता है कि चन्दबरदाई ने पहले पृथ्वीराज को मारा, फिर खुद भी मर गये। लेकिन ऐसा लगता है कि गोरी के सैनिकों ने ही उन दोनों को मार डाला।

आज भी पृथ्वीराज चौहान की कब्र अफगानिस्तान में बनी हुई है। वहाँ के निवासी उस कब्र पर जूते मारकर उनका अपमान करते हैं, क्योंकि उन्होंने गोरी को मारा था। यह परम्परा ही इस बात का प्रमाण है कि पृथ्वीराज द्वारा गोरी को मारने की यह घटना सत्य है। इतिहासकारों द्वारा इसका उल्लेख न किया जाना स्वाभाविक है, क्योंकि कोई दरबारी इतिहासकार अपने मालिक को नीचा नहीं दिखाता।

जो भी हो। गोरी युद्ध जीतने के बाद तत्काल गजनी लौट गया था, क्योंकि वहाँ विद्रोह सिर उठाने लगा था। जाने से पहले उसने अपने एक गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली का सुलतान बना दिया था। उसी से गुलाम वंश चला। तभी से दिल्ली और पूरे भारत में इस्लामी राज्य की शुरूआत हुई। उसकी कहानी आगे के लेखों में दी जायेगी।

Wednesday 13 November 2013

पांडवों का रोष झूठा नहीं था

मेरी एक फेसबुक मित्र और कवियित्री श्रीमती सरिता शर्मा ने कुछ दिन पूर्व अपनी एक हिन्दी गजल फेसबुक पर डाली थी, जिसका एक शेर निम्नलिखित है-
धृतराष्ट्र गद्दियों पर, पांचाली निर्वस्त्रा 
पांडव नाकारा झूठा रोष लिये फिरते।

मुझे इसमें पांडवों के लिए ‘नाकारा’ और ‘झूठा’ शब्द खल गये। तब सरिता जी ने मुझसे कहा कि आप इस बात से क्यों असहमत हैं, उसका कारण दीजिए। इस बात का उत्तर विस्तार से देने की आवश्यकता थी, इसलिए वह उत्तर मैं अब दे रहा हूँ। 

कौरवों की सभा में द्रोपदी का चीरहरण एक असहनीय अपमानजनक घटना थी, जिस पर पांडवों को गहरा रोष था और उसी के कारण महाभारत का महाविनाशकारी युद्ध हुआ। पांडवों के रोष को झूठा और पांडवों को नाकारा केवल इसलिए कहना उचित नहीं है कि उन्होंने इस अपमान का बदला तत्काल नहीं लिया। इस तरह की कार्यवाही के लिए पूरी योजना बनाने और शक्ति संचय करने की आवश्यकता होती है, जिसमें बहुत समय लगता है। यही पांडवों ने किया। उन्होंने जुए की शर्तों के अनुसार 12 वर्ष का वनवास और 13 वर्ष का अज्ञातवास भोगा और उस समय का उपयोग हथियारों के संग्रह तथा मैत्री सम्बंध बनाने में किया। फिर उचित समय आने पर एक नारी के उस अपमान का पूरा-पूरा बदला सभी कौरवों का समूल नाश करके लिया। इसलिए पांडवों को नाकारा नहीं कहा जा सकता।

यह सोचना भी सही नहीं है कि पांडवों ने अपना रोष उसी समय प्रकट नहीं किया था। ध्यान देने योग्य है कि भीम ने उसी समय भरी सभा में यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं दुर्योधन की जाँघ तोड़ दूँगा और दुःशासन का खून पियूँगा। भीम ने अपनी इन प्रतिज्ञाओं को समय आने पर पूरा किया। द्रोपदी ने भी वहीं प्रतिज्ञा की थी कि जब तक अपने बालों को दुःशासन के खून से नहीं धो लूँगी, तब तक इनको खुला रखूँगी। महाबली भीम ने उसकी इस प्रतिज्ञा को भी पूरा कराया। इसलिए पांडवों के रोष को झूठा नहीं कहा जा सकता। 

पांडवों को सिर्फ इसलिए नाकारा कहना उचित नहीं है कि उन्होंने उसी समय बदला नहीं लिया। कल्पना कीजिए कि यदि पांडव उसी समय द्रोपदी के अपमान का बदला लेने को तैयार हो जाते, तो क्या होता? सारे कौरव मिलकर उनके ऊपर टूट पड़ते, जिनमें भीष्म, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य भी शामिल होते। 10-20 को मारकर पांडव वहीं मर जाते, वहीं उनकी हत्या कर दी जाती और विश्वविजयी सम्राट धर्मराज युधिष्ठिर एवं उनके महान् बलशाली और गुणवान भाइयों की कहानी वहीं समाप्त हो जाती। यह सोचकर ही युधिष्ठिर ने अपने और अपने भाइयों के रोष को नियंत्रित रखा और उचित समय आने पर ही उसको प्रकट किया। 

यदि चीरहरण के कारण किसी को नाकारा और उनके रोष को झूठा कहा जा सकता है, तो वे हैं भीष्म, कृपाचार्य और द्रोणाचार्य। ये तीनों केवल जबानी विरोध करके रह गये। कृपाचार्य और द्रोणाचार्य तो कौरवों के वेतनभोगी शिक्षक थे। अगर वे अपनी आजीविका का ध्यान रखकर चुप हो गये, तो बात समझ में आती है, लेकिन भीष्म तो उसी कुल में सबसे वरिष्ठ थे। उनको यह जघन्य कार्य किसी भी कीमत पर तत्काल रोकना चाहिए था। वे ऐसा करने में समर्थ भी थे। लेकिन वे भी केवल शाब्दिक रोष प्रकट करते हुए बैठे रह गये। इसलिए मैं द्रोपदी के अपमान और उसके कारण हुए महाभारत के युद्ध का सबसे अधिक दोषी भीष्म को मानता हूँ। 

Monday 11 November 2013

मुलायम उवाच

‘हम उत्तर प्रदेश का विकास गुजरात की तरह करेंगे: मुलायम सिंह यादव’

यह है ताजा अखबारी समाचारों का एक शीर्षक। इस समाचार के प्रत्येक अंश को ठीक से समझना जरूरी है। इस समाचार के कई अर्थ निकलते हैं-

1. पहला अर्थ यह निकलता है कि उत्तर प्रदेश अभी तक विकसित नहीं है। यह वास्तव में सच है। मुलायम सिंह तीन-तीन बार उ.प्र. के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और वर्तमान में उनके सुपुत्र पिछले दो साल से इसी प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। इतने पर भी यह मान लेना कि उ.प्र. का अभी तक विकास नहीं हुआ है, अपनी ही नाकामी को स्वीकार करना है। 

2. दूसरा अर्थ यह निकलता है कि गुजरात एक विकसित प्रदेश है। यह बात भी सत्य है। हालांकि आज तक मुलायम सिंह या उनके सपूत ने इस सत्य को स्वीकार करने का साहस नहीं किया था। सार्वजनिक रूप से वे यही कहते रहे हैं कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जी द्वारा गुजरात का विकास करने के सभी दावे खोखले हैं। यह बात दूसरी है कि मुख्यमंत्री बनते ही अखिलेश यादव ने एक सम्मेलन में नरेन्द्र मोदी से गर्मजोशी से मुलाकात की थी। इसका अर्थ यह समझा गया था कि उन्होंने मोदी जी से अपने प्रदेश का विकास करने के लिए मार्गदर्शन लिया होगा।

3. ‘गुजरात की तरह’ विकास करने की बात से यह मतलब निकलता है कि जिस रास्ते पर चलकर मोदी जी ने गुजरात का विकास किया है, मुलायम सिंह यादव उसी रास्ते पर चलकर उत्तर प्रदेश का विकास करना चाहते हैं। लेकिन अखिलेश ने मोदी जी से मुलाकात के बाद भी ‘विकास’ का जो रास्ता अपने चलने के लिए चुना वह ठीक उल्टा ही है। उदाहरण के लिए, गुजरात में मोदी जी ने कोई भी योजना किसी जाति या सम्प्रदाय विशेष के लिए नहीं चलायी है। वहाँ सारी योजनायें क्षेत्रों के आधार पर चलायी जाती हैं, जिनका लाभ उस क्षेत्र में रहने वाला कोई भी व्यक्ति उठा सकता है, चाहे वह किसी भी जाति या सम्प्रदाय से सम्बंध रखता हो। इसके विपरीत उ.प्र. में सभी योजनायें एक सम्प्रदाय विशेष या जाति विशेष के लिए चलायी गयी हैं, जैसे केवल मुस्लिम लड़कियों को हाईस्कूल या इंटर पास करने पर 20 या 30 हजार की इनाम देना, केवल मुस्लिम लड़कियों को विवाह के लिए राशि देना आदि।

इससे स्पष्ट है कि मुलायम सिंह यादव का यह कथन, जो सामान्य रूप से स्वागत योग्य होना चाहिए था, वास्तव में उत्तर प्रदेश की जनता को मूर्ख बनाने के लिए एक चुनावी वायदा मात्र है।

तीन गणितीय पहेलियाँ

यहाँ हम फिर तीन ऐसी पहेलियाँ दे रहे हैं, जिनमें अंकों के बदले अक्षरों का प्रयोग किया गया है। हर अलग-अलग अंकों के बदले अलग-अलग अक्षरों का प्रयोग किया गया है, और किसी अंक के लिए हर जगह उसी अक्षर का प्रयोग किया गया है। 

1. बार-बार
निम्नलिखित भिन्न पर ध्यान दीजिए, जिसमें परिणाम में दशमलव के कुछ अंक बार-बार दोहराये जाते हैं-

- - -
------- = .ANDAGAINANDAGAIN......
TIME

आपकी सुविधा के लिए बता दें कि भिन्न में अंश के अन्तिम दो अंक समान हैं।
बताइये कि AGAIN का संख्यात्मक मान क्या है?

2. नाम में क्या रखा है?
प्रो. लाल क्लब में खाना खाकर बैठे ही थे कि एक दादा टाइम आदमी उनके कमरे में घुस आया और बिना अभिवादन किये यों बोलने लगा- ”मेरा नाम TED MARGIN है। इसके अक्षरों को अलग-अलग तरीकों से लिखने पर GREAT MIND भी बनता है और GRAND ITEM भी। लेकिन मैं कहना चाहता हूँ कि मेरे नाम का प्रत्येक अक्षर 1 से 9 तक के किसी एक अंक के बराबर है और यह भी जान लो कि
A×R×M
---------- = 2
A+R+M
इसके अलावा TED=MAR+GIN और MAD बड़ा है ART से, हालांकि RAT दोनों से बड़ा है। तुम्हें यह भी बता दूँ कि अगर मैं तुम्हें बता दूँ कि इनमें M किस अंक के बराबर है, तो तुम मेरे नाम के सभी अक्षरों और 1 से 9 तक के अंकों में तुरन्त सही-सही सम्बंध बना लोगे।“
वह और भी बहुत कुछ बकना चाहता था, लेकिन तभी एक बेयरा आकर उसे पकड़कर बाहर ले गया। प्रो. लाल चकरा गये। क्या आप बता सकते हैं कि उस आदमी के नाम के अक्षर किस-किस अंक के बराबर हैं?

3. दो चश्मी हे-हे
प्रो. दास निम्नलिखित समीकरण पर कार्य कर रहे थे-
AB = CDE
जहाँ प्रत्येक अक्षर किसी अंक को व्यक्त करता है और B E का एक गुणक है।
वे बड़बड़ाये- ”ओह ! इसके तो बहुत से हल हैं, जैसे- 76 = 493 तथा अगर A=9 तो हम ले सकते हैं- 94=812 या 96=813.“ यह कहते-कहते उन्होंने अपना मुँह बिचकाया और अपना चश्मा धारण किया। इतना करते ही उन्हें जो दिखायी दिया, वह इस प्रकार था-
AABB = CCDDEE
”हा, यह है कोई समीकरण!“ वे खुश हो गये, ”इसका एक ही हल होना चाहिए।“
यदि A, B, C, D तथा E अलग-अलग अंकों को व्यक्त करते हों, B E का कोई गुणक हो और E 1 के बराबर न हो, तो बताइये कि ABCDE किस संख्या को व्यक्त करता है?

