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Tuesday 29 January 2013

शर्म-निरपेक्षता क्या है?



मेरे एक फेसबुक मित्र ने जिज्ञासा प्रकट की है कि मैं जिस ‘शर्म-निरपेक्ष’ शब्द का प्रयोग करता हूँ उसका क्या अर्थ है? लीजिए, यहाँ मैं इस शब्द के अर्थ को स्पष्ट कर रहा हूँ।

यूरोप में ‘सेकूलर’ शब्द का प्रयोग किया जाता है, जिसका अर्थ है सर्व-पंथ समभाव अथवा पंथ-निरपेक्षता। भारत में भी सभी दल स्वयं को सेकूलर कहते हैं, लेकिन इसके लिए हिन्दी में धर्म-निरपेक्षता शब्द का प्रयोग किया जाता है। अगर इसका अर्थ सभी धर्मों के मानने वालों के प्रति समान व्यवहार हो, तो इस शब्द को भी स्वीकार करने में कोई हानि नहीं है। लेकिन वास्तविकता में धर्म-निरपेक्षता का अर्थ केवल मुस्लिम-परस्ती और हिन्दू-विरोध बन गया है। वे कहते हैं कि मुस्लिम भारत में अल्पसंख्यक हैं, इसलिए उनको कुछ विशेष अधिकार देने चाहिए।

अव्वल तो यह बात ही गलत है कि मुसलमान अल्पसंख्यक हैं। भारत में कुल मिलाकर उनकी संख्या 18 प्रतिशत है, इसलिए प्रचलित मानक 10 प्रतिशत के अनुसार वे अल्पसंख्यक नहीं हो सकते। भारत के संविधान में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की कोई परिभाषा नहीं दी गयी है। इसी का लाभ उठाकर सेकूलर लोग मुसलमानों को अल्पसंख्यक बताते हैं और उनको तमाम ऐसी सुविधायें देने की वकालत करते हैं, जो बहुसंख्यकों अर्थात् हिन्दुओं को भी प्राप्त नहीं है।

उदाहरण के लिए, हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं कि देश के संसाधनों पर सबसे पहला अधिकार अल्पसंख्यकों (अर्थात् मुसलमानों) का है। ऐसे लोग खुलकर मुसलमानों के प्रति पक्षपात करते हैं और हिन्दुओं के प्रति विरोध रखते हैं। इसलिए वे वास्तव में मुस्लिम-साम्प्रदायिक और हिन्दू-विरोधी हैं। उस पर तुर्रा यह कि वे स्वयं को सेकूलर अर्थात् धर्म-निरपेक्ष कहते हैं। मेरी दृष्टि में यह निर्लज्ज-साम्प्रदायिकता है, क्योंकि उनको मुस्लिम साम्प्रदायिकता करते हुए कोई शर्म-लिहाज महसूस नहीं होती। इसलिए मैं संक्षेप में उनको ‘शर्म-निरपेक्ष’ कहता हूँ।

शर्म-निरपेक्षता के कई उदाहरण दिये जा सकते हैं, जैसे-
1. बाबरी ढाँचे के गिरने पर छातियाँ पीटना और मन्दिरों को गिराने पर मुँह सिले रहना।
2. हज पर सब्सिडी देने की वकालत करना और हिन्दू तीर्थयात्रियों को सब्सिडी देना तो दूर रहा, उन पर नये-नये कर लगाना।
3. केवल मुस्लिम लड़कियों को 30 हजार नकद देना और हिन्दू लड़कियों को कुछ न देना। ऐसी ही अन्य योजनायें चलाना।
4. किसी इस्लामी आतंकवादी के मारे जाने पर विलाप करना और हिन्दुओं को सबूत के बिना ही जेल में डाले रखना व अदालत में पेश न करना।
5. फाँसी पाये हुए इस्लामी आतंकवादी को दामाद बनाकर जेल में आराम से रखे रहना और उसको इसलिए फाँसी न देना कि देश के मुसलमान नाराज हो जायेंगे।
6. समानता की बात करना, लेकिन समान नागरिक संहिता के नाम पर बिदकना।
7. यदि कोई मुस्लिम नेता हिन्दुओं के प्रति विष वमन करता है, तो उसे नजरअंदाज करना, लेकिन हिन्दू नेताओं को प्रताडि़त करना।

आशा है अब आप समझ गये होंगे कि शर्म-निरपेक्षता का क्या तात्पर्य है।

Wednesday 23 January 2013

हिन्दू आतंकवादी नहीं हो सकते!

विगत दिनों कांग्रेस के कुछ नेताओं और उनकी चापलूसी करने वाले ‘सेकूलर’ मीडिया ने बड़ी कोशिश की कि लोग जिहादी आतंकवाद को भूल जायें और हिन्दू आतंकवाद का अस्तित्व स्वीकार कर लें। उन्होंने इसको ‘भगवा आतंकवाद’ और ‘संघ का आतंकवाद’ जैसे नाम दिये, परन्तु अब लगभग सब जानते हैं कि ‘हिन्दू आतंकवाद’ नाम की कोई चीज दुनिया में नहीं है और जिसको ये भगवा या हिन्दू आतंकवाद के नाम पर प्रचारित कर रहे हैं, वह कुछ जोशीले हिन्दुओं की तात्कालिक और स्वाभाविक प्रतिक्रिया मात्र थी। हिन्दू धर्म की मान्यताएँ, दर्शन और उपदेश किसी भी व्यक्ति को आतंकवादी बनने के लिए नहीं उकसाते और न इतिहास ही इसका समर्थन करता है। इसलिए हिन्दू या भगवा आतंकवाद नाम की कोई चीज न तो कभी थी और न हो सकती है।

वैसे यदि अन्य समुदायों की तरह प्रतिक्रिया में हिन्दुओं में भी आतंकवादी संगठन बन जाते और हिन्दू आतंकवाद जैसी घटनाओं की बाढ़ आ जाती, तो शायद कोई आश्चर्य नहीं होता, क्योंकि वर्तमान में हिन्दुओं में ऐसी उग्र प्रतिक्रिया व्यक्त करने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। उदाहरण के लिए, कश्मीर को लीजिए। कश्मीर में स्वतंत्रता के समय से ही हिन्दू अल्पसंख्यक रहे हैं। हालांकि यह स्थिति हमेशा नहीं थी, कभी पूरा कश्मीर और अफगानिस्तान तक हिन्दू-ही-हिन्दू थे। परन्तु वहाँ किसी समय कुछ पोंगा-पंडितों की हठधर्मी और मूर्खता के कारण गाँव-के-गाँव मुसलमान बन गये और हिन्दू अल्पसंख्यक हो गये। अल्पसंख्यक होने के कारण ही वे मुस्लिम नबाबों और बादशाहों की जी हुजूरी करने लगे और इसी में मस्त रहने लगे।

जब कश्मीर में इस्लामी आतंकवाद ने सिर उठाया, तो उनका पहला प्रहार अपने साथ शताब्दियों से रहते आये हिन्दुओं पर ही हुआ। हिन्दू महिलाओं का अपहरण, शीलभंग करना, हिन्दू पुरुषों की हत्या और लूटपाट आदि आये दिन की घटनाएँ हो गयीं और उन्हें कश्मीर घाटी से भाग जाने की घुड़कियाँ दी जाने लगीं। ऐसी स्थिति में यदि कश्मीरी हिन्दू युवकों में इसकी प्रतिक्रिया होती और वे हथियार और आतंकवाद का सहारा लेकर इस्लामी आतंकवादियों का मुकाबला करते, तो वह एकदम स्वाभाविक होता। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। लाखों कश्मीरी हिन्दुओं में से सौ-दो सौ नौजवान भी ऐसे नहीं निकले, जो अपनी जान हथेली पर रखकर हथियार उठा लेते और इस्लामी आतंकवादियों से अपनी माँ-बहनों के अपमान का बदला लेते। इसके बजाय उन्होंने दुम दबाकर वहाँ से पलायन करना और शेष भारत में शरणार्थी शिविरों में रहना ही उचित समझा।

इसके दो प्रमुख कारण हैं। एक तो यह कि हिन्दू धर्म और दर्शन किसी निर्दोष को मारने या उत्पीडि़त करने का समर्थन नहीं करता, चाहे वे भिन्न मतों को मानने वाले हों। ‘अहिंसा परमो धर्मः’ के अनुसार हिन्दू अहिंसा को सबसे बड़ा धर्म मानते हैं। इसलिए हिंसक बनना उनके स्वभाव में नहीं है। कश्मीर में हिन्दू आतंकवाद न पनपने का दूसरा कारण यह है कि कश्मीरी हिन्दू सैकड़ों वर्षों से मुसलमान बादशाहों के आश्रय में रहकर इतने सुविधाभोगी हो गये हैं कि किसी भी तरह का संघर्ष करने का साहस उनमें नहीं रह गया है और वे निम्नतम सीमा तक कायर हो गये हैं। दूसरे शब्दों में, उनके खून का रंग लाल के बजाय पीला हो गया है।

लेकिन यह सब लिखने का उद्देश्य यह कहना नहीं है कि कश्मीर में हिन्दू आतंकवाद होना चाहिए था। मेरे कहने का तात्पर्य सिर्फ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने ऊपर अत्याचार होने पर कुछ न कुछ प्रतिरोध अवश्य करता है, परन्तु कश्मीरी युवकों में इतना साहस भी नहीं बचा है कि वे वहाँ से भागने से पहले अन्याय का कुछ मुकाबला और प्रतिरोध कर सकते।

पहले जो स्थिति कश्मीर में थी, लगभग वैसी ही स्थिति पूरे भारत में  बनने लगी थी। परन्तु यहाँ हिन्दू युवकों में अत्याचार और आतंकवादी हिंसा को सहन करने के बजाय उसका मुकाबला करने का साहस बचा था, भले ही कम मात्रा में ही। इसी कारण वे छुटपुट घटनायें हुईं, जिनको ‘शर्म-निरपेक्ष’ मीडिया और कांग्रेस के चापलूस नेताओं ने ‘हिन्दू आतंकवाद’ अथवा ‘भगवा आतंकवाद’ के रूप में प्रचारित करने की कोशिश की। लेकिन अब यह स्पष्ट हो गया है कि हिन्दू भले ही कितनी भी उग्र प्रतिक्रिया व्यक्त क्यों न कर लें, परन्तु वह क्षणिक ही होती है और हिन्दू कभी आतंकवादी नहीं हो सकते।

इसका पहला और एकमात्र कारण यही है कि हिन्दू धर्म अनावश्यक हिंसा को प्रोत्साहित नहीं करता। उदाहरण के लिए, हिन्दुओं में किसी परम्परा के नाम पर घर-घर में पशुओं की बलि चढ़ाकर बच्चों को क्रूरता का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता। हिन्दू तो चींटी से लेकर हाथी तक प्रत्येक प्राणी में ईश्वर का रूप देखते हैं। यह कोई साधारण बात नहीं है कि प्रत्येक हिन्दू घर में पहली रोटी गाय के लिए और अन्तिम रोटी कुत्ते के लिए निकाली जाती है।

एक समुदाय के रूप में हिन्दुओं ने अब तक की सबसे बड़ी प्रतिक्रिया अयोध्या में बाबरी ढाँचे को गिराये जाने के रूप में व्यक्त की थी। अगर हिन्दू आतंकवादी होते, तो वैसा ही व्यवहार काशी और मथुरा के औरंगजेबी ढाँचों के साथ भी किया जाता, परन्तु ऐसा नहीं हुआ। गोधरा के नृशंस हत्याकांड के बाद गुजरात में मुसलमानों के विरुद्ध हिन्दुओं में जो प्रतिक्रिया हुई वह भी क्षणिक ही थी और केवल गुजरात तक सीमित रही। उसी गुजरात में आज भी लाखों मुसलमान पूरे सम्मान से रह रहे हैं और सबके साथ प्रगति कर रहे हैं।

कहने का तात्पर्य है कि हिन्दुओं में आतंकवाद नाम की कोई चीज नहीं है और न हो सकती है। यही कारण है कि आज विश्वभर में हिन्दुओं को जैसी प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता प्राप्त है, वैसी किसी  अन्य समुदाय को प्राप्त नहीं है। उदाहरण के लिए, कई देश मुसलमानों को वीजा देने में दस तरह की हीला-हवाली करते हैं और उनकी खास तौर पर बारीकी से तलाशी ली जाती है। इसका कारण यह है कि उनकी छवि आतंकवाद के समर्थकों की बन गई है या बना दी गई है। यह छवि सभी मुस्लिमों को कष्ट पहुँचाती है, उनको भी जिनका जेहादी आतंकवाद से कुछ लेना-देना नहीं है। यह गेहूँ के साथ घुन के पिसने का उदाहरण है। इसके विपरीत हिन्दुओं को पूरे संसार में कहीं भी ऐसे भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता, क्योंकि उनकी छवि एक शांतिप्रिय और मेहनती समुदाय के रूप में बनी हुई है।

अपनी इस प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि हिन्दू सदा आतंकवाद से दूर रहें और ऐसी किसी भी गतिविधि को प्रोत्साहित न करें, जिससे किसी भी प्रकार के आतंकवाद को बल मिलता हो। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वे आतंकवाद का विरोध न करें और कायरों की तरह दुम दबाकर घर में छिपे रहें। उनको इतनी तैयारी अवश्य रखनी चाहिए कि किसी संकट के समय आतंकवाद का मुकाबला स्वयं कर सकें।

निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि हिन्दुओं को आतंकवादी कभी नहीं बनना चाहिए, परन्तु आतंकी हिंसा से सावधान रहना चाहिए और किसी भी तरह के आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। यही सच्चा हिन्दू धर्म और दर्शन है।

Tuesday 22 January 2013

गोधरा नरसंहार-2


पिछली कड़ी में मैं लिख चुका हूँ कि सेकूलर कहलानेवाले दलों और व्यक्तियों ने न केवल गोधरा नरसंहार को मामूली बताने की चेष्टा की, बल्कि उसे बाबरी मस्जिद गिराये जाने की स्वाभाविक प्रतिक्रिया बताकर उचित ठहराने की कोशिश भी की। यह हिन्दुओं के जले पर नमक छिड़कने की तरह था। इस मूर्खता का जो परिणाम होना था, वही हुआ। पूरे गुजरात में इसकी प्रतिक्रिया बहुत उग्र रूप में सामने आयी और प्रदेश भर में हुई हिंसक घटनाओं में लगभग 2000 व्यक्ति मारे गये।

इस नरसंहार और उसके बाद हुए दंगों के समय गुजरात में नरेन्द्र मोदी की सरकार थी, जो आज भी है। मोदी जी की सरकार ने अपने स्तर पर दंगों को रोकने की पूरी कोशिश की, परन्तु जन आक्रोश के आगे सरकार की शक्ति की भी सीमायें होती हैं। इसलिए दंगे समाप्त होते-होते दो हजार से अधिक व्यक्ति मारे गये, जिनमें अधिकांश मुसलमान और बहुत से हिन्दू भी थे।

दंगे हमारे देश में पहले भी होते आये हैं और आज भी होते हैं, लेकिन हर बार यह देखा जाता है कि दंगों की शुरूआत मुसलमानों की ओर से होती है, जिनमें हिन्दुओं की बहुत जन-धन की हानि होती है। बाद में पुलिस सक्रिय होती है और दंगाई मुसलमान मारे जाते हैं। स्वतंत्रता के बाद हुए लगभग हर दंगे की यही कहानी है। लेकिन गुजरात में पहली बार ऐसा हुआ कि दंगों की शुरूआत हिन्दुओं की तरफ से हुई और मुसलमानों की अधिक जन-धन की हानि हुई। जब पुलिस सक्रिय हो गयी, तो हिन्दू भी मारे गये। इसी कारण गुजरात के दंगों को अभूतपूर्व कहा जाता है।

