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Thursday 29 August 2013

भारतीय मुसलमान क्या करें? (भाग 2)

पिछली कड़ी में मैं लिख चुका हूँ कि जो भारतीय मुसलमान अपने पूर्वजों के पुराने धर्म में वापिस आना चाहते हैं, उनके सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह होता है कि घरवापसी के बाद हिन्दू समाज में उनकी क्या स्थिति होगी और क्या वर्तमान हिन्दू उनके साथ रोटी-बेटी का सम्बंध रखेंगे? यहाँ मैं इस प्रश्न का विस्तार से उत्तर दे रहा हूँ।

हिन्दुत्व में वापसी करने वाले भारतीय मुस्लिम मुख्य रूप से दो प्रकार के हो सकते हैं- एक, वे जिनको अपने हिन्दू पूर्वजों की जाति मालूम है और दूसरे, वे जिनको अपने हिन्दू पूर्वजों की जाति मालूम नहीं है। यहाँ जातियों की बात इसलिए की जा रही है कि जाति प्रथा हिन्दू समाज का अंग बन गयी है और आरक्षण की सुविधा ने इस प्रथा को स्थायी बना दिया है। अधिकांश भारतीय मुसलमान पहली श्रेणी में आते हैं, दूसरी श्रेणी के भारतीय मुसलमानों की संख्या बहुत कम है। इसलिए सबसे पहले हम पहली श्रेणी के मुसलमानों की चर्चा करेंगे।

जिन भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू पूर्वजों की जाति मालूम है, वे हिन्दुत्व में वापसी करने पर अपनी उन्हीं जातियों में शामिल हो जायेंगे। इनमें वे लोग भी हैं, जिनको अभी पिछड़ी जातियों के अन्तर्गत आरक्षण की सुविधा मिल रही है। हिन्दुत्व में वापसी के बाद भी उन्हें यह सुविधा पूर्ववत मिलती रहेगी और वे अपनी समकक्ष हिन्दू जातियों में शामिल माने जायेंगे। इनके अतिरिक्त जो भारतीय मुसलमान अनुसूचित जातियों से सम्बंध रखते हैं, उनको हिन्दुत्व में वापसी के बाद अनुसूचित जातियों को मिलने वाली सभी सुविधायें (आरक्षण सहित) मिलने लगेंगी। इनके लिए उनको केवल यह घोषणा करनी होगी कि उनके हिन्दू पूर्वज धर्मांतरण से पहले इन जातियों के थे।

जो भारतीय मुसलमान पिछड़ी या अनुसूचित जातियों में नहीं आते, यानी सवर्ण हैं, वे हिन्दुत्व में वापसी के बाद सवर्ण ही माने जायेंगे और अपनी समकक्ष हिन्दू जातियों के अंग बन जायेंगे। इसके लिए उन्हें कोई घोषणा करने की आवश्यकता नहीं होगी, बल्कि केवल अपनी पहचान बताना काफी होगा।

अब उन दूसरी श्रेणी के मुसलमानों की बात करें, जिनको अपने हिन्दू पूर्वजों की जाति ज्ञात नहीं है। ऐसे लोग हिन्दुत्व में वापसी के बाद या तो अपने पेशे के अनुसार अपनी समकक्ष हिन्दू जातियों में शामिल माने जा सकते हैं, जैसे बाल काटने वाले नाई जाति में, पानी भरने वाले कहार जाति में, चमड़े का काम करने वाले जाटव जाति में, कपड़े सिलने वाले दर्जी जाति में आदि या वे चाहें तो अपना एक नया वर्ग बना सकते हैं, जिन्हें हम नव बौद्धों की तर्ज पर ‘नव हिन्दू’ कह सकते हैं। इस वर्ग के हिन्दुओं को उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति के अनुसार आरक्षण आदि की सुविधा दी जा सकती है या अगर वे स्वयं को सवर्ण हिन्दू मानना चाहें तो मान सकते हैं।

अब प्रश्न उठता है- रोटी-बेटी के सम्बंध का। इसमें रोटी का सम्बंध तो पहले ही दिन से हो जाएगा। जैसे ही उनकी घरवापसी होगी, वैसे ही उनके साथ सहभोज का आयोजन किया जाएगा, जिसमें सभी एक पंक्ति में बैठकर भोजन करेंगे। किसी भी तरह का छूआछूत इसमें नहीं चलेगा। समस्त हिन्दू समाज दोनों हाथ फैलाकर उनका स्वागत करेगा।