Wednesday 23 October 2013

सालार मसूद का पूर्ण विनाश

महमूद गजनवी पर अपने लेख में मैं लिख चुका हूँ कि 1001 ई0 से लेकर 1025 ई0 तक महमूद गजनवी ने भारतवर्ष को लूटने की दृष्टि से 17 बार आक्रमण किया तथा मथुरा, थानेसर, कन्नौज व सोमनाथ के अति समृद्ध मंदिरों को लूटने में सफल रहा। सोमनाथ की लड़ाई में उसके साथ उसके भान्जे सैयद सालार मसूद ने भी भाग लिया था। 1030 ई. में महमूद गजनवी की मृत्यु हो गयी।

महमूद गजनवी के अधूरे सपनों को पूरा करने और भारत की समृद्धि को लूटकर अपना स्थायी राज्य कायम करने की कामना से उसके भांजे सैयद सालार मसूद ने एक विशाल सेना लेकर अपने पिता सालार साहू के साथ 1034 ई0 में भारत पर आक्रमण किया। इस अभियान में उसके साथ सैय्यद हुसैन गाजी, सैय्यद हुसैन खातिम, सैय्यद हुसैन हातिम, सुल्तानुल सलाहीन महमी, बढ़वानिया सालार सैफुद्दीन, मीर इजाउद्दीन उर्फ मीर, सैय्यद मलिक दौलतशाह, मियां रज्जब उर्फ हठीले, सैय्यद इब्राहिम और मलिक फैसल जैसे अत्यंत क्रूर सेनापति थे।

इनके साथ जिहाद के नाम पर बर्बर अत्याचार करता हुआ सालार मसूद दिल्ली, मेरठ, बुलंदशहर, बदायूं, और कन्नौज के राजाओं को रौंदता हुआ, मंदिरों-देवस्थानों को ध्वस्त करता हुआ, गोहत्या और इस्लाम न स्वीकार करने वालों को तलवार के घाट उतारता हुआ, बच्चों व स्त्रियों को गुलाम बनाता हुआ, अपार धन-सम्पत्ति लूटता हुआ वह उत्तर प्रदेश के सतरिख (जनपद बाराबंकी) आ पहुंचा। सतरिख में डेरा डालकर सैय्यद सालार मसूद ने चारों दिशाओं में अपनी सेनाएं भेजकर भारत के उत्तर पूर्व के राज्यों को जीतकर महमूद गजनवी के परचम फहराने की घोषणा कर दी।

उसका उद्देश्य अयोध्या पर कब्जा करके उसे अपनी राजधानी बनाने का था। इसलिए पहले उसने अयोध्या के पास स्थित बहराइच पर आक्रमण किया। वहाँ सैय्यद सालार मसूद की विशाल सेना का मुकाबला श्रावस्ती के पराक्रमी राजा सुहेल देव से हो गया। उन्होंने अपने संगठन कौशल तथा सफल व्यूह रचना के बल पर सालार मसूद की विशाल सेना का सामना किया। महाराजा सुहेल देव ने अपने निकटस्थ सभी राजाओं को संगठित कर, सबको साथ लेकर सैय्यद सालार मसूद की सेना को नाकों चने चबवा दिए। महाराजा सुहेल देव का साथ देने वाले राजाओं के नाम ये थे- 1. राय सायब, 2. राय रायब, 3. अर्जुन, 4. भग्गन, 5. गंग, 6. मकरन, 7. शंकर, 8. करन, 9. बीरबल, 10. जयपाल, 11. श्रीपाल, 12. हरपाल, 13. हरकरन, 14. हरखू, 15. नरहर, 16. भल्लर, 17. जुधारी, 18. नारायण, 19. भल्ला, 20. नरसिंह तथा 21. कल्याण।

उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले के पयागपुर क्षेत्र के बघेल तथा टेढ़ी नदी के बीच महाराजा सुहेलदेव सहित 22 हिन्दू राजाओं की सम्मिलित सेना और सैय्यद सालार मसूद की सेना के बीच पांच दिनों तक जमकर युद्ध होता रहा। अन्ततः महाराजा सुहेल देव ने विक्रमी संवत् 1091 में ज्येष्ठ मास के पहले रविवार 10 जून, 1034 ई0 को आक्रांता सैय्यद सालार मसूद को अपने तीर के वार से मौत के घाट उतार दिया। साथ ही उसकी एक लाख तीस हजार सेना का भी सम्पूर्ण रूप में संहार किया। उस युद्ध से एक भी आक्रमणकारी सैनिक बचकर नहीं भाग सका। महाराजा सुहेल देव के इस प्रबल पराक्रम का ही परिणाम था कि अगले 150 वर्षों तक किसी भी आक्रमणकारी को भारतवर्ष पर आक्रमण करने का साहस नहीं हुआ।

हिंदू हृदय सम्राट राजा सुहेल देव पासी ने अपने धर्म का पालन करते हुए, सालार मसूद को इस्लाम की परम्परा के अनुसार कब्र में दफन करा दिया था। कुछ समय पश्चात् तुगलक वंश के आने पर फिरोज शाह तुगलक ने सालार मसूद को इस्लाम का सच्चा संत सिपाही (गाजी) घोषित करते हुए उसकी पक्की कब्र बनवा दी। आज उसी हिन्दुओं के हत्यारे, हिंदू औरतों के बलात्कारी ,मूर्तिभंजक दानव को मूर्ख हिंदू ‘गाजी मियाँ’ तथा ‘गाजी बाबा’ के नाम से एक देवता की तरह पूजते हैं और उसकी कब्र पर मत्था टेकते हैं। कितनी बिडम्बना है कि हिंदू वीर शिरोमणि राजा सुहेल देव पासी सिर्फ पासी समाज के आदर्श बनकर रह गए हैं, जबकि क्रूर हत्यारा आक्रान्ता सालार मसूद हिन्दू समाज का पूजनीय बन गया है। इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं है कि एक आक्रांता की कब्र से स्थानीय मुसलमान अपना जुड़ाव महसूस करते हैं।

भारत के स्कूलों में जो सरकारी इतिहास पढ़ाया जाता है, उसमें महमूद गजनवी और मुहम्मद गोरी के पाठ हैं और उनको अतिरंजित रूप में महान् विजेताओं की तरह याद किया जाता है, लेकिन सालार मसूद की पूर्ण पराजय का कोई जिक्र नहीं किया जाता और न इस बात का कोई स्पष्टीकरण दिया जाता है कि इन दोनों आक्रमणकारियों के बीच जो 150 वर्ष का अन्तर है, उस अवधि में कोई हमला क्यों नहीं हुआ। लेकिन जब हम महाराजा सुहेल देव के पराक्रम की कहानी पढ़ते हैं, तो सारी बातें स्पष्ट हो जाती हैं।

Monday 14 October 2013

हाथों के दर्द की सरल चिकित्सा

हमारी पाँचों कर्मेन्द्रियों में हाथ सबसे प्रमुख हैं। हम अपने लगभग सभी कार्य हाथ की सहायता से करते हैं। इसलिए हाथ का एक पर्यायवाची ‘कर’ भी है। अन्य सभी अंगों की तरह हाथ से ज्यादा काम लेने से इसमें भी थकान आती है और दर्द होने लगता है। कम्प्यूटर पर कार्य करने वालों का तो सारा कार्य ही हाथों से होता है, क्योंकि कीबोर्ड और माउस पर हाथ ही कार्य करते हैं। अधिक देर तक कीबोर्ड पर लगातार कार्य करने से उँगलियों और हथेली में दर्द होने लग जाता है। इसी तरह माउस अधिक चलाने से पूरी हथेली में दर्द होने लगता है और बार-बार क्लिक करने से वह उँगली भी दर्द करने लगती है। यहाँ तक कि क्लिक करना और माउस चलाना बहुत कष्टप्रद हो जाता है। यदि यह समस्या तत्काल दूर न की जाये, तो दर्द स्थायी बन जाता है। 

आजकल कम्प्यूटरों पर कार्य करने वालों की संख्या बहुत बढ़ गयी है, इसलिए हाथों के दर्द की शिकायत भी बहुत बढ़ गयी है। यहाँ मैं कुछ ऐसे उपाय और व्यायाम बता रहा हूँ जिनसे हाथों का दर्द सरलता से और गारंटी से दूर किया जा सकता है।

1. सबसे पहले तो जैसे ही हाथों या उँगलियों में दर्द प्रारम्भ हो, सभी कार्य बन्द कर देने चाहिए और कुछ मिनट हाथों को विश्राम देना चाहिए। यदि सम्भव हो, तो उसी समय हाथों को ठंडे पानी से धो लेना चाहिए। इससे दर्द से तत्काल बहुत आराम मिल जायेगा।

2. फिर नीचे लिखे व्यायाम करने चाहिए।
उँगलियाँ- दोनों हाथ आगे करके उँगलियों को फैला लीजिए। अब उँगलियों की हड्डियों पर जोर डालते हुए धीरे-धीरे मुट्ठी बन्द कीजिए और झटके से खोलिए। मुट्टी बन्द करते समय एक बार अँगूठा बाहर रहेगा और एक बार भीतर। ऐसा 10-10 बार कीजिए।

कलाई- (1) दोनों हाथ आगे करके हथेलियों को फैला लीजिए और उँगलियों को मिला लीजिए। अँगूठा भी उँगलियों से चिपका रहेगा। अब हथेली को खड़ा रखते हुए भीतर की ओर कलाई पर से मोडि़ये। फिर पूर्व स्थिति में लाइ़ए। ऐसा 10-15 बार कीजिए। (2) अब हथेली को खड़ा रखते हुए बाहर की ओर कलाई पर से मोडि़ये। फिर पूर्व स्थिति में लाइ़ए। ऐसा 10-15 बार कीजिए। (3) दोनों मुट्ठियाँ बन्द कर लीजिए। अँगूठा भीतर रहेगा। कलाई को स्थिर रखकर मुट्ठियों को गोलाई में एक दिशा में 10 बार घुमाइए। इसी प्रकार 10 बार उल्टी दिशा में घुमाइए।

कोहनी- (1) दोनों हाथ सामने करके हथेलियों को ऊपर की ओर खोलकर फैला लीजिए। उँगलियाँ और अँगूठा चिपके रहेंगे। अब हाथ को सीधा रखकर झटके से कोहनी पर से मोड़ते हुए उँगलियों से कंधों को छूइए। फिर खोल लीजिए। ऐसा 10-10 बार कीजिए। (2) यही क्रिया हाथों को दायें-बायें फैलाकर 10-10 बार कीजिए। (3) यही क्रिया दोनों हाथों को ऊपर खड़ा करके 10-10 बार कीजिए।

इन सभी व्यायामों को करने में मुश्किल से 5 मिनट लगते हैं। इसलिए ये कभी भी और कहीं भी किये जा सकते हैं। वैसे इनको अपने नियमित दैनिक व्यायामों में शामिल कर लेना चाहिए।

3. यदि हाथों में दर्द अधिक हो और स्थायी हो गया हो, तो ताली बजाने से धीरे-धीरे ठीक हो जाता है। इसके लिए प्रतिदिन किसी भी समय कम से कम एक हजार बार तालियाँ बजानी चाहिए। तालियाँ न अधिक जोर से और न अधिक धीरे से बजायी जायें। सारी उँगलियाँ खोलकर आराम से इस तरह तालियाँ बजाइए कि सारी उँगलियाँ और दोनों हथेलियाँ आपस में टकरायें। ताली बजाने से और भी अनेक लाभ होते हैं, जिनको आप स्वयं अनुभव कर लेंगे।

महाभारत का एक प्रसंग : तब तेरा धर्म कहाँ था?

महाभारत के युद्ध के 17वें दिन जब वीरवर अर्जुन और महावीर कर्ण के बीच भीषण संग्राम हो रहा था, तब लड़ते-लड़ते कर्ण के रथ का पहिया जमीन में धँस गया। कर्ण रथ से उतरकर पहिये को निकालने लगा। तब अर्जुन ने मौका अच्छा जानकर बाण तान लिया और छोड़ने ही वाला था कि मौत सामने देखकर कर्ण चिल्लाया- ‘क्या कर रहे हो, अर्जुन? यह धर्म युद्ध नहीं है, मैं निहत्था हूँ!’

यह सुनकर अर्जुन ठिठक गया, लेकिन जबाब दिया भगवान कृष्ण ने-
‘अच्छा तो, महाशय, अब तुझे धर्म की याद आ रही है! तू क्या जानता है धर्म क्या होता है?
तब तेरा धर्म कहाँ था, जब तुमने दुर्योधन के साथ मिलकर वारणावत में पांडवों को जीवित ही जलाकर मारने की कोशिश की थी?
तब तेरा धर्म कहाँ गया था, जब तुमने शकुनि के साथ मिलकर द्यूतक्रीड़ा के बहाने पांडवों का सर्वस्व हरण कर लिया था?
तब तेरा धर्म कहाँ चला गया था, जब तुमने महारानी द्रोपदी को भरी सभा में नंगा करने की सलाह दी थी?
तब तेरा धर्म कहाँ उड़ गया था, जब तुम सात मुस्टंडों ने एक निहत्थे बालक को घेरकर मार डाला था?’

भगवान कृष्ण एक-एक करके कर्ण की करतूतें गिना रहे थे और बार-बार पूछते थे- ‘कु ते धर्मस्तदा गतः?’ बता तब तेरा धर्म कहाँ चला गया था?

कर्ण के पास कोई उत्तर नहीं था। भगवान ने फिर उसे फटकारा- ‘तू नीच, तू हमें क्या धर्म सिखाएगा? हमें अच्छी तरह मालूम है कि हमारा धर्म क्या है!’