परन्तु जो सेकूलर दल और नेता कभी मुसलमानों द्वारा दंगे प्रारम्भ करने से और हिन्दुओं की अधिक हानि से परेशान नहीं हुए, वे इस बार उल्टा होने से बहुत विचलित हो गये। उनकी दृष्टि में हिन्दू केवल मार खाने और सब्र करने के लिए होते हैं। यह उनके लिए अकल्पनीय था कि हिन्दू भी अब इस रूप में प्रतिक्रिया करने लगे हैं। गाँधी ने कभी कहा था कि आम मुसलमान गुंडा और आम हिन्दू कायर होता है। अगर दोनों की छवि इसी रूप में बनी रहती, तो वे तथाकथित गाँधीवादी संतुष्ट बने रहते, परन्तु इस छवि के विपरीत कुछ होना उनके लिए बड़ा आघात था।

उन्होंने इन दंगों का सारा दोष मोदी जी की सरकार पर डाल दिया। उनका कहना था कि मोदी जी की सरकार ने हिन्दू दंगाइयों को नहीं रोका जिससे मुसलमान अधिक मारे गये। यही वह अवसर था जब केन्द्र सरकार में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मोदी जी को ‘राजधर्म’ निभाने की सलाह दी थी। हालांकि कभी अटल जी ने यह नहीं कहा कि मोदी जी ने अपना राजधर्म नहीं निभाया। ऐसा मानने का कोई कारण ही नहीं है। लेकिन सेकूलर सम्प्रदाय के लोग अटल जी की इस सलाह को ही पकड़कर बैठ गये और मोदी जी को बदनाम करने की भरसक कोशिश की और उसमें काफी हद तक सफल भी हुए।

वे यह भूल जाते हैं कि किसी भी सरकार के लिए दंगों को तत्काल रोकना असम्भव होता है। 1984 में सिख विरोधी दंगे हुए, जिनमें तीन दिनों में लगभग 5 हजार सिख भाई मारे गये। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने उनको यह कहकर सही ठहराने की कोशिश की कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है। मोदी जी ने तो गुजरात दंगों को कभी सही ठहराने की कोशिश नहीं की। लेकिन किसी ने भी राजीव गाँधी को इसके लिए ‘मौत का सौदागर’ नहीं कहा, जैसा कि मोदी जी को कहा गया। कहावत है कि ‘बद अच्छा बदनाम बुरा।’ इसलिए मोदी जी की छवि को जो नुकसान होना था, वह हो गया।

मोदी जी की गलत छवि का 2004 के लोकसभा चुनावों में जमकर प्रचार किया गया, जिसका नुकसान भाजपा को उठाना पड़ा। पूरे देश के मुसलमानों ने एक जुट होकर कांग्रेस को वोट दिया। उनके साथ ‘सेकूलर’ हिन्दुओं और बंगलादेशी घुसपैठियों के वोटों ने मिलकर भाजपा को सत्ता से बाहर कर दिया।

कांग्रेस की सरकार आने पर तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने एक पूर्व न्यायाधीश उमेश चन्द्र बनर्जी की अध्यक्षता में एक सदस्यीय समिति ‘गोधरा में रेल डिब्बे में आग लगने’ की जाँच के लिए बैठायी और उस समिति ने बड़ी तेजी से ‘जाँच’ करके अपनी रिपोर्ट दी, जिसमें कहा गया था कि आग दुर्घटनावश लगी थी यानी मुसलमानों की भीड़ ने नहीं लगायी थी। इस हास्यास्पद रिपोर्ट को बाद में गुजरात हाईकोर्ट ने पूरी तरह अस्वीकार्य बताया और उस समिति को भी असंवैधानिक ठहराया जिसने यह रिपोर्ट दी थी। इतना ही नहीं हाई कोर्ट ने इस समिति के गठन को भी गलत उद्देश्यों के लिए सत्ता का दुरुपयोग बताया। लेकिन सेकूलर सम्प्रदाय वाले इस बात की चर्चा भी नहीं करते।

गुजरात के दंगों की जाँच भी हुई है और कई लोगों को उन दंगों के लिए दंड भी दिया गया है। लेकिन हमारे देश के सेकूलर आज भी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि ये दंगे गोधरा के नरसंहार की प्रतिक्रिया में स्वतःस्फूर्त थे। वे आज भी मोदी जी को इन दंगों का योजनाकार बताते हैं, हालांकि यही पैमाना वे अन्य राज्यों के उन मुख्यमंत्रियों पर लागू नहीं करते, जिनके राज्य में साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं।

गोधरा नरसंहार-1


श्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में जो बड़ी घटनायें हुईं, उनमें गोधरा नरसंहार को सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण कहा जा सकता है, जिसके कारण आगे चलकर गुजरात में अभूतपूर्व दंगे हुए। वह दुर्भाग्यपूर्ण दिन था 27 फरवरी 2002 का, जिस दिन एक रेलगाड़ी के डिब्बे में यात्रा कर रहे 59 रामभक्त कारसेवकों को गोधरा कस्बे के धर्मांध मुसलमानों की भीड़ ने जिन्दा जलाकर मार डाला था।

गोधरा का पूर्व इतिहास दंगों से भरा रहा है। विभाजन के बाद वहाँ कई बार दंगे हो चुके हैं। वहाँ मुसलमानों की बहुलता और हिन्दुओं की कम संख्या के कारण हर दंगे में हिन्दू ही सबसे अधिक हानि उठाते हैं। 1980 में 2 बच्चों सहित 5 हिन्दुओं को गोधरा रेलवे यार्ड के पास ही मार डाला गया था और नवम्बर 1990 में 2 महिलाओं सहित 4 हिन्दू अध्यापकों को एक मदरसे में ही मार दिया गया था।

27 फरवरी 2002 को लखनऊ की ओर से आ रही साबरमती एक्सप्रेस अपने नियत समय से 4 घंटे देरी से गोधरा रेलवे स्टेशन पहुँची थी। लगभग पौने आठ बजे प्रातःकाल जैसे ही वह प्लेटफार्म छोड़कर आगे बढ़ी कि ट्रेन में सवार गोधरा के कुछ लोगों ने जंजीर खींचकर गाड़ी को रोक लिया। तत्काल एस-6 और एस-7 डिब्बे के बीच का जोड़ काट दिया गया और डिब्बों को बाहर से बंद कर दिया गया, ताकि कोई बाहर न निकल सके। इन डिब्बों में ही अयोध्या से लौट रहे कुछ कारसेवक यात्रा कर रहे थे।

योजनानुसार दोनों डिब्बों पर पेट्रोल छिड़ककर आग लगा दी गयी। एस-7 के कुछ लोग किसी तरह बाहर निकलने में सफल हुए तो उन पर धर्मांध भीड़ ने हमला किया और कुछ को मार डाला। लगभग आधे घंटे तक हिंसा का नंगा नाच होता रहा। तब पुलिस सहायता पहुँची और दंगाइयों को खदेड़ा गया। लेकिन इसके तीन घंटे बार फिर दंगाइयों की भीड़ ने यात्रियों और पुलिसवालों पर हमला किया, जिससे 7 पुलिस वाले घायल हो गये। तब पुलिस को गोली चलानी पड़ी, जिससे 2 दंगाई मारे गये और शेष भाग गये।

इस दुर्भाग्यपूर्ण नरसंहार में 59 कारसेवक जलकर अथवा हमलों में मर गये, जिनमें 15 बच्चे, 25 महिलायें और शेष पुरुष थे। हालांकि घटना के लगभग आधे घंटे के अन्दर ही पुलिस सहायता पहुँच गयी थी, लेकिन इतने समय में ही आग विकराल रूप ले चुकी थी और आग बुझाने की कोशिश करने वाले लोगों और कर्मचारियों पर भीड़ द्वारा पत्थर भी फेंके गये। एक स्थानीय प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि भीड़ का नेतृत्व पालिका अध्यक्ष मोहम्मद कलोटा और पालिका पार्षद हाजी बिलाल कर रहे थे।


इस नरसंहार की नियमानुसार जाँच हुई। 94 लोगों पर मुकदमा चलाया गया, जिनमें से 31 को अदालत ने सजा दी और सबूतों के अभाव में 63 लोग छूट गये। घटनाक्रम से यह स्पष्ट है कि इस नरसंहार की योजना पहले ही बना ली गयी थी। पेट्रोल, हथियार आदि एकत्र कर लिये गये थे। योजना के अनुसार ही गाड़ी की जंजीर खींची गयी थी और सैकड़ों हजारों धर्मांध मुसलमानों की भीड़ भी एकत्र कर ली गयी थी। जो लोग भीड़ का मनोविज्ञान समझते हैं वे जानते हैं कि ऐसी भीड़ को ध्वंसात्मक कार्यों में लगा देना बहुत आसान होता है। दंगाइयों ने इसी का फायदा उठाया।

लेकिन गोधरा के बाहर पूरे देश में जो हुआ वह कहीं अधिक दुर्भाग्यपूर्ण था। पहले तो सेकूलर कहलानेवाले दलों और व्यक्तियों ने न केवल इस नरसंहार को मामूली बताने की चेष्टा की, बल्कि इसे बाबरी मस्जिद गिराये जाने की स्वाभाविक प्रतिक्रिया बताकर उचित ठहराने की कोशिश भी की। यह हिन्दुओं के जले पर नमक छिड़कने की तरह था। इस मूर्खता का जो परिणाम होना था, वही हुआ। वैसे तो पूरे देश में इस नरसंहार के 
प्रति बहुत क्रोध था, लेकिन गुजरात में इसकी प्रतिक्रिया बहुत उग्र रूप में सामने आयी और प्रदेश भर में हुई हिंसक घटनाओं में लगभग 2000 व्यक्ति मारे गये, जिनमें अधिकांश मुसलमान और कुछ हिन्दू भी थे। उसकी चर्चा अलग से की जायेगी।


गोधरा नरसंहार ने तथाकथित सेकूलर दलों और व्यक्तियों के चेहरों से नकाब उतार दिया। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों की हर हरकत का समर्थन करना और हिन्दूओं की हर बात का विरोध करना उनके स्वभाव का अंग बन गया है। यदि धर्मांध हिंसकों को पीछे से समर्थन देने वाले ऐसे दल और तत्व देश में न होते, तो क्या दंगाइयों की हिम्मत हो सकती थी कि रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे हिन्दुओं को जिन्दा जलाकर मार सकते। वास्तव में गोधरा के हत्यारे केवल वे मुसलमान दंगाई ही नहीं थे, जिन्होंने गाड़ी रोकी और डिब्बों में आग लगायी, बल्कि वे सभी दल भी थे, जिन्होंने ऐसी करतूतों को समर्थन दिया। जैसा कि मैं अपने एक लेख में पहले भी लिख चुका हूँ, ये सेकूलर सम्प्रदाय के लोग ही देश के असली दुश्मन हैं।

मिट्टी-पानी से इलाज


पुराने जमाने की बात है। एक राजा था। एक बार वह बहुत बीमार पड़ा। उसके वैद्य उसे ठीक नहीं कर पाये। उसके पड़ोसी राज्य का राजा उसका मित्र था। जब उसको इस राजा की बीमारी का पता चला, तो उसने अपने अनुभवी प्राकृतिक चिकित्सक को इलाज करने के लिए भेज दिया।

उन वैद्य ने आकर राजा की चिकित्सा की। उसने किसी दवा के बजाय मिट्टी-पानी से राजा की चिकित्सा की। राजा बहुत कमजोर था और एक प्रकार से बेहोशी की अवस्था में था। इलाज के आठवें दिन वह चिकित्सक उस राज्य के मंत्री से मिलने गया। उसने मंत्री जी से कहा - ”अब से एक घंटे बाद राजा साहब को होश आ जायेगा और वे ठीक हो जायेंगे। आप मुझे राज्य का सबसे तेज दौडने वाला घोड़ा दे दीजिए। राजा साहब के होश में आने से पहले ही मैं इस राज्य से निकल जाना चाहता हूँ।“

मंत्री को यह सुनकर आश्चर्य हुआ। उसने कहा - ”आप राज्य से क्यों निकल जाना चाहते हैं? ठीक हो जाने के बाद राजा साहब आपको पुरस्कार देकर विदा करेंगे।“

”नहीं, मंत्री जी, यह बात नहीं है। यहाँ के वैद्य मुझसे खार-खाये बैठे हैं। वे होश में आते ही राजा साहब से शिकायत करेंगे कि मैंने सोने-चाँदी-हीरे-जवाहरात के बजाय केवल मिट्टी-पानी से उनका इलाज करके उनका अपमान किया है। इस पर राजा साहब कुपित होंगे और मुझे बन्दी बना लेंगे। जब यह समाचार हमारे राजा साहब को मिलेगा, तो वे इसको अपना अपमान मानेंगे और इस राज्य पर हमला कर देंगे। युद्ध में दोनों ओर से सैकड़ों-हजारों सैनिक मारे जायेंगे। मैं नहीं चाहता कि मेरे लिए उनके प्राण जायें, इसलिए मैं राजा साहब को होश आने से पहले ही इस राज्य से निकल जाना चाहता हूँ।“

मंत्री समझदार था। उसने तत्काल उनको अपने अस्तबल का सर्वश्रेष्ठ घोड़ा दे दिया और वे चिकित्सक तुरन्त रवाना हो गये।

इधर राजा ठीक हुआ, तो वहाँ के वैद्यों ने उसके कान भर दिये। अपने ‘अपमान’ से नाराज होकर राजा ने उस चिकित्सक को तत्काल बन्दी बनाने का आदेश दिया। जब सैनिक उसके ठहरने के स्थान पर पहुँचे तो पता चला कि वे तो एक घंटे पहले ही घोड़े पर सवार होकर वहाँ से निकल गये हैं। यह सुनकर राजा ने अपने घुड़सवार दौड़ाये और किसी भी तरह उस चिकित्सक को पकड़ने का आदेश दे दिया। परन्तु चिकित्सक तो उनसे काफी आगे थे और राज्य के सबसे तेज दौड़ने वाले घोड़े पर सवार थे। इससे वे पकड़े जाने से पहले ही उस राज्य को पार कर गये और सुरक्षित अपने राज्य की सीमा में पहुँच गये।

ब्लॉग पर मेरा एक वर्ष


नभाटा में अपना ब्लॉग ‘खट्ठा-मीठा’ लिखते हुए मेरा एक वर्ष पूरा हो गया। इस ब्लॉग पर अब तक मेरे 110 लेख आ चुके हैं। इस अवसर पर मैं अपने कार्य की समीक्षा कर लेना चाहता हूँ।

मैंने अपने पहले ही लेख में यह स्पष्ट कर दिया था कि मेरे लेख लीक से हटकर होंगे और पाठक बंधु मेरे खट्ठे-मीठे विचारों को झेलने के लिए तैयार रहें। अपने लेखों की श्रृंखला का प्रारम्भ मैंने गाँधी और नेहरू की देशघातक नीतियों की समीक्षा से की। मैंने नेहरू को ‘पोंगा पंडित’ नाम दिया था, जिस पर कई कांग्रेसी मानसिकता के लोगों को आपत्ति थी, परन्तु अधिकांश पाठक इससे सहमत रहे। मैंने गाँधी को भी एक विशेषण दिया था, जिसका प्रयोग भाई रंजन माहेश्वरी जी के सुझाव पर मैंने बन्द कर दिया है। प्रारम्भ में मेरे लेखों की श्रृंखला स्वतंत्रता आन्दोलन में नेहरू और गाँधी की देशविरोधी नीतियों पर केन्द्रित रही, जिसे बहुत से पाठकों की सराहना मिली। नाथूराम गोडसे के कार्य पर भी मैंने लेख लिखे, जिनको सराहना और आलोचना दोनों मिलीं। बाद में स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस की देशघातक नीतियों और गलतियों पर भी मैंने अनेक लेख लिखे, जिनसे अधिकांश लोग सहमत लगे।

