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Thursday 26 September 2013

सर्वाइकल स्पौंडिलाइटिस की रामबाण चिकित्सा

आजकल हम सभी कम्प्यूटर का व्यापक उपयोग करते हैं। यह बात केवल बैंकों, सरकारी कार्यालयों या निजी कार्यालयों में कार्य करने वालों के लिए ही नहीं बल्कि हर किसी के लिए सत्य है, क्योंकि आजकल घर-घर में डेस्कटौप और लैपटौप कम्प्यूटर हो गये हैं। कम्प्यूटर पर काम करने के लिए हमें अपना सिर झुकाना पड़ता है, क्योंकि कीबोर्ड हमारी आँखों से नीचे होता है। कई लोग सिर के साथ अपना कंधा भी झुका लेते हैं। इस गलत स्थिति में अधिक दिनों तक कार्य करने से उनके कंधों, गर्दन और पीठ के कई हिस्सों में दर्द होने लगता है और सिर को आसानी से किसी भी तरफ झुकाने में कष्ट होता है। इसी को सर्वाइकल स्पौंडिलाइटिस कहा जाता है।

ऐलोपैथी में इसका कोई इलाज नहीं है। दर्द से क्षणिक आराम के लिए वे दर्दनाशक गोलियाँ दे देते हैं, जिनसे कुछ समय तो आराम मिलता है, लेकिन आगे चलकर वे बहुत हानिकारक सिद्ध होती हैं और उनका प्रभाव भी खत्म हो जाता है।

दूसरे इलाज के रूप में डाक्टर लोग एक मोटा सा पट्टा गर्दन के चारों ओर लपेट देते हैं, जिससे सिर नीचे झुकाना असम्भव हो जाता है। लम्बे समय तक यह पट्टा लगाये रखने पर रोगी को थोड़ा आराम मिल जाता है, लेकिन कुछ समय बाद समस्या फिर पहले जैसी हो जाती है, क्योंकि अपनी मजबूरियों के कारण वे कम्प्यूटर का प्रयोग करना बन्द नहीं कर सकते।

लेकिन योग चिकित्सा में इसका एक रामबाण इलाज है। स्वामी देवमूर्ति जी, स्वामी धीरेन्द्र ब्रह्मचारी और स्वामी रामदेव जी ने इसके लिए कुछ ऐसे सूक्ष्म व्यायाम बताये हैं जिनको करने से इस समस्या से स्थायी रूप से मुक्ति मिल सकती है और रोगी सामान्य हो सकता है। इन व्यायामों को मैं संक्षेप में नीचे लिख रहा हूँ। इनका लाभ मैंने स्वयं अपनी सर्वाइकल स्पौंडिलाइटिस की समस्या को दूर करने में उठाया है और अन्य कई लोगों को भी लाभ पहुँचाया है। इन्हीं व्यायामों के कारण मैं दिन-रात कम्प्यूटर पर कार्य करने में समर्थ हूँ और कई दर्जन पुस्तकें लिख पाया हूँ।

व्यायाम इस प्रकार हैं-

ग्रीवा-
(1) किसी भी आसन में सीधे बैठकर या खड़े होकर गर्दन को धीरे-धीरे बायीं ओर जितना हो सके उतना ले जाइए। गर्दन में थोड़ा तनाव आना चाहिए। इस स्थिति में एक सेकेंड रुक कर वापस सामने ले आइए। अब गर्दन को दायीं ओर जितना हो सके उतना ले जाइए और फिर वापस लाइए। यही क्रिया 10-10 बार कीजिए। यह क्रिया करते समय कंधे बिल्कुल नहीं घूमने चाहिए।
(2) यही क्रिया ऊपर और नीचे 10-10 बार कीजिए।
(3) यही क्रिया अगल-बगल 10-10 बार कीजिए। इसमें गर्दन घूमेगी नहीं, केवल बायें या दायें झुकेगी। गर्दन को बगल में झुकाते हुए कानों को कंधे से छुआने का प्रयास कीजिए। अभ्यास के बाद इसमें सफलता मिलेगी। तब तक जितना हो सके उतना झुकाइए।
(4) गर्दन को झुकाए रखकर चारों ओर घुमाइए- 5 बार सीधे और 5 बार उल्टे। अन्त में, एक-दो मिनट गर्दन की चारों ओर हल्के-हल्के मालिश कीजिए।

कंधे-
(1) सीधे खड़े हो जाइए। बायें हाथ की मुट्ठी बाँधकर हाथों को गोलाई में 10 बार धीरे-धीरे घुमाइए। घुमाते समय झटका मत दीजिए और कोहनी पर से हाथ बिल्कुल मत मुड़ने दीजिए। अब 10 बार विपरीत दिशा में घुमाइए।
(2) यही क्रिया दायें हाथ से 10-10 बार कीजिए।
(3) अन्त में दोनों हाथों को इसी प्रकार एक साथ दोनों दिशाओं में 10-10 बार घुमाइए।