तब भगवान ने अर्जुन से कहा- ‘अर्जुन, तुम इस दुष्ट की बातों में मत आओ। आजीवन पाप करने वाला और पापियों का साथ देने वाला यह आदमी धर्म की बात करने का अधिकारी नहीं है। इसे धर्म का नाम तक लेने का अधिकार नहीं है। तुम अभी इसका सिर काट दो, ताकि इसे पता चल जाये कि सच्चा धर्म क्या होता है।’

तब अर्जुन ने कर्ण को धर्म का जो सबक सिखाया, वह सबको मालूम है।

जब हम आज की परिस्थिति में इस प्रसंग पर विचार करते हैं, तो समानता स्पष्ट हो जाती है। जिन तथाकथित धर्मों में सहिष्णुता, मानवता और न्याय नाम की कोई चीज नहीं है, वे हिन्दुओं को बार-बार यह याद दिलाते हैं कि यह कार्य हिन्दू धर्म के सिद्धान्तों के विपरीत है। हिन्दुओं को चाहिए कि वे ऐसे मामलों में भगवान कृष्ण के वचनों का स्मरण करें और अर्जुन की तरह अपना कर्तव्य निश्चित करें।

Saturday 12 October 2013

महमूद गजनवी के आक्रमण

मुहम्मद बिन कासिम के बारे में अपने लेख में मैं लिख चुका हूँ कि सन् 711 में सिंध के राजा दाहिर को हराने के बाद मुस्लिम सुल्तानों के पैर सिंध में जम गये थे। लेकिन वे कभी अपने राज्य का विस्तार नहीं कर सके, क्योंकि गुजरात और राजपूताना के राजा बप्पा रावल और उनके वंशजों ने कभी उनको सिंध के पूर्व में आगे नहीं बढ़ने दिया। हालांकि वे कभी भी कासिम के उत्तराधिकारियों से सिंध छीनने में सफल नहीं हो सके, लेकिन उस समय की परिस्थितियों में 300 वर्षों से अधिक समय तक इस्लामी आँधी को रोक रखना भी मामूली बात नहीं थी।

कासिम के बाद भारत पर पहला बड़ा आक्रमण गजनी के सुल्तान महमूद ने किया था, जो भारतीय इतिहास में महमूद गजनवी के नाम से कुख्यात है। वह अफगानिस्तान के एक शहर गजनी का शासक था और उसने अपनी शक्ति इतनी बढ़ा ली थी कि सम्पूर्ण अफगानिस्तान के साथ ही उसने इसके दक्षिण में पेशावर और सिंध के लगभग सभी भागों को अपने अधीन कर लिया था। इसी से उसे प्रेरणा मिली कि इस्लाम को भारत में फैलाया जाये। उसने सुना था कि भारत के मन्दिरों में बहुत दौलत है और वहाँ के राजााओं के पास भी अकूत सम्पत्ति है, इसलिए वह दौलत लूटने के साथ ही इस्लाम को फैलाना चाहता था।

महमूद गजनवी ने भारत के विभिन्न भागों पर 17 बार आक्रमण किये थे। कभी लाहौर, कभी कश्मीर, कभी राजपूताना के कुछ क्षेत्र उसने जीते भी, उसने मथुरा, कन्नौज तक भी धावे किये, लेकिन कभी वह अपने पैर नहीं जमा सका और हर बार उसे तुरन्त ही वापस भागना पड़ा। इसका कारण यह था कि वह अचानक ही किसी स्थान पर धावा करता था और आसपास के शासकों को इकट्ठे होने का मौका नहीं मिलता था, लेकिन जैसे ही वे एक साथ मिलकर उसके मुकाबले को आते थे, वैसे ही वह लूट का माल और अपनी जान लेकर वापस भाग जाता था।

1024 में अपने 17वें आक्रमण में वह अपनी सारी सेना के साथ आया और इस बार उसका लक्ष्य था सोमनाथ का विश्व प्रसिद्ध मन्दिर, जहाँ की दौलत के बारे में उसने बहुत सुन रखा था। उस समय तक बप्पा रावल के वंशज भी कमजोर हो गये थे और कई राज्यों में बँट गये थे।

फिर भी महमूद को सोमनाथ में जीत आसानी से नहीं मिली। गुजरात और राजपूताना के शासकों और जनता ने उसका जमकर मुकाबला किया, हजारों-लाखों हिन्दुओं ने अपने प्राणों की बलि दी। लेकिन कुछ लोगों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और विश्वासघात के कारण वह सोमनाथ पर कब्जा करने में सफल हुआ। उसने सबसे पहले मन्दिर के पुजारियों को मारा और सारी सम्पत्ति लूटने के साथ ही वहाँ के शिवलिंग को भी तोड़ डाला। सोमनाथ से उसने इतनी सम्पत्ति लूटी कि उसे सैकड़ों खच्चरों और ऊँटों पर लादकर गजनी ले गया।

जो लोग यह कहते हैं कि महमूद गजनवी केवल सम्पत्ति लूटने आया था, इस्लाम का प्रचार करने नहीं, वे झूठ बोलते हैं। सत्य तो यह है कि महमूद ने खुलकर कहा था कि ”मैं बुतशिकन (मूर्तिभंजक) हूँ, बुतपरस्त (मूर्तिपूजक) नहीं।“ वह हिन्दुओं से कितनी घृणा करता था, इसका पता इस बात से चलता है कि उसने शिवलिंग के टुकड़ों को खच्चरों पर लदवाकर गजनी भेज दिया था, जहाँ उनको एक प्रमुख मस्जिद की सीढि़यों पर लगा दिया गया, ताकि उन पर नमाज पढ़ने आने वालों के पैर पड़ें। वे टुकड़े आज भी वहीं लगे हुए हैं। महमूद गजनवी की मानसिकता उसके साथ ही समाप्त नहीं हुई। आज भी भारत में कुछ लोग उसी मानसिकता से ग्रस्त हैं और गजनवी के फिर आने का इन्तजार करते हैं। यह मानसिकता ही इस्लामी आतंकवाद का मूल कारण है।

महमूद गजनवी द्वारा लूटी गयी अपार सम्पत्ति को देखकर लगभग 5 वर्ष बाद उसके भांजे सालार मसूद ने भारत पर स्थायी कब्जा करने की नीयत से लगभग 1 लाख सैनिकों की सेना के साथ भारत पर आक्रमण किया था और समूचे उत्तर भारत को पार करते हुए बहराइच तक पहुँच गया था। उसका उद्देश्य वाराणसी के विश्वविख्यात विश्वेश्वर महादेव के मन्दिर को तोड़ना और उसकी सम्पत्ति को लूटना था। लेकिन बहराइच में घाघरा के किनारे 22 हिन्दू राजाओं की सेनाओं ने राजा सुहेलदेव पासी के नेतृत्व में उसकी सारी सेना को गाजर-मूली की तरह काट डाला। इसकी कहानी अगली बार विस्तार से बताऊँगा। यह गौरवशाली कहानी स्वतंत्र भारत के इतिहासकारों ने जानबूझकर छिपायी है। लेकिन सत्य कभी हमेशा छिपा नहीं रह सकता।

गांधी जयन्ती पर झूठ!

हर साल 2 अक्तूबर आता है और झूठ बोलने के चैनल चालू हो जाते हैं। यों तो मोहनदास कर्मचन्द गाँधी को ‘सत्य के पुजारी’ कहा जाता है, पर उनके ही नाम पर और उनके ही बारे में पूरी निर्लज्जता से झूठ बोले जाते हैं। यों तो उनके बारे में अनेक झूठे दावे किये जाते हैं, पर जो दो झूठ ज्यादा दोहराये जाते हैं, मैं यहाँ उनकी चर्चा करूँगा।

उनके बारे में सबसे पहला और सबसे बड़ा झूठ यह बोला जाता है कि उन्होंने और कांग्रेस ने देश को आजादी दिलायी। यह बिल्कुल गलत दावा है। आजादी के लिए गाँधी ने और उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने जितने भी आन्दोलन चलाये थे (1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन सहित) वे सभी बुरी तरह असफल रहे थे। ऐसे आन्दोलन चलाकर तो अगले 100 वर्ष में भी गाँधी और कांग्रेस देश को आजाद नहीं करा सकते थे। वास्तव में देश को आजादी क्रांतिकारियों के बलिदान और 1946 में हुए नौसेना विद्रोह के कारण मिली थी। उसके साथ ही दूसरे विश्व युद्ध में अंग्रेजों की कमर टूट जाना भी एक बड़ा कारण था। इसलिए अंग्रेजों ने अपने सभी उपनिवेशों को आजाद करने का निर्णय कर लिया था।

1947 के आस-पास के समय और भी अनेक देश अंग्रेजी दासता से मुक्त हुए थे, जैसे श्रीलंका, बर्मा, अफगानिस्तान, इस्रायल आदि, जहाँ न कोई गाँधी था और न कोई कांग्रेस जैसी पार्टी। इसलिए यह कहना सरासर झूठ है कि गाँधी या कांग्रेस ने आजादी दिलायी। कांग्रेस को केवल अंग्रेजों से सत्ता झटकने का श्रेय दिया जा सकता है, वह भी देश की हत्या करके। उस समय और कोई बड़ी पार्टी नहीं थी, इसलिए अंग्रेजों ने अपने पिट्ठू नेहरू और उसकी कांग्रेस को सत्ता सौंपकर चले जाना ही उचित समझा। इतना स्पष्ट सत्य होते हुए भी आज भी पूरी बेशर्मी से यह झूठ बोला जाता है कि गाँधी और कांग्रेस ने आजादी दिलायी।

गाँधी के बारे में दूसरा बड़ा झूठ यह बोला जाता है कि वे अहिंसा के पुजारी थे और आजादी अहिंसा से प्राप्त हुई। सत्य तो यह है कि गाँधी अहिंसा के नहीं बल्कि कायरता के पुजारी थे। तभी वे क्रांतिकारियों का विरोध करते थे। उन्होंने भगत सिंह आदि की फाँसी रुकवाने की कोई कोशिश नहीं की थी, बल्कि अंग्रेजों को वह ‘शुभ कार्य’ जल्दी कर डालने की सलाह दी थी। यह कहना भी गलत है कि आजादी अहिंसा से मिली। वास्तव में आजादी से पहले 1946 में नोआखाली आदि में भयंकर दंगे हुए थे, जिनमें हजारों-लाखों की जानें गयी। देश की हत्या होने के बाद भी पाकिस्तान के हिस्से में रहने वाले हिन्दुओं पर अमानुषिक अत्याचार हुए, जिनमें लाखों लोगों के प्राण गये। उस समय की नालायक नेहरू की सरकार तो उनको सुरक्षित भारत लाने का इंतजाम भी नहीं कर सकी और न गाँधी ने उनके लिए कुछ किया। इसलिए तथाकथित आजादी अहिंसा से नहीं बल्कि घोर हिंसा के बाद मिली थी।

ये सत्य हमारे स्कूलों में नहीं पढ़ाये जाते, बल्कि उनके दिमाग में यही झूठ भरे जाते हैं कि आजादी अहिंसा से और गाँधी के कारण मिली। अब यह झूठ बोलना बन्द कर दिया जाना चाहिए।

Thursday 26 September 2013

सर्वाइकल स्पौंडिलाइटिस की रामबाण चिकित्सा

आजकल हम सभी कम्प्यूटर का व्यापक उपयोग करते हैं। यह बात केवल बैंकों, सरकारी कार्यालयों या निजी कार्यालयों में कार्य करने वालों के लिए ही नहीं बल्कि हर किसी के लिए सत्य है, क्योंकि आजकल घर-घर में डेस्कटौप और लैपटौप कम्प्यूटर हो गये हैं। कम्प्यूटर पर काम करने के लिए हमें अपना सिर झुकाना पड़ता है, क्योंकि कीबोर्ड हमारी आँखों से नीचे होता है। कई लोग सिर के साथ अपना कंधा भी झुका लेते हैं। इस गलत स्थिति में अधिक दिनों तक कार्य करने से उनके कंधों, गर्दन और पीठ के कई हिस्सों में दर्द होने लगता है और सिर को आसानी से किसी भी तरफ झुकाने में कष्ट होता है। इसी को सर्वाइकल स्पौंडिलाइटिस कहा जाता है।

ऐलोपैथी में इसका कोई इलाज नहीं है। दर्द से क्षणिक आराम के लिए वे दर्दनाशक गोलियाँ दे देते हैं, जिनसे कुछ समय तो आराम मिलता है, लेकिन आगे चलकर वे बहुत हानिकारक सिद्ध होती हैं और उनका प्रभाव भी खत्म हो जाता है।

दूसरे इलाज के रूप में डाक्टर लोग एक मोटा सा पट्टा गर्दन के चारों ओर लपेट देते हैं, जिससे सिर नीचे झुकाना असम्भव हो जाता है। लम्बे समय तक यह पट्टा लगाये रखने पर रोगी को थोड़ा आराम मिल जाता है, लेकिन कुछ समय बाद समस्या फिर पहले जैसी हो जाती है, क्योंकि अपनी मजबूरियों के कारण वे कम्प्यूटर का प्रयोग करना बन्द नहीं कर सकते।

लेकिन योग चिकित्सा में इसका एक रामबाण इलाज है। स्वामी देवमूर्ति जी, स्वामी धीरेन्द्र ब्रह्मचारी और स्वामी रामदेव जी ने इसके लिए कुछ ऐसे सूक्ष्म व्यायाम बताये हैं जिनको करने से इस समस्या से स्थायी रूप से मुक्ति मिल सकती है और रोगी सामान्य हो सकता है। इन व्यायामों को मैं संक्षेप में नीचे लिख रहा हूँ। इनका लाभ मैंने स्वयं अपनी सर्वाइकल स्पौंडिलाइटिस की समस्या को दूर करने में उठाया है और अन्य कई लोगों को भी लाभ पहुँचाया है। इन्हीं व्यायामों के कारण मैं दिन-रात कम्प्यूटर पर कार्य करने में समर्थ हूँ और कई दर्जन पुस्तकें लिख पाया हूँ।

व्यायाम इस प्रकार हैं-

ग्रीवा-
(1) किसी भी आसन में सीधे बैठकर या खड़े होकर गर्दन को धीरे-धीरे बायीं ओर जितना हो सके उतना ले जाइए। गर्दन में थोड़ा तनाव आना चाहिए। इस स्थिति में एक सेकेंड रुक कर वापस सामने ले आइए। अब गर्दन को दायीं ओर जितना हो सके उतना ले जाइए और फिर वापस लाइए। यही क्रिया 10-10 बार कीजिए। यह क्रिया करते समय कंधे बिल्कुल नहीं घूमने चाहिए।
(2) यही क्रिया ऊपर और नीचे 10-10 बार कीजिए।
(3) यही क्रिया अगल-बगल 10-10 बार कीजिए। इसमें गर्दन घूमेगी नहीं, केवल बायें या दायें झुकेगी। गर्दन को बगल में झुकाते हुए कानों को कंधे से छुआने का प्रयास कीजिए। अभ्यास के बाद इसमें सफलता मिलेगी। तब तक जितना हो सके उतना झुकाइए।
(4) गर्दन को झुकाए रखकर चारों ओर घुमाइए- 5 बार सीधे और 5 बार उल्टे। अन्त में, एक-दो मिनट गर्दन की चारों ओर हल्के-हल्के मालिश कीजिए।

कंधे-
(1) सीधे खड़े हो जाइए। बायें हाथ की मुट्ठी बाँधकर हाथों को गोलाई में 10 बार धीरे-धीरे घुमाइए। घुमाते समय झटका मत दीजिए और कोहनी पर से हाथ बिल्कुल मत मुड़ने दीजिए। अब 10 बार विपरीत दिशा में घुमाइए।
(2) यही क्रिया दायें हाथ से 10-10 बार कीजिए।
(3) अन्त में दोनों हाथों को इसी प्रकार एक साथ दोनों दिशाओं में 10-10 बार घुमाइए।