एक बार नेहरु को चरित्रहीन कहने पर नागर साहब ने नाराज होकर मेरे लेख रोक लिये और मुझसे सफाई मांगी। तब मैंने एक पूरा लेख लिखकर बताया कि मैं क्यों नेहरु को चरित्रहीन मानता हूँ। नागर जी को समाधान हुआ या नहीं, यह तो पता नहीं, लेकिन उसके बाद फिर कभी मेरा कोई लेख नहीं रोका गया। आगे चलकर मुझे अपने लेख स्वयं लाइव करने का अधिकार भी मिल गया, जिसका मैं अभी तक उपयोग कर रहा हूँ। आप सभी साक्षी हैं कि मैंने कभी इस अधिकार का दुरूपयोग नहीं किया।

अपने लेखों में मुझे गाँधी, नेहरू और कांग्रेस की मुस्लिम समर्थक नीतियों और तुष्टीकरण की आलोचना करनी पड़ी, जिन पर (जैसा कि स्वाभाविक है) अनेक मुस्लिम बंधुओं ने घोर आपत्तियाँ कीं। मुझे कई अशोभनीय भाषा से भरे कमेंट भी प्राप्त हुए, जिनको मैंने ब्लॉग पर नहीं जाने दिया। कई मुस्लिम बंधुओं ने अपनी संतुलित प्रतिक्रियाएं भी दीं। मुझे इस बात का सन्तोष है कि मैंने अपने ब्लॉग को घटिया गाली-गलौच और व्यक्तिगत टिप्पणियों का केन्द्र नहीं बनने दिया। इसके लिए मुझे न केवल विरोधियों बल्कि समर्थकों के कमेंट भी हटाने पड़े।

मेरे कई लेखों की भाषा बहुत कठोर हो गयी थी। इस कारण विरोधियों ने ही नहीं बल्कि मेरे कई परिवारियों और घनिष्ठ मित्रों ने भी भाषा संयत रखने की सलाह दी। एक आलोचक ने तो यहाँ तक कह दिया कि मुझे अपने ब्लॉग का नाम ‘खट्ठा-मीठा’ नहीं वरन् ‘तीखा-कड़वा’ रखना चाहिए था। समय के साथ मैंने अपनी शैली में सुधार भी किया, परन्तु कई बार कठोर सत्य लिखने को बाध्य होना पड़ता है। मैं उन सब पाठकों को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ, जिन्होंने मेरे लेखों पर अपने विचार व्यक्त किये। कई बार मुझे अपने तथ्यों को सुधारना पड़ा, जिनके लिए मैं सम्बंधित बंधुओं का आभारी हूँ।

यह ब्लॉग लिखते हुए मुझे ऐसे कई नये मित्र प्राप्त हुए, जो स्वयं भी ब्लॉग लिखते हैं। उनके नामों का उल्लेख करके मैं उनके प्रति आभार प्रकट करना अपना कर्तव्य समझता हूँ- सर्वश्री विजय बाल्याण, केशव जी, कमल कुमार सिंह, काजल कुमार, रंजन माहेश्वरी, श्रीमती लीला तिवानी, विजय कुमार शुक्ल, मदनलाल जी फरीदाबाद वाले, रमेश कुमार मीणा, आचार्य विजेन्दर जी, जय कुमार राणा, चुन्नू दी ग्रेट आदि। यदि किसी बंधु का नाम छूट गया हो, तो मैं उनसे क्षमा चाहता हूँ।

इनके अतिरिक्त कुछ ब्लॉगर बंधु ऐसे भी हैं, जो प्रारम्भ में मेरे विरोधी थे, लेकिन आगे चलकर मेरे मित्र बन गये। उनमें सबसे पहला और सबसे ऊपर नाम है श्री बनवारी जी का, जो ‘बिरजू अकेला’ के नाम से ब्लॉग लिखते थे। वे मेरे लेखों के जबाब में पूरे-पूरे लेख ही लिख डालते थे। मुझे प्रसन्नता है कि अब वे मेरे घनिष्ठ मित्र बन गये हैं। इसी प्रकार आचार्य सचिन परदेसी और बंधु प्रसन्न प्रभाकर जी से भी मेरे मतभेद रहे, लेकिन अब वे भी मेरे मित्र हैं।

यदि मैं उन पाठकों को स्मरण न करूँ, तो कृतघ्नता ही कही जाएगी, जिन्होंने ब्लॉगर न होते हुए भी लगभग सभी विषयों पर मेरे विचारों से सहमति व्यक्त की। उनमें से कुछ के नाम हैं- सर्वश्री राज हैदराबादी, शरद जी नभाटा वाले, दशरथ दुबे, सौरभ श्रीवास्तव, पारस जैन, चन्द्र प्रकाश पंत, सचिन सोनी, रोमी जी, तपेश जी, हुकम शर्मा, कांता उज्जैन आदि। यदि कोई नाम छूट गया हो, तो क्षमाप्रार्थी हूँ।

अब जरा अपने विरोधियों की चर्चा भी कर ली जाये। इनमें सबसे ऊपर नाम है श्री शीराज का। रोमन लिपि में उनकी हिन्दी पढ़ना एक दुरूह कार्य होता है। इसके अलावा उनकी सभी टिप्पणियां विषय से हटकर फालतू बातें करके लेखक को भटकाने का प्रयास होती हैं। कई बार उनकी भाषा भी बहुत अशोभनीय होती है। इसलिए मैंने यह नियम बना लिया था कि उनके कमेंट पढ़ते ही हटा देता था। इनके अलावा कई मुस्लिम बंधु नकली हिन्दू नामों से इधर-उधर कमेंट मारते रहते हैं। ऐसे एक सज्जन शहबाज खाँ ‘जग्गी’ नाम से कमेंट किया करते थे। जब मैंने उनका असली नाम उजागर कर दिया, तो भाग खड़े हुए। ऐसे कई मामले हुए हैं।

अन्त में, मैं पुनः उन सभी बंधुओं को धन्यवाद देना चाहता हूँ, जिन्होंने कई प्रकार से मुझे प्रोत्साहित किया। आगे भी उनके समर्थन की मैं आशा करता हूँ। मैं उन्हें विश्वास दिलाता हूँ कि जब तक सम्भव होगा मैं ब्लॉग लिखता रहूँगा और मेरी लेखनी से उन्हें कभी निराशा नहीं होगी।

कारगिल के हत्यारे को आमंत्रण


कहावत है कि अधिक अच्छा होना ही सबसे बुरा होता है। अटल जी के बारे में यह बात कहीं अधिक सत्य है। उनकी भलमनसाहत का फायदा अनेक लोगों ने अनेक रूपों में उठाया। पाकिस्तान भी इसका अपवाद नहीं था। कारगिल में जैसी करतूत पाकिस्तान ने की और उससे पहले भी जैसी करतूतें पाकिस्तान भारत के साथ करता रहा है, उससे यह सत्य सबकी समझ में आ जाना चाहिए कि पाकिस्तान चाहे कुछ भी हो, पर भारत का मित्र तो कभी भी नहीं हो सकता।

दुर्भाग्य से अधिकांश भारतीय प्रधानमंत्रियों ने यह समझकर भी नहीं समझा और उसे बदलने की कोशिश करने की गलती की और बार-बार की। इसकी शुरूआत पोंगा पंडित नेहरू से हुई और उनकी कु-नीति को लाल बहादुर शास्त्री, इन्दिरा गाँधी, मोरारजी देसाई, इन्द्र कुमार गुजराल और फिर अटल बिहारी वाजपेयी ने भी आगे बढ़ाया। ये सभी पाकिस्तान के ‘दोस्ती’ करने की कोशिशें करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय दबाबों के कारण बाध्य हुए, जबकि वे अच्छी तरह जानते थे कि कुत्ते की पूँछ वर्षों तक नली में दबाये रखने के बाद भी कभी सीधी नहीं हो सकती।

अमेरिकी दबाब और पाकिस्तान के तत्कालीन तानाशाह परवेज मुशर्रफ की भावुक बयानबाजी के प्रभावित होकर अटल जी ने 2001 में अर्थात् कारगिल युद्ध के मात्र 2 साल बाद मुशर्रफ को वार्ता के लिए भारत में आमंत्रित किया और उन्हें दिल्ली तथा आगरा में घुमाया। ये वही मुशर्रफ थे, जिन्होंने अपने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को धोखे में रखकर कारगिल में चोरी-छिपे अपने सैनिकों को भेजा था और फिर भारी मात खाने के बाद वापस बुलाने को बाध्य हुए थे, हालांकि इसमें उन्होंने सैकड़ों भारतीय सैनिकों के प्राण ले लिये थे। इन महाशय ने कुछ समय बाद ही अपने प्रधानमंत्री को कैद करके सत्ता पर कब्जा कर लिया और स्वयं को पाकिस्तान का राष्ट्रपति घोषित कर दिया। बाद में उन्होंने नवाज शरीफ को पाकिस्तान छोड़कर बाहर रहने को बाध्य किया और जब तक मुशर्रफ रहे, तब तक उन्हें अपने वतन से बाहर ही रहना पड़ा।

कारगिल के इस हत्यारे को भारत में आमंत्रित करना अटल जी की कूटनीतिक भूल थी। इस आदमी की ढीठता तो देखिये कि वे यह सोचकर भारत आये थे और अपने देशवासियों को लगभग यह आश्वासन देकर आये थे कि कश्मीर को भेंट में लेकर आऊँगा। मुशर्रफ ने अपनी बातों के जाल में अटल जी को फँसाने की पूरी कोशिश की, लेकिन अन्ततः वे इस जाल में नहीं फँसे। अगर अकेले अटल जी की चलती तो शायद ऐसा सम्भव भी हो जाता, लेकिन सौभाग्य से देश के गृह मंत्री और रक्षा मंत्री के रूप में क्रमशः लाल कृष्ण अडवाणी और जार्ज फर्नांडीज जैसे प्रखर देशभक्त मौजूद थे, इसलिए उन्होंने ऐसे किसी भी समझौते को मूर्त रूप नहीं लेने दिया, जिसमें पाकिस्तान से उसकी करतूतों का जबाब लिये बिना किसी भी तरह की रियायत दी जा रही हो।

इस प्रकार कुल मिलाकर मुशर्रफ का भारतीय दौरा बुरी तरह असफल रहा। इस दौरे में कोई समझौता होना तो दूर रहा, बल्कि एक संयुक्त विज्ञप्ति तक जारी नहीं की जा सकी। इससे यह बात एक बार फिर सिद्ध हो गयी कि पाकिस्तान के किसी भी नेता का रत्ती भर भी विश्वास नहीं किया जा सकता, कम से कम सैनिक तानाशाह का तो कदापि नहीं।

प्रश्न उठता है कि यह सच्चाई जानते हुए भी अटल जी ने भारत-पाकिस्तान के सम्बंधों की वर्षों से जमी हुई कठोर बर्फ को तोड़ने की कोशिश क्यों की? संसद में इसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था- ‘हमने सोचा था कि मिल तो लें।’ रेल पटरियों के किनारे दीवालों पर लिखे जाने वाले ‘रिश्ते ही रिश्ते’ विज्ञापन की इस मशहूर पंक्ति का उपयोग अटल जी ने कूटनीतिक सम्बंधों में करने की कोशिश की, यह अपने आप में एक बड़ा मजाक ही कहा जाएगा। ईश्वर का लाख-लाख धन्यवाद कि यह कोशिश मजाक तक ही सीमित रही और देश वह कूटनीतिक भूल करने से बाल-बाल बच गया, जिसकी कीमत शायद उसे हजारों वर्षों तक चुकानी पड़ती, जैसे कि नेहरू की एक भूल की कीमत हम आज तक चुका रहे हैं।

बिना दवा के इलाज


अलाउद्दीन खिलजी अपने सगे चाचा जलालुद्दीन खिलजी को धोखे से मारकर दिल्ली का बादशाह बना था। वह कट्टर जेहादी था। उसने हिन्दू धर्म को नष्ट करने के लिए उसके प्रमुख मानबिन्दुओं और मन्दिरों को धूल-धूसरित करना शुरू किया। इसी क्रम में वह बनारस आया और यहाँ के काशी विश्वनाथ के मन्दिर को तोड़ दिया। वहाँ के पुस्तकालय को भी उसने जला दिया।

वहीं किसी कारण से वह बीमार हो गया। उसके साथ आये हकीम उसको ठीक नहीं कर पाये। तब किसी ने राय दी कि यहाँ के हिन्दू वैद्य बहुत योग्य हैं, उनकी दवा से आप जरूर ठीक हो जायेंगे। वह 'हिन्दू' शब्द से ही चिढ़ता था, इसलिए उनसे इलाज कराने को पहले राजी नहीं हुआ। लेकिन जब उसकी जान पर ही बन आयी, तो उसने एक वैद्य को बुला लिया। परन्तु वह किसी ‘काफि़र’ का अहसान लेना नहीं चाहता था, इसलिए वैद्य से बोला- ‘मैं तुम्हारी दी हुई कोई दवा नहीं खाऊँगा। और किसी भी तरीके से मुझे ठीक करो, नहीं तो मरने के लिए तैयार हो जाओ।’ यह सुनकर वैद्य चला गया।

अगले दिन वैद्य आया और उसको कुरान की एक प्रति देकर कहा- ‘आप इस कुरान के पृष्ठ संख्या इतने से इतने तक पूरा पढ़ डालिये। ठीक हो जाओगे।’ अलाउद्दीन यह करने को खुशी से तैयार हो गया। उसने उस कुरान के बताये गये सारे पृष्ठ पढ़ डाले और आश्चर्य कि पन्ने पूरे होते-न-होते वह ठीक हो गया। उसने इसके लिए कुरान का अहसान माना और खुदा को शुक्रिया कहा।

वह कुरान के वे पन्ने पढ़ने से कैसे ठीक हुआ, इसका रहस्य यह है कि जब मुसलमान कुरान पढ़ते हैं तो अपने अँगूठे पर थूक लगाकर पन्ने पलटते हैं। यह बात वैद्य जानता था। इसलिए उसने उन पन्नों के कोनों पर जहाँ से उनको पलटा जाता है वहाँ किसी अदृश्य दवा का लेप कर दिया था। पढ़ते-पढ़ते अलाउद्दीन थूक के साथ ही उस दवा को चाट गया और उसके प्रभाव से ठीक हो गया। वह यह नहीं समझ पाया कि थूक के साथ दवा उसके शरीर में जा रही है। उसने तो अपने ठीक होने को कुरान की करामात समझा था।

सभी ब्लॉगर और पाठक बंधुओं को अंग्रेजी नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।

“तहलका” का तहलका


मार्च 2001 में जब अटल बिहारी वाजपेयी के शासन में देश प्रगति की सीढि़यां चढ़ रहा था और कहीं भी भ्रष्टाचार का कोई संकेत तक नहीं था, तब एक ‘तहलका’ नाम के गुमनाम से समाचार पत्र ने एक सीडी जारी की, जिसमें भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण को एक लाख रुपये की राशि स्वीकार करते हुए दिखाया गया था। ‘तहलका’ ने इस सीडी का बहुत प्रचार किया और यह सिद्ध करने की कोशिश की कि अटल जी की पार्टी और सरकार भ्रष्टाचार में डूबी हुई थी। स्पष्ट रूप से यह प्रयास बुरी तरह असफल रहा।

वास्तव में ‘तहलका’ समाचार पत्र के सम्पादक और पत्रकार किसी विरोधी दल के इशारे पर स्टिंग आपरेशन करते घूम रहे थे कि कोई उनसे घूस लेना स्वीकार कर ले ताकि उस कार्य को वे भारी भ्रष्टाचार का नाम देकर अटल सरकार को बदनाम कर सकें। कुछ सैनिक अधिकारी और छुटभैये नेता उनके जाल में फँस भी गये, लेकिन शासक दल के अध्यक्ष को फँसाना उनकी एक बड़ी सफलता थी। विचार कीजिए कि हाल के अरबों-खरबों के घोटालों के सामने एक लाख जैसी राशि का क्या महत्व है?