अब आती है बेटी के सम्बंध की बात। तो ऐसा सम्बंध होने में कुछ समय लगेगा। जैसे-जैसे घरवापसी करने वाले भारतीय मुसलमान सम्पूर्ण हिन्दू समाज के साथ समरस होते जायेंगे, वैसे-वैसे सभी बाधायें भी टूटने लगेंगी। यह कोई काल्पनिक बात नहीं है। हिन्दू समाज ने पहले भी शक, हूण आदि विदेशी जातियों-वर्गों के लोगों को आत्मसात किया है, जिनको आज अलग से पहचानना भी असम्भव है। यही बात घरवापसी करने वाले भारतीय मुसलमानों के साथ भी हो सकती है। लेकिन यह परिवर्तन एकदम से नहीं होगा, बल्कि धीरे-धीरे होगा।

मेरा अनुमान है एक पीढ़ी के अन्तराल में यह परिवर्तन अधिकांशतः हो जाएगा, दूसरी पीढ़ी में रहा-सहा परिवर्तन भी हो जाएगा और तीसरी पीढ़ी में यह पहचानना भी कठिन हो जाएगा कि कौन हमेशा से हिन्दू है और कौन घरवापसी करने वाला। एक पीढ़ी का समय लगभग 25 वर्ष होता है। इसलिए अधिकतम 50 वर्ष में घरवापसी करने वाले बन्धु हिन्दू समाज में पूरी तरह समरस हो जायेंगे और उनमें पूरी तरह रोटी-बेटी के सम्बंध हो जायेंगे।

अब कई लोग पूछेंगे कि तब तक यानी 25 या 50 वर्षों तक घरवापसी करने वाले हिन्दू कहाँ शादी-विवाह करेंगे? इसका सीधा सा उत्तर यह है कि तब तक वे आपस में ही शादियाँ करेंगे। यदि घरवापसी करने वाले परिवारों की संख्या अधिक होगी, तो इसमें कोई कठिनाई नहीं आयेगी यदि यह संख्या बहुत कम होगी, तो कठिनाई हो सकती है, लेकिन उसका भी समाधान निकाला जाएगा। इस तरह हर समस्या को हल किया जाएगा।

अब आवश्यकता केवल इस बात की है कि भारतीय मुसलमान सामूहिक रूप से घरवापसी का निश्चय करें और अपने आस-पास के हिन्दू कार्यकर्ताओं से मिलकर इसकी व्यवस्था करें। निश्चय ही कठमुल्ले इस पर बहुत शोर मचायेंगे और सम्भव है कि वे हिंसक भी हो जायें, लेकिन उनकी हिंसा का मुकाबला दृढ़ता के साथ समस्त हिन्दू समाज को करना होगा। तभी यह अभियान सफल होगा। 

Wednesday 28 August 2013

यह है संस्कृतियों का अंतर

आस्ट्रेलिया के विरुद्ध एशेज टेस्ट श्रृंखला जीतने के बाद इंगलैंड के खिलाडियों ने पिच पर ही दारू पीते हुए जो जश्न मनाया और फिर नशे में टुन्न होकर पिच पर ही अपना पेशाब किया, उससे पाश्चात्य संस्कृति अपने नग्न रूप में सबके सामने प्रकट हो जाती है. उन्होंने यह जश्न मनाने के लिए होटल तक जाने का भी कष्ट नहीं किया, यहाँ तक कि मूत्र विसर्जित करने के लिए मूत्रालय जाने में भी तौहीन समझी.

जिस ओवल को क्रिकेट के क्षेत्र में अत्यंत सम्मान के साथ याद किया जाता है, जिस की पिच के आकार की अंडाकार आकृति को भी 'ओवल' कहकर पुकारा जाता है, उसी ओवल की पिच का यह अपमान सम्पूर्ण क्रिकेट जगत के लिए घोर शर्मनाक है. इसकी जितनी भर्त्सना की जाये, कम है.

दूसरी और जब हम अपने देश के खिलाडियों के व्यवहार की तुलना करते हैं, तो हमारी और उनकी संस्कृतियों का अंतर स्पष्ट हो जाता है. हमारे यहाँ जब कोई पहलवान अखाड़े में उतरता है, चाहे कुश्ती लड़ने के लिए या अभ्यास करने के लिए, तो सबसे पहले उस अखाड़े की मिट्टी को अपने मस्तक से लगाकर सम्मान देता है. इसी तरह कबड्डी खेलने वाला कोई खिलाड़ी कबड्डी के मैदान में घुसने से पहले उसकी मिट्टी को सर से लगाकर सम्मान प्रदर्शित करता है.

यह है दोनों संस्कृतियों का अंतर. भारतीय संस्कृति महान है और रहेगी.