कंधों के विशेष व्यायाम-
(1) वज्रासन में बैठ जाइए। दोनों हाथों को कोहनियों से मोड़कर सारी उँगलियों को मिलाकर कंधों पर रख लीजिए। अब हाथों को गोलाई में धीरे-धीरे घुमाइए। ऐसा 10 बार कीजिए।
(2) यही क्रिया हाथों को उल्टा घुमाते हुए 10 बार कीजिए।
(3) वज्रासन में ही हाथों को दायें-बायें तान लीजिए और कोहनियों से मोड़कर उँगलियों को मिलाकर कंधों पर रख लीजिए। कोहनी तक हाथ दायें-बायें उठे और तने रहेंगे। अब सिर को सामने की ओर सीधा रखते हुए केवल धड़ को दायें-बायें पेंडुलम की तरह झुलाइए। ध्यान रखिये कि केवल धड़ दायें-बायें घूमेगा, सिर अपनी जगह स्थिर रहेगा और सामने देखते रहेंगे। ऐसा 20 से 25 बार तक कीजिए।

इन सभी व्यायामों को एक बार पूरा करने में मुश्किल से 10 मिनट लगते हैं। इनको दिन में 3-4 बार नियमित रूप से करने पर स्पोंडिलाइटिस और सर्वाइकल का कष्ट केवल 5-7 दिन में अवश्य ही समाप्त हो जाता है। सोते समय तकिया न लगायें तो जल्दी लाभ मिलेगा।

Monday 23 September 2013

आतंकवाद का धर्म

‘आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता।’ यह बात हमें रोज सुबह-शाम दिन-रात गरज कि पाँचों वक्त याद दिलायी जाती है और उम्मीद की जाती है कि हम इसको सही मान लें और इस पर विश्वास कर लें। लेकिन यह बात कितनी खोखली है, इसका पता भी हमें रोज चल जाता है। कश्मीर से केन्या तक, पाकिस्तान से अमेरिका तक, चीन से यूरोप तक दुनिया में हर जगह आतंकवादी अपनी करतूतों से साबित कर देते हैं कि उनका एक ‘धर्म’ है और जो उस तथाकथित धर्म को नहीं मानता, उसे जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है। दुनिया का कोई कोना इन ‘धार्मिकों’ के असर से अछूता नहीं है।

भारत में भी इस बात के खोखलेपन के प्रमाण रोज सामने आ जाते हैं। कहीं किसी आतंकवादी को अदालत फाँसी की सजा सुनाती है, तो उसके ‘धर्म’ वालों के वोटों के सौदागर सामने आ जाते हैं और चीखने लगते हैं कि ‘न....न....न, इसको फाँसी मत दो, नहीं तो उस धर्म के मानने वाले नाराज हो जायेंगे।’ जब भी मुठभेड़ में कोई आतंकवादी मारा जाता है, उसको बेटा-बेटी या दामाद बताने वाले छातियाँ पीटने लगते हैं कि ‘हाय ! एक शांतिप्रिय निर्दोष बच्चे को मार डाला।’ वे चाहते हैं कि हम या तो आतंकवादियों को खुला घूमने दें या उनको दामाद बनाकर रोज बिरयानी खिलाते रहें।

इस धर्म के झंडाबरदार कभी इस बात पर विचार नहीं करते कि क्या कारण है कि इस धर्म को मानने वाले आतंकवादी पूछ-पूछकर और छाँट-छाँटकर गैर-धर्मों को मानने वालों के सीने में गोलियाँ उतारकर आनन्द का अनुभव करते हैं? क्या कारण है कि इस धर्म को मानने वाला शान्तिप्रिय आदमी सैकड़ों गैर-धर्म वाले निर्दोष लोगों की जान लेने के लिए खुद को विस्फोट से उड़ाने में कोई संकोच नहीं करता?

केवल जन्नत जाने और वहाँ असीमित शराब के साथ 72 हूरें पाने का लालच इसका अकेला कारण नहीं हो सकता। अवश्य ही उस धर्म के चिन्तन और मान्यताओं में कोई मौलिक गलती है, जिसके कारण यह ‘शान्तिप्रिय धर्म’ सारे संसार में अशांति और रक्तपात का कारण बना हुआ है। इस चिन्तन में चूक कहाँ पर है? जब इस सवाल का जबाब मिल जायेगा, तो आतंकवाद भी समाप्त होने लगेगा, वरना इसी तरह आम लोगों की जानें जाती रहेंगी और हम ‘कड़ी  कार्यवाही करने’ की चेतावनी देते रहेंगे।

Friday 20 September 2013

महाभारत का एक पात्र : अम्बा


अम्बा महाभारत का एक रहस्यमय पात्र है। वह बहुत कम समय तक दृष्टि में रही, लेकिन इतने ही समय में उसने महाभारत की घटनाओं पर अपना प्रभाव छोड़ दिया। वह तत्कालीन काशीराज की तीन पुत्रियों में सबसे बड़ी थी। अन्य दो पुत्रियों के नाम थे- अम्बिका और अम्बालिका। तीनों बहिनों की उम्रों में अधिक अन्तर नहीं था, इसलिए उनके पिता काशीराज ने तीनों का स्वयंवर एक साथ करने की निश्चय किया। परम्परा के अनुसार देश भर के राजाओं और राजकुमारों को निमंत्रण भेजा गया।

उस समय हस्तिनापुर के सिंहासन पर विचित्रवीर्य विराजमान थे। वे शांतनु और सत्यवती के छोटे पुत्र थे। उनके बड़े भाई चित्रांगद एक द्वंद्व युद्ध में मारे जा चुके थे। इसलिए विचित्रवीर्य को ही गद्दी पर बैठाया गया। वे बचपन से ही बीमार थे और बीमारी ने उनके शरीर को जर्जर बना दिया था। अगर वे स्वयंवर में जाते, तो शायद ही कोई राजकुमारी उनका वरण करती। इसलिए भीष्म ने उनको भेजने के बजाय स्वयं जाना तय किया।

निर्धारित दिन पर भीष्म दनदनाते हुए स्वयंवर स्थल पर जा पहुँचे। उस समय कई राज्यों के राजा और राजकुमार स्वयंवर में आये हुए थे और राजकुमारियों द्वारा वरमाला पहनाये जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। भीष्म के पहुँच जाने पर सबको आश्चर्य हुआ कि जो व्यक्ति आजीवन अविवाहित रहने और कभी सिंहासन पर न बैठने की प्रतिज्ञा कर चुका है, वह स्वयंवर में आया है। कुछ ने उनका मजाक भी बनाया।

उसी समय भीष्म ने घोषणा की कि मैं इन तीनों राजकुमारियों को कुरुवंश की वधू बनाने के लिए ले जा रहा हूँ। यदि किसी को आपत्ति हो तो मुकाबला कर ले। यह सुनते ही सभी को साँप सूँघ गया। वे भीष्म की शक्ति को जानते थे, इसलिए चुपचाप बैठे रहे। तब भीष्म ने काशीराज से कहा कि अपनी पुत्रियों को मेरे साथ जाने की अनुमति दे दें। काशीराज ने चुपचाप पुत्रियों को जाने का इशारा कर दिया और वे भीष्म के साथ चल पड़ीं। यहाँ भीष्म ने यह बात छिपा ली थी कि वे उन राजकुमारियों को अपने लिए नहीं बल्कि अपने छोटे बीमार भाई के लिए ले जा रहे थे।

उस स्वयंवर में राजकुमार शाल्व भी आया हुआ था। वह बड़ी राजकुमारी अम्बा को पसन्द करता था और अम्बा भी उसी को वरमाला पहनाने का निश्चय करके आयी थी। लेकिन जब भीष्म उसको ले जाने लगे, तो वह चुपचाप चल दी। वह भी मक्कार थी। उसने सोचा होगा कि भीष्म मुझसे विवाह करके राजसिंहासन पर बैठेंगे और मैं कुरुवंश की महारानी बन जाऊँगी। इसलिए वह कुछ नहीं बोली और चुपचाप चल पड़ी। अगर वह उस समय कह देती कि मैं शाल्व से विवाह करना चाहती हूँ, तो भीष्म उसी समय उसे छोड़ देते। लेकिन उसने यह मौका गँवा दिया।

रास्ते में शाल्व ने भीष्म को रोका और कहा कि अम्बा को मैं प्यार करता हूँ और उससे विवाह करूँगा। अगर इस समय भी अम्बा कह देती कि मैं शाल्व के साथ जाना चाहती हूँ, तो भीष्म उस समय भी उसे छोड़ देते। लेकिन तब भी अम्बा कुछ नहीं बोली। इस पर भीष्म ने शाल्व को युद्ध में हरा दिया और घायल करके छोड़ दिया।

जब सभी हस्तिनापुर पहुँचे और भीष्म ने बताया कि उनका विवाह विचित्रवीर्य के साथ कराया जाएगा, तो अम्बा का सपना टूट गया। उसने भीष्म को बताया कि मैं शाल्व को प्यार करती हूँ और उससे ही विवाह करना चाहती हूँ। इस पर भीष्म ने उससे कह दिया कि अगर यही तुम्हारी इच्छा है, तो तुम जा सकती हो। यह सुनकर अम्बा चली गयी। उसकी दोनों छोटी बहनों ने विचित्रवीर्य से विवाह करना स्वीकार कर लिया।

जब अम्बा शाल्व के पास पहुँची तो शाल्व ने उसे स्वीकार करने से मना कर दिया, क्योंकि भीष्म ने उसे युद्ध में हरा दिया था। वास्तव में वह भी अम्बा को प्यार नहीं करता था, बल्कि प्यार का नाटक करता था। लेकिन अम्बा इतनी मूर्ख थी कि उसे शाल्व के बजाय भीष्म पर क्रोध आया। वह वापिस हस्तिनापुर पहुँची और भीष्म पर जोर डाला कि मेरे साथ विवाह कर लो। लेकिन भीष्म अपनी प्रतिज्ञा से बँधे हुए थे, इसलिए उन्होंने साफ मना कर दिया। इस पर वह भीष्म को धमकी देकर चली गयी।

उसने भीष्म को दंड देने के लिए बहुतों के सामने प्रार्थना की, लेकिन किसी भी व्यक्ति की हिम्मत भीष्म से पंगा लेने की नहीं हुई। तब वह भीष्म के गुरु भगवान परशुराम के पास गयी और उनसे सहायता का वचन लेकर भीष्म को दंड देने के लिए कहा। परशुराम ने भीष्म को बुलवाया और उनसे कहा कि तुम या तो अम्बा से विवाह कर लो, या मुझसे युद्ध करो। भीष्म ने अपने गुरु से युद्ध करना स्वीकार किया, लेकिन अपनी प्रतिज्ञा तोड़ने को तैयार नहीं हुए। पूरे आठ दिन दोनों गुरु-शिष्य में युद्ध हुआ, लेकिन कोई किसी को नहीं हरा सका। तो परशुराम ने युद्ध समाप्त कर दिया और अम्बा से कहा कि इससे ज्यादा मैं तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकता, क्योंकि भीष्म अजेय हैं।

कहा जाता है कि भीष्म से बदला लेने की आग में जलती हुई अम्बा ने आत्मघात कर लिया और फिर पांचाल के राजा द्रुपद के घर राजकुमार शिखंडी के रूप में जन्म लिया, जो अन्ततः भीष्म की मृत्यु का कारण बना। मेरी दृष्टि में अम्बा मूर्ख थी। उसे शुरू में ही भीष्म से कह देना चाहिए था कि मैं शाल्व के साथ जाना चाहती हूँ। भीष्म तो उसे उसी समय मुक्त कर देते। फिर जब शाल्व ने उसे स्वीकार नहीं किया था, तो उसे इसका बदला शाल्व से ही लेना चाहिए था, न कि भीष्म से। भीष्म ने तो कभी उससे विवाह करने का वचन ही नहीं दिया था। अपनी मूर्खता के कारण अम्बा ने अपनी जिन्दगी बरबाद कर ली।

Thursday 19 September 2013

दंगों का सच और आजम खाँ का झूठ

मैं अपने पिछले लेख ‘मुजफ्फर नगर के सबक’ में स्पष्ट लिख चुका हूँ कि कुछ सेकूलर कहलाने वाले दल और नेता अपने निहित स्वार्थों के लिए हिन्दू-मुसलमानों को आपस में लड़ाते हैं और उनकी जान लेने तक में संकोच नहीं करते। एक चैनल ने हाल ही में स्टिंग आपरेशन से जो खुलासा किया है उससे मेरी बात की पुष्टि होती है। 

इस चैनल ने कई पुलिस अधिकारियों को यह कहते हुए दिखाया है कि आजम नाम के एक नेता ने आदेश दिये थे कि कुछ भी करने की जरूरत नहीं है और जो हो रहा है होने दो। इतना ही नहीं ऊपरी आदेशों के कारण उनको उन 7 लोगों को छोड़ने के लिए भी बाध्य होना पड़ा, जिनको दो युवकों की हत्या में चश्मदीदों की सूचनाओं के आधार पर पकड़ा गया था। 

इस खुलासे के बाद केबिनेट मंत्री आजम खाँ ने जो सफाई दी है, उससे पुलिस अधिकारियों की बात की पुष्टि ही होती है। आजम खाँ ने अपनी सफाई में तीन बातें कही हैं- 

1. मैं मुजफ्फर नगर इसलिए नहीं गया कि मेरे जाने से बात बिगड़ जाती। 
2. मैंने किसी अधिकारी को कोई फोन नहीं किया। 
3. मैंने दंगा रोकने हेतु कार्यवाही करने के लिए अधिकारियों से सम्पर्क किया था, लेकिन अधिकारी मेरी बात नहीं मानते।