वैसे भी बंगारू जी ने यह तुच्छ राशि केवल पार्टी के काम के लिए स्वीकार की थी और वह राशि पूरी की पूरी पार्टी फंड में जमा भी कर दी थी। लेकिन छिपे हुए कैमरे ने उनको यह करते हुए पकड़ लिया और उस वीडियो के टुकड़े ने बंगारू जी को बदनाम कर दिया। हालांकि पार्टी ने तत्काल उनको उनके पद से मुक्त कर दिया था, लेकिन जो बदनामी होनी थी वह हो गयी। बाद में बंगारू जी पर बाकायदा केस भी चला, जिसको प्रभावित करने की कोई कोशिश भी अटल जी की सरकार ने नहीं की। इसका परिणाम यह हुआ कि उनको तीन साल की सजा हो गयी और वे उस सजा को भुगत भी आये।

भ्रष्टाचार के प्राति अटल जी की सरकार के कठोर रवैये की तुलना जब हम आज की सरकार के रवैये से करते हैं तो पाते हैं कि अटल जी कितने महान् हैं। आज हम देखते हैं कि लाखों करोड़ रुपयों के घोटाले साबित हो जाने के बाद भी हमारे प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी की अध्यक्षा अन्तिम क्षण तक यही कहते रहते हैं कि वे पूरी तरह निर्दोष हैं, भले ही सारे सबूत उनके खिलाफ हों। वे भी पूरी निर्लज्जता से अपनी कुर्सी से तब तक चिपके रहते हैं जब तक सर्वोच्च न्यायालय ही उनको लात मारकर उतार नहीं देता और जेल नहीं पहुँचा देता।

अब जरा यह देख लिया जाये कि यह ‘तहलका’ आजकल कहाँ है। कहने को तो यह समाचारपत्र आज भी छप रहा है और उसकी वेबसाइट भी है, परन्तु लाखों करोड़ रुपयों के इतने घोटाले हो गये, क्या कभी किसी ने सुना है कि इस तहलका मचाने वाली टीम ने कभी एक भी नया रहस्योद्घाटन किया हो? वास्तव में यह समाचारपत्र बाकी सेकूलर मीडिया की तरह पूरी तरह बिका हुआ और चाटुकार बनकर रह गया है। यही कारण है कि अटल जी की सरकार जाने और मनमोहन सिंह-सोनिया की सरकार आने के बाद वह अपने हाथ-पैर बाँधकर और मुँह सिलकर बैठ गया है। कभी वह मुँह खोलता भी है तो येदीयुरप्पा के काल्पनिक भ्रष्टाचार की कहानियों को सत्य साबित करने के लिए या फिर बार-बार जीतने पर मोदी जी को कोसने के लिए। 

अटल सरकार का सुशासन


कंधार कांड से निपटने के बाद अटल जी की सरकार का पूरा ध्यान देश की अर्थव्यवस्था और जनसुविधाओं को सुधारने पर लग रहा था। उन्होंने अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए नरसिंह राव सरकार की उन उदार आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाया, जो अल्पमत और जोड़-तोड़ की सरकारों के कारण पृष्ठभूमि में चली गयी थीं। उन्होंने निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए कानूनों को सरल किया और बाधाओं को हटाया। कुछ क्षेत्रों में विदेशी निवेश को भी अनुमति दी। उन्होंने कुछ सरकारी निगमों के निजीकरण का रास्ता भी खोला, क्योंकि वे निगम अधिकारियों और कर्मचारियों की अकर्मण्यता के कारण देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ बने हुए थे।

अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए उन्होंने कालाबाजारियों पर लगाम लगायी। इसका परिणाम यह हुआ कि आवश्यकता की लगभग सभी चीजें बाजार में उचित मूल्य पर मिलने लगीं। अटल जी सरकार के समय में महँगाई की कोई समस्या नहीं थी। बाजार का विकास सामान्य गति से हो रहा था। इससे धीरे-धीरे अर्थव्यवस्था सुधरने लगी। इसका पता नित्य नई ऊंचाइयां छू रहे शेयर बाजार के सूचकांकों से मिलता था।

उन्होंने विज्ञान के क्षेत्र में शोध और विकास की गतिविधियों को बढ़ावा दिया और इन कार्यों के लिए बजट में विशेष प्रावधान किया। लाल बहादुर शास्त्री के “जय जवान, जय किसान” के नारे को विस्तार देकर उन्होंने “जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान” का नारा दिया। इससे पहले किसी भी सरकार ने विज्ञान के क्षेत्र में शोध को इतना महत्व नहीं दिया था।

इसके अलावा अटल जी की सरकार का ध्यान देश की आधारभूत संरचनाओं को सुधारने की ओर लगा था। यह एक बिडम्बना ही कही जाएगी कि स्वतंत्रता के 50 से अधिक बीतने के बाद भी देश में बिजली और सड़क जैसी बुनियादी आवश्यकताओं की हालत बहुत खराब थी। बिजली के अभाव में न तो उद्योग पनप पाते थे और न किसानों को अपने खेत के लिए पर्याप्त पानी मिल पाता था। इसलिए अटल जी की सरकार ने कई नई विद्युत् परियोजनायें प्रारम्भ कीं।

सड़कों की खराब हालत के कारण बहुत से ग्रामीण क्षेत्र अविकसित रह जाते थे। अटल जी की सरकार ने सड़कों के विकास पर अधिक जोर दिया। उन्होंने ‘स्वर्ण चतुर्भुज’ नामक राष्ट्रीय राजमार्ग विकास परियोजना प्रारम्भ की, जिसका उद्देश्य देश के चारों कोनों को एक दूसरे से 8 लेन की सड़कों द्वारा सीधे जोड़ना था। इस परियोजना की देखरेख तत्कालीन शहरी विकास मंत्री कै. भुवन चन्द्र खंडूरी स्वयं कर रहे थे। परियोजना समय पर पूरी हो जाये और कोई भ्रष्टाचार न हो, इसलिए इस परियोजना का ठेका 1-1 किमी लम्बाई के टुकड़ों में बाँटकर अलग-अलग ठेकेदारों को दिया गया।

इसी के साथ ही सभी ग्राम पंचायतों को पक्की सड़क के जोड़ने के लिए प्रधानमंत्री ग्राम सड़क परियोजना प्रारम्भ की गयी। प्राथमिकता के आधार पर सभी गाँवों तक सड़क बनायी गयी। इससे किसानों को पास के शहरों और कस्बों से खाद और बीज लाने तथा अपनी उपज मंडी तक पहुँचाने की सुविधा उपलब्ध हो गयी। इससे किसानों को बहुत लाभ हुआ। ये सड़कें भी अलग-अलग ठेकेदारों से माध्यम से बनवायी गयीं। इसका परिणाम यह हुआ कि सड़कें तेजी से बनने लगीं और भ्रष्टाचार का एक भी मामला नहीं हुआ। लेकिन खेद है कि जैसे ही अटल जी की सरकार गयी और काग-रेस की सरकार आयी, वैसे ही इस परियोजना की चाल कछुए जैसी हो गयी और भ्रष्टाचार के मामले सामने आने लगे।

अटल जी की सरकार ने अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के और भी कई उपाय किये जिनका यहाँ विस्तार से उल्लेख करना सम्भव नहीं है। ऐसे कदमों के कारण ही भारत एक आर्थिक महाशक्ति बनने की दिशा में बढ़ने लगा। प्रत्येक जागरूक भारतवासी को उनकी सरकार में अच्छा ही महसूस हो रहा था, जिसे अंग्रेजी में ‘फील गुड’ कहा जाता है। उस समय हड़तालों आदि का नामोनिशान भी नहीं था। इसी को ‘इंडिया शाइनिंग’ कहा जा रहा था।

लेकिन देश में कुछ तत्व ऐसे हैं, हमेशा रहे हैं, जिन्हें देश की प्रगति और आम जनता की खुशहाली फूटी आँखों नहीं सुहाती। ऐसे तत्व ही देश की जनता को बरगला रहे थे। खास तौर से काग-रेसी, कम्यूनिस्ट और उनके तथाकथित सेकूलर साथी। उनकी कहानी अगले लेखों में।

शराब पीना सबसे बड़ा पाप है


पुराने जमाने की बात है। एक राजा था। वह कहा करता था कि माँस खाना, व्यभिचार करना, झूठ बोलना, हिंसा करना सभी पाप हैं। लेकिन वह मद्यपान को पाप नहीं मानता था।

एक बार रात्रि के समय एक पंडित ने उसे मार्गदर्शन देने के लिए बुलाया। 

उसके सामने माँस से बने व्यंजनों की थाली रखी गयी। पंडित ने कहा- ‘इसे खाओ।’ राजा ने यह कहकर उसे खाने से इन्कार कर दिया कि यह पाप है।

फिर उसके सामने एक बूढ़ा आदमी लाया गया। पंडित ने राजा से कहा - ‘इसे मार डालो’। राजा ने मना कर दिया- ‘नहीं, हिंसा करना पाप है।’

फिर उसके सामने एक सुन्दर लड़की लायी गयी। पंडित ने राजा से कहा- ‘इसे भोगो।’ राजा ने मना कर दिया- ‘नहीं, व्यभिचार करना पाप है।’

अब राजा के सामने शराब लायी गयी। पंडित ने राजा से कहा- ‘इसे पियो।’ राजा ने कहा- ‘हाँ, इसमें कोई पाप नहीं है।’ यह कहकर वह शराब को पी गया।

थोड़ी देर में ही उसे नशा चढ़ गया। तब उसकी भूख जागृत हुई। उसकी नजर माँस के व्यंजनों से भरी थाली पर पड़ी, तो वह उसे खा गया।

जब उसका पेट भर गया, तो उसकी कामवासना जागृत हुई। उसने वासनाभरी नजरों से लड़की की ओर देखा और उस पर झपटने लगा। लड़की ने शर्माकर बूढ़े आदमी की ओर इशारा कर दिया। राजा ने तत्काल तलवार निकालकर उस बूढ़े का सिर काट दिया। फिर उसने उस लड़की के साथ संभोग किया। इसके बाद वह निढाल होकर सो गया।

सुबह जब उसका नशा उतरा, तो उसे बताया गया कि शराब के नशे में उसने रात्रि को क्या-क्या कर डाला। यह जानकर राजा को बहुत पश्चाताप हुआ। उसने कहा- ‘शराब पीना ही सबसे बड़ा पाप है, क्योंकि इसके कारण मनुष्य का विवेक नष्ट हो जाता है और वह सारे पाप कर सकता है।’

उसी दिन से उसने अपने राज्य में शराब बनाने और पीने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया और इसका उल्लंघन करने वालों के लिए कठोरतम दंड का प्रावधान किया।

कंधार विमान अपहरण काण्ड : गलती पर गलती


13 अक्टूबर 1999 को अटल बिहारी वाजपेयी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। इसके दो-ढाई महीने बाद ही उन्हें एक बड़े राष्ट्रीय संकट का सामना करना पड़ा। 24 दिसम्बर को काठमांडू से दिल्ली आ रहे इंडियन एयरलाइंस के एक जहाज को रास्ते में ही 5 पाकिस्तानी अपहरणकर्ताओं ने अपहृत कर लिया। काठमांडू में सुरक्षा व्यवस्था में हुई ढील का फायदा उठाकर वे छोटे हथियार विमान में ले जाने में सफल हो गये। जहाज में उस समय 178 यात्री और 15 कर्मचारी थे, जिनमें से अधिकांश भारतीय थे।

अपहरणकर्ताओं ने पहले जहाज को सीधे लाहौर ले जाने के लिए कहा। जब उनको बताया गया कि जहाज में ईंधन कम है, तो उन्होंने विमान को अमृतसर उतरने को बाध्य किया। वहाँ विमान में ईंधन भरवाने की कोशिश की। हालांकि पंजाब पुलिस ने विमान को चारों ओर से घेर रखा था और वे चाहते थे कि विमान को वहीं रोके रखा जाये, लेकिन अपहरणकर्ताओं केा शक हो गया और उन्होंने बिना ईंधन लिये ही जहाज को उड़ जाने के लिए बाध्य कर दिया। उस समय दिल्ली की सरकार ने बहुत बड़ी गलती की कि जहाज को उड़ जाने दिया गया। अगर उसको किसी भी तरह उड़ने से रोक दिया जाता और कमांडो कार्रवाही की जाती, तो यह निश्चित था कि भले ही कुछ लोगों की जान चली जाती, लेकिन अपहरण कांड वहीं समाप्त हो जाता। इस तरह सरकार ने एक अच्छा मौका गँवा दिया।

अमृतसर से विमान को लाहौर ले जाकर जबर्दस्ती उतारा गया और ईंधन लेकर फिर उड़ाया गया। लाहौर में पायलट चाहते थे कि कुछ महिलाओं और बच्चों को वहीं उतार दिया जाये, लेकिन पाकिस्तानी अधिकारी उस समय कारगिल पराजय के कारण भारत से खार खाये बैठे थे, इसलिए उन्होंने कोई भी सहयोग करने से इनकार कर दिया। लाहौर से जहाज दुबई गया, जहाँ 27 महिलाओं और बच्चों को रिहा किया गया और फिर जहाज को अफगानिस्तान के कंधार हवाई अड्डे पर उतार दिया गया।

उस समय अफगानिस्तान में तालिबान आतंकवादियों की सरकार थी, जिनको भारत ने मान्यता नहीं दी थी। वह सरकार पूरी तरह आतंकवादियों के साथ थी। कहा तो यह भी जाता है कि अपहरण करते समय आतंकवादियों के पास मामूली तमंचे और एक हथगोला मात्र था। कंधार में ही उनको अधिक उन्नत हथियार उपलब्ध कराये गये, ताकि यदि कोई देश कमांडो कार्यवाही करने का साहस करे, तो बहुत जनहानि हो।

कंधार में ही अपहरणकर्ताओं के माँगें सामने आयीं। वे कई इस्लामी आतंकवादियों की रिहाई चाहते थे, जो भारत की जेलों में बन्द थे। भारत के अफगानिस्तान की तालिबान सरकार के साथ दूत सम्बंध नहीं थे, इसलिए बातचीत में भी समस्या हुई। किसी तरह पाकिस्तान स्थित भारतीय हाई कमीशन को कंधार भेजा गया और अपहरणकर्ताओं से बातचीत की गयी।

यहाँ भारत की बेशर्म सेकूलर मीडिया ने अपनी नीचता और देशद्रोहिता का पूरा परिचय दिया। वे जहाज में फँसे लोगों के घरवालों को रोज ही अटलजी के निवास के सामने इकट्ठा कर लाते थे और उनका प्रदर्शन टेलीविजन पर लाइव दिखाते थे, ताकि सरकार पर आतंकवादियों की रिहाई के लिए दबाब बने। एक बार भी किसी चैनल ने यह नहीं दिखाया कि जिन आतंकवादियों की रिहाई की माँग की जा रही है, उन्होंने कितने निर्दोष लोगों की हत्यायें की थीं और उनको गिरफ्तार करने में भारतीय सुरक्षा बलों को क्या-क्या पापड़ बेलने पड़े थे। कई आतंकवादी तो अनेक सैनिकों के बलिदान के बाद ही पकड़े जा सके थे।