Monday 26 August 2013

भारतीय मुसलमान क्या करें? (भाग 1)

यह एक निर्विवाद तथ्य है कि बृहत्तर भारत अथवा भारतीय उपमहाद्वीप, जिसमें भारत के अलावा पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल, श्रीलंका और म्यांमार भी शामिल हैं, में रहने वाले लगभग 95 प्रतिशत मुसलमान उन हिन्दू पूर्वजों की सन्तानें हैं, जिन्होंने मुस्लिम सल्तनतों के समय में लोभ, लालच, भय अथवा अन्य किसी कारण से अपना मूल धर्म छोड़कर इस्लाम अपना लिया था। अनेक प्रसिद्ध लेखकों और विचारकों ने इस बात को रेखांकित किया है कि उनके पूर्वज हिन्दू थे, जो 4 या 6 या 10 या अधिक पीढि़यों पहले मुसलमान बन गये थे। डा. अल्लामा इकबाल, मुहम्मद अली जिन्ना आदि ने इस तथ्य को सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी किया है। आज भी मुसलमानों में बहुत से ऐसे कुलनाम पाये जाते हैं, जैसे सेठ, चौधरी, सोलंकी, चौहान, किचलू, भट या बट आदि, जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि उनके पूर्वज हिन्दू ही थे, भले ही वे किसी कारण से इस बात को स्वीकार न करें।

हिन्दुओं से धर्मांतरित होने के कारण ही मुसलमानों में भी विभिन्न जातियाँ आज भी पायी जाती हैं। मेरे एक खुर्जा निवासी मुस्लिम मित्र बता रहे थे कि उनके पूर्वज 5 पीढ़ी पहले हिन्दू कायस्थ थे। आज भी उनके शादी-विवाह केवल धर्मांतरित कायस्थों में ही किये जाते हैं। मैं मुसलमानों के इस समुदाय को भारतवंशी या भारतीय मुसलमान कहकर सम्बोधित करूँगा, चाहे वे इस उपमहाद्वीप के किसी भी देश के निवासी या नागरिक हों। इनमें बुखारी आदि वे मुसलमान शामिल नहीं हैं, जिनका मूल स्थान दूसरे देशों में है।

इस समय दुनिया भर में फैले इस्लामी आतंकवाद और मुस्लिम देशों में व्याप्त हिंसा के कारण पूरे संसार में इस्लाम की छवि बहुत बिगड़ गयी है। हालांकि इन गतिविधियों में मुसलमानों का बहुत छोटा भाग ही सक्रिय रूप से शामिल होता है, लेकिन उनके कारण बनने वाली गलत छवि का दुष्परिणाम लगभग सभी मुसलमानों को भुगतना पड़ता है, भले ही वे किसी भी देश या वर्ग के हों और कितने भी पढ़े-लिखे या प्रतिष्ठित हों। अनेक देशों के हवाई अड्डों पर मुस्लिम नामधारी व्यक्तियों की बहुत बारीकी से तलाशी ली जाती है, जिससे बहुत से मुस्लिम सज्जन अपमानित अनुभव करते हैं।

इस्लाम की बिगड़ी हुई छवि के कारण भारतीय मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग यह महसूस करता है कि अब उन्हें इस्लाम को छोड़कर अपने पूर्वजों के मूलधर्म में लौट जाना चाहिए और इस उपमहाद्वीप की मुख्य धारा में शामिल हो जाना चाहिए। अपनी इस इच्छा का प्रकटीकरण वे व्यक्तिगत बातचीत में तो करते हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से नहीं करते, जैसा कि स्वाभाविक भी है। यदि वे ऐसा करना भी चाहें तो दुर्भाग्य से हिन्दू धर्म और समाज की ओर से उन्हें उचित प्रोत्साहन और संरक्षण नहीं मिलता। व्यक्तिगत रूप से इस्लाम से हिन्दुत्व में घरवापसी के मामले हुए भी हैं, लेकिन उनकी संख्या उँगलियों पर ही गिने जाने लायक है।

यह बात नहीं है कि भूतकाल में सामूहिक घरवापसी की घटनायें न हुईं हों। वास्तव में स्वामी श्रद्धानन्द जैसे अनेक समाज नायकों ने सामूहिक रूप से हजारों भारतीय मुस्लिम बंधुओं को उनके पूर्वजों के मूलधर्म में दीक्षित कराया था, लेकिन उनकी हत्या के कारण यह कार्यक्रम ठप हो गया और बाद में इसी कारण से फिर से प्रारम्भ नहीं किया जा सका। वस्तुतः सामूहिक घरवापसी के कार्यक्रम ही स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या के कारण बने थे। इसलिए अन्य हिन्दू समाज सुधारकों में ऐसा करने का साहस फिर कभी उत्पन्न नहीं हुआ।