ये तीनों बातें परस्पर झूठ हैं। जब उन्होंने कोई फोन नहीं किया और वे व्यक्तिगत रूप से भी वहाँ नहीं गये, तो उन्होंने सम्पर्क कैसे किया था? क्या कोई चिट्ठी या ई-मेल भेजी थी? स्पष्ट है कि मंत्री जी सरासर झूठ बोल रहे हैं। 

उनकी इस बात पर कौन विश्वास करेगा कि अधिकारी उनकी बात नहीं मानते? जिस व्यक्ति को राज्य का सुपर-मुख्यमंत्री कहा जाता हो, किस अधिकारी की मजाल है कि उसकी बात न माने? केवल फेसबुक पर कमेंट करने पर लेखक को गिरफ्तार करने के लिए जो आदमी तत्काल पुलिस भेज सकता है और दुर्गा नागपाल जैसी आई.ए.एस. अधिकारी को मिनटों में निलम्बित करा सकता है, क्या कोई अदना सा थानेदार उसके हुक्म को मानने से इंकार कर सकता है? कोई मूर्ख ही इस बात को मानेगा।

इस सबसे स्पष्ट है कि लड़की छेड़ने की घटना और उसकी प्रतिक्रिया में हुई घटनाओं को भयंकर साम्प्रदायिक दंगों में बदलने की साजिश ऊँचे स्तर पर रची गयी, ताकि आगामी चुनावों में वोटों का ध्रुवीकरण हो। मुसलमानों के अपने नेताओं ने ही मुसलमानों को अपनी गन्दी राजनीति का मोहरा बनाकर मरवाया और दूसरी ओर हिन्दुओं को भी उकसाकर दंगों को हवा दी। पुलिस को निष्क्रिय कर देना इसी साजिश का अंग था। यदि पुलिस अधिकारियों को अपने विवेक के अनुसार कार्यवाही करने दी गयी होती, तो मामला शुरू में ही समाप्त हो जाता। 

इस सारे घटनाक्रम से मुसलमानों की आँखें खुल जानी चाहिए। अगर अभी भी वे अपने दुश्मनों और दोस्तों की सही पहचान नहीं कर पाते, तो आगे चलकर उन्हें और भी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।

Sunday 15 September 2013

मुज़फ्फर नगर के कुछ सबक

मुज़फ्फर नगर और आस-पास के दंगों के बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा जा चूका है. मैं उसे दोहराकर अपना और आपका समय नष्ट नहीं करना चाहता, बल्कि इन घटनाओं से मिलने वाले कुछ सबकों की चर्चा करूँगा, ताकि ऐसी घटनाओं को दोहराने से रोका जा सके. बुद्धिमान वह है जो इतिहास से कुछ सीख ले ले, हालाँकि इतिहास हमें केवल यही सिखाता है कि इतिहास से आज तक किसी ने कुछ नहीं सीखा. फिर भी हम मुज़फ्फर नगर की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं से निम्नलिखित बातें सीख सकते हैं- 

1. केवल एक समुदाय का तुष्टीकरण करने से वह समुदाय भले ही प्रसन्न हो जाये, लेकिन अन्य समुदायों में उसके प्रति अलगाव और ईष्र्या की भावना इतनी प्रबल हो जाती है कि उसका विस्फोट होने के लिए एक छोटी सी चिनगारी काफी है। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार ने पूरी ताकत से मुस्लिम तुष्टीकरण किया है, वह भी अन्य समुदायों का हक मारकर। इसके बारे में मैं कई बार पहले भी लिख चुका हूँ और चेतावनी भी दे चुका हूँ। पर उनका कोई असर नहीं हुआ। अन्ततः वह हो गया, जो नहीं होना था।

2. देश में कुछ व्यक्ति और दल ऐसे हैं, जिनकी पूरी राजनीति ही दंगों और लाशों के आधार पर चलती है। वे भले ही दूसरों को दंगों पर राजनीति न करने के उपदेश देते हों, लेकिन वे स्वयं हमेशा ऐसा ही करते रहे हैं। उदाहरण के लिए, गुजरात के 2002 के दंगों को वे दिन-रात कोसते रहते हैं, लेकिन अपने शासन में हुए दंगों को मात्र जातीय संघर्ष कहकर तुच्छ बताने की कोशिश करते हैं। यदि ऐसे शासन में कानून-व्यवस्था चौपट है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

3. यह मात्र संयोग नहीं है कि उत्तर प्रदेश में आजादी के बाद अब तक केवल तीन बार सेना को कानून-व्यवस्था बनाने के लिए बुलाना पड़ा है, 1990 में, 2005 में और 2013 में और तीनों बार प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार रही है। इससे यही सिद्ध होता है कि इस पार्टी के सत्ता में आते ही गुंडे-बदमाशों के हौसले बुलन्द हो जाते हैं और वे स्वच्छन्द हो जाते हैं। इस पार्टी की सरकार आते ही शासन का राजनीतिकरण हो जाता है, जिससे पक्षपात और संरक्षण के कारण कानून व्यवस्था बिगड़ जाती है। इसकी परिणिति अन्ततः कानून व्यवस्था की समाप्ति और दंगों में होती है।

4. मुस्लिम समुदाय आज तक अपने सच्चे हितैषी व्यक्तियों और दलों की पहचान नहीं कर सका है। इसलिए वे बहुत जल्दी उन लोगों से प्रभावित हो जाते हैं, जो उनके सामने चिकनी-चुपड़ी बातें करके कुछ टुकड़े डाल देते हैं। ऐसे लोग और दल न केवल उनके वोटों का सौदा करते हैं, बल्कि जानबूझकर उन्हें मौत के मुँह में ले जाते हैं और फिर बचाने का नाटक करके उनके हितैषी बनकर आ जाते हैं। ऐसे दल ही मुस्लिम समुदाय के विकास और मुख्य धारा में उनके शामिल होने में सबसे बड़ी बाधा हैं। जिस दिन मुसलमान इस बात को समझ लेंगे, उसी दिन देश से साम्प्रदायिकता की समस्या समाप्त हो जायेगी।

सबक और भी हो सकते हैं, पर अभी इतने ही।

Wednesday 11 September 2013

महाभारत का एक पात्र : बर्बरीक

यह महाभारत का ऐसा पात्र है, जिसने युद्ध में भाग लेने की तीव्र इच्छा होते हुए भी मजबूरीवश युद्ध में कोई भाग नहीं लिया था। बताया जाता है कि वह भीम और हिडिम्बा का पौत्र तथा घटोत्कच का पुत्र था। वह युद्ध में शायद पांडवों की सहायता करने के लिए आ रहा था। उसकी माता ने उससे कहा था कि जो कमजोर पक्ष हो, उसकी ओर से लड़ना। उसकी माता ने सोचा होगा कि पांडवों के पास सेना कम है और उनका पक्ष कमजोर है, इसलिए वह पांडवों की ओर से ही लड़ेगा।

कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने उसके मन की थाह लेने के लिए ब्राह्मण का रूप बनाया और उससे पूछा कि वह कितना बलवान है। उसने बताया कि मैं एक ही वाण से समस्त सृष्टि का विनाश कर सकता हूँ। उसकी परीक्षा लेने के लिए भगवान ने उससे कहा कि वह एक ही वाण से एक पेड़ के सभी पत्तों को बींध कर दिखाए। उसने वैसा ही कर दिखाया, तो कृष्ण की आँखें आश्चर्य से फटी रह गयीं। उन्होंने पूछा कि तुम किसकी ओर से लड़ोगे? तो बर्बरीक ने कहा कि अपनी माता के आदेश के अनुसार जो पक्ष हार रहा होगा, मैं उसकी ओर से लड़ूँगा। तब भगवान ने सोचा कि यह तो बड़ा खतरनाक है, यह कभी पांडवों को जीतने नहीं देगा। इसलिए उन्होंने तत्काल सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया।

सिर कट जाने पर उसे पता चला कि ब्राह्मण के वेष में ये स्वयं भगवान कृष्ण हैं, तो वह प्रसन्न हो गया। भगवान ने उसकी इच्छा पूछी, तो उसने बताया कि मैं महाभारत युद्ध को देखना चाहता हूँ। इस पर भगवान ने उसके कटे हुए सिर को एक पेड़ या पहाड़ी के ऊपर ऐसे सुरक्षित स्थान पर रख दिया, जहाँ से वह पूरे कुरुक्षेत्र को देख सकता था। उसके सिर ने वहीं से पूरा युद्ध देखा।

युद्ध के बाद किसी ने उससे पूछा कि युद्ध में सबसे अधिक वीरता किसने दिखायी थी, तो उसने बताया कि मैंने तो सब तरफ केवल कृष्ण के सुदर्शन चक्र को ही चलते देखा है।

बर्बरीक की इस कहानी में विश्वसनीयता कम है। यह कहानी मूल महाभारत का अंग नहीं है, बल्कि बाद में मिलाई गयी और किंवदन्तियों का रूप लगती है। ऐसा सन्देह करने के कई कारण हैं। पहली बात तो यह है कि यदि उसकी माता ने उसे पांडवों की सहायता के लिए भेजा था, तो वह गोल-मोल बात क्यों करेगी? वह तो साफ-साफ कहेगी कि तुम्हें अपने पितामह पांडवों की ओर से ही लड़ना है, जैसे कि उसका पिता घटोत्कच लड़ा था।

दूसरी बात, यह कहीं स्पष्ट नहीं है कि उसने धनुर्वेद की शिक्षा किससे प्राप्त की और ऐसी दिव्य शक्तियाँ उसके पास कहाँ से आयीं, जो उसके पिता घटोत्कच और पितामह अर्जुन के पास भी नहीं थीं। तीसरी बात, जब उसने पूरा युद्ध देखने की इच्छा प्रकट की, तो भगवान कृष्ण ने उसके साथ धोखा क्यों किया और केवल अपना सुदर्शन चक्र चलते हुए क्यों दिखाया? इससे यही लगता है कि बर्बरीक की सारी कहानी कपोल-कल्पित है।

वैसे बर्बरीक को भारतीय समाज में आज भी याद किया जाता है। ब्रज के गाँवों में शारदेय नवरात्रियों में तीन तिलंगों से बने टेसू के रूप में उसकी पूजा की जाती है। उसे कृष्ण का रूप माना जाता है और खाटू वाले श्याम जी के नाम से उसकी पूजा प्रायः सम्पूर्ण उत्तर भारत में की जाती है। वह हारने वाले पक्ष की सहायता को आया था, इसलिए उसे ‘हारे का सहारा’ कहा जाता है, अर्थात् जिसका कोई सहारा न हो, वह खाटू वाले श्याम जी को अपना सहारा मान सकता है। 

Monday 9 September 2013

सऊदी अरब में महिलाओं की स्थिति

कई मुस्लिम मित्रों को यह गलतफहमी है कि इस्लाम में महिलाओं को पूरी इज्जत और बराबरी दी जाती है, जितनी और किसी धर्म में नहीं दी जाती। इस बात के खोखलेपन की असलियत सभी जानते हैं, लेकिन कोई स्वीकार नहीं करता। परन्तु किसी न किसी रूप में सच सामने आ ही जाता है। अभी हाल ही में दैनिक भास्कर समाचार पत्र में एक लम्बी रिपोर्ट निकली है, जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि सऊदी अरब में महिलाओं की स्थिति नरक से भी बदतर है। 

यह सऊदी अरब घोषित रूप में इस्लामी देश है और मक्का-मदीना आदि मुसलमानों के सभी प्रमुख तीर्थ वहीं स्थित हैं। हज करने के लिए दुनियाभर के मुसलमान वहीं जाते हैं। वहाँ इस्लामी शरियत के अनुसार ही शासन चलाया जाता है, इसलिए कोई यह नहीं कह सकता कि उस देश में जो हो रहा है, वह इस्लाम के अनुसार नहीं है। यदि कोई ऐसा कहता है तो वह दूसरों के साथ-साथ स्वयं को भी धोखा दे रहा है।

जो लोग उस समाचार को पूरा पढने का कष्ट नहीं उठाना चाहते, उनके लिए उसकी मुख्य-मुख्य बातें मैं यहाँ लिख रहा हूँ।
1. रूढ़िवादी सऊदी अरब में महिला का अपना कोई जीवन नहीं होता। कानूनी रूप बालिग होने बावजूद भी महिलाओं का कोई अस्तित्व नहीं है। सऊदी में प्रत्येक महिला का पुरुष अभिभावक होना चाहिए।
2. किसी भी सऊदी महिला को पढ़ाई, काम, यात्रा, शादी और यहां तक चिकित्सीय जांच के लिए भी पुरुषों से लिखित अनुमति लेनी पड़ती है।
3. इसके अलावा बिना किसी भी पुरुष अभिभावक वे केस फाइल नहीं कर सकती और न्याय की बात तो भूल ही जाइए।
4. अभी भी यहां सिर्फ 10 साल की उम्र में बच्चियों की शादी करा देने और बलात्कार पर बेवकूफी भरा कानून अस्तित्व में हैं। इनके विरुद्ध कोई सुनवाई कहीं नहीं होती.
5. यहां लड़कियों को बालिग होने से पहले ही शादी करा दी जाती है और उन्हें हिजाब में रहना पड़ता है। बावजूद इसके यहां रेप की संख्या सबसे ज्यादा है। इसका जिम्मेदार बलात्कार के कानून को माना जाता है। बलात्कार के लिए किसी आरोपी को तब तक सजा नहीं दी जा सकती जब तक उसके चार प्रत्यक्षदर्शी न हों। 
6. सऊदी सरकार महिलाओं की नौकरी की कोई व्यवस्था नहीं की जाती है। पीएचडी डिग्री वाली महिलाएं भी बेरोजगार हैं। दरअसल, सऊदी अरब में पुरुष साथी के साथ काम करने, साक्षात्कारों से बचने के लिए महिलाओं को नौकरी नहीं दी जाती है।
7. सऊदी अरब में महिलाओं के कार चलाने पर पाबंदी है। कई बार पुलिस महिलाओं को गाड़ी चलाते हुए रोक लेती है और उनसे शपथ पत्र लिखवाती हैं कि वह कभी गाड़ी नहीं चलाएंगी। कई बार उन्हें कोड़े मारने की सजा भी दी जाती है।  
8. सऊदी लड़कियों को खेलों में भाग लेने और जिम जाने देने की इजाजत नहीं है। 

Thursday 5 September 2013

कह-मुकरनी

आइये, आज कुछ साहित्यिक बातें करें, जैसी आपने शायद कहीं सुनी या पढ़ी नहीं होंगी।

‘कह-मुकरनी’ का अर्थ है ‘कहकर मुकर जाना’ यानी अपनी बात से पलट जाना। ये लघु कविताएँ लिखने की एक विशेष शैली है। इसमें एक महिला अपनी सखी से कुछ बातें कहती हैं, जो पति के बारे में भी हो सकती हैं और एक अन्य वस्तु के बारे में भी। जब उसकी सखी कहती है कि क्या तुम अपने पति की बात कर रही हो? तो वह कहती है, ‘नहीं, मैं तो उस वस्तु की बातें कर रही हूँ।’ यही ‘कह-मुकरनी’ है। 

इसे ठीक से समझने के लिए एक उदाहरण लीजिए-
तरह तरह से मुँह मटकावै।
खेल दिखाकर मोहि रिझावै।
जी चाहै ले जाऊँ अन्दर।
ए सखि साजन? ना सखि बन्दर!