कंधों के विशेष व्यायाम-
(1) वज्रासन में बैठ जाइए। दोनों हाथों को कोहनियों से मोड़कर सारी उँगलियों को मिलाकर कंधों पर रख लीजिए। अब हाथों को गोलाई में धीरे-धीरे घुमाइए। ऐसा 10 बार कीजिए।
(2) यही क्रिया हाथों को उल्टा घुमाते हुए 10 बार कीजिए।
(3) वज्रासन में ही हाथों को दायें-बायें तान लीजिए और कोहनियों से मोड़कर उँगलियों को मिलाकर कंधों पर रख लीजिए। कोहनी तक हाथ दायें-बायें उठे और तने रहेंगे। अब सिर को सामने की ओर सीधा रखते हुए केवल धड़ को दायें-बायें पेंडुलम की तरह झुलाइए। ध्यान रखिये कि केवल धड़ दायें-बायें घूमेगा, सिर अपनी जगह स्थिर रहेगा और सामने देखते रहेंगे। ऐसा 20 से 25 बार तक कीजिए।

इन सभी व्यायामों को एक बार पूरा करने में मुश्किल से 10 मिनट लगते हैं। इनको दिन में 3-4 बार नियमित रूप से करने पर स्पोंडिलाइटिस और सर्वाइकल का कष्ट केवल 5-7 दिन में अवश्य ही समाप्त हो जाता है। सोते समय तकिया न लगायें तो जल्दी लाभ मिलेगा।

Monday 23 September 2013

आतंकवाद का धर्म

‘आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता।’ यह बात हमें रोज सुबह-शाम दिन-रात गरज कि पाँचों वक्त याद दिलायी जाती है और उम्मीद की जाती है कि हम इसको सही मान लें और इस पर विश्वास कर लें। लेकिन यह बात कितनी खोखली है, इसका पता भी हमें रोज चल जाता है। कश्मीर से केन्या तक, पाकिस्तान से अमेरिका तक, चीन से यूरोप तक दुनिया में हर जगह आतंकवादी अपनी करतूतों से साबित कर देते हैं कि उनका एक ‘धर्म’ है और जो उस तथाकथित धर्म को नहीं मानता, उसे जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है। दुनिया का कोई कोना इन ‘धार्मिकों’ के असर से अछूता नहीं है।

भारत में भी इस बात के खोखलेपन के प्रमाण रोज सामने आ जाते हैं। कहीं किसी आतंकवादी को अदालत फाँसी की सजा सुनाती है, तो उसके ‘धर्म’ वालों के वोटों के सौदागर सामने आ जाते हैं और चीखने लगते हैं कि ‘न....न....न, इसको फाँसी मत दो, नहीं तो उस धर्म के मानने वाले नाराज हो जायेंगे।’ जब भी मुठभेड़ में कोई आतंकवादी मारा जाता है, उसको बेटा-बेटी या दामाद बताने वाले छातियाँ पीटने लगते हैं कि ‘हाय ! एक शांतिप्रिय निर्दोष बच्चे को मार डाला।’ वे चाहते हैं कि हम या तो आतंकवादियों को खुला घूमने दें या उनको दामाद बनाकर रोज बिरयानी खिलाते रहें।

इस धर्म के झंडाबरदार कभी इस बात पर विचार नहीं करते कि क्या कारण है कि इस धर्म को मानने वाले आतंकवादी पूछ-पूछकर और छाँट-छाँटकर गैर-धर्मों को मानने वालों के सीने में गोलियाँ उतारकर आनन्द का अनुभव करते हैं? क्या कारण है कि इस धर्म को मानने वाला शान्तिप्रिय आदमी सैकड़ों गैर-धर्म वाले निर्दोष लोगों की जान लेने के लिए खुद को विस्फोट से उड़ाने में कोई संकोच नहीं करता?

केवल जन्नत जाने और वहाँ असीमित शराब के साथ 72 हूरें पाने का लालच इसका अकेला कारण नहीं हो सकता। अवश्य ही उस धर्म के चिन्तन और मान्यताओं में कोई मौलिक गलती है, जिसके कारण यह ‘शान्तिप्रिय धर्म’ सारे संसार में अशांति और रक्तपात का कारण बना हुआ है। इस चिन्तन में चूक कहाँ पर है? जब इस सवाल का जबाब मिल जायेगा, तो आतंकवाद भी समाप्त होने लगेगा, वरना इसी तरह आम लोगों की जानें जाती रहेंगी और हम ‘कड़ी  कार्यवाही करने’ की चेतावनी देते रहेंगे।

Friday 20 September 2013

महाभारत का एक पात्र : अम्बा


अम्बा महाभारत का एक रहस्यमय पात्र है। वह बहुत कम समय तक दृष्टि में रही, लेकिन इतने ही समय में उसने महाभारत की घटनाओं पर अपना प्रभाव छोड़ दिया। वह तत्कालीन काशीराज की तीन पुत्रियों में सबसे बड़ी थी। अन्य दो पुत्रियों के नाम थे- अम्बिका और अम्बालिका। तीनों बहिनों की उम्रों में अधिक अन्तर नहीं था, इसलिए उनके पिता काशीराज ने तीनों का स्वयंवर एक साथ करने की निश्चय किया। परम्परा के अनुसार देश भर के राजाओं और राजकुमारों को निमंत्रण भेजा गया।

उस समय हस्तिनापुर के सिंहासन पर विचित्रवीर्य विराजमान थे। वे शांतनु और सत्यवती के छोटे पुत्र थे। उनके बड़े भाई चित्रांगद एक द्वंद्व युद्ध में मारे जा चुके थे। इसलिए विचित्रवीर्य को ही गद्दी पर बैठाया गया। वे बचपन से ही बीमार थे और बीमारी ने उनके शरीर को जर्जर बना दिया था। अगर वे स्वयंवर में जाते, तो शायद ही कोई राजकुमारी उनका वरण करती। इसलिए भीष्म ने उनको भेजने के बजाय स्वयं जाना तय किया।