अब इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति को बदलने की आवश्यकता है। भारतीय हिन्दुओं को यह समझ लेना चाहिए कि इस्लाम के कारण नागरिकों का एक बड़ा वर्ग देश की मुख्य धारा से कटा हुआ है और अलगाव महसूस करता है। उस वर्ग से अधिक से अधिक नागरिकों को मुख्यधारा में लाना उनका धार्मिक ही नहीं सामाजिक और राष्ट्रीय कर्तव्य है। इस हेतु हमें अपनी थोथी मान्यताओं और भेदभाव को तिलांजलि देकर खुले हाथों और बड़े दिल से उनका स्वागत करना चाहिए।

जो भारतीय मुसलमान अपने पूर्वजों के पुराने धर्म में वापिस आना चाहते हैं, उनके सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह होता है कि घरवापसी के बाद हिन्दू समाज में उनकी क्या स्थिति होगी और क्या वर्तमान हिन्दू उनके साथ रोटी-बेटी का सम्बंध रखेंगे? यह सवाल अपने आप में उचित और सरल है, लेकिन इसका उत्तर उतना ही जटिल है। मैं इस लेख के अगले भाग में इस प्रश्न का विस्तार से उत्तर दूँगा और इस सम्बंध में उठने वाली समस्याओं का समाधान भी बताऊँगा।

Friday 23 August 2013

वृन्दावन में पण्डों की गुंडागिर्दी

इस रविवार मुझे वृन्दावन जाने का अवसर मिला. यूं मैं दर्शन-वर्शन नहीं करता, क्योंकि पक्का वैदिक धर्मी और आर्यसमाजी हूँ, पर परिवार के साथ घूमने-फिरने और तमाशा देखने चला जाता हूँ. वहाँ शाम को 5 बजे हम बांके बिहारी जी के मंदिर गये. भारी भीड़ थी, जैसा कि रविवार के दिन स्वाभाविक है.

किसी तरह भीतर पहुंचे, तो पण्डों की लूट-खसोट देखकर मन बहुत खट्टा हो गया. वे किसी भी भक्त को ठीक से दर्शन नहीं करने दे रहे थे और बांके बिहारी की मूर्ति के सामने खड़े हो जाते थे. इससे भी बड़ा आश्चर्य मुझे यह देखकर हुआ कि दक्षिणा के नाम पर पंडे दर्शकों को खूब लूट रहे थे और लगभग जबरदस्ती भारी दक्षिणा मांगते थे. एक पंडे ने तो हद ही कर दी. एक भक्त अपने रुपये निकाल रहा था और उनमें से कुछ पंडे को देना चाहता था. तभी पंडे ने उसके हाथ पर झपट्टा मारकर रुपये छीनने चाहे. इस पर भक्त को गुस्सा आ गया और वह उस पंडे की पिटाई करने तो उद्यत हो गया. शायद उसने हाथ चलाया भी.

तभी मैने क्या देखा की आस-पास से दूसरे 5-6 पंडे उस पंडे को बचाने पहुंच गये. वे शायद भक्त के साथ मार-पीट भी कर देते, लेकिन भक्त परिवार भी तेज था. उसमें महिलाएं भी थी. इसलिये पंडे कुछ नहीं कर पाये और किसी तरह उस भक्त को शांत कराया.

इससे पता चलता है कि इस पण्डों का पूरा गिरोह है, जो लूट-खसोट में लगा रहता है. शोर सुनकर 2 पुलिस वाले भी भीतर आ गये थे, पर पण्डों ने उनको वापस भेज दिया. यानी पुलिस वाले भी उनके साथ मिले हुए थे. अगर किसी यात्री की गलती होती, तो वे भी उसको लूटने में सहयोग करते.

इससे भी ज्यादा आश्चर्य मुझे यह सोचकर होता है की बांके बिहारी जी के सामने और उनके ही नाम पर यह लूट-खसोट और गुंडागिर्दी लगातार चलती रहती है, पर वे किसी को नहीं रोक पाते और न उनको कोई सजा दे पाते हैं. इससे यही सिद्ध होता है कि आर्यसमाजियों का यह कहना सही है कि मूर्तियों-मंदिरों में कोई ताकत नहीं होती. सब लोगों को लूटने के माध्यम हैं.