इसमें पहली तीन बातें पति के बारे में भी हो सकती हैं और बन्दर के बारे में भी। जब उसकी सहेली कहती है- ‘ए सखि साजन ?’ तो वह फौरन कहती है- ‘ना सखि बन्दर।’

प्राचीन काल में कह-मुकरनी लिखने की परम्परा बहुत लोकप्रिय थी। कहा जाता है कि तेरहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध जनकवि अमीर खुसरो ने यह परम्परा चलायी थी। बाद में कई उर्दू-हिन्दी कवियों जैसे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने इस विधा को लोकप्रिय बनाया। कभी-कभी आज भी प्राचीन साहित्य और पत्र-पत्रिकाओं में कह-मुकरनी देखने को मिल जाती हैं।

कह-मुकरनी पहेली का काम भी करती थी। इसमें चैथी लाइन को छिपाकर पहली तीन लाइनें ही बोली जाती थीं और फिर पूछा जाता था कि चैथी लाइन क्या होगी?

यहाँ मैं अमीर खुसरो की कुछ कह-मुकरनियाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। शायद आपको भी पसन्द आयें।
1. वो आये तब शादी होय। उस बिन दूजा और न कोय।
मीठे लागें वाके बोल। ए सखि साजन? ना सखि ढोल!
2. ऊँची अटारी पलंग बिछायौ। मैं सोयी मेरे सिर पर आयौ।
खुल गयीं अखियाँ भयौ अनन्द। ए सखि साजन? ना सखि चंद!
3. पड़ी थी मैं अचानक चढि़ आयौ। जब उतर्यौ तो पसीना आयौ।
सहम गयी नहिं सकी पुकार। ए सखि साजन? ना सखि बुखार!
4. सेज पड़ी मोरी आँखों आया। डाल सेज मोहि मजा दिखाया।
किससे कहूँ अब मजा मैं अपना। ए सखि साजन? ना सखि सपना!
5. जब वो मेरे मन्दिर आवै। सोते मुझको आन जगावै।
पढ़त-फिरत वो विरह के अक्षर। ए सखि साजन? ना सखि मच्छर!
6. लिपट-लिपट के वाके सोई। छाती से छाती लगा के रोयी।
दाँत से दाँत बजा तो ताड़ा। ए सखि साजन? ना सखि जाड़ा!

अब दो कह-मुकरनियाँ मेरी भी पढ़ लीजिए-
1. झूठे-झूठे वादे करता। कभी न उनको पूरे करता।
गरज पड़े तब दर्शन देता। ए सखि साजन? ना सखि नेता!
2. जब मर्जी हो तब आ जावै। घंटी देकर हमें बुलावै।
उसे छोड़कर जाये कौन। ए सखि साजन? ना सखि फोन!

Monday 2 September 2013

यह मीडिया शर्म-निरपेक्ष है

मेरा पिछला हास्य-व्यंग्य लेख 'मीडिया द्वारा बलात्कार' भारतीय मीडिया द्वारा अपनी शक्ति के दुरूपयोग को उजागर करता है. पिछले दिनों सरकारी की नालायकी, रुपये की इज्जत घटने, आतंकवाद, घोटालों, बलात्कारों आदि से ज्यादा चर्चा मीडिया द्वारा चरित्र-हनन और फिर उसकी पिटाई की हुई है. मैं यह तो नहीं कहूँगा कि मीडिया वालों की पिटाई करना उचित है, लेकिन यह जरुर कहूँगा कि जिस प्रकार मीडिया कुछ विशेष लोगों का चरित्र-हनन करती है, उसको देखते हुए इस प्रकार लोगों द्वारा अपना आक्रोश दिखाना स्वाभाविक है. वैसे गलती मीडिया-कर्मियों की बिलकुल नहीं है, यह तो ऊपर बैठे संपादकों-समाचार संपादकों और उनसे भी ऊपर उनके मालिकों की करतूत है, जो धन कमाने और अपने चैनल या अखबार का महत्त्व बढाने के लिए कुछ ख़ास लोगों को निशाने पर लेते हैं और शेष को छोड़ देते हैं. मीडिया कर्मी तो बेचारे उनके हुकुम के गुलाम हैं और अपनी रोटी कमा रहे हैं. उन पर गुस्सा उतारना ठीक नहीं.

लेकिन मीडिया वाले भारत में मिली हुई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो घोर दुरूपयोग कर रहे हैं, वह क्षमा करने योग्य नहीं है. इसको कुछ उदाहरणों द्वारा सिद्ध करूँगा.

एक समय था जब मीडिया ने कांची के शंकराचार्य के विरुद्ध हर प्रकार का घृणात्मक  प्रचार किया था, उनको चरित्रहीन सिद्ध करने कि कोशिश की गयी थी, जेल भिजवाया गया था. सारा मामला झूठा था और सत्ता के दुरूपयोग का घोर उदाहरण था. लेकिन मामला दर्ज होने को ही मीडिया ने उसे सिद्ध मान लिया और अपने आप सजा भी सुना दी. लेकिन कई महीने जेल में रहने के बाद जब वे बेदाग़ छूटे, तो किसी भी चैनल ने उनसे माफ़ी नहीं मांगी और न खेद व्यक्त किया. मीडिया ने इस समाचार को बड़ी सफाई से दबा दिया. 

इसी प्रकार मीडिया ने स्वामी राम देव और आचार्य बालकृष्ण के खिलाफ बेहूदा प्रचार अभियान चलाया था, जो आगे चलकर टांय-टांय फिस्स हो गया. इस मामले पर सीबीआई ने बार-बार झूठ बोला था, लेकिन मीडिया ने इस झूठ पर सवाल उठाने के बजाय उस पर लीपा-पोती कर दी. इनसे मीडिया की चिढ़ का कारण यह है कि इन्होने बहुराष्ट्रीय ठंडा पेय कंपनियों का धंधा आधा कर दिया था, जिनसे मीडिया को करोड़ों-अरबों के विज्ञापन मिलते हैं.

लेकिन हिन्दू संतों-महात्माओं के पीछे हाथ धोकर पड़ जाने यही मीडिया मुस्लिम कठमुल्लों के बारे में एक शब्द भी नहीं बोलता. उदाहरण के लिए, दिल्ली कि जामा मस्जिद के इमाम बुखारी के खिलाफ देश भर की अदालतों से न जाने कितने जमानती और गैर-जमानती वारंट निकल चुके हैं, परन्तु यह तथाकथित सेकुलर मीडिया उसको गिरफ्तार करने की बात कभी नहीं करता. 

हिन्दुओं के प्रति चिढ़ और मुसलामानों के प्रति पक्षपात का यह अकेला उदाहरण नहीं है. अभी कुछ दिन पहले दिल्ली के सामूहिक बलात्कार कांड में पकड़े गए अपराधियों में से एक राम सिंह का नाम मीडिया बार-बार ले रहा था. वे जिस प्रकार 'राम' शब्द पर जोर देते थे, उससे उनका काइयांपन उजागत हो जाता है. यही मीडिया उसी काण्ड में पकडे गए अपराधी मुहम्मद अफरोज, जो खुद को नाबालिग बताता है, का नाम एक बार भी नहीं ले रहा था, क्योंकि उसके नाम में 'मुहम्मद' शब्द जुड़ा हुआ है, जो बहुत पवित्र है. मीडिया के लिए यह बात कोई मायने नहीं रखती कि इस पवित्र नाम वाले अपराधी ने ही सबसे अधिक क्रूरता की थी.

इसी प्रकार पिछले आठ साल से आतंकवाद के आरोप में जेल में यातनाएं झेल रहे कर्नल पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा सिंह के बारे में बोलने के लिए मीडिया की जबान को लकवा मार जाता है. मीडिया एक बार भी यह मांग नहीं करता कि या तो उनका दोष सिद्ध किया जाए या उनको रिहा कर दिया जाए. यह कार्य उसने सोशल नेटवर्किंग साइटों के ऊपर छोड़ दिया है.

इस तरह के अनगिनत उदाहरण हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि हमारे देश का मीडिया निर्लज्जता की हद तक हिन्दू-विरोधी और मुस्लिम-परस्त है. इसलिए मैं इसको शर्म-निरपेक्ष कहता हूँ, जिसका वास्तविक अर्थ है महा-बेशर्म. यदि कभी जनता का आक्रोश ऐसे मीडिया पर निकलता है तो उसे क्षम्य माना जा सकता है. 




Thursday 29 August 2013

भारतीय मुसलमान क्या करें? (भाग 2)

पिछली कड़ी में मैं लिख चुका हूँ कि जो भारतीय मुसलमान अपने पूर्वजों के पुराने धर्म में वापिस आना चाहते हैं, उनके सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह होता है कि घरवापसी के बाद हिन्दू समाज में उनकी क्या स्थिति होगी और क्या वर्तमान हिन्दू उनके साथ रोटी-बेटी का सम्बंध रखेंगे? यहाँ मैं इस प्रश्न का विस्तार से उत्तर दे रहा हूँ।

हिन्दुत्व में वापसी करने वाले भारतीय मुस्लिम मुख्य रूप से दो प्रकार के हो सकते हैं- एक, वे जिनको अपने हिन्दू पूर्वजों की जाति मालूम है और दूसरे, वे जिनको अपने हिन्दू पूर्वजों की जाति मालूम नहीं है। यहाँ जातियों की बात इसलिए की जा रही है कि जाति प्रथा हिन्दू समाज का अंग बन गयी है और आरक्षण की सुविधा ने इस प्रथा को स्थायी बना दिया है। अधिकांश भारतीय मुसलमान पहली श्रेणी में आते हैं, दूसरी श्रेणी के भारतीय मुसलमानों की संख्या बहुत कम है। इसलिए सबसे पहले हम पहली श्रेणी के मुसलमानों की चर्चा करेंगे।

जिन भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू पूर्वजों की जाति मालूम है, वे हिन्दुत्व में वापसी करने पर अपनी उन्हीं जातियों में शामिल हो जायेंगे। इनमें वे लोग भी हैं, जिनको अभी पिछड़ी जातियों के अन्तर्गत आरक्षण की सुविधा मिल रही है। हिन्दुत्व में वापसी के बाद भी उन्हें यह सुविधा पूर्ववत मिलती रहेगी और वे अपनी समकक्ष हिन्दू जातियों में शामिल माने जायेंगे। इनके अतिरिक्त जो भारतीय मुसलमान अनुसूचित जातियों से सम्बंध रखते हैं, उनको हिन्दुत्व में वापसी के बाद अनुसूचित जातियों को मिलने वाली सभी सुविधायें (आरक्षण सहित) मिलने लगेंगी। इनके लिए उनको केवल यह घोषणा करनी होगी कि उनके हिन्दू पूर्वज धर्मांतरण से पहले इन जातियों के थे।

जो भारतीय मुसलमान पिछड़ी या अनुसूचित जातियों में नहीं आते, यानी सवर्ण हैं, वे हिन्दुत्व में वापसी के बाद सवर्ण ही माने जायेंगे और अपनी समकक्ष हिन्दू जातियों के अंग बन जायेंगे। इसके लिए उन्हें कोई घोषणा करने की आवश्यकता नहीं होगी, बल्कि केवल अपनी पहचान बताना काफी होगा।

अब उन दूसरी श्रेणी के मुसलमानों की बात करें, जिनको अपने हिन्दू पूर्वजों की जाति ज्ञात नहीं है। ऐसे लोग हिन्दुत्व में वापसी के बाद या तो अपने पेशे के अनुसार अपनी समकक्ष हिन्दू जातियों में शामिल माने जा सकते हैं, जैसे बाल काटने वाले नाई जाति में, पानी भरने वाले कहार जाति में, चमड़े का काम करने वाले जाटव जाति में, कपड़े सिलने वाले दर्जी जाति में आदि या वे चाहें तो अपना एक नया वर्ग बना सकते हैं, जिन्हें हम नव बौद्धों की तर्ज पर ‘नव हिन्दू’ कह सकते हैं। इस वर्ग के हिन्दुओं को उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति के अनुसार आरक्षण आदि की सुविधा दी जा सकती है या अगर वे स्वयं को सवर्ण हिन्दू मानना चाहें तो मान सकते हैं।