निर्धारित दिन पर भीष्म दनदनाते हुए स्वयंवर स्थल पर जा पहुँचे। उस समय कई राज्यों के राजा और राजकुमार स्वयंवर में आये हुए थे और राजकुमारियों द्वारा वरमाला पहनाये जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। भीष्म के पहुँच जाने पर सबको आश्चर्य हुआ कि जो व्यक्ति आजीवन अविवाहित रहने और कभी सिंहासन पर न बैठने की प्रतिज्ञा कर चुका है, वह स्वयंवर में आया है। कुछ ने उनका मजाक भी बनाया।

उसी समय भीष्म ने घोषणा की कि मैं इन तीनों राजकुमारियों को कुरुवंश की वधू बनाने के लिए ले जा रहा हूँ। यदि किसी को आपत्ति हो तो मुकाबला कर ले। यह सुनते ही सभी को साँप सूँघ गया। वे भीष्म की शक्ति को जानते थे, इसलिए चुपचाप बैठे रहे। तब भीष्म ने काशीराज से कहा कि अपनी पुत्रियों को मेरे साथ जाने की अनुमति दे दें। काशीराज ने चुपचाप पुत्रियों को जाने का इशारा कर दिया और वे भीष्म के साथ चल पड़ीं। यहाँ भीष्म ने यह बात छिपा ली थी कि वे उन राजकुमारियों को अपने लिए नहीं बल्कि अपने छोटे बीमार भाई के लिए ले जा रहे थे।

उस स्वयंवर में राजकुमार शाल्व भी आया हुआ था। वह बड़ी राजकुमारी अम्बा को पसन्द करता था और अम्बा भी उसी को वरमाला पहनाने का निश्चय करके आयी थी। लेकिन जब भीष्म उसको ले जाने लगे, तो वह चुपचाप चल दी। वह भी मक्कार थी। उसने सोचा होगा कि भीष्म मुझसे विवाह करके राजसिंहासन पर बैठेंगे और मैं कुरुवंश की महारानी बन जाऊँगी। इसलिए वह कुछ नहीं बोली और चुपचाप चल पड़ी। अगर वह उस समय कह देती कि मैं शाल्व से विवाह करना चाहती हूँ, तो भीष्म उसी समय उसे छोड़ देते। लेकिन उसने यह मौका गँवा दिया।

रास्ते में शाल्व ने भीष्म को रोका और कहा कि अम्बा को मैं प्यार करता हूँ और उससे विवाह करूँगा। अगर इस समय भी अम्बा कह देती कि मैं शाल्व के साथ जाना चाहती हूँ, तो भीष्म उस समय भी उसे छोड़ देते। लेकिन तब भी अम्बा कुछ नहीं बोली। इस पर भीष्म ने शाल्व को युद्ध में हरा दिया और घायल करके छोड़ दिया।

जब सभी हस्तिनापुर पहुँचे और भीष्म ने बताया कि उनका विवाह विचित्रवीर्य के साथ कराया जाएगा, तो अम्बा का सपना टूट गया। उसने भीष्म को बताया कि मैं शाल्व को प्यार करती हूँ और उससे ही विवाह करना चाहती हूँ। इस पर भीष्म ने उससे कह दिया कि अगर यही तुम्हारी इच्छा है, तो तुम जा सकती हो। यह सुनकर अम्बा चली गयी। उसकी दोनों छोटी बहनों ने विचित्रवीर्य से विवाह करना स्वीकार कर लिया।

जब अम्बा शाल्व के पास पहुँची तो शाल्व ने उसे स्वीकार करने से मना कर दिया, क्योंकि भीष्म ने उसे युद्ध में हरा दिया था। वास्तव में वह भी अम्बा को प्यार नहीं करता था, बल्कि प्यार का नाटक करता था। लेकिन अम्बा इतनी मूर्ख थी कि उसे शाल्व के बजाय भीष्म पर क्रोध आया। वह वापिस हस्तिनापुर पहुँची और भीष्म पर जोर डाला कि मेरे साथ विवाह कर लो। लेकिन भीष्म अपनी प्रतिज्ञा से बँधे हुए थे, इसलिए उन्होंने साफ मना कर दिया। इस पर वह भीष्म को धमकी देकर चली गयी।

उसने भीष्म को दंड देने के लिए बहुतों के सामने प्रार्थना की, लेकिन किसी भी व्यक्ति की हिम्मत भीष्म से पंगा लेने की नहीं हुई। तब वह भीष्म के गुरु भगवान परशुराम के पास गयी और उनसे सहायता का वचन लेकर भीष्म को दंड देने के लिए कहा। परशुराम ने भीष्म को बुलवाया और उनसे कहा कि तुम या तो अम्बा से विवाह कर लो, या मुझसे युद्ध करो। भीष्म ने अपने गुरु से युद्ध करना स्वीकार किया, लेकिन अपनी प्रतिज्ञा तोड़ने को तैयार नहीं हुए। पूरे आठ दिन दोनों गुरु-शिष्य में युद्ध हुआ, लेकिन कोई किसी को नहीं हरा सका। तो परशुराम ने युद्ध समाप्त कर दिया और अम्बा से कहा कि इससे ज्यादा मैं तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकता, क्योंकि भीष्म अजेय हैं।