भारी दबाबों के कारण अन्ततः भारत सरकार तीन शीर्ष इस्लामी आतंकवादियों की रिहाई के लिए तैयार हो गयी। एक, मौलाना मसूद अजहर, जिसने रिहा होते ही जैशे-मुहम्मद नामक आतंकवादी संगठन बनाकर भारत की नाक में दम कर दिया और भारतीय संसद भवन पर हमला कराया। दो, अहमद उमर सईद शेख, जिसने पाकिस्तान में कई पत्रकारों का अपहरण और हत्यायें की तथा अन्य सैकड़ों वारदातें कीं। तीन, मुश्ताक अहमद जरगर, जिसने पाक-अधिकृत कश्मीर में अनेक प्रशिक्षण शिविर चलाकर हजारों इस्लामी आतंकवादी पैदा किये। अगर इनको रिहा न किया जाता, तो भारत को मुम्बई में नवम्बर 2008 में हुआ हमला भी न झेलना पड़ता। इन तीनों आतंकवादियों को भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह स्वयं लेकर कंधार गये और बदले में यात्रियों को रिहा कराकर लाये।

मेरे विचार से अगर अटल जी की सरकार ने अपने पूरे कार्यकाल में कोई गलत काम किया, तो वह यही था कि कुछ यात्रियों के बदले तीन खूँखार आतंकवादियों को रिहा कर दिया। उनको किसी भी कीमत पर रिहा नहीं किया जाना चाहिए था, बल्कि अपहरणकर्ताओं की माँग सामने आते ही उनको तत्काल गोली मार देनी चाहिए थी। अगर हमारे देश के 150 कायर नागरिक मर भी जाते तो कोई बड़ी हानि नहीं होती, परन्तु वे रिहा किये गये आतंकवादी आगे चलकर हजारों निर्दोष नागरिकों की मौतों का कारण बने। मैं उन यात्रियों को कायर इसलिए कह रहा हूँ कि उनमें से किसी ने भी आतंकवादियों से भिड़ने का साहस नहीं किया। प्रारम्भ में अपहरणकर्ताओं के पास मामूली हथियार थे। अगर तीन-तीन चार-चार यात्री एक साथ एक-एक अपहरणकर्ता पर टूट पड़ते, तो निश्चय ही वे काबू में आ जाते, भले ही दो-चार जानें चली जातीं। लेकिन हमेशा सुविधाओं को भोगने वाले उन कायरों में कोई साहस नहीं था।

एक वोट से गिरी सरकार


मैं लिख चुका हूँ कि 1998 के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बहुमत से थोड़ा पीछे रह गया था और कई पार्टियों के बाहरी समर्थन से सरकार बनायी थी। पूर्ण बहुमत के अभाव में अटल जी को कई दबाबों का सामना करना पड़ता था। इस गठबंधन में जयाललिता की अन्ना द्रमुक भी थी, जिसने लोकसभा चुनाव भी गठबंधन के अन्तर्गत लड़ा था और अपनी पार्टी के लिए 18 सीटें जीती थीं। इन सीटों के बल पर ही वे भाजपा को कई बार असहज स्थिति में डालती रहती थीं।

इसका कारण यह था कि वे स्वयं तीन साल पहले तमिलनाडु में सत्ता से बाहर हो गयी थीं और वहाँ करुणानिधि के नेतृत्व में द्रमुक की सरकार चल रही थी। जयाललिता चाहती थीं कि कुछ भ्रष्टाचार के आरोपों के बहाने उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया जाये और वहाँ विधानसभा के नये चुनाव कराये जायें, ताकि उनकी पार्टी अन्ना द्रमुक सत्ता में आ सके। स्पष्ट रूप से यह एक अलोकतांत्रिक कार्यवाही होती, इसलिए अटलजी की सरकार ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया। इस पर जयाललिता ने सरकार को दिया जा रहा अपना समर्थन वापस ले लिया और विश्वास प्रस्ताव पर जब लोकसभा में मतदान हुआ, तो अटल जी की सरकार मात्र 1 वोट से गिर गयी।

इस बात के लिए अटलजी का अभिनन्दन किया जाना चाहिए कि उन्होंने अपनी सरकार का गिरना सहन किया, लेकिन कोई अलोकतांत्रिक कार्यवाही नहीं की, जैसा कि तमाम कांग्रेसी सरकारें करती रही हैं। इस घटनाक्रम में मायावती का रवैया घोर क्षुद्रता से भरा हुआ रहा। वे मतदान से कुछ मिनट पहले तक भाजपा को यह आश्वासन देती रहीं कि उनकी पार्टी बसपा के सभी 5 सांसद मतदान से दूर रहेंगे। लेकिन उन्होंने सरकार के विरोध में मत डाला और सरकार गिरा दी। ऐसे धोखे वे भाजपा और अन्य पार्टियों को पहले भी देती रही हैं। इसलिए अब उनके ऊपर कोई पार्टी विश्वास नहीं करती।

विश्वास मत में अटलजी की सरकार गिर जाने के बाद सोनिया गाँधी की कांग्रेस पार्टी को सरकार बनाने का मौका मिला। सोनिया राष्ट्रपति के पास जाकर झूठा दावा कर आयीं कि उनके साथ 272 सांसदों का समर्थन है, लेकिन राष्ट्रपति ने लिखित सबूतों के बिना इस पर विश्वास करने से इनकार कर दिया। उस समय मुलायम सिंह ने साफ शब्दों में सोनिया गाँधी को सरकार बनाने के लिए समर्थन देने से मना कर दिया था। उनके पास 20 लोकसभा सदस्य थे। उनके बिना कांग्रेस का बहुमत होना सम्भव नहीं था। इसलिए सरकार बनाने की सोनिया गाँधी की मंशा पूरी नहीं हुई। जो लोग सोनिया के त्याग के गीत गाते हैं, उनको यह जानना चाहिए कि सोनिया ने किस तरह झूठ बोलकर राष्ट्रपति को गुमराह करने की कोशिश की थी, ताकि सत्ता पर उनका कब्जा हो जाये।

जब कोई भी सरकार बनने की सम्भावना समाप्त हो गयी, तो राष्ट्रपति ने लोकसभा भंग कर दी और नये चुनावों की घोषणा कर दी। ये चुनाव 5 सितम्बर से 3 अक्टूबर 1999 के बीच हुए और इनके परिणाम आये तो राजग को 270 सीटें मिलीं, यानी लगभग पूर्ण बहुमत, जो पिछली सीटों से 16 अधिक थीं। इस गठबंधन में एक-दो नहीं छोटे-बड़े पूरे 22 दल शामिल थे, जिनमें भाजपा के अलावा जनता दल, शिवसेना, द्रमुक, बीजू जनता दल, तृणमूल कांग्रेस और लोकदल प्रमुख थे। इस गठबंधन को बाहर से तेलुगु देशम पार्टी का समर्थन भी मिला हुआ था, जिसके 29 लोकसभा थे। इस दल के सांसद बालयोगी को लोकसभा का स्पीकर बनाया गया था, जिनका बाद में एक दुर्घटना में देहान्त हो गया था।

जिन जयाललिता ने अटलजी की पिछली सरकार गिरायी थी, उनकी पार्टी अन्ना द्रमुक को बहुत घाटा उठाना पड़ा और पिछली 18 सीटों के मुकाबले में केवल 10 सीटें मिलीं। इनका सीधा फायदा करुणानिधि की द्रमुक को हुआ, जिन्होंने राजग में शामिल होकर चुनाव लड़ा था। बाकी दलों की स्थिति लगभग पिछली जैसी ही रही। केवल उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा को फायदा हुआ, जो भाजपा की कीमत पर था। हालांकि अन्य राज्यों में अपनी स्थिति सुधारकर भाजपा ने अपनी पिछली 182 सीटों की संख्या बरकरार रखीं।

1999 के चुनावों में कांग्रेस की भी बहुत मिट्टी पलीद हुई। पिछली 141 सीटों के मुकाबले इस बार उसे केवल 114 सीटें मिलीं, यानी पूरी 27 सीटों का घाटा। इससे कम सीटें उसे पहले और बाद में भी कभी नहीं मिली थीं। वास्तव में उसकी सीटों का बड़ा हिस्सा शरद पवार के नेतृत्व में नवगठित राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी को मिल गया था, जिसने पहली बार चुनाव लड़ते हुए पूरी 30 सीटें जीत ली थीं।

इन चुनावों के बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में फिर तीसरी बार सरकार बनी और इस बार यह सरकार पूरे 5 साल चली। इससे पहले कोई भी गैर-कांग्रेसी सरकार 5 तो क्या 3 साल भी नहीं चल पायी थी। इस सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था को सुधारने और देश का सम्मान बढ़ाने के लिए क्या-क्या किया और उसे किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा, इसकी चर्चा अगले लेखों में की जाएगी।

सात्विक भोजन की कहानी


‘जैसा खाओगे अन्न, वैसा बनेगा मन’ और ‘जैसा पियोगे पानी, वैसी बनेगी बानी’ ये पुरानी कहावतें हैं और शत-प्रतिशत सत्य हैं। सात्विक भोजन न केवल मानसिक बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी अमृत के समान है। तामसी और राजसी भोजन से ही तमाम तरह के शारीरिक और मानसिक रोग होते हैं। इस सत्य को सिद्ध करने वाली एक कहानी प्रस्तुत है-

एक बादशाह अपने भोजन में तरह-तरह की गरिष्ठ और तामसी चीजें खाता था। इसके परिणामस्वरूप वह बीमार सा बना रहता था। वह अपने वैद्यों पर नाराज भी होता था कि उसे ठीक क्यों नहीं कर पा रहे हैं। बेचारे वैद्यों में उससे यह कहने की हिम्मत नहीं थी कि वह भोजन में तामसी और भारी चीजें लेना बन्द कर दे, तभी ठीक हो पायेगा।

एक दिन एक वैद्य ने बहुत सोचकर एक उपाय निकाला। उसने बादशाह से कहा कि मैं आपके सामने एक प्रयोग करना चाहता हूँ। जब बादशाह ने मंजूरी दे दी, तो उसने भोजन की दो थालियाँ मँगायी, जिसमें से एक थाली में वह गरिष्ठ और तामसी भोजन था, जो बादशाह रोज खाता था और दूसरी थाली में साधारण रोटी, सब्जी, दाल, चावल आदि सात्विक वस्तुएँ थीं।

वैद्य ने दो बड़े आकार के घड़े भी मँगवाये। उसने एक घड़े में एक थाली का भोजन रख दिया और दूसरे घड़े में दूसरी थाली का भोजन रखा। फिर उसने बादशाह से कहा कि इन दोनों घड़ों को आप अपने हाथ से बन्द कर दीजिये। बादशाह ने उसके कहे अनुसार दोनों घड़ों के मुँह पर कपड़ा लपेटकर बाँध दिया और अपनी मोहर भी लगा दी। तब वैद्य ने उससे कहा कि इन घड़ों को हम एक सप्ताह बाद खोलेंगे।

एक सप्ताह बाद दोनों घड़े मँगवाये गये। दोनों पर लगी हुई सील सुरक्षित थी।

पहले सात्विक भोजन वाला घड़ा खोला गया। उसमें से थोड़ी बदबू आयी।

फिर तामसी और राजसी भोजन वाला घड़ा खोला गया। उसके खुलते ही बदबू का बहुत बड़ा झोंका आया, जिससे बादशाह को अपनी नाक बन्द करके पीछे हटना पड़ा।

वैद्य ने बादशाह को समझाया कि हुजूर, इसी प्रकार यह तामसी और राजसी भोजन शरीर में जाकर सड़न पैदा करता है, जिससे बीमारियाँ होती हैं, जबकि सात्विक भोजन से ऐसा कोई खतरा नहीं है। इस तरह समझाने पर बादशाह ने मान लिया कि उसके बीमार रहने का कारण तामसी भोजन ही था और आगे से उसने सात्विक भोजन करना ही तय किया।

लाहौर से कारगिल तक


यह एक माना हुआ तथ्य है कि मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी जनता पार्टी की सरकार के समय जब अटल बिहारी वाजपेयी देश के विदेश मंत्री थे, उन दिनों भारत के सम्बंध पाकिस्तान सहित सभी पड़ोसी देशों से अभी तक के सबसे अच्छे स्तर पर थे। यह बात स्वयं पाकिस्तान के कई नेताओं ने व्यक्तिगत रूप से अटल जी से कही थी। अतः यह स्वाभाविक ही था कि जब अटल जी स्वयं प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने फिर पड़ोसी देशों विशेषकर पाकिस्तान और चीन के साथ देश के सम्बंध सुधारने की पहल की।

उस समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे नवाज शरीफ। वे व्यक्तिगत रूप से वाजपेयी जी का बहुत आदर करते थे और मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि यदि पाकिस्तान के किसी नेता पर विश्वास किया जा सकता है तो वे केवल नवाज शरीफ हैं। अटल जी ने भी उन पर विश्वास किया और दोनों देशों के बीच सम्बंध सामान्य करने की पहल की। इस पहल का नवाज शरीफ ने भी हार्दिक स्वागत किया।

इसका परिणाम यह हुआ कि 1998 के अन्तिम महीनों में चली लम्बी द्विपक्षीय वार्ता के कई सकारात्मक परिणाम निकले। इनमें दिल्ली और लाहौर के बीच सीधी बस सेवा चलाना प्रमुख था, जो फरवरी 1999 में प्रारम्भ हुई। इसके साथ निरन्तर वार्ता जारी रखने, व्यापार सम्बंध बढ़ाने और परस्पर मित्रता के आधार पर परमाणु हथियारों की होड़ कम करना बल्कि समाप्त करना तक शामिल था। इसके परिणामस्वरूप दोनों देशों के मध्य वह तनाव लगभग समाप्त हो गया, जो भारत और पाकिस्तान द्वारा मई 1998 में परमाणु परीक्षणों से उत्पन्न हुआ था।

लेकिन भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ती हुई यह दोस्ती पाकिस्तान में उन तत्वों को रास नहीं आयी, जिनकी समस्त राजनीति ही भारत-विरोध और हिन्दू-द्वेष के आधार पर चलती है। इनमें आई.एस.आई. और पाकिस्तानी सेना के कुछ बड़े अफसरों के साथ ही कई राजनीतिक दलों के नेता भी शामिल थे, जो समय-समय पर बयान दागकर दूध में मक्खी गिराने की कोशिश करते रहते थे। उस समय पाकिस्तान के सेना प्रमुख थे- मियाँ परवेज मुशर्रफ।

ये मियाँ मुशर्रफ यों तो भारत में पैदा हुए थे और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ही पाकिस्तान सिधारे थे, इसलिए मुहाजिर थे, परन्तु वे स्वयं को मूल पाकिस्तानियों से ज्यादा पाकिस्तानी मानते थे और किसी भी हालत में भारत को नीचा दिखाना चाहते थे। अपने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अँधेरे में रखते हुए उन्होंने कश्मीर के कारगिल क्षेत्र में जेहादी आतंकवादियों और बे-वर्दी पाक सैनिकों की घुसपैठ करायी। उनमें से कई के पास पाकिस्तानी सेना के परिचय पत्र और पारम्परिक हथियार भी थे।

यहाँ यह कहना गलत न होगा कि भारतीय सेना की ओर से इस मामले में घोर लापरवाही का परिचय दिया गया। पाकिस्तानी सैनिकों और आतंकवादियों की चोरी-छिपे घुसपैठ होने का पता उनको वहाँ के गड़रियों आदि से चल रहा था, परन्तु वे लापरवाह रहे और इसे साधारण घुसपैठ मान लिया, जो कि हमेशा चलती रहती है। इस लापरवाही का परिणाम यह हुआ कि पाकिस्तानी घुसपैठियों ने कागरिल कस्बे के आसपास ही नहीं बल्कि बाल्टिक और अखनूर सेक्टर की कई वीरान सीमावर्ती चैकियों पर भी कब्जा जमा लिया और सियाचिन ग्लेशियर में जमे बैठे हुए भारतीय सैनिकों के ऊपर गोलाबारी भी की।