महाभारत का एक पात्र : घटोत्कच

महाभारत के युद्ध में जिन वीरों ने अपनी वीरता से चमत्कृत किया था, उनमें घटोत्कच का नाम बहुत आदर के साथ लिया जाता है। वह पांडवों में से एक भीम तथा राक्षस समुदाय की हिडिम्बा का पुत्र था। जब वारणावत में लाक्षागृह के षड्यंत्र से बचकर पांडव भागे थे, तो गुप्त रहने के लिए उन्होंने गंगा के पार राक्षसों के क्षेत्र में जाना उचित समझा था। वहाँ राक्षसों के राजा हिडिम्ब से भीम का युद्ध हुआ था, जिसमें हिडिम्ब की मृत्यु हुई।

भीम की वीरता से प्रभावित होकर हिडिम्ब की बहिन हिडिम्बा ने भीम से विवाह कर लिया और राक्षसों ने भीम को अपना राजा बना लिया। तभी घटोत्कच का जन्म हुआ था। उसका सिर घड़े जैसा चिकना था, इसलिए उसका ऐसा नाम रखा गया था। 2-3 वर्ष राक्षसों के क्षेत्र में रहने के बाद जब पांडव पांचाल नगरी की ओर चले, तो घटोत्कच और हिडिम्बा को राक्षस समुदाय के साथ ही रहने के लिए छोड़ दिया था, क्योंकि हिडिम्बा जाना नहीं चाहती थी।

हिडिम्बा ने अपने पुत्र को सभी युद्ध कलाओं की शिक्षा दिलवायी थी और उसे वीर बनाया था। कई वर्ष बाद जब महाभारत का युद्ध निश्चित हो गया, तो हिडिम्बा ने पांडवों की सहायता के लिए घटोत्कच को भेजा था और उसको आदेश दिया था कि पांडवों की रक्षा के लिए यदि उसे अपने प्राण भी देने पड़ें तो संकोच मत करना। घटोत्कच ने अपनी माता के इस आदेश का पूरा पालन किया था।

महाभारत का युद्ध प्रारम्भ होने से पहले कर्ण ने अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा की थी और उसके लिए इन्द्र से अपने कवच-कुंडलों के बदले अमोघ शक्ति प्राप्त कर ली थी, जिसका प्रयोग केवल एक बार किया जा सकता था। वह उस शक्ति का प्रयोग केवल अर्जुन पर करना चाहता था। इस शक्ति के कारण कृष्ण बहुत चिन्तित रहते थे और अर्जुन को सीधे कर्ण से भिड़ने से यथासम्भव बचाते थे।

पहले 10 दिन तो भीष्म पितामह के कारण कर्ण युद्ध क्षेत्र में नहीं आया, लेकिन जब भीष्म शरशैया पर पड़ गये और द्रोणाचार्य कौरवों के सेनापति बने, तो कर्ण युद्ध के मैदान में आ गया। अब कृष्ण घबराये कि अगर अर्जुन से कर्ण का मुकाबला हो गया, तो वह अपनी अमोघ शक्ति को चला देगा और अर्जुन के प्राण चले जायेंगे। इसलिए उन्होंने भीम के पुत्र घटोत्कच को कर्ण से भिड़ा दिया।

घटोत्कच बहुत बलवान था और सभी प्रकार के युद्धों में पारंगत था। राक्षसों से सम्बंधित होने के कारण उसे मायावी शक्तियाँ भी मिली हुई थीं। उसने इन शक्तियों का जमकर प्रयोग किया। वह गाजर-मूली की तरह कौरवों की सेना को काटने लगा। कौरवों के सभी हथियार उसके ऊपर बेकार हो रहे थे। उस दिन युद्ध सूर्यास्त के बाद भी चलता रहा। अंधेरे में राक्षसों की शक्तियाँ अधिक प्रबल हो जाती हैं और मनुष्यों की शक्तियाँ शिथिल हो जाती हैं। इसलिए घटोत्कच और भी अधिक घातक हो रहा था।

जब दुर्योधन ने देखा कि उसकी सेना का बुरी तरह संहार हो रहा है, तो उसने कर्ण से कहा कि तुम अपनी अमोघ शक्ति छोड़कर इसे खत्म करो। कर्ण ने कहा कि वह शक्ति तो अर्जुन के लिए रखी है, उसे फिर कैसे मारूँगा? दुर्योधन बोला- अभी तो तुम इससे पिण्ड छुड़ाओ, अर्जुन को बाद में देखा जाएगा, नहीं तो हम कल तक जीवित ही नहीं बचेंगे। मजबूर होकर कर्ण ने अपनी अमोघ शक्ति घटोत्कच पर चला दी। उससे घटोत्कच का प्राणांत हो गया।