कहा जाता है कि भीष्म से बदला लेने की आग में जलती हुई अम्बा ने आत्मघात कर लिया और फिर पांचाल के राजा द्रुपद के घर राजकुमार शिखंडी के रूप में जन्म लिया, जो अन्ततः भीष्म की मृत्यु का कारण बना। मेरी दृष्टि में अम्बा मूर्ख थी। उसे शुरू में ही भीष्म से कह देना चाहिए था कि मैं शाल्व के साथ जाना चाहती हूँ। भीष्म तो उसे उसी समय मुक्त कर देते। फिर जब शाल्व ने उसे स्वीकार नहीं किया था, तो उसे इसका बदला शाल्व से ही लेना चाहिए था, न कि भीष्म से। भीष्म ने तो कभी उससे विवाह करने का वचन ही नहीं दिया था। अपनी मूर्खता के कारण अम्बा ने अपनी जिन्दगी बरबाद कर ली।

Thursday 19 September 2013

दंगों का सच और आजम खाँ का झूठ

मैं अपने पिछले लेख ‘मुजफ्फर नगर के सबक’ में स्पष्ट लिख चुका हूँ कि कुछ सेकूलर कहलाने वाले दल और नेता अपने निहित स्वार्थों के लिए हिन्दू-मुसलमानों को आपस में लड़ाते हैं और उनकी जान लेने तक में संकोच नहीं करते। एक चैनल ने हाल ही में स्टिंग आपरेशन से जो खुलासा किया है उससे मेरी बात की पुष्टि होती है। 

इस चैनल ने कई पुलिस अधिकारियों को यह कहते हुए दिखाया है कि आजम नाम के एक नेता ने आदेश दिये थे कि कुछ भी करने की जरूरत नहीं है और जो हो रहा है होने दो। इतना ही नहीं ऊपरी आदेशों के कारण उनको उन 7 लोगों को छोड़ने के लिए भी बाध्य होना पड़ा, जिनको दो युवकों की हत्या में चश्मदीदों की सूचनाओं के आधार पर पकड़ा गया था। 

इस खुलासे के बाद केबिनेट मंत्री आजम खाँ ने जो सफाई दी है, उससे पुलिस अधिकारियों की बात की पुष्टि ही होती है। आजम खाँ ने अपनी सफाई में तीन बातें कही हैं- 

1. मैं मुजफ्फर नगर इसलिए नहीं गया कि मेरे जाने से बात बिगड़ जाती। 
2. मैंने किसी अधिकारी को कोई फोन नहीं किया। 
3. मैंने दंगा रोकने हेतु कार्यवाही करने के लिए अधिकारियों से सम्पर्क किया था, लेकिन अधिकारी मेरी बात नहीं मानते।

ये तीनों बातें परस्पर झूठ हैं। जब उन्होंने कोई फोन नहीं किया और वे व्यक्तिगत रूप से भी वहाँ नहीं गये, तो उन्होंने सम्पर्क कैसे किया था? क्या कोई चिट्ठी या ई-मेल भेजी थी? स्पष्ट है कि मंत्री जी सरासर झूठ बोल रहे हैं। 

उनकी इस बात पर कौन विश्वास करेगा कि अधिकारी उनकी बात नहीं मानते? जिस व्यक्ति को राज्य का सुपर-मुख्यमंत्री कहा जाता हो, किस अधिकारी की मजाल है कि उसकी बात न माने? केवल फेसबुक पर कमेंट करने पर लेखक को गिरफ्तार करने के लिए जो आदमी तत्काल पुलिस भेज सकता है और दुर्गा नागपाल जैसी आई.ए.एस. अधिकारी को मिनटों में निलम्बित करा सकता है, क्या कोई अदना सा थानेदार उसके हुक्म को मानने से इंकार कर सकता है? कोई मूर्ख ही इस बात को मानेगा।

इस सबसे स्पष्ट है कि लड़की छेड़ने की घटना और उसकी प्रतिक्रिया में हुई घटनाओं को भयंकर साम्प्रदायिक दंगों में बदलने की साजिश ऊँचे स्तर पर रची गयी, ताकि आगामी चुनावों में वोटों का ध्रुवीकरण हो। मुसलमानों के अपने नेताओं ने ही मुसलमानों को अपनी गन्दी राजनीति का मोहरा बनाकर मरवाया और दूसरी ओर हिन्दुओं को भी उकसाकर दंगों को हवा दी। पुलिस को निष्क्रिय कर देना इसी साजिश का अंग था। यदि पुलिस अधिकारियों को अपने विवेक के अनुसार कार्यवाही करने दी गयी होती, तो मामला शुरू में ही समाप्त हो जाता। 

इस सारे घटनाक्रम से मुसलमानों की आँखें खुल जानी चाहिए। अगर अभी भी वे अपने दुश्मनों और दोस्तों की सही पहचान नहीं कर पाते, तो आगे चलकर उन्हें और भी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।

Sunday 15 September 2013

मुज़फ्फर नगर के कुछ सबक

मुज़फ्फर नगर और आस-पास के दंगों के बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा जा चूका है. मैं उसे दोहराकर अपना और आपका समय नष्ट नहीं करना चाहता, बल्कि इन घटनाओं से मिलने वाले कुछ सबकों की चर्चा करूँगा, ताकि ऐसी घटनाओं को दोहराने से रोका जा सके. बुद्धिमान वह है जो इतिहास से कुछ सीख ले ले, हालाँकि इतिहास हमें केवल यही सिखाता है कि इतिहास से आज तक किसी ने कुछ नहीं सीखा. फिर भी हम मुज़फ्फर नगर की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं से निम्नलिखित बातें सीख सकते हैं- 