बड़े पैमाने पर घुसपैठ का समाचार आने पर भारतीय सेना सक्रिय हुई और सैनिकों को सीमा पर भेजा गया। दोनों देशों के सैनिकों में भीषण लड़ाई हुई, जिसमें भारतीय पक्ष के लगभग 500 सैनिक शहीद हुए जबकि पाकिस्तानी पक्ष के लगभग 3000 सैनिकों और आतंकवादियों को अपनी जान गँवानी पड़ी। लेकिन इस लड़ाई में भारत ने अपने लगभग 70 प्रतिशत क्षेत्र पर फिर से कब्जा कर लिया। अगर लड़ायी जारी रहती, तो यह निश्चित था कि भारत अपने बाकी क्षेत्र को भी फिर से नियंत्रण में ले लेता।

जब अमेरिका को लगा कि हार की खीझ में पाकिस्तान भारत के ऊपर परमाणु हथियारों का प्रयोग कर सकता है, तो तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्ंिलटन ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को बुला भेजा और उनको ऐसे किसी भी दुस्साहस से बाज आने को कहा। इतना ही नहीं उन्होंने भारत के विरुद्ध पाकिस्तान की सहायता करने से भी इनकार कर दिया। खेद की बात तो यह है कि उस समय मियाँ मुशर्रफ अपने प्रधानमंत्री की भी नहीं सुन रहे थे, लेकिन जब चारों ओर से पाकिस्तान को हड़काया गया, तो नवाज शरीफ ने पाकिस्तान की सेना को पुरानी नियंत्रण रेखा तक लौट आने का आदेश दे दिया। मजबूर होकर पाकिस्तान की सेना को सारे स्थान खाली करके लौटना पड़ा और जिन जेहादी आतंकवादियों ने इस आदेश को नहीं माना, उनको भारतीय सेना ने खत्म कर दिया।

कारगिल के युद्ध में भारत की पूर्ण विजय हुई। इस कार्यवाही का नाम ही ‘आपरेशन विजय’ रखा गया था। इस युद्ध के समय भारत की जनता में ऐसी एकता पैदा हुई, जिसके दर्शन स्वतंत्रता के बाद केवल 1965 में किये गये थे। करोड़ों देशवासियों ने अपनी एक-एक दिन की आमदनी कारगिल के सैनिकों की सहायता के लिए दी। इस युद्ध में मारे गये भारतीय सैनिकों को शहीद का दर्जा दिया गया और उनका अन्तिम संस्कार उनके पैतृक स्थानों में राजकीय सम्मान सहित किया गया। आज भी प्रत्येक वर्ष 26 जुलाई का दिन ‘कारगिल विजय दिवस’ के रूप में मनाया जाता है और कारगिल के शहीदों को याद किया जाता है।

24 साल बाद बुद्ध फिर मुस्कराये


18 मई 1974 को इन्दिरा गाँधी की सरकार के समय में भारत ने राजस्थान के रेगिस्तान के पोखरण क्षेत्र में अपना पहला परमाणु परीक्षण किया था, जिसने दुनिया को दिखा दिया था कि भारतीय वैज्ञानिक भी प्रतिभा में किसी से कम नहीं हैं। उस समय देश की आर्थिक स्थिति बहुत ही कमजोर थी। हमारी अर्थ व्यवस्था विदेशी सहायता की मोहताज थी। इसलिए परमाणु परीक्षण होते ही सारी दुनिया भारत पर लानत भेजने और हमारी गरीबी का मजाक उड़ाने लगी। इसलिए इसके बाद किसी सरकार की हिम्मत दोबारा परमाणु परीक्षण करने की नहीं हुई, हालांकि देश के वैज्ञानिक इस दिशा में लगातार प्रयास करते रहे और परमाणु ऊर्जा के लिए शोधकार्य भी चलते रहे। एक बार 1995 में नरसिंह राव की सरकार ने परमाणु परीक्षण करना तय कर लिया था, लेकिन उसकी तैयारियों की भनक अमेरिका के खोजी उपग्रहों को लग गयी और तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भारी दबाब डालकर परमाणु परीक्षण रुकवा दिया।

1996 जब अटल बिहारी वाजपेयी पहली बार प्रधानमंत्री बने थे, तो उन्होंने परमाणु परीक्षण करने की संभावनाएँ टटोली थीं। उनको बताया गया कि न्यूनतम एक माह की तैयारी के बाद ये परीक्षण किये जा सकते हैं। परन्तृ अटल जी की पहली सरकार केवल 13 दिन रही, इसलिए वे कुछ नहीं कर पाये। लेकिन जब वे दूसरी बार 28 फरवरी 1998 को बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बने, तो मार्च में उन्होंने अपने वैज्ञानिकों को आदेश दिया कि जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी यह परीक्षण कर लीजिए और किसी दबाब में मत आइए। धन्य हैं हमारे वैज्ञानिक कि उन्होंने दो माह से भी कम समय में सारी तैयारियाँ पूरी कर लीं और 11 मई को तीन सफल परमाणु परीक्षण कर डाले। यही नहीं दो दिन बाद 13 मई 1998 को उन्होंने फिर दो सफल परीक्षण किये।

ये परीक्षण भारत सरकार के तत्कालीन वैज्ञानिक सलाहकार और ‘रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन’ के प्रमुख डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की देख-रेख में हुए थे, जिन्होंने आगे चलकर भारत के राष्ट्रपति पद को सुशोभित किया। उनके साथ परमाणु ऊर्जा आयोग के चेयरमैन डा. आर. चिदम्बरम और भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र के निदेशक डा. अनिल काकोडकर कंधे से कंधा मिलाकर कार्य कर रहे थे। उनकी टीम में अनेक समर्पित वैज्ञानिक थे।

1974 के परीक्षणों का कूट नाम ‘बुद्ध मुस्करा रहे हैं’ रखा गया था। उसके बाद बुद्ध को दोबारा मुस्कराने में पूरे 24 साल लग गये। हालांकि 1998 के परीक्षणों का कोड नाम ‘आपरेशन शक्ति’ रखा गया था। यह नाम भी इस बात का परिचायक था कि अपनी महान् सांस्कृतिक परम्परा के अनुसार हम शक्ति के उपासक हैं। हमारे ऋषियों ने कहा है- ‘बलम् उपास्य’ अर्थात् ‘बल की उपासना करो’। यह दुनिया केवल शक्ति की भाषा समझती है। ‘वीर भोग्या वसुंधरा’ के अनुसार वीर लोग ही इस संसार में प्रतिष्ठापूर्वक रह सकते हैं। निर्बलों की अहिंसा का कोई महत्व नहीं है, वह कायरता है। ‘क्षमा सोहती उस भुजंग को जिसके पास गरल है।’

यह अटल जी की राष्ट्रवादी सरकार की दूरदर्शिता और कार्यकुशलता ही कही जायेगी कि पूरे 2 माह तक इस परीक्षण की तैयारियाँ खुले रेगिस्तान में चलती रहीं, लेकिन आसमान से गिद्ध दृष्टि लगाये हुए अमेरिका और चीन तक के जासूसी उपग्रहों को उनकी हवा तक नहीं लगी। जब इस परीक्षण का समाचार संसार को मिला, तो सारा संसार सकते में आ गया। वहीं समस्त भारतवासियों का सीना गर्व से फूल गया और विदेशों में रहने वाले भारतवंशी भी अपना सिर ऊँचा करके चलने लगे। कुख्यात सी.आई.ए. और के.जी.बी. जैसी जासूसी संस्थाएँ हाथ मलती रह गयीं। भारत में केवल इस्लामी आतंकवाद के समर्थकों और चीन के तलवे चाटने वाले कम्यूनिस्टों ने ही इन परीक्षणों की निन्दा की।

लेकिन भारत की परीक्षा की असली घड़ी इन परीक्षणों के बाद आयी। जहाँ कुछ देशों जैसे फ्रांस, रूस और इस्रायल ने भारत के इन परीक्षणों की प्रशंसा की, वहीं संसार के अनेक देशों ने, जिनमें अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, जापान और यूरोपीय यूनियन के देश शामिल थे, भारत के साथ तकनीकी और आर्थिक क्षेत्रों में सहयोग करने पर अनेक प्रतिबंध लगा दिये। इससे हमारे देश में विदेशी निवेश को गहरा झटका लगा और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में भी बहुत कमी आयी, लेकिन अटल जी की सरकार की दृढ़ता के कारण भारत की अर्थव्यवस्था इन सारे झटकों को झेल गयी और देश उत्तरोत्तर प्रगति करता रहा।

इन परीक्षणों पर चीन की प्रतिक्रिया सबसे तीखी रही। हालांकि वह स्वयं दुनिया को धता बताते हुए समय-समय पर परमाणु परीक्षण करता रहता है, लेकिन भारत के परीक्षणों पर उसी ने सबसे अधिक हाय-तौबा मचाई और दो सप्ताह बाद पाकिस्तान में ऐसे ही परीक्षण कर डाले, हालांकि पाकिस्तान उनको अपनी स्वदेशी तकनीक पर आधारित बताता रहा। लेकिन चीन की हिम्मत इससे अधिक कुछ करने की नहीं हुई, क्योंकि उसकी कम्पनियों का बहुत सा माल भारत में बेचा जाता है और भारत से व्यापार सम्बंध तोड़ लेने पर उसका अपना भट्टा बैठ जाता।

गड़रियों के गीतों का रहस्य


वेदों में एक जगह कुछ इस प्रकार की ऋचायें हैं, जिनमें कहा गया है- ‘मेंढ़क देवता हमें समृद्धि प्रदान करें।’, ‘मेंढ़कों की आवाजें हमारे कानों में मधुर रस घोलें।’, ‘मेंढ़क देवताओं के दर्शनों से हमारे मन प्रफुल्लित हों।’ आदि-आदि। इनमें मेंढ़कों को देवता मानकर उनकी वन्दना की गयी है।

कई विदेशी विद्वानों ने इस ऋचाओं का बहुत मजाक बनाया है। वे कहते हैं कि आर्य लोग गड़रिये थे और वेदों में गड़रियों के गीत हैं। वे गाय चराने जंगलों में जाया करते थे। वहीं किसी तालाब के किनारे बैठकर गप्पें मारते होंगे। तालाब में टर्राने वाले मेंढ़कों की टर्राहट में ही उन्हें संगीत का आनन्द आता होगा। इसलिए ऐसे गीत बना दिये हैं। हा.....हा.....हा.....

बहुत से पश्चिमपरस्त भारतीय विद्वान भी इन बातों से सहमत हो जाते थे, क्योंकि उन्हें इन गीतों का रहस्य मालूम नहीं था। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इन गीतों का रहस्य खुला।

हुआ यह कि एक बार अमेरिका की सरकार ने केरल प्रान्त की सरकार से कहा कि हमें अपनी प्रयोगशालाओं के लिए मेंढ़कों की बहुत आवश्यकता होती है और आपके यहाँ मेंढ़क बहुत हैं। इसलिए आप हमें मेंढ़क सप्लाई कीजिए, हम आपको इसके बदले में विदेशी मुद्रा देंगे। केरल की सरकार इस बात से तुरन्त सहमत हो गयी और मेंढ़कों का निर्यात शुरू कर दिया।

लेकिन जिस वर्ष मेंढ़कों का निर्यात किया गया, उसके अगले वर्ष धान आदि की फसल कम हुई। सरकार समझ नहीं पायी कि फसलों में उत्पादन कम क्यों हुआ है। इसलिए मेंढ़कों का निर्यात जारी रहा और उसके अगले वर्ष फसलों में उत्पादन और भी कम हुआ। जब लगातार तीसरे वर्ष उत्पादन और अधिक गिर गया, जबकि मौसम आदि सभी परिस्थितियाँ अनुकूल थीं, तो सरकार का माथा ठनका। उसने अन्न उत्पादन कम होने के कारणों का पता लगाने के लिए विशेषज्ञों की एक समिति का गठन कर दिया।

जब उस समिति की रिपोर्ट आयी, तो सबकी आँखें आश्चर्य से फटी रह गयीं। रिपोर्ट में बताया गया था कि मेंढ़कों के निर्यात के कारण ही फसलों में अन्न उत्पादन कम हुआ है। इसका विश्लेषण करते हुए बताया गया था कि मेंढ़क फसलों को खराब करने वाले हानिकारक कीट-पतंगों को खा जाते हैं, जिससे फसलों में रोग नहीं फैलते। फिर मेंढ़क स्वयं साँपों का भोजन बनते हैं। मेंढ़कों के लालच में साँप खेतों में आ जाते हैं, जिनके डर से चूहे खेतों से भाग जाते हैं। इस तरह मेंढ़क फसल में अन्न का दाना आने से पहले हानिकारक कीट-पतंगों से और दाना आने के बाद उनको खा जाने वाले चूहों से भी फसल की रक्षा का कारण बनते हैं। जब मेंढ़कों का बड़ी संख्या में निर्यात किया गया, तो कीट-पतंग बड़ी संख्या में हो गये और साँप भी कम हो गये, जिससे चूहों की बन आयी। इन्हीं सब कारणों ने मिलकर फसल खराब कर दी।

यह रिपोर्ट पढ़कर लोगों की आँखें खुलीं और वेदों के इन गीतों का रहस्य स्पष्ट हो गया। यह भी स्पष्ट हो गया कि हमारे महान् पूर्वज कितने दूरदर्शी थे।

पहली राष्ट्रवादी सरकार


गुजराल सरकार के गिर जाने के बाद फरवरी 1998 में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव हुए। इन चुनावों में तीन प्रमुख मोर्चे थे- एक, कांग्रेस का, जिसमें केवल केरल के दो छोटे दल और शामिल थे-मुस्लिम लीग और केरल कांग्रेस (मणि)। दूसरा, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन, जिसमें भाजपा के साथ अन्ना द्रमुक, अकाली दल, समता पार्टी, शिवसेना, बीजू जनता दल, तृणमूल कांग्रेस और कुछ अन्य छोटे-छोटे दल थे। तीसरा था संयुक्त मोर्चा, जिसमें जनता दल, द्रमुक और कम्यूनिस्ट पार्टियों के अलावा कुछ छोटे दल थे। एक चैथा मोर्चा भी था- जन मोर्चा, जिसमें लालू का राष्ट्रीय जनता दल और मायावती की बसपा शामिल थी।

जब चुनाव परिणाम आये, तो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सबसे बड़ा गठबंधन बनकर सामने आया, जिसे 254 सीटें प्राप्त हुईं। इनमें भाजपा की अकेले ही 182 सीटें थीं, जो अब तक का उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। इस मोर्चे को कुल मिलाकर 46.6 प्रतिशत वोट मिले थे यानी लगभग आधे। इस गठबंधन को इन चुनावों में केवल 25 सीटों का फायदा हुआ, हालांकि वोट लगभग 18 प्रतिशत बढ़े थे। हमारी चुनाव प्रणाली की कमियों के कारण ऐसा हुआ।

कांग्रेस के गठबंधन को केवल 144 सीटें मिलीं, जिनमें कांग्रेस की 141 और बाकी दूसरों की थीं। हालांकि कांग्रेस को इन चुनावों में पहले से 3.5 प्रतिशत वोट कम मिले, लेकिन सीट एक ज्यादा मिली। संयुक्त मोर्चा और जनमोर्चा क्रमशः केवल 64 और 24 सीटें झटक पाये। बाकी 59 सीटें निर्दलीयों और अन्य छोटे-छोटे दलों ने जीत लीं।

इन चुनावों में कांग्रेस गठबंधन के नेता थे सीताराम केसरी, जो स्वयं राज्यसभा के सदस्य थे। उनकी तुलना में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के नेता थे अटल बिहारी वाजपेयी, जिनका व्यक्तित्व सीताराम केसरी की तुलना में अत्यन्त प्रभावशाली था। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि कांग्रेस का मत प्रतिशत इस बार स्वतंत्रता के बाद सबसे कम रहा।

हालांकि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को बहुमत से 18 सीटें कम मिली थीं, लेकिन इस बार इतना समर्थन बाहर से प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं हुई, क्योंकि अब भाजपा अन्य दलों के लिए अछूत नहीं रह गयी थी। शीघ्र ही उसके नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने दूसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ग्र्रहण कर ली।