कौरवों ने राहत की साँस ली और पांडवों के शिविर में शोक छा गया। लेकिन भगवान कृष्ण प्रसन्नता से मुस्करा रहे थे। युधिष्ठिर ने देखा, तो पूछ बैठे- ‘भगवन्, हमारा तो युवराज मारा गया है और आप मुस्करा रहे हैं, ऐसा क्यों?’ कृष्ण ने कहा- ‘घटोत्कच के मारे जाने का दुःख मुझे भी है, लेकिन मैं प्रसन्न इसलिए हूँ कि अर्जुन बच गया। अर्जुन के प्राण कहीं अधिक मूल्यवान हैं। अब उसको कोई नहीं मार सकता।’

घटोत्कच विवाहित था और उसको एक महाबलशाली पुत्र भी हुआ था- बर्बरीक। उसके बारे में विस्तार से अगली बार।

Thursday 15 August 2013

शिक्षा का शर्मनाक न्यून स्तर


अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश में आयोजित अध्यापक पात्रता परीक्षा (टीईटी) के परिणाम आँखें खोल देने वाले हैं। यह परीक्षा अध्यापकों के चयन हेतु आयोजित की गयी थी और उत्तीर्ण होने वाले उम्मीदवारों को सरकारी विद्यालयों में शिक्षक के रूप में नियुक्त किया जाएगा। इस परीक्षा में शामिल होने वाले लगभग सभी उम्मीदवार स्नातक थे और अधिकांश तो स्नातकोत्तर भी थे। कई तो बी.एड. और एम.एड. तक कर चुके थे। परीक्षा में जो प्रश्न पूछे गये थे वे अधिकांश हाईस्कूल स्तर के और कुछ इंटरमीडियेट स्तर के थे। कहने का तात्पर्य है कि इंटरमीडियेट से ऊपर के स्तर का कोइ्र्र प्रश्न नहीं पूछा गया था। उत्तीर्ण होने के लिए 50 प्रतिशत अंक लाना आवश्यक था।

जब इस परीक्षा के परिणाम आये तो ज्ञात हुआ कि केवल 6 दशमलव कुछ प्रतिशत परीक्षार्थी ही उत्तीर्ण हो सके हैं। जिस परीक्षा में केवल इंटरमीडियेट तक के प्रश्न पूछे गये हों, उसमें ऐसे परिणाम स्तब्ध करने वाले हैं। इससे हमारी शिक्षा व्यवस्था के खोखलेपन का पता चलता है। इससे यह सिद्ध होता है कि हमारे नौनिहाल विश्वविद्यालयों से जो डिग्रियां लेकर निकल रहे हैं उसका वास्तव में कोई मूल्य नहीं है और वह कागज के टुकडे से अधिक महत्व नहीं रखतीं। इसी कारण कोई भी कम्पनी किसी को नौकरी देने के लिए अपने ही अनुसार परीक्षा लेती है और डिग्रियों पर बिल्कुल विश्वास नहीं करती।

इस परिणाम से यह भी सिद्ध होता है कि प्रति वर्ष लाखों की संख्या में हाईस्कूल और इंटरमीडियेट में उत्तीर्ण होने वाले अधिकांश विद्यार्थी वास्तव में किसी योग्य नहीं हैं और उनके 90 या अधिक प्रतिशत अंकों का कोई महत्व नहीं है। उत्तर प्रदेश में माध्यमिक शिक्षा परिषद की परीक्षायें नकल के लिए बदनाम हैं। यहाँ हजारों ऐसे विद्यालय चल रहे हैं जिनका एक मात्र कार्य केवल परीक्षार्थियों का पंजीकरण करके उनको नकल करने की सुविधा उपलब्ध कराना और किसी भी तरह उत्तीर्ण कराना है। ऐसी हालत में अयोग्य उम्मीदवारों की भीड़  इकट्ठी नहीं होगी तो क्या होगा?