अब प्रश्न उठता है- रोटी-बेटी के सम्बंध का। इसमें रोटी का सम्बंध तो पहले ही दिन से हो जाएगा। जैसे ही उनकी घरवापसी होगी, वैसे ही उनके साथ सहभोज का आयोजन किया जाएगा, जिसमें सभी एक पंक्ति में बैठकर भोजन करेंगे। किसी भी तरह का छूआछूत इसमें नहीं चलेगा। समस्त हिन्दू समाज दोनों हाथ फैलाकर उनका स्वागत करेगा।

अब आती है बेटी के सम्बंध की बात। तो ऐसा सम्बंध होने में कुछ समय लगेगा। जैसे-जैसे घरवापसी करने वाले भारतीय मुसलमान सम्पूर्ण हिन्दू समाज के साथ समरस होते जायेंगे, वैसे-वैसे सभी बाधायें भी टूटने लगेंगी। यह कोई काल्पनिक बात नहीं है। हिन्दू समाज ने पहले भी शक, हूण आदि विदेशी जातियों-वर्गों के लोगों को आत्मसात किया है, जिनको आज अलग से पहचानना भी असम्भव है। यही बात घरवापसी करने वाले भारतीय मुसलमानों के साथ भी हो सकती है। लेकिन यह परिवर्तन एकदम से नहीं होगा, बल्कि धीरे-धीरे होगा।

मेरा अनुमान है एक पीढ़ी के अन्तराल में यह परिवर्तन अधिकांशतः हो जाएगा, दूसरी पीढ़ी में रहा-सहा परिवर्तन भी हो जाएगा और तीसरी पीढ़ी में यह पहचानना भी कठिन हो जाएगा कि कौन हमेशा से हिन्दू है और कौन घरवापसी करने वाला। एक पीढ़ी का समय लगभग 25 वर्ष होता है। इसलिए अधिकतम 50 वर्ष में घरवापसी करने वाले बन्धु हिन्दू समाज में पूरी तरह समरस हो जायेंगे और उनमें पूरी तरह रोटी-बेटी के सम्बंध हो जायेंगे।

अब कई लोग पूछेंगे कि तब तक यानी 25 या 50 वर्षों तक घरवापसी करने वाले हिन्दू कहाँ शादी-विवाह करेंगे? इसका सीधा सा उत्तर यह है कि तब तक वे आपस में ही शादियाँ करेंगे। यदि घरवापसी करने वाले परिवारों की संख्या अधिक होगी, तो इसमें कोई कठिनाई नहीं आयेगी यदि यह संख्या बहुत कम होगी, तो कठिनाई हो सकती है, लेकिन उसका भी समाधान निकाला जाएगा। इस तरह हर समस्या को हल किया जाएगा।

अब आवश्यकता केवल इस बात की है कि भारतीय मुसलमान सामूहिक रूप से घरवापसी का निश्चय करें और अपने आस-पास के हिन्दू कार्यकर्ताओं से मिलकर इसकी व्यवस्था करें। निश्चय ही कठमुल्ले इस पर बहुत शोर मचायेंगे और सम्भव है कि वे हिंसक भी हो जायें, लेकिन उनकी हिंसा का मुकाबला दृढ़ता के साथ समस्त हिन्दू समाज को करना होगा। तभी यह अभियान सफल होगा। 

Wednesday 28 August 2013

यह है संस्कृतियों का अंतर

आस्ट्रेलिया के विरुद्ध एशेज टेस्ट श्रृंखला जीतने के बाद इंगलैंड के खिलाडियों ने पिच पर ही दारू पीते हुए जो जश्न मनाया और फिर नशे में टुन्न होकर पिच पर ही अपना पेशाब किया, उससे पाश्चात्य संस्कृति अपने नग्न रूप में सबके सामने प्रकट हो जाती है. उन्होंने यह जश्न मनाने के लिए होटल तक जाने का भी कष्ट नहीं किया, यहाँ तक कि मूत्र विसर्जित करने के लिए मूत्रालय जाने में भी तौहीन समझी.

जिस ओवल को क्रिकेट के क्षेत्र में अत्यंत सम्मान के साथ याद किया जाता है, जिस की पिच के आकार की अंडाकार आकृति को भी 'ओवल' कहकर पुकारा जाता है, उसी ओवल की पिच का यह अपमान सम्पूर्ण क्रिकेट जगत के लिए घोर शर्मनाक है. इसकी जितनी भर्त्सना की जाये, कम है.

दूसरी और जब हम अपने देश के खिलाडियों के व्यवहार की तुलना करते हैं, तो हमारी और उनकी संस्कृतियों का अंतर स्पष्ट हो जाता है. हमारे यहाँ जब कोई पहलवान अखाड़े में उतरता है, चाहे कुश्ती लड़ने के लिए या अभ्यास करने के लिए, तो सबसे पहले उस अखाड़े की मिट्टी को अपने मस्तक से लगाकर सम्मान देता है. इसी तरह कबड्डी खेलने वाला कोई खिलाड़ी कबड्डी के मैदान में घुसने से पहले उसकी मिट्टी को सर से लगाकर सम्मान प्रदर्शित करता है.

यह है दोनों संस्कृतियों का अंतर. भारतीय संस्कृति महान है और रहेगी.

Monday 26 August 2013

भारतीय मुसलमान क्या करें? (भाग 1)

यह एक निर्विवाद तथ्य है कि बृहत्तर भारत अथवा भारतीय उपमहाद्वीप, जिसमें भारत के अलावा पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल, श्रीलंका और म्यांमार भी शामिल हैं, में रहने वाले लगभग 95 प्रतिशत मुसलमान उन हिन्दू पूर्वजों की सन्तानें हैं, जिन्होंने मुस्लिम सल्तनतों के समय में लोभ, लालच, भय अथवा अन्य किसी कारण से अपना मूल धर्म छोड़कर इस्लाम अपना लिया था। अनेक प्रसिद्ध लेखकों और विचारकों ने इस बात को रेखांकित किया है कि उनके पूर्वज हिन्दू थे, जो 4 या 6 या 10 या अधिक पीढि़यों पहले मुसलमान बन गये थे। डा. अल्लामा इकबाल, मुहम्मद अली जिन्ना आदि ने इस तथ्य को सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी किया है। आज भी मुसलमानों में बहुत से ऐसे कुलनाम पाये जाते हैं, जैसे सेठ, चौधरी, सोलंकी, चौहान, किचलू, भट या बट आदि, जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि उनके पूर्वज हिन्दू ही थे, भले ही वे किसी कारण से इस बात को स्वीकार न करें।

हिन्दुओं से धर्मांतरित होने के कारण ही मुसलमानों में भी विभिन्न जातियाँ आज भी पायी जाती हैं। मेरे एक खुर्जा निवासी मुस्लिम मित्र बता रहे थे कि उनके पूर्वज 5 पीढ़ी पहले हिन्दू कायस्थ थे। आज भी उनके शादी-विवाह केवल धर्मांतरित कायस्थों में ही किये जाते हैं। मैं मुसलमानों के इस समुदाय को भारतवंशी या भारतीय मुसलमान कहकर सम्बोधित करूँगा, चाहे वे इस उपमहाद्वीप के किसी भी देश के निवासी या नागरिक हों। इनमें बुखारी आदि वे मुसलमान शामिल नहीं हैं, जिनका मूल स्थान दूसरे देशों में है।

इस समय दुनिया भर में फैले इस्लामी आतंकवाद और मुस्लिम देशों में व्याप्त हिंसा के कारण पूरे संसार में इस्लाम की छवि बहुत बिगड़ गयी है। हालांकि इन गतिविधियों में मुसलमानों का बहुत छोटा भाग ही सक्रिय रूप से शामिल होता है, लेकिन उनके कारण बनने वाली गलत छवि का दुष्परिणाम लगभग सभी मुसलमानों को भुगतना पड़ता है, भले ही वे किसी भी देश या वर्ग के हों और कितने भी पढ़े-लिखे या प्रतिष्ठित हों। अनेक देशों के हवाई अड्डों पर मुस्लिम नामधारी व्यक्तियों की बहुत बारीकी से तलाशी ली जाती है, जिससे बहुत से मुस्लिम सज्जन अपमानित अनुभव करते हैं।

इस्लाम की बिगड़ी हुई छवि के कारण भारतीय मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग यह महसूस करता है कि अब उन्हें इस्लाम को छोड़कर अपने पूर्वजों के मूलधर्म में लौट जाना चाहिए और इस उपमहाद्वीप की मुख्य धारा में शामिल हो जाना चाहिए। अपनी इस इच्छा का प्रकटीकरण वे व्यक्तिगत बातचीत में तो करते हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से नहीं करते, जैसा कि स्वाभाविक भी है। यदि वे ऐसा करना भी चाहें तो दुर्भाग्य से हिन्दू धर्म और समाज की ओर से उन्हें उचित प्रोत्साहन और संरक्षण नहीं मिलता। व्यक्तिगत रूप से इस्लाम से हिन्दुत्व में घरवापसी के मामले हुए भी हैं, लेकिन उनकी संख्या उँगलियों पर ही गिने जाने लायक है।

यह बात नहीं है कि भूतकाल में सामूहिक घरवापसी की घटनायें न हुईं हों। वास्तव में स्वामी श्रद्धानन्द जैसे अनेक समाज नायकों ने सामूहिक रूप से हजारों भारतीय मुस्लिम बंधुओं को उनके पूर्वजों के मूलधर्म में दीक्षित कराया था, लेकिन उनकी हत्या के कारण यह कार्यक्रम ठप हो गया और बाद में इसी कारण से फिर से प्रारम्भ नहीं किया जा सका। वस्तुतः सामूहिक घरवापसी के कार्यक्रम ही स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या के कारण बने थे। इसलिए अन्य हिन्दू समाज सुधारकों में ऐसा करने का साहस फिर कभी उत्पन्न नहीं हुआ।

अब इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति को बदलने की आवश्यकता है। भारतीय हिन्दुओं को यह समझ लेना चाहिए कि इस्लाम के कारण नागरिकों का एक बड़ा वर्ग देश की मुख्य धारा से कटा हुआ है और अलगाव महसूस करता है। उस वर्ग से अधिक से अधिक नागरिकों को मुख्यधारा में लाना उनका धार्मिक ही नहीं सामाजिक और राष्ट्रीय कर्तव्य है। इस हेतु हमें अपनी थोथी मान्यताओं और भेदभाव को तिलांजलि देकर खुले हाथों और बड़े दिल से उनका स्वागत करना चाहिए।

जो भारतीय मुसलमान अपने पूर्वजों के पुराने धर्म में वापिस आना चाहते हैं, उनके सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह होता है कि घरवापसी के बाद हिन्दू समाज में उनकी क्या स्थिति होगी और क्या वर्तमान हिन्दू उनके साथ रोटी-बेटी का सम्बंध रखेंगे? यह सवाल अपने आप में उचित और सरल है, लेकिन इसका उत्तर उतना ही जटिल है। मैं इस लेख के अगले भाग में इस प्रश्न का विस्तार से उत्तर दूँगा और इस सम्बंध में उठने वाली समस्याओं का समाधान भी बताऊँगा।

Friday 23 August 2013

वृन्दावन में पण्डों की गुंडागिर्दी

इस रविवार मुझे वृन्दावन जाने का अवसर मिला. यूं मैं दर्शन-वर्शन नहीं करता, क्योंकि पक्का वैदिक धर्मी और आर्यसमाजी हूँ, पर परिवार के साथ घूमने-फिरने और तमाशा देखने चला जाता हूँ. वहाँ शाम को 5 बजे हम बांके बिहारी जी के मंदिर गये. भारी भीड़ थी, जैसा कि रविवार के दिन स्वाभाविक है.

किसी तरह भीतर पहुंचे, तो पण्डों की लूट-खसोट देखकर मन बहुत खट्टा हो गया. वे किसी भी भक्त को ठीक से दर्शन नहीं करने दे रहे थे और बांके बिहारी की मूर्ति के सामने खड़े हो जाते थे. इससे भी बड़ा आश्चर्य मुझे यह देखकर हुआ कि दक्षिणा के नाम पर पंडे दर्शकों को खूब लूट रहे थे और लगभग जबरदस्ती भारी दक्षिणा मांगते थे. एक पंडे ने तो हद ही कर दी. एक भक्त अपने रुपये निकाल रहा था और उनमें से कुछ पंडे को देना चाहता था. तभी पंडे ने उसके हाथ पर झपट्टा मारकर रुपये छीनने चाहे. इस पर भक्त को गुस्सा आ गया और वह उस पंडे की पिटाई करने तो उद्यत हो गया. शायद उसने हाथ चलाया भी.

तभी मैने क्या देखा की आस-पास से दूसरे 5-6 पंडे उस पंडे को बचाने पहुंच गये. वे शायद भक्त के साथ मार-पीट भी कर देते, लेकिन भक्त परिवार भी तेज था. उसमें महिलाएं भी थी. इसलिये पंडे कुछ नहीं कर पाये और किसी तरह उस भक्त को शांत कराया.

इससे पता चलता है कि इस पण्डों का पूरा गिरोह है, जो लूट-खसोट में लगा रहता है. शोर सुनकर 2 पुलिस वाले भी भीतर आ गये थे, पर पण्डों ने उनको वापस भेज दिया. यानी पुलिस वाले भी उनके साथ मिले हुए थे. अगर किसी यात्री की गलती होती, तो वे भी उसको लूटने में सहयोग करते.

इससे भी ज्यादा आश्चर्य मुझे यह सोचकर होता है की बांके बिहारी जी के सामने और उनके ही नाम पर यह लूट-खसोट और गुंडागिर्दी लगातार चलती रहती है, पर वे किसी को नहीं रोक पाते और न उनको कोई सजा दे पाते हैं. इससे यही सिद्ध होता है कि आर्यसमाजियों का यह कहना सही है कि मूर्तियों-मंदिरों में कोई ताकत नहीं होती. सब लोगों को लूटने के माध्यम हैं.