यहाँ यह बता देना उचित होगा कि अटल जी की गिनती भारतीय जनसंघ के प्रारम्भ काल से ही प्रमुख राष्ट्रीय नेताओं में की जाती रही है। वे महान् वक्ता हैं और अपनी विशेष शैली के लच्छेदार भाषण से श्रोताओं को बाँधे रखने में समर्थ हैं। वे दीर्घकाल तक भारतीय जनसंघ के महामंत्री, अध्यक्ष और लोकसभा में संसदीय दल के नेता रहे। जब मोरारजी भाई देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी, तब उस सरकार में अटल जी ने विदेश मंत्री के रूप में अपनी कार्यकुशलता के झंडे गाड़े थे। उनके कार्यकाल को आज भी याद किया जाता है। बाद में वे भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष भी रहे और वर्षों तक लोकसभा में विपक्ष के मान्यता प्राप्त नेता रहे। उनको स्वतंत्रता के बाद देश के महानतम राजनेताओं में गिना जाता है।

अटल जी की इस सरकार को देश की पहली राष्ट्रवादी सरकार कहा जा सकता है, क्योंकि यही ऐसी पहली सरकार थी, जिसने राष्ट्रीय हितों को तमाम क्षुद्र स्वार्थों और वोट-बैंक की राजनीति पर वरीयता दी। पहली बार जब वे प्रधानमंत्री बने थे तो केवल 13 दिन रहे थे और उनको कुछ करने का मौका ही नहीं मिला। लेकिन इस बार प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने अपनी राष्ट्रभक्ति का दृढ़ परिचय दिया, जिससे देश का और देशवासियों का सम्मान विश्वभर में बढ़ा।

अटल जी अपने प्रारम्भिक जीवन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता और प्रचारक भी रहे थे। राजनीति में आ जाने के बाद भी संघ से उनका सम्पर्क टूटा नहीं, बल्कि दृढ़ से दृढ़तर होता चला गया। प्रधानमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल ने सामान्य स्वयंसेवक को भी गौरवान्वित किया था। उनके कार्यों की चर्चा अगले लेखों में विस्तार से की जायेगी।

कठपुतली सरकारों का दौर


पिछले लेख ‘तेरह दिन की सरकार’ में मैं लिख चुका हूँ कि अटल जी अपना बहुमत सिद्ध न कर सके और कांग्रेस ने चुनावों से बचने के लिए राष्ट्रीय मोर्चे के उम्मीदवार एच.डी. देवगौड़ा की सरकार बनवा दी। इस राष्ट्रीय मोर्चे के पास अपनी केवल 79 सीटें थीं, लेकिन उसको 52 सीटों वाले वाम मोर्चे के साथ ही कांग्रेस के 140 लोकसभा सदस्यों का समर्थन मिला हुआ था। परस्पर घोर विरोधी ये सभी दल और मोर्चे मात्र भाजपा विरोध की गोंद से चिपके हुए थे।

इन सभी दलों को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार चुनने में पसीना आ गया, क्योंकि इनमें कम से कम 7-8 नेता ऐसे थे, जो स्वयं को प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे काबिल मानते थे और किसी अन्य के नाम पर राजी नहीं होते थे। अन्ततः उन्होंने एक ऐसे आदमी को चुना जिसकी कोई राष्ट्रीय हैसियत ही नहीं थी। देवगौड़ा उससे पहले लगभग 2 साल तक कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे थे और उस समय जनता दल की कर्नाटक इकाई के अध्यक्ष थे। वे केवल एक बार लोकसभा सदस्य चुने गये थे, लेकिन कर्नाटक के मुख्यमंत्री बन जाने पर लोकसभा सीट छोड़ दी थी। कर्नाटक के बाहर कोई उनका नाम भी नहीं जानता था, लेकिन यही उनकी योग्यता बन गयी और 1 जून 1996 को वे कठपुतली प्रधानमंत्री बन गये।

प्रधानमंत्री बनते समय देवगौड़ा संसद के किसी सदन के सदस्य नहीं थे। शीघ्र ही उनको राज्यसभा में चुनवाकर लाया गया। इस तरह वे पहले व्यक्ति थे, जो राज्यसभा सदस्य रहते हुए प्रधानमंत्री बने। देवगौड़ा की सरकार पूरे एक साल भी नहीं चली, क्योंकि जैसी कि कांग्रेस की आदत है, शीघ्र ही उसने अपना समर्थन वापस ले लिया और 11 अप्रेल 1997 को देवगौड़ा को कुर्सी छोड़नी पड़ी। वैसे भी उनका कार्यकाल कोई उल्लेखनीय नहीं था। उनको केवल सोने के लिए याद किया जाता है। सार्वजनिक सभाओं, महत्वपूर्ण बैठकों और संसद तक में सोते हुए उनको कैमरों द्वारा पकड़ा गया और वे फोटो अखबारों ने खूब चटखारे ले-लेकर छापे।

उनके बाद आये इन्द्र कुमार गुजराल। वे पहले इन्दिरा गाँधी के मंत्रिमंडल में सूचना प्रसारण मंत्री रहे थे और फिर रूस में भारत के राजदूत भी बनाये गये थे। बाद में वे वी.पी. सिंह और देवगौड़ा के मंत्रिमंडलों में विदेश मंत्री रहे थे। वे प्रायः विवादों से दूर रहते थे। यही उनकी सबसे बड़ी योग्यता बन गयी और कांग्रेस ने 21 अप्रेल 1997 के दिन उनको प्रधानमंत्री बनवा दिया। उनके मंत्रिमंडल में देवगौड़ा को छोड़कर सभी पुराने ही लोग थे और उनके मंत्रालय भी लगभग पुराने ही थे। कहने का मतलब है कि केवल प्रधानमंत्री का चेहरा बदला था।

इन्द्र कुमार गुजराल भी लोकसभा के सदस्य नहीं थे। उनको भी राज्यसभा में बिहार से चुनवाकर लाया गया। उनका कार्यकाल कई विवादास्पद फैसलों से भरा रहा। उन्हीं दिनों लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले के लिए बदनाम हुए और उन्होंने जनता दल को भी तोड़ा। लेकिन गुजराल ने इस घोटाले की सीबीआई जाँच की अनुमति नहीं दी। वह जाँच बाद में हुई।

गुजराल सरकार का भी वही हश्र हुआ, जो देवगौड़ा सरकार का हुआ था। केवल 8 महीने बाद ही कांग्रेस ने द्रमुक के मंत्रियों को न हटाने के बहाने से उनकी सरकार गिरा दी। लेकिन गुजराल ने तत्काल राष्ट्रपति के.आर. नारायणन से लोकसभा भंग करने की सिफारिश कर दी, ताकि कांग्रेस फिर पुराना खेल न खेलने लगे। नये लोकसभा चुनाव मार्च 1998 में हुए। तब तक अर्थात् लगभग 3 माह तक वे कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने रहे। नये चुनावों के बाद ही कठपुतली सरकारों का दौर समाप्त हुआ।

मुफ्त के नाम पर ठगी और छूट के बहाने लूट


”5 हजार का सामान खरीदिये और साथ में एक हजार की कीमत वाली फलां चीज मुफ्त“
”हर 10 हजार की खरीदारी पर 3 हजार की कीमत वाला सोने का सिक्का भेंट में पाइये“
”हर लैपटाॅप के साथ 5000 की कीमत वाली गेम सीडी फ्री“
”ईद या दिवाली के अवसर पर सभी वस्तुओं पर 20 प्रतिशत की भारी छूट“

ऐसे विज्ञापन आपने बहुत पढ़े-देखे होंगे। वैसे तो यह धन्धा पूरे साल चलता है, लेकिन जब त्यौहारों का मौसम आता है, तो इस तरह के विज्ञापन अखबारों और टी.वी. पर अधिक संख्याओं में दिखायी पड़ने लगते हैं। जो लोग इन विज्ञापनों की असलियत नहीं जानते, वे मुफ्त के चक्कर में उन दूकानों पर जाकर अपनी जेब खाली कर आते हैं और जब घर आकर देखते हैं कि वास्तव में वे लुट गये हैं, तो अपना सिर पीटने के अलावा कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि ”बिका हुआ माल न वापस होगा, न बदला जाएगा“ और ”फैशन के दौर में गारंटी की इच्छा न करें।”

उपभोक्ताओं को सबसे पहले तो यह समझ लेना चाहिए कि दुनिया में कुछ भी मुफ्त नहीं है, कम से कम बाजार में तो बिल्कुल ही नहीं और हर चीज के साथ उसकी ‘मूल्य पर्ची’ लगी होती है। इसलिए यदि दुकानदार एक वस्तु के साथ कोई दूसरी वस्तु मुफ्त दे रहा है, तो निश्चय ही वह उसकी कीमत पहली चीज के साथ ही वसूल कर रहा है। यदि वह छूट पर वस्तुएँ बेच रहा है, तो निश्चय ही तथाकथित छूट के बाद भी वस्तु की पूरी कीमत वसूल रहा है, क्योंकि वह पहले ही काफी बढ़ाकर कीमतों की नयी पर्ची लगा चुका है। इसका सीधा सा कारण यह है कि व्यापारी बाजार में पुण्य कमाने नहीं पैसा कमाने के लिए बैठा है।

अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए ऐसे हथकंडे सभी अपनाते हैं और इस पर कोई आपत्ति तब तक नहीं की जा सकती, जब तक कि वह घटिया वस्तु न दे रहा हो या विज्ञापन में प्रचारित की गयी बात को न मान रहा हो। लेकिन मुझे आपत्ति मुफ्त में दी जाने वाली वस्तुओं की कीमत बढ़ा-चढ़ाकर बताने पर है। 

उदाहरण के लिए, मैंने एक बार एक मेगा माल में खरीदारी की, तो मुझे बताया गया कि एक हजार से अधिक का सामान खरीदने पर एक दीवाल घड़ी मुफ्त में दी जाएगी। मैं ऐसे दावों की असलियत जानता था, इसलिए मैंने मना किया, लेकिन श्रीमतीजी नहीं मानीं और कुछ फालतू किस्म की चीजें खरीदकर बिल एक हजार से कुछ ज्यादा का बनवा लिया। इसके बाद मुझे मुफ्त में जो घड़ी मिली, उस पर अधिकतम मूल्य रु. 399 लिखा हुआ था, जबकि वह घड़ी बहुत घटिया प्लास्टिक का ढाँचा मात्र थी, जिसमें बीच में एक घटिया इंजन लगा था। कुल मिलाकर उस घड़ी की कीमत 40 रुपये से अधिक नहीं थी, यानी कि बताये जा रहे मूल्य की मात्र 10 प्रतिशत। इसी तरह 5 हजार की कीमत वाली जो सीडी मुफ्त में देने का दम्भ किया जाता है, उसकी वास्तविक कीमत मात्र 50 रुपये होती है यानी केवल 1 प्रतिशत। मुफ्त में दी जाने वाली लगभग सभी वस्तुओं का यही हाल है। कई बार ऐसी वस्तुएँ भी मुफ्त में टिका दी जाती हैं, जिनकी हमें कोई जरूरत नहीं है।

अब प्रश्न उठता है कि इसका इलाज क्या हो? मुफ्त में दी जाने वाली वस्तुओं की कीमत पर कोई रोक-टोक नहीं लगायी जा सकती। लेकिन ग्राहक को यह अधिकार होना चाहिए कि यदि वह मुफ्त में दी जाने वाली वस्तु नहीं लेना चाहता, तो जितनी कीमत उस वस्तु की बतायी जा रही है उससे आधी कीमत के बराबर की राशि अपने बिल में से कम करवा ले। उदाहरण के लिए, अगर दुकानदार मुफ्त में दी जाने वाली वस्तु की कीमत एक हजार बता रहा है, तो यदि ग्राहक उस वस्तु को नहीं लेना चाहता, तो उसके बिल में से 500 रुपये कम कर देने चाहिए। यदि ऐसा नियम बन जाये, तो न केवल भ्रामक विज्ञापनों पर रोक लगेगी, बल्कि ग्राहक भी लुटने से और अनावश्यक वस्तुएँ घर मे लाने से बच जायेंगे।

हमारे देश में तमाम उपभोक्ता संगठन हैं, लेकिन ये संगठन कुल मिलाकर व्यापारियों के हितों का ही संरक्षण करते हैं। उनमें से एक ने भी आज तक यह आवाज नहीं उठायी कि ऐसे भ्रामक विज्ञापनों पर नकेल डाली जाये, ताकि आम उपभोक्ता लुटने से बच सके।

तेरह दिन की सरकार


पिछले लेखों में मैं लिख चुका हूँ कि नरसिंह राव को केवल अर्थव्यवस्था के उदारीकरण का श्रेय दिया जा सकता है। उनकी बाकी सभी नीतियाँ, जैसे भ्रष्टाचार, जोड़-तोड़, मुस्लिम तुष्टीकरण, निकम्मापन आदि पुरानी कांग्रेसी सरकारों जैसी ही थीं। उनके राज में भी जनता तमाम मुसीबतों और कठिनाइयों का सामना कर रही थी। इसलिए किसी तरह उनके कार्यकाल के 5 वर्ष पूरा होने के बाद अप्रेल-मई 1996 में जो चुनाव हुए उनमें कांग्रेस की लुटिया डूब गयी। उसे पूरे भारत से केवल 140 सीटें मिलीं जो आजादी के बाद उसकी सबसे कम सीटें थीं।

इन चुनावों में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी और गठबंधन के रूप में सामने आयी। उसकी अपनी सीटों की संख्या 161 थी और सहयोगी दलों समता पार्टी, शिव सेना तथा हरियाणा विकास पार्टी को मिलाकर कुल 187 सीटों पर यह गठबंधन जीतकर आया। अन्य गठबंधनों में राष्ट्रीय मोर्चा को केवल 79 सीटें मिलीं, जिनमें जनता दल 46, समाजवादी पार्टी 17 और तेलुगूदेशम 16 शामिल थे, तथा वाम मोर्चा को 52 सीटें प्राप्त हुईं, जिनमें माकपा 32, भाकपा 12, आरएसपी 5 और फाॅरवर्ड ब्लाॅक 3 शामिल थे।

इस प्रकार किसी भी गठबंधन को बहुमत लायक सीटें नहीं मिलीं। उस समय धुरन्धर कांग्रेसी शंकर दयाल शर्मा राष्ट्रपति पद पर थे। उनके सामने समस्या उत्पन्न हुई कि किस गठबंधन या दल को सरकार बनाने के लिए बुलाया जाये। काफी सोच विचार के बाद उन्होंने सबसे बड़े गठबंधन के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने का निमंत्रण दे दिया और 15 मई 1996 को अटल जी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ले ली। राष्ट्रपति ने उनको बहुमत सिद्ध करने के लिए 2 सप्ताह का समय दिया।

अटल जी ने राष्ट्रपति के निर्देशानुसार अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए लोकसभा में विश्वास मत पेश किया, जिस पर 31 मई को मतदान होना था। उन्होंने कई पार्टियों से समर्थन लेने की पुरजोर कोशिश की, लेकिन 200 से अधिक का समर्थन जुटाने में असमर्थ रहे। लोकसभा में एक लम्बी बहस के बाद उन्होंने विश्वास मत पर मतदान होने से पहले ही 28 मई को अपनी सरकार का त्यागपत्र दे दिया। इस प्रकार उनकी पहली सरकार केवल तेरह दिन चली।

यहाँ यह बताना असंगत न होगा कि बहुमत जुटाने के लिए अटल जी ने कोई अनुचित आचरण नहीं किया, जैसा कि उनके पूर्ववर्ती नरसिंह राव ने किया था। नोटों से भरे सूटकेस देकर झारखंड मुक्ति मोर्चा और अन्य दलों के कुछ सांसदों का समर्थन खरीदने के कारण उनकी बहुत छीछालेदर हुई थी। लेकिन भाजपा ऐसी कोशिशों से दूर रही और कोई अनुचित कार्य करने के बजाय अपनी सरकार की बलि देना पसन्द किया।