1. केवल एक समुदाय का तुष्टीकरण करने से वह समुदाय भले ही प्रसन्न हो जाये, लेकिन अन्य समुदायों में उसके प्रति अलगाव और ईष्र्या की भावना इतनी प्रबल हो जाती है कि उसका विस्फोट होने के लिए एक छोटी सी चिनगारी काफी है। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार ने पूरी ताकत से मुस्लिम तुष्टीकरण किया है, वह भी अन्य समुदायों का हक मारकर। इसके बारे में मैं कई बार पहले भी लिख चुका हूँ और चेतावनी भी दे चुका हूँ। पर उनका कोई असर नहीं हुआ। अन्ततः वह हो गया, जो नहीं होना था।

2. देश में कुछ व्यक्ति और दल ऐसे हैं, जिनकी पूरी राजनीति ही दंगों और लाशों के आधार पर चलती है। वे भले ही दूसरों को दंगों पर राजनीति न करने के उपदेश देते हों, लेकिन वे स्वयं हमेशा ऐसा ही करते रहे हैं। उदाहरण के लिए, गुजरात के 2002 के दंगों को वे दिन-रात कोसते रहते हैं, लेकिन अपने शासन में हुए दंगों को मात्र जातीय संघर्ष कहकर तुच्छ बताने की कोशिश करते हैं। यदि ऐसे शासन में कानून-व्यवस्था चौपट है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

3. यह मात्र संयोग नहीं है कि उत्तर प्रदेश में आजादी के बाद अब तक केवल तीन बार सेना को कानून-व्यवस्था बनाने के लिए बुलाना पड़ा है, 1990 में, 2005 में और 2013 में और तीनों बार प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार रही है। इससे यही सिद्ध होता है कि इस पार्टी के सत्ता में आते ही गुंडे-बदमाशों के हौसले बुलन्द हो जाते हैं और वे स्वच्छन्द हो जाते हैं। इस पार्टी की सरकार आते ही शासन का राजनीतिकरण हो जाता है, जिससे पक्षपात और संरक्षण के कारण कानून व्यवस्था बिगड़ जाती है। इसकी परिणिति अन्ततः कानून व्यवस्था की समाप्ति और दंगों में होती है।

4. मुस्लिम समुदाय आज तक अपने सच्चे हितैषी व्यक्तियों और दलों की पहचान नहीं कर सका है। इसलिए वे बहुत जल्दी उन लोगों से प्रभावित हो जाते हैं, जो उनके सामने चिकनी-चुपड़ी बातें करके कुछ टुकड़े डाल देते हैं। ऐसे लोग और दल न केवल उनके वोटों का सौदा करते हैं, बल्कि जानबूझकर उन्हें मौत के मुँह में ले जाते हैं और फिर बचाने का नाटक करके उनके हितैषी बनकर आ जाते हैं। ऐसे दल ही मुस्लिम समुदाय के विकास और मुख्य धारा में उनके शामिल होने में सबसे बड़ी बाधा हैं। जिस दिन मुसलमान इस बात को समझ लेंगे, उसी दिन देश से साम्प्रदायिकता की समस्या समाप्त हो जायेगी।

सबक और भी हो सकते हैं, पर अभी इतने ही।

Wednesday 11 September 2013

महाभारत का एक पात्र : बर्बरीक

यह महाभारत का ऐसा पात्र है, जिसने युद्ध में भाग लेने की तीव्र इच्छा होते हुए भी मजबूरीवश युद्ध में कोई भाग नहीं लिया था। बताया जाता है कि वह भीम और हिडिम्बा का पौत्र तथा घटोत्कच का पुत्र था। वह युद्ध में शायद पांडवों की सहायता करने के लिए आ रहा था। उसकी माता ने उससे कहा था कि जो कमजोर पक्ष हो, उसकी ओर से लड़ना। उसकी माता ने सोचा होगा कि पांडवों के पास सेना कम है और उनका पक्ष कमजोर है, इसलिए वह पांडवों की ओर से ही लड़ेगा।

कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने उसके मन की थाह लेने के लिए ब्राह्मण का रूप बनाया और उससे पूछा कि वह कितना बलवान है। उसने बताया कि मैं एक ही वाण से समस्त सृष्टि का विनाश कर सकता हूँ। उसकी परीक्षा लेने के लिए भगवान ने उससे कहा कि वह एक ही वाण से एक पेड़ के सभी पत्तों को बींध कर दिखाए। उसने वैसा ही कर दिखाया, तो कृष्ण की आँखें आश्चर्य से फटी रह गयीं। उन्होंने पूछा कि तुम किसकी ओर से लड़ोगे? तो बर्बरीक ने कहा कि अपनी माता के आदेश के अनुसार जो पक्ष हार रहा होगा, मैं उसकी ओर से लड़ूँगा। तब भगवान ने सोचा कि यह तो बड़ा खतरनाक है, यह कभी पांडवों को जीतने नहीं देगा। इसलिए उन्होंने तत्काल सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया।