इसका सीधा सा अर्थ यह भी है कि हमारे विद्यालयों में अध्यापक विद्यार्थियों को योग्य बनाने में कोई रुचि नहीं लेते और पढाने की खानापूरी करके चले जाते हैं। इसी कारण जिन विद्यार्थियों के माता-पिता आर्थिक रूप से सक्षम हैं, वे विद्यालयों की पढाई पर विश्वास नहीं करते और अपने बच्चों को ट्यूशन तथा कोचिंग भेजना ज्यादा पसन्द करते हैं। यह हाल सरकारी विद्यालयों का ही नहीं, बल्कि ऊँची फीस वसूलने वाले प्राइवेट शिक्षा संस्थानों का भी है।

वैसे कोचिंग सेंटरों का स्तर भी कोई बहुत अच्छा नहीं है। इस परीक्षा में जो 93 प्रतिशत से अधिक उम्मीदवार असफल हुए हैं उनमें से बहुत से कोचिंग संस्थानों में भी जाते होंगे। फिर भी वे इंटरमीडियेट स्तर तक की परीक्षा भी उत्तीर्ण नहीं कर पाये, यह बेहद शर्मनाक है। इससे सिद्ध होता है कि वे वास्तव में अयोग्य हैं। अगर ऐसे अयोग्य लोग शिक्षक बनेंगे, तो आने वाली पीढी के विद्यार्थी योग्य कैसे होंगे? अभी भी सत्ता में जो लोग हैं उनकी अयोग्यता का कुपरिणाम हम भुगत रहे हैं। पता नहीं और कब तक भुगतना पडेगा।

वास्तव में हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली ही बीमार और निष्प्रभावी है। इसमें आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। यदि हमें देश को ऊँचाइयों तक ले जाना है तो हमें योग्य नागरिकों के विकास पर पूरा ध्यान देना चाहिए। अन्यथा इस समाज और देश को अयोग्य हाथों में जाने और नष्ट होने से कोई नहीं रोक सकता।

Friday 9 August 2013

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार

लेखक कँवल भारती की गिरफ़्तारी सिर्फ इसलिए होना कि उन्होंने आई.ए.एस. अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल के निलंबन का विरोध किया था, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार के लिए बेहद शर्मनाक है. उनके ऊपर इस्लाम का अपमान करने और सांप्रदायिक घृणा फ़ैलाने के आरोप लगाए गए हैं. जिस वाक्य के आधार पर ये आरोप लगाये गए हैं, उसको पढ़कर कोई भी समझ सकता है कि इस सरकार की पुलिस और अधिकारियों की बुद्धि भी भ्रष्ट हो गयी है.

वह वाक्य इस प्रकार है- "आजम खान को यह काम करने से खुदा भी नहीं रोक सकता." इस वाक्य में इस्लाम का क्या अपमान हो गया? सभी लोग बोलचाल में कहा करते हैं- 'इसे तो भगवान् भी नहीं कर सकता', 'अब तुम्हें भगवान् भी नहीं बचा सकता', 'देश की हालत खुदा भी नहीं सुधार सकता' आदि-आदि. इसमें ईश्वर के सर्वशक्तिमान होने पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं लगाया जाता है, बल्कि मानव की अपनी विवशता को बताया जाता है. ऐसे वाक्य को खुदा का अपमान मानना मूर्खता की हद है.

फिर अगर यह मान भी लिया जाए कि इसमें खुदा या भगवान की शक्ति पर संदेह किया गया है, तो उसमें इस्लाम का अपमान करने और सांप्रदायिक घृणा फ़ैलाने की बात कहाँ से आ गयी? यदि किसी आदमी ने लेखक के ऊपर ऐसा आरोप लगाया भी था, तो पुलिस अधिकारियों को चाहिए था कि उस पर साधारण मामला दर्ज करते और आगे जांच करते. पर शिकायत मिलते ही लेखक को सीधे गिरफ्तार करने के लिए पुलिस बल भेज देना क्या अपने अधिकारों का दुरूपयोग नहीं? क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि पुलिस अधिकारियों की बुद्धि भी भ्रष्ट हो चुकी है?

इससे स्पष्ट है कि बात केवल इतनी नहीं है. खनन माफिया इतना बौखला गया है कि उस पर उंगली उठाने वाले किसी भी व्यक्ति की आवाज बंद करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है. उसका स्वार्थ तो समझ में आता है, लेकिन हमारे देश के नेताओं और प्रशासन को क्या हो गया है कि वे खनन माफिया के हाथों में खेलते हैं? ऐसे नेताओं और नौकरशाहों के हाथों में देश-प्रदेश का भविष्य सुरक्षित नहीं रह सकता. 

यदि उत्तर प्रदेश की सरकार इसी प्रकार माफियाओं और कठमुल्लों की कठपुतली बनी रही, तो यह निश्चित है कि अगली बार कोई भी देशभक्त नागरिक इस पार्टी को वोट देने से पहले हज़ार बार सोचेगा. अगर अखिलेश यादव की सरकार ने अपनी मुस्लिमपरस्ती में निर्लज्जता की सीमायें पार कर दीं, तो उन लोगों का कहना सच हो जायेगा, जो इस सरकार को "नमाजवादी" पार्टी की सरकार कहते हैं. अखिलेश जी, अभी समय है, संभल जाइए, वर्ना फिर पछताने के सिवा कुछ हाथ नहीं लगेगा.