महाभारत का एक पात्र : घटोत्कच

महाभारत के युद्ध में जिन वीरों ने अपनी वीरता से चमत्कृत किया था, उनमें घटोत्कच का नाम बहुत आदर के साथ लिया जाता है। वह पांडवों में से एक भीम तथा राक्षस समुदाय की हिडिम्बा का पुत्र था। जब वारणावत में लाक्षागृह के षड्यंत्र से बचकर पांडव भागे थे, तो गुप्त रहने के लिए उन्होंने गंगा के पार राक्षसों के क्षेत्र में जाना उचित समझा था। वहाँ राक्षसों के राजा हिडिम्ब से भीम का युद्ध हुआ था, जिसमें हिडिम्ब की मृत्यु हुई।

भीम की वीरता से प्रभावित होकर हिडिम्ब की बहिन हिडिम्बा ने भीम से विवाह कर लिया और राक्षसों ने भीम को अपना राजा बना लिया। तभी घटोत्कच का जन्म हुआ था। उसका सिर घड़े जैसा चिकना था, इसलिए उसका ऐसा नाम रखा गया था। 2-3 वर्ष राक्षसों के क्षेत्र में रहने के बाद जब पांडव पांचाल नगरी की ओर चले, तो घटोत्कच और हिडिम्बा को राक्षस समुदाय के साथ ही रहने के लिए छोड़ दिया था, क्योंकि हिडिम्बा जाना नहीं चाहती थी।

हिडिम्बा ने अपने पुत्र को सभी युद्ध कलाओं की शिक्षा दिलवायी थी और उसे वीर बनाया था। कई वर्ष बाद जब महाभारत का युद्ध निश्चित हो गया, तो हिडिम्बा ने पांडवों की सहायता के लिए घटोत्कच को भेजा था और उसको आदेश दिया था कि पांडवों की रक्षा के लिए यदि उसे अपने प्राण भी देने पड़ें तो संकोच मत करना। घटोत्कच ने अपनी माता के इस आदेश का पूरा पालन किया था।

महाभारत का युद्ध प्रारम्भ होने से पहले कर्ण ने अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा की थी और उसके लिए इन्द्र से अपने कवच-कुंडलों के बदले अमोघ शक्ति प्राप्त कर ली थी, जिसका प्रयोग केवल एक बार किया जा सकता था। वह उस शक्ति का प्रयोग केवल अर्जुन पर करना चाहता था। इस शक्ति के कारण कृष्ण बहुत चिन्तित रहते थे और अर्जुन को सीधे कर्ण से भिड़ने से यथासम्भव बचाते थे।

पहले 10 दिन तो भीष्म पितामह के कारण कर्ण युद्ध क्षेत्र में नहीं आया, लेकिन जब भीष्म शरशैया पर पड़ गये और द्रोणाचार्य कौरवों के सेनापति बने, तो कर्ण युद्ध के मैदान में आ गया। अब कृष्ण घबराये कि अगर अर्जुन से कर्ण का मुकाबला हो गया, तो वह अपनी अमोघ शक्ति को चला देगा और अर्जुन के प्राण चले जायेंगे। इसलिए उन्होंने भीम के पुत्र घटोत्कच को कर्ण से भिड़ा दिया।

घटोत्कच बहुत बलवान था और सभी प्रकार के युद्धों में पारंगत था। राक्षसों से सम्बंधित होने के कारण उसे मायावी शक्तियाँ भी मिली हुई थीं। उसने इन शक्तियों का जमकर प्रयोग किया। वह गाजर-मूली की तरह कौरवों की सेना को काटने लगा। कौरवों के सभी हथियार उसके ऊपर बेकार हो रहे थे। उस दिन युद्ध सूर्यास्त के बाद भी चलता रहा। अंधेरे में राक्षसों की शक्तियाँ अधिक प्रबल हो जाती हैं और मनुष्यों की शक्तियाँ शिथिल हो जाती हैं। इसलिए घटोत्कच और भी अधिक घातक हो रहा था।

जब दुर्योधन ने देखा कि उसकी सेना का बुरी तरह संहार हो रहा है, तो उसने कर्ण से कहा कि तुम अपनी अमोघ शक्ति छोड़कर इसे खत्म करो। कर्ण ने कहा कि वह शक्ति तो अर्जुन के लिए रखी है, उसे फिर कैसे मारूँगा? दुर्योधन बोला- अभी तो तुम इससे पिण्ड छुड़ाओ, अर्जुन को बाद में देखा जाएगा, नहीं तो हम कल तक जीवित ही नहीं बचेंगे। मजबूर होकर कर्ण ने अपनी अमोघ शक्ति घटोत्कच पर चला दी। उससे घटोत्कच का प्राणांत हो गया।

कौरवों ने राहत की साँस ली और पांडवों के शिविर में शोक छा गया। लेकिन भगवान कृष्ण प्रसन्नता से मुस्करा रहे थे। युधिष्ठिर ने देखा, तो पूछ बैठे- ‘भगवन्, हमारा तो युवराज मारा गया है और आप मुस्करा रहे हैं, ऐसा क्यों?’ कृष्ण ने कहा- ‘घटोत्कच के मारे जाने का दुःख मुझे भी है, लेकिन मैं प्रसन्न इसलिए हूँ कि अर्जुन बच गया। अर्जुन के प्राण कहीं अधिक मूल्यवान हैं। अब उसको कोई नहीं मार सकता।’

घटोत्कच विवाहित था और उसको एक महाबलशाली पुत्र भी हुआ था- बर्बरीक। उसके बारे में विस्तार से अगली बार।

Thursday 15 August 2013

शिक्षा का शर्मनाक न्यून स्तर


अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश में आयोजित अध्यापक पात्रता परीक्षा (टीईटी) के परिणाम आँखें खोल देने वाले हैं। यह परीक्षा अध्यापकों के चयन हेतु आयोजित की गयी थी और उत्तीर्ण होने वाले उम्मीदवारों को सरकारी विद्यालयों में शिक्षक के रूप में नियुक्त किया जाएगा। इस परीक्षा में शामिल होने वाले लगभग सभी उम्मीदवार स्नातक थे और अधिकांश तो स्नातकोत्तर भी थे। कई तो बी.एड. और एम.एड. तक कर चुके थे। परीक्षा में जो प्रश्न पूछे गये थे वे अधिकांश हाईस्कूल स्तर के और कुछ इंटरमीडियेट स्तर के थे। कहने का तात्पर्य है कि इंटरमीडियेट से ऊपर के स्तर का कोइ्र्र प्रश्न नहीं पूछा गया था। उत्तीर्ण होने के लिए 50 प्रतिशत अंक लाना आवश्यक था।

जब इस परीक्षा के परिणाम आये तो ज्ञात हुआ कि केवल 6 दशमलव कुछ प्रतिशत परीक्षार्थी ही उत्तीर्ण हो सके हैं। जिस परीक्षा में केवल इंटरमीडियेट तक के प्रश्न पूछे गये हों, उसमें ऐसे परिणाम स्तब्ध करने वाले हैं। इससे हमारी शिक्षा व्यवस्था के खोखलेपन का पता चलता है। इससे यह सिद्ध होता है कि हमारे नौनिहाल विश्वविद्यालयों से जो डिग्रियां लेकर निकल रहे हैं उसका वास्तव में कोई मूल्य नहीं है और वह कागज के टुकडे से अधिक महत्व नहीं रखतीं। इसी कारण कोई भी कम्पनी किसी को नौकरी देने के लिए अपने ही अनुसार परीक्षा लेती है और डिग्रियों पर बिल्कुल विश्वास नहीं करती।

इस परिणाम से यह भी सिद्ध होता है कि प्रति वर्ष लाखों की संख्या में हाईस्कूल और इंटरमीडियेट में उत्तीर्ण होने वाले अधिकांश विद्यार्थी वास्तव में किसी योग्य नहीं हैं और उनके 90 या अधिक प्रतिशत अंकों का कोई महत्व नहीं है। उत्तर प्रदेश में माध्यमिक शिक्षा परिषद की परीक्षायें नकल के लिए बदनाम हैं। यहाँ हजारों ऐसे विद्यालय चल रहे हैं जिनका एक मात्र कार्य केवल परीक्षार्थियों का पंजीकरण करके उनको नकल करने की सुविधा उपलब्ध कराना और किसी भी तरह उत्तीर्ण कराना है। ऐसी हालत में अयोग्य उम्मीदवारों की भीड़  इकट्ठी नहीं होगी तो क्या होगा?

इसका सीधा सा अर्थ यह भी है कि हमारे विद्यालयों में अध्यापक विद्यार्थियों को योग्य बनाने में कोई रुचि नहीं लेते और पढाने की खानापूरी करके चले जाते हैं। इसी कारण जिन विद्यार्थियों के माता-पिता आर्थिक रूप से सक्षम हैं, वे विद्यालयों की पढाई पर विश्वास नहीं करते और अपने बच्चों को ट्यूशन तथा कोचिंग भेजना ज्यादा पसन्द करते हैं। यह हाल सरकारी विद्यालयों का ही नहीं, बल्कि ऊँची फीस वसूलने वाले प्राइवेट शिक्षा संस्थानों का भी है।

वैसे कोचिंग सेंटरों का स्तर भी कोई बहुत अच्छा नहीं है। इस परीक्षा में जो 93 प्रतिशत से अधिक उम्मीदवार असफल हुए हैं उनमें से बहुत से कोचिंग संस्थानों में भी जाते होंगे। फिर भी वे इंटरमीडियेट स्तर तक की परीक्षा भी उत्तीर्ण नहीं कर पाये, यह बेहद शर्मनाक है। इससे सिद्ध होता है कि वे वास्तव में अयोग्य हैं। अगर ऐसे अयोग्य लोग शिक्षक बनेंगे, तो आने वाली पीढी के विद्यार्थी योग्य कैसे होंगे? अभी भी सत्ता में जो लोग हैं उनकी अयोग्यता का कुपरिणाम हम भुगत रहे हैं। पता नहीं और कब तक भुगतना पडेगा।

वास्तव में हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली ही बीमार और निष्प्रभावी है। इसमें आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। यदि हमें देश को ऊँचाइयों तक ले जाना है तो हमें योग्य नागरिकों के विकास पर पूरा ध्यान देना चाहिए। अन्यथा इस समाज और देश को अयोग्य हाथों में जाने और नष्ट होने से कोई नहीं रोक सकता।

Friday 9 August 2013

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार

लेखक कँवल भारती की गिरफ़्तारी सिर्फ इसलिए होना कि उन्होंने आई.ए.एस. अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल के निलंबन का विरोध किया था, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार के लिए बेहद शर्मनाक है. उनके ऊपर इस्लाम का अपमान करने और सांप्रदायिक घृणा फ़ैलाने के आरोप लगाए गए हैं. जिस वाक्य के आधार पर ये आरोप लगाये गए हैं, उसको पढ़कर कोई भी समझ सकता है कि इस सरकार की पुलिस और अधिकारियों की बुद्धि भी भ्रष्ट हो गयी है.

वह वाक्य इस प्रकार है- "आजम खान को यह काम करने से खुदा भी नहीं रोक सकता." इस वाक्य में इस्लाम का क्या अपमान हो गया? सभी लोग बोलचाल में कहा करते हैं- 'इसे तो भगवान् भी नहीं कर सकता', 'अब तुम्हें भगवान् भी नहीं बचा सकता', 'देश की हालत खुदा भी नहीं सुधार सकता' आदि-आदि. इसमें ईश्वर के सर्वशक्तिमान होने पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं लगाया जाता है, बल्कि मानव की अपनी विवशता को बताया जाता है. ऐसे वाक्य को खुदा का अपमान मानना मूर्खता की हद है.

फिर अगर यह मान भी लिया जाए कि इसमें खुदा या भगवान की शक्ति पर संदेह किया गया है, तो उसमें इस्लाम का अपमान करने और सांप्रदायिक घृणा फ़ैलाने की बात कहाँ से आ गयी? यदि किसी आदमी ने लेखक के ऊपर ऐसा आरोप लगाया भी था, तो पुलिस अधिकारियों को चाहिए था कि उस पर साधारण मामला दर्ज करते और आगे जांच करते. पर शिकायत मिलते ही लेखक को सीधे गिरफ्तार करने के लिए पुलिस बल भेज देना क्या अपने अधिकारों का दुरूपयोग नहीं? क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि पुलिस अधिकारियों की बुद्धि भी भ्रष्ट हो चुकी है?

इससे स्पष्ट है कि बात केवल इतनी नहीं है. खनन माफिया इतना बौखला गया है कि उस पर उंगली उठाने वाले किसी भी व्यक्ति की आवाज बंद करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है. उसका स्वार्थ तो समझ में आता है, लेकिन हमारे देश के नेताओं और प्रशासन को क्या हो गया है कि वे खनन माफिया के हाथों में खेलते हैं? ऐसे नेताओं और नौकरशाहों के हाथों में देश-प्रदेश का भविष्य सुरक्षित नहीं रह सकता. 

यदि उत्तर प्रदेश की सरकार इसी प्रकार माफियाओं और कठमुल्लों की कठपुतली बनी रही, तो यह निश्चित है कि अगली बार कोई भी देशभक्त नागरिक इस पार्टी को वोट देने से पहले हज़ार बार सोचेगा. अगर अखिलेश यादव की सरकार ने अपनी मुस्लिमपरस्ती में निर्लज्जता की सीमायें पार कर दीं, तो उन लोगों का कहना सच हो जायेगा, जो इस सरकार को "नमाजवादी" पार्टी की सरकार कहते हैं. अखिलेश जी, अभी समय है, संभल जाइए, वर्ना फिर पछताने के सिवा कुछ हाथ नहीं लगेगा.

अभिव्यक्ति की आज़ादी और लोकतांत्रिक परम्पराओं में विश्वास रखने वाले हर व्यक्ति को लेखक कँवल भारती और उन जैसे तमाम लेखकों के घटित और संभावित उत्पीड़न के विरुद्ध जमकर आवाज उठानी चाहिए और हर स्तर पर इसका विरोध करना चाहिए।