सिर कट जाने पर उसे पता चला कि ब्राह्मण के वेष में ये स्वयं भगवान कृष्ण हैं, तो वह प्रसन्न हो गया। भगवान ने उसकी इच्छा पूछी, तो उसने बताया कि मैं महाभारत युद्ध को देखना चाहता हूँ। इस पर भगवान ने उसके कटे हुए सिर को एक पेड़ या पहाड़ी के ऊपर ऐसे सुरक्षित स्थान पर रख दिया, जहाँ से वह पूरे कुरुक्षेत्र को देख सकता था। उसके सिर ने वहीं से पूरा युद्ध देखा।

युद्ध के बाद किसी ने उससे पूछा कि युद्ध में सबसे अधिक वीरता किसने दिखायी थी, तो उसने बताया कि मैंने तो सब तरफ केवल कृष्ण के सुदर्शन चक्र को ही चलते देखा है।

बर्बरीक की इस कहानी में विश्वसनीयता कम है। यह कहानी मूल महाभारत का अंग नहीं है, बल्कि बाद में मिलाई गयी और किंवदन्तियों का रूप लगती है। ऐसा सन्देह करने के कई कारण हैं। पहली बात तो यह है कि यदि उसकी माता ने उसे पांडवों की सहायता के लिए भेजा था, तो वह गोल-मोल बात क्यों करेगी? वह तो साफ-साफ कहेगी कि तुम्हें अपने पितामह पांडवों की ओर से ही लड़ना है, जैसे कि उसका पिता घटोत्कच लड़ा था।

दूसरी बात, यह कहीं स्पष्ट नहीं है कि उसने धनुर्वेद की शिक्षा किससे प्राप्त की और ऐसी दिव्य शक्तियाँ उसके पास कहाँ से आयीं, जो उसके पिता घटोत्कच और पितामह अर्जुन के पास भी नहीं थीं। तीसरी बात, जब उसने पूरा युद्ध देखने की इच्छा प्रकट की, तो भगवान कृष्ण ने उसके साथ धोखा क्यों किया और केवल अपना सुदर्शन चक्र चलते हुए क्यों दिखाया? इससे यही लगता है कि बर्बरीक की सारी कहानी कपोल-कल्पित है।

वैसे बर्बरीक को भारतीय समाज में आज भी याद किया जाता है। ब्रज के गाँवों में शारदेय नवरात्रियों में तीन तिलंगों से बने टेसू के रूप में उसकी पूजा की जाती है। उसे कृष्ण का रूप माना जाता है और खाटू वाले श्याम जी के नाम से उसकी पूजा प्रायः सम्पूर्ण उत्तर भारत में की जाती है। वह हारने वाले पक्ष की सहायता को आया था, इसलिए उसे ‘हारे का सहारा’ कहा जाता है, अर्थात् जिसका कोई सहारा न हो, वह खाटू वाले श्याम जी को अपना सहारा मान सकता है। 

Monday 9 September 2013

सऊदी अरब में महिलाओं की स्थिति

कई मुस्लिम मित्रों को यह गलतफहमी है कि इस्लाम में महिलाओं को पूरी इज्जत और बराबरी दी जाती है, जितनी और किसी धर्म में नहीं दी जाती। इस बात के खोखलेपन की असलियत सभी जानते हैं, लेकिन कोई स्वीकार नहीं करता। परन्तु किसी न किसी रूप में सच सामने आ ही जाता है। अभी हाल ही में दैनिक भास्कर समाचार पत्र में एक लम्बी रिपोर्ट निकली है, जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि सऊदी अरब में महिलाओं की स्थिति नरक से भी बदतर है। 

यह सऊदी अरब घोषित रूप में इस्लामी देश है और मक्का-मदीना आदि मुसलमानों के सभी प्रमुख तीर्थ वहीं स्थित हैं। हज करने के लिए दुनियाभर के मुसलमान वहीं जाते हैं। वहाँ इस्लामी शरियत के अनुसार ही शासन चलाया जाता है, इसलिए कोई यह नहीं कह सकता कि उस देश में जो हो रहा है, वह इस्लाम के अनुसार नहीं है। यदि कोई ऐसा कहता है तो वह दूसरों के साथ-साथ स्वयं को भी धोखा दे रहा है।

जो लोग उस समाचार को पूरा पढने का कष्ट नहीं उठाना चाहते, उनके लिए उसकी मुख्य-मुख्य बातें मैं यहाँ लिख रहा हूँ।
1. रूढ़िवादी सऊदी अरब में महिला का अपना कोई जीवन नहीं होता। कानूनी रूप बालिग होने बावजूद भी महिलाओं का कोई अस्तित्व नहीं है। सऊदी में प्रत्येक महिला का पुरुष अभिभावक होना चाहिए।
2. किसी भी सऊदी महिला को पढ़ाई, काम, यात्रा, शादी और यहां तक चिकित्सीय जांच के लिए भी पुरुषों से लिखित अनुमति लेनी पड़ती है।
3. इसके अलावा बिना किसी भी पुरुष अभिभावक वे केस फाइल नहीं कर सकती और न्याय की बात तो भूल ही जाइए।
4. अभी भी यहां सिर्फ 10 साल की उम्र में बच्चियों की शादी करा देने और बलात्कार पर बेवकूफी भरा कानून अस्तित्व में हैं। इनके विरुद्ध कोई सुनवाई कहीं नहीं होती.
5. यहां लड़कियों को बालिग होने से पहले ही शादी करा दी जाती है और उन्हें हिजाब में रहना पड़ता है। बावजूद इसके यहां रेप की संख्या सबसे ज्यादा है। इसका जिम्मेदार बलात्कार के कानून को माना जाता है। बलात्कार के लिए किसी आरोपी को तब तक सजा नहीं दी जा सकती जब तक उसके चार प्रत्यक्षदर्शी न हों। 
6. सऊदी सरकार महिलाओं की नौकरी की कोई व्यवस्था नहीं की जाती है। पीएचडी डिग्री वाली महिलाएं भी बेरोजगार हैं। दरअसल, सऊदी अरब में पुरुष साथी के साथ काम करने, साक्षात्कारों से बचने के लिए महिलाओं को नौकरी नहीं दी जाती है।
7. सऊदी अरब में महिलाओं के कार चलाने पर पाबंदी है। कई बार पुलिस महिलाओं को गाड़ी चलाते हुए रोक लेती है और उनसे शपथ पत्र लिखवाती हैं कि वह कभी गाड़ी नहीं चलाएंगी। कई बार उन्हें कोड़े मारने की सजा भी दी जाती है।  
8. सऊदी लड़कियों को खेलों में भाग लेने और जिम जाने देने की इजाजत नहीं है। 