अभिव्यक्ति की आज़ादी और लोकतांत्रिक परम्पराओं में विश्वास रखने वाले हर व्यक्ति को लेखक कँवल भारती और उन जैसे तमाम लेखकों के घटित और संभावित उत्पीड़न के विरुद्ध जमकर आवाज उठानी चाहिए और हर स्तर पर इसका विरोध करना चाहिए।

Sunday 4 August 2013

घर परिवार की पहेलियाँ

कई मित्रों को शिकायत है कि मैं हमेशा गणित की पहेलियाँ ही बूझता हूँ. लीजिये इस बार मैं घर-परिवार की पहेलियाँ बूझ रहा हूँ. देखते हैं कि कितने लोग इनका जबाब दे पाते हैं.

१. एक नारि दो लहँगा पहने, छः लटकावे नाड़े.

२. एक नारि अलबेली देखी चलते-चलते रुक गयी. लाओ चाकू गर्दन काटो, फिर से चलने लग गयी.

३. अड़ी थी लड़ी थी नौ लाख मोती जड़ी थी. बाबाजी के बाग में दुशाला ओढ़े खड़ी थी.

४. एक गाँव में आग लगी है, एक गाँव में रहा कुआँ. एक गाँव में लम्बी बाँसी, एक गाँव में उड़ा धुआँ.

५. तीन खम्भ धरती गढ़े,एक खम्भ आकाश. ना बिजली, ना बादल, बरसे तो बरसे यार.

कृपया क्रम संख्या देकर इनका उत्तर बताएं.

Friday 2 August 2013

श्री गुरुजी के जीवन का एक प्रेरक प्रसंग

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक परम पूज्य श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरुजी का सम्पूर्ण जीवन लाखों हिन्दू युवकों के लिए प्रेरणादायक था, जो उनकी एक आवाज पर अपना पूरा जीवन देश और समाज की सेवा में समर्पित करने को उद्यत हो गये। उनके बारे में कार्यकर्ताओं के अनेक प्रेरक प्रसंग हैं। उनमें से एक को मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिससे श्री गुरुजी के व्यक्तित्व के एक विशेष आयाम का पता चलता है।

एक बार एक जगह संघ शिविर लगा हुआ था। श्री गुरुजी शिविर में आये हुए थे। जब एक दिन जलपान का समय हुआ तो श्री गुरुजी भी अन्य स्वयंसेवकों के साथ जलपान के लिए बैठे। सामग्री वितरण का कार्य स्वयंसेवकों की टोलियों के हाथों में था। जब वितरण प्रारम्भ हुआ, तो श्री गुरुजी ने देखा कि टोली का एक स्वयंसेवक चुपचाप बैठा है। श्री गुरुजी ने उससे पूछा- ‘तू क्यों बैठा है? वितरण कर।’ पर वह दृष्टि नीची किये चुपचाप बैठा रहा, जैसे उसने कुछ सुना ही न हो।

तब श्री गुरुजी ने प्रश्नवाचक दृष्टि से उस टोली के एक अन्य स्वयंसेवक की ओर देखा, तो उसने बताया कि वह स्वयंसेवक अछूत समझी जाने वाली महार जाति का है, इसलिए जलपान वितरण में संकोच कर रहा है। यह जानकर श्री गुरुजी को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने उस स्वयंसेवक के पास जाकर डाँटकर कहा- ‘तूने संघ में यही सीखा है?’ यह कहते हुए उन्होंने जलेबी की थाली उस स्वयंसेवक के हाथों में लगभग जबर्दस्ती पकड़ायी और कहा- ‘सबसे पहले मेरी पत्तल में रख।’

वह बेचारा स्वयंसेवक रोता जाता था और वितरण करता जाता था। उसकी आँखों से गंगा-यमुना बह रही थीं, जैसे युगों-युगों का भेदभाव गलकर निकल रहा हो।

इस घटना के बाद संघ के किसी शिविर या कार्यक्रम में छूआछूत का कोई प्रसंग कभी उपस्थित नहीं हुआ। कार्य शब्दों से अधिक मुखर होते हैं (Actions speak louder than words), यह घटना इस सत्य को प्रकट करती है। श्री गुरुजी का पूरा जीवन अपने ही उदाहरण द्वारा समाज की बुराइयों को दूर करने की प्रेरक घटनाओं से भरा हुआ था।