अटल जी की सरकार गिर जाने के बाद दूसरे सबसे बड़े दल कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका दिया गया, परन्तु उसने इसकी कोशिश करने के बजाय राष्ट्रीय मोर्चे को बाहर से समर्थन देना तय किया, जिसको वाम मोर्चा का समर्थन भी मिला हुआ था। यह कांग्रेस की कृपा नहीं बल्कि मजबूरी थी, क्योंकि वे फिर से चुनावों का सामना करने को तैयार नहीं थे और किसी भी तरह भाजपा को सत्ता में आने से रोकना चाहते थे। तीसरे मोर्चे ने कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री एच.डी. देवगौड़ा को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना, जिनका नाम इससे पहले कर्नाटक के बाहर कोई नहीं जानता था। यही उनका सबसे बड़ा गुण बन गया। देवगौड़ा की सरकार पूरे एक साल भी नहीं चल पायी और कांग्रेस द्वारा समर्थन वापस लेने के कारण गिर गयी। इसकी कहानी अगले लेख में।

हजरत बाल और चरारे-शरीफ की घटनायें


यह एक माना हुआ तथ्य है कि दुष्टों को कभी संतुष्ट करके शान्त नहीं किया जा सकता, केवल दण्ड देना ही उनको ठीक करने का एक मात्र उपाय है। इस्लामी या जेहादी आतंकवादियों के लिए यह बात कहीं अधिक सत्य है। लेकिन कांग्रेस की तमाम सरकारों ने इस बात को कभी नहीं समझा। नरसिंह राव की सरकार भी कोई अपवाद नहीं थी। उसके कार्यकाल में कम से कम दो घटनायें ऐसी हुईं जब सरकार के ढुलमुल और कायरतापूर्ण रवैये से आतंकवादियों का हौसला बढ़ा और देश को नीचा देखना पड़ा।

इनमें पहली घटना ‘हजरत बाल’ नामक मस्जिद में हुई, जहाँ पर मुहम्मद का एक बाल रखा हुआ बताया जाता है। 15 अक्टूबर 1993 को इस्लामी आतंकवादियों के एक समूह ने इस मस्जिद पर कब्जा कर लिया। अगर सरकार इजाजत देती, तो हमारी सेना एक दिन में ही आतंकवादियों को वहीं मारकर ढेर कर देती और मस्जिद को उनके चंगुल से मुक्त करा लेती, लेकिन मस्जिद की ‘पवित्रता’ भंग न हो जाये, इस डर से सरकार ने सेना के हाथ बाँध दिये और आतंकवादियों की चिरौरी करती रही कि मस्जिद को सही-सलामत छोड़कर चले जाओ। आखिर कई दिन तक चिरौरी करने के बाद आतंकवादी मस्जिद से जाने को तैयार हुए। इस बीच सरकार उनको रोज बिरयानी खिलाती रही और अनेक प्रकार से खातिरदारी करती रही। इतना ही नहीं, सरकार ने उनको बाहर निकलकर भाग जाने को सुरक्षित रास्ता भी दे दिया, जिसका कोई औचित्य नहीं था।

इस व्यवहार से आतंकवादियों का हौसला बढ़ना ही था। इस घटना के लगभग 2 वर्ष बाद चरारे-शरीफ नामक दरगाह में भी ऐसी घटना हो गयी। यह स्थान श्रीनगर से कवेल 28 किमी दूर है और यहाँ एक सूफी संत नूरानी की कब्र बनी हुई है। 7 मार्च 1995 को अफगानी आतंकवादी मस्त गुल के नेतृत्व में लगभग 60 आतंकवादियों के एक गुट ने इस दरगाह पर कब्जा कर लिया। हालांकि अगले ही दिन भारतीय सेना ने दरगाह को चारों ओर से घेर लिया, लेकिन हमेशा की तरह सरकार ने उनको कोई कार्यवाही नहीं करने दी और आतंकवादियों से बातचीत करती रही कि दरगाह को छोड़कर चले जाओ।

यह बातचीत 2 महीने से भी अधिक चली, लेकिन आतंकवादी दरगाह को छोड़ने को तैयार नहीं हुए। इस बीच सरकार उनको रोज बिरयानी खिलाती रही। आखिर 10 मई 1995 को ईद के दिन सेना का धैर्य जबाब दे गया और उसने कार्यवाही करके आतंकवादियों को निकालना तय किया। इसकी जानकारी होते ही आतंकवादियों ने दरगाह को आग लगा दी और भागने की कोशिश की। दोनों तरफ से हुई फायरिंग में लगभग 20 आतंकवादी मारे गये, 2 सैनिक शहीद हुए और 5 नागरिकों की जानें गयी।

लेकिन आतंकवादियों का सरगना मस्त गुल सुरक्षित निकल गया और उसके साथ ही उसके बाकी आतंकवादी भी निकल गये। कहा तो यह जाता है कि किसी अज्ञात दबाब में सरकार ने उनको न केवल सुरक्षित निकल जाने दिया, बल्कि स्वयं ले जाकर नियंत्रण रेखा (लाइन आॅफ कंट्रोल) पर छोड़ा। हालांकि अगले दिन सेना ने अबू जिंदाल नामक आतंकवादी को गिरफ्तार करने का दावा किया और पत्रकारों के सामने उसे पेश किया, लेकिन उनके पास इस बात का कोई जबाब नहीं था कि मस्त गुल और उसके बाकी साथी कहाँ गये और कैसे गये, जबकि दरगाह को चारों ओर से सेना ने घेरा हुआ था।

कहने की आवश्यकता नहीं कि मुस्लिम वोट बैंक आॅफ इंडिया के दबाब में ही सरकार की हिम्मत आतंकवादियों का सफाया करने की नहीं हुई, जबकि सेना ऐसा करने में पूर्ण सक्षम थी। जो लोग यह दावा करते हैं कि आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता, उन्हें अपनी बात पर फिर से विचार करना चाहिए। अगर वे आतंकवादी मुस्लिम न होते, मान लीजिए हिन्दू होते, तो क्या तब भी सरकार उनकी चिरौरी करती रहती? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 1984 मे इन्दिरा गाँधी की सरकार ने सिखों की धार्मिक भावनाओं की चिन्ता किये बिना अकाल तख्त में कब्जा जमाये बैठे आतंकी सरगना भिंडरांवाले और उसके साथियों को मार गिराया था। ऐसी ही कार्यवाही हजरत बाल और चरारे शरीफ में क्यों नहीं की गयी? क्या किसी सेकूलर या जेहादी आतंकवादियों के समर्थक के पास इसका कोई जबाब है?

हिन्दू संस्कृति की महानता : करवा चौथ


आज करवा चौथ है। आज करोड़ों माताओं और बहनों ने अपने-अपने पति, मंगेतर अथवा प्रेमी के कल्याण और दीर्घ जीवन के लिए निर्जल व्रत रखा है। वे रात्रि में चन्द्रमा के दर्शन करके और उसको अघ्र्य देकर ही अन्न-जल ग्रहण करेंगी। इस पर्व में हमें भारतीय या हिन्दू संस्कृति की महानता की चरमसीमा दृष्टिगोचर होती है। जो महिला अपना पूरा जीवन पति और उसके परिवार की सेवा में होम कर देती है, वह उसी के कल्याण के लिए यह कष्ट भी सहन करती है। दूसरी संस्कृतियों में ऐसी परम्पराएँ नहीं हैं।

कई आलोचक कह सकते हैं कि यह अन्धविश्वास है कि निर्जल व्रत रखने से किसी की आयु बढ़ जाती है। मेरा कहना है कि भले ही यह अन्धविश्वास हो, लेकिन इसके पीछे जो भावना और श्रद्धा है, वह सच्ची है। कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि यह व्रत वे अपने पति के लिए नहीं बल्कि अपने कल्याण के लिए रखती हैं, क्योंकि पति के जीवन पर ही उसका जीवन टिका हुआ है। हो सकता है, यह बात सत्य हो, लेकिन यह तो सभी समुदायों और संस्कृतियों के लिए सत्य है, फिर वे सब क्यों नहीं ऐसा व्रत रखतीं?

पाश्चात्य संस्कृति में ऐसी किसी भावना के दर्शन नहीं होते। जो भारतीय परिवार पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित हैं वे भी इस व्रत को या तो रखते ही नहीं या तोड़-मरोड़कर अपनी ही मर्जी से रखते हैं। उनके लिए ‘पतिव्रता’ का अर्थ यह है- जो पति से व्रत करवाये। काका हाथरसी ने भी अपने एक हास्य दोहे में कहा है-
पति बेचारा व्रत करे, आप ठूँसकर खाय।
पतिव्रता वह नारि है, पति से पहले खाय।।

यहाँ मुझे करवा चौथ के बारे में एक दोहा याद आ रहा है, जो हमें हमारे जूनियर हाईस्कूल के प्रधानाचार्य स्व. श्री रती राम शर्मा ने हिन्दी अपठित के रूप में तब पढ़ाया था, जब मैं कक्षा 7 में पढ़ा करता था। वह दोहा इस प्रकार है-
तू रहि री हौं ही लखौं, चढ़नि अटा ससि बाल।
बिन ही ऊगे ससि समुझि दइहैं अर्घ अकाल।।

यह दोहा ब्रजभाषा में है। इसका अर्थ इस प्रकार है- "करवा चौथ के दिन एक महिला दूसरी महिला से कह रही है कि अरी, तू रहने दे, मैं ही छत पर चढ़कर देख लूँगी कि चन्द्रमा निकल आया कि नहीं, क्योंकि अगर तू चढ़ेगी और चन्द्रमा नहीं निकला होगा, तो दूसरी महिलायें तेरे चेहरे को ही चन्द्रमा समझकर असमय ही अर्घ्य दे डालेंगी और उनका व्रत खंडित हो जाएगा।"

देख लीजिए, कितनी सुन्दर भावना है, सौंदर्य का कितना निर्दोष वर्णन है। कोई काव्य मर्मज्ञ बता सकता है कि इस अकेले दोहे में कितने अलंकार एक साथ उपस्थित हैं। आश्चर्य है कि 40 वर्ष बाद आज भी मुझे यह दोहा पूरी तरह कंठस्थ है।

मैं करवा चौथ का व्रत रखने वाली माताओं और बहनों को करबद्ध प्रणाम करता हूँ और उनकी मनोकामनापूर्ण करने के लिए प्रभु से प्रार्थना करता हूँ।

आर्थिक उदारवाद का पहला स्वाद : शेयर घोटाला


पी.वी. नरसिंहराव की सरकार को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने देश में आर्थिक उदारवाद की राह खोली, जो कि पूर्व सरकारों की नियंत्रणवादी आर्थिक नीतियों के कारण पूरी तरह बन्द थी और जिसमें देश की अर्थव्यवस्था का दम घुट रहा था। लेकिन यह उदारवाद बुराइयों से मुक्त नहीं रहा। जिस तरह किसी फसल के साथ तमाम खर-पतवार उग आते हैं, उसी तरह उदार अर्थव्यवस्था के साथ पूँजीवाद की अनेक बुराइयाँ भी देश में आ गयीं। इनका पहला स्वाद देश को शेयर घोटाले के रूप में चखना पड़ा।

इस घोटाले का सूत्रधार था हर्षद मेहता, जो बम्बई स्टाक एक्सचेंज का एक शेयर दलाल था। उसने भारतीय बैंकों की सुस्ती और लापरवाही का लाभ उठाकर हजारों करोड़ रुपये का बेजा ऋण उठाया और उनसे शेयर खरीद-बेचकर मुनाफा कमाया। ऐसे ऋण उसने कुछ छोटे बैंकों द्वारा जारी की गयी जाली बैंक रसीदों के बल पर बड़े बैंकों से लिये।

उसका काम करने का तरीका अपने आप में पूरी तरह कानूनी था। वह करता यह था कि छोटे बैंकों को अपने प्रभाव में लेकर जाली बैंक रसीदें जारी करवा लेता था। असली बैंक रसीद सरकारी प्रतिभूतियों के बदले जारी की जाती हैं, जिनकी अपनी साख होती है और दूसरे बैंक ऐसी रसीदों के बदले सरलता से लघु अवधि जैसे 15 दिन, एक माह आदि के ऋण दे देते हैं। हर्षद मेहता और उसके कुछ सहयोगी ऐसी जाली बैंक रसीदों के बदले सरकारी बैंकों से ऋण उठाते थे और उस ऋण से अंधाधुंध शेयर खरीदकर उनके भाव बढ़ाते थे। जब किसी कम्पनी के शेयर काफी बढ़ जाते थे, जो वे अपने शेयर बेचकर बड़ी रकम मुनाफे सहित खड़ी कर लेते थे और बैंक का ऋण चुकाकर अपनी रसीदें वापस ले लेते थे।

यह धंधा तब तक चलता रहा, जब तक शेयर चढ़ते रहे। लेकिन जैसे ही शेयरों की यह नकली तेजी खत्म हुई और हर्षद मेहता का भांडा फूटा, तो पता चला कि उसने अपने साथियों के साथ मिलकर विभिन्न सरकारी बैंकों से करीब 4 हजार करोड़ रुपये का ऋण ऐसी बैंक रसीदों के बदले उठा रखा था, जिनका मूल्य धेलाभर भी नहीं था।

आश्चर्य की बात यह थी कि बड़े-बड़े सरकारी बैंकों ने हर्षद मेहता और उसकी कम्पनियों को हजारों करोड़ के ऋण बिना पूरी जाँच-पड़ताल किये दे दिये, जबकि ये ही बैंक आम आदमी को 10 हजार रुपये के ऋण के लिए भी पचास बार दौड़ाते हैं। भांडा फूटने के बाद विजया बैंक के चेयरमैन और यूनिट ट्रस्ट आॅफ इंडिया के एक बड़े अधिकारी ने आत्महत्या कर ली। अन्य कई बैंकों के उच्चाधिकारियों को भी इसका कुफल भुगतना पड़ा।

सबसे अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि जब चुनिंदा शेयरों की कीमतें आसमान छू रही थीं, उस समय सिक्योरिटी एंड एक्सचेंज बोर्ड आॅफ इंडिया (सेबी) कानों में तेल डाले पड़ा था और उसने एक बार भी यह देखने की कोशिश नहीं की कि इस बेहताशा तेजी का कारण क्या है। वे इस तेजी का श्रेय उदार आर्थिक नीतियों को देकर अपनी और सरकार की पीठ थपथपा रहे थे, जबकि हर्षद मेहता उनकी नाक के नीचे ही घोटाले कर रहा था।

यही हाल नरसिंह राव की केन्द्रीय सरकार के वित्त मंत्रालय का था, जिसमें उन दिनों हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह केबिनेट मंत्री थे। कहा तो यह जाता है कि यह सारा धंधा उनकी सहमति से चल रहा था। हर्षद मेहता ने अपने बयान में कहा भी था कि उसने घोटाला केस से बचने के लिए 1 करोड़ की राशि कांग्रेस पार्टी को ‘दान’ में दी थी, जिसके अध्यक्ष पद पर भी तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव विराजमान थे।

इस घोटाले के दिनों में भारत का मध्य वर्ग शेयर मार्केट की इस चकाचैंध में आकर जमकर शेयर खरीद रहा था और जब घोटाले का भंडाफोड़ हुआ तो उनमें से अधिकांश लोग अपनी गाढ़ी कमायी के लाखों रुपये गँवा चुके थे।

हालांकि आगे चलकर हर्षद मेहता को भारी सजा भी हुई और वह जेल में ही मरा, लेकिन आम जनता की गाढ़ी कमाई के जो 4 हजार करोड़ रुपये सरकारी बैंकों ने लुटा दिये, वे कभी वसूल नहीं हो सके।