Thursday 5 September 2013

कह-मुकरनी

आइये, आज कुछ साहित्यिक बातें करें, जैसी आपने शायद कहीं सुनी या पढ़ी नहीं होंगी।

‘कह-मुकरनी’ का अर्थ है ‘कहकर मुकर जाना’ यानी अपनी बात से पलट जाना। ये लघु कविताएँ लिखने की एक विशेष शैली है। इसमें एक महिला अपनी सखी से कुछ बातें कहती हैं, जो पति के बारे में भी हो सकती हैं और एक अन्य वस्तु के बारे में भी। जब उसकी सखी कहती है कि क्या तुम अपने पति की बात कर रही हो? तो वह कहती है, ‘नहीं, मैं तो उस वस्तु की बातें कर रही हूँ।’ यही ‘कह-मुकरनी’ है। 

इसे ठीक से समझने के लिए एक उदाहरण लीजिए-
तरह तरह से मुँह मटकावै।
खेल दिखाकर मोहि रिझावै।
जी चाहै ले जाऊँ अन्दर।
ए सखि साजन? ना सखि बन्दर!

इसमें पहली तीन बातें पति के बारे में भी हो सकती हैं और बन्दर के बारे में भी। जब उसकी सहेली कहती है- ‘ए सखि साजन ?’ तो वह फौरन कहती है- ‘ना सखि बन्दर।’

प्राचीन काल में कह-मुकरनी लिखने की परम्परा बहुत लोकप्रिय थी। कहा जाता है कि तेरहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध जनकवि अमीर खुसरो ने यह परम्परा चलायी थी। बाद में कई उर्दू-हिन्दी कवियों जैसे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने इस विधा को लोकप्रिय बनाया। कभी-कभी आज भी प्राचीन साहित्य और पत्र-पत्रिकाओं में कह-मुकरनी देखने को मिल जाती हैं।

कह-मुकरनी पहेली का काम भी करती थी। इसमें चैथी लाइन को छिपाकर पहली तीन लाइनें ही बोली जाती थीं और फिर पूछा जाता था कि चैथी लाइन क्या होगी?

यहाँ मैं अमीर खुसरो की कुछ कह-मुकरनियाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। शायद आपको भी पसन्द आयें।
1. वो आये तब शादी होय। उस बिन दूजा और न कोय।
मीठे लागें वाके बोल। ए सखि साजन? ना सखि ढोल!
2. ऊँची अटारी पलंग बिछायौ। मैं सोयी मेरे सिर पर आयौ।
खुल गयीं अखियाँ भयौ अनन्द। ए सखि साजन? ना सखि चंद!
3. पड़ी थी मैं अचानक चढि़ आयौ। जब उतर्यौ तो पसीना आयौ।
सहम गयी नहिं सकी पुकार। ए सखि साजन? ना सखि बुखार!
4. सेज पड़ी मोरी आँखों आया। डाल सेज मोहि मजा दिखाया।
किससे कहूँ अब मजा मैं अपना। ए सखि साजन? ना सखि सपना!
5. जब वो मेरे मन्दिर आवै। सोते मुझको आन जगावै।
पढ़त-फिरत वो विरह के अक्षर। ए सखि साजन? ना सखि मच्छर!
6. लिपट-लिपट के वाके सोई। छाती से छाती लगा के रोयी।
दाँत से दाँत बजा तो ताड़ा। ए सखि साजन? ना सखि जाड़ा!

अब दो कह-मुकरनियाँ मेरी भी पढ़ लीजिए-
1. झूठे-झूठे वादे करता। कभी न उनको पूरे करता।
गरज पड़े तब दर्शन देता। ए सखि साजन? ना सखि नेता!
2. जब मर्जी हो तब आ जावै। घंटी देकर हमें बुलावै।
उसे छोड़कर जाये कौन। ए सखि साजन? ना सखि फोन!

Monday 2 September 2013

यह मीडिया शर्म-निरपेक्ष है

मेरा पिछला हास्य-व्यंग्य लेख 'मीडिया द्वारा बलात्कार' भारतीय मीडिया द्वारा अपनी शक्ति के दुरूपयोग को उजागर करता है. पिछले दिनों सरकारी की नालायकी, रुपये की इज्जत घटने, आतंकवाद, घोटालों, बलात्कारों आदि से ज्यादा चर्चा मीडिया द्वारा चरित्र-हनन और फिर उसकी पिटाई की हुई है. मैं यह तो नहीं कहूँगा कि मीडिया वालों की पिटाई करना उचित है, लेकिन यह जरुर कहूँगा कि जिस प्रकार मीडिया कुछ विशेष लोगों का चरित्र-हनन करती है, उसको देखते हुए इस प्रकार लोगों द्वारा अपना आक्रोश दिखाना स्वाभाविक है. वैसे गलती मीडिया-कर्मियों की बिलकुल नहीं है, यह तो ऊपर बैठे संपादकों-समाचार संपादकों और उनसे भी ऊपर उनके मालिकों की करतूत है, जो धन कमाने और अपने चैनल या अखबार का महत्त्व बढाने के लिए कुछ ख़ास लोगों को निशाने पर लेते हैं और शेष को छोड़ देते हैं. मीडिया कर्मी तो बेचारे उनके हुकुम के गुलाम हैं और अपनी रोटी कमा रहे हैं. उन पर गुस्सा उतारना ठीक नहीं.

लेकिन मीडिया वाले भारत में मिली हुई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो घोर दुरूपयोग कर रहे हैं, वह क्षमा करने योग्य नहीं है. इसको कुछ उदाहरणों द्वारा सिद्ध करूँगा.

एक समय था जब मीडिया ने कांची के शंकराचार्य के विरुद्ध हर प्रकार का घृणात्मक  प्रचार किया था, उनको चरित्रहीन सिद्ध करने कि कोशिश की गयी थी, जेल भिजवाया गया था. सारा मामला झूठा था और सत्ता के दुरूपयोग का घोर उदाहरण था. लेकिन मामला दर्ज होने को ही मीडिया ने उसे सिद्ध मान लिया और अपने आप सजा भी सुना दी. लेकिन कई महीने जेल में रहने के बाद जब वे बेदाग़ छूटे, तो किसी भी चैनल ने उनसे माफ़ी नहीं मांगी और न खेद व्यक्त किया. मीडिया ने इस समाचार को बड़ी सफाई से दबा दिया. 

इसी प्रकार मीडिया ने स्वामी राम देव और आचार्य बालकृष्ण के खिलाफ बेहूदा प्रचार अभियान चलाया था, जो आगे चलकर टांय-टांय फिस्स हो गया. इस मामले पर सीबीआई ने बार-बार झूठ बोला था, लेकिन मीडिया ने इस झूठ पर सवाल उठाने के बजाय उस पर लीपा-पोती कर दी. इनसे मीडिया की चिढ़ का कारण यह है कि इन्होने बहुराष्ट्रीय ठंडा पेय कंपनियों का धंधा आधा कर दिया था, जिनसे मीडिया को करोड़ों-अरबों के विज्ञापन मिलते हैं.

लेकिन हिन्दू संतों-महात्माओं के पीछे हाथ धोकर पड़ जाने यही मीडिया मुस्लिम कठमुल्लों के बारे में एक शब्द भी नहीं बोलता. उदाहरण के लिए, दिल्ली कि जामा मस्जिद के इमाम बुखारी के खिलाफ देश भर की अदालतों से न जाने कितने जमानती और गैर-जमानती वारंट निकल चुके हैं, परन्तु यह तथाकथित सेकुलर मीडिया उसको गिरफ्तार करने की बात कभी नहीं करता. 

हिन्दुओं के प्रति चिढ़ और मुसलामानों के प्रति पक्षपात का यह अकेला उदाहरण नहीं है. अभी कुछ दिन पहले दिल्ली के सामूहिक बलात्कार कांड में पकड़े गए अपराधियों में से एक राम सिंह का नाम मीडिया बार-बार ले रहा था. वे जिस प्रकार 'राम' शब्द पर जोर देते थे, उससे उनका काइयांपन उजागत हो जाता है. यही मीडिया उसी काण्ड में पकडे गए अपराधी मुहम्मद अफरोज, जो खुद को नाबालिग बताता है, का नाम एक बार भी नहीं ले रहा था, क्योंकि उसके नाम में 'मुहम्मद' शब्द जुड़ा हुआ है, जो बहुत पवित्र है. मीडिया के लिए यह बात कोई मायने नहीं रखती कि इस पवित्र नाम वाले अपराधी ने ही सबसे अधिक क्रूरता की थी.

इसी प्रकार पिछले आठ साल से आतंकवाद के आरोप में जेल में यातनाएं झेल रहे कर्नल पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा सिंह के बारे में बोलने के लिए मीडिया की जबान को लकवा मार जाता है. मीडिया एक बार भी यह मांग नहीं करता कि या तो उनका दोष सिद्ध किया जाए या उनको रिहा कर दिया जाए. यह कार्य उसने सोशल नेटवर्किंग साइटों के ऊपर छोड़ दिया है.

इस तरह के अनगिनत उदाहरण हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि हमारे देश का मीडिया निर्लज्जता की हद तक हिन्दू-विरोधी और मुस्लिम-परस्त है. इसलिए मैं इसको शर्म-निरपेक्ष कहता हूँ, जिसका वास्तविक अर्थ है महा-बेशर्म. यदि कभी जनता का आक्रोश ऐसे मीडिया पर निकलता है तो उसे क्षम्य माना जा सकता है.