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Monday 21 January 2013

भारतीय कम्यूनिस्टों की शोकांतिका


साम्यवादी आन्दोलन पूरी दुनिया में लगभग समाप्त हो गया है। केवल चीन में वह नाममात्र के लिए जिन्दा है और भारत सहित कई देशों में अपनी अन्तिम साँसें गिन रहा है। 1925 में जब डा. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी, उसी वर्ष दिसम्बर में भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी की भी स्थापना हुई थी। जब हम देश में लगभग एक साथ प्रारम्भ हुई इन दो प्रमुख वैचारिक लहरों की तुलना करते हैं, तो पाते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जहाँ अपने वैचारिक परिवार के अनेक संगठनों और हजारों समर्पित कार्यकर्ताओं के बल पर संसार का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बन गया, वहीं कम्यूनिस्ट आन्दोलन खंड-खंड होकर अनेक दलों, गुटों और उपगुटों में टूट गया और आज अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है। दुनिया को मजदूरों को एक करने का सपना देखने वाले कम्यूनिस्टों के नेता तक एक न हो सके।

वास्तव में 1920 की रूस क्रांति के बाद संसार भर में उससे प्रभावित होने वाले समूहों और दलों की बाढ़ आ गयी थी। भारत में रजनी पाम दत्त और मानवेन्द्र नाथ राय सरीखे नेता इसके प्रारम्भिक झंडाबरदार थे। सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी भी प्रारम्भ में उससे प्रभावित हो गये थे, हालांकि शीघ्र ही वे कम्यूनिस्टों की असलियत समझ गये और उनसे सुरक्षित दूरी बना ली। आजादी के आन्दोलनों में कम्यूनिस्टों की भूमिका या तो मात्र दर्शक की रही, या फिर अपनी गिरगिट सरीखी प्रवृत्ति के कारण रंग बदलती रही। वासतव में कम्यूनिस्टों का वैचारिक आधार देशहित न होकर आजादी के पहले और बाद में रूस हित रहा। उनके बारे में सत्य ही कहा जाता था कि यदि मास्को में बरसात होती है, तो ये भारत में छाता तान लेते हैं। इनकी यह प्रवृत्ति आज भी नहीं बदली है, अन्तर केवल यह आया है कि 1962 के बाद वे रूस की जगह चीन के हितों की चिन्ता करने लगे हैं।

आजादी से पहले इनकी जो प्रवृत्ति रही, उसकी व्याख्या वे खुद नहीं कर सकते। जब तक रूस जर्मनी का साथी था और अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहा था, तब तक कम्यूनिस्ट द्वितीय विश्व युद्ध के विरुद्ध प्रचार करते थे। लेकिन जैसे ही हिटलर ने रूस पर आक्रमण किया, वैसे ही वे भी रातों-रात बदल गये और इस साम्राज्यवादी युद्ध के पक्ष में भाड़े पर प्रचार करने लगे। उस समय नेताजी सुभाष चन्द्र बोस क्योंकि भारत से बाहर निकल गये थे और जर्मनी तथा जापान की सहायता से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे थे, इसलिए कम्यूनिस्टों ने अपनी अक्ल का इस्तेमाल किये बिना उनको जापानी शासक ‘तोजो का कुत्ता’ कह डाला। वैसे वे समय-समय पर गाँधी, नेहरू तथा अन्य राष्ट्रीय नेताओं को भी चुनी हुई साम्यवादी गालियों से विभूषित करते रहे हैं और इस पर उन्हें कभी खेद नहीं हुआ। वैसे यह बात भी है कि वे आपस में एक-दूसरे को संशोधनवादी, प्रतिक्रियावादी आदि गालियों से सम्मानित करते रहे हैं।

जब 1942-43 के आस-पास यह स्पष्ट हो गया कि देर-सबेर अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ेगा, तो उन्होंने अपना पूरा जोर इस ओर लगा दिया कि यह देश अखण्ड न रहे। मुसलमान तो अपने लिए केवल अलग राज्य चाहते थे, ताकि उन्हें हिन्दुओं के शासन में न रहना पड़े। कम्यूनिस्टों ने उन्हें इस साम्प्रदायिक माँग को बल प्रदान करने के लिए अपनी बौद्धिक सेवायें दीं। वे खोज-खोजकर यह साबित करने में जुट गये कि भारत में एक-दो नहीं बल्कि दर्जनों राष्ट्रीयतायें हैं और मुस्लिम एक अलग राष्ट्र हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि पाकिस्तान के बनने में कम्यूनिस्टो का योगदान जिन्ना की लीग और नेहरू-गाँधी की कांग्रेस से किसी कदर कम नहीं था। यह बात और है कि वे अपनी पितृभूमि रूस में अनेक राष्ट्रीयताओं को स्वीकार नहीं करते थे, जो कि वास्तव में थीं और सोवियत रूस के बिखर जाने के बाद यह सिद्ध भी हो चुका है।

आजादी के बाद यदि किसी को यह आशा रही होगी कि वे अब देश के हित में कुछ सोचेंगे, तो वह शीघ्र ही समाप्त हो गयी, क्योंकि वे कभी नहीं मानते थे कि देश ने आजादी प्राप्त कर ली है। उनके लिए आजादी की परिभाषा रूस या चीन के नियंत्रण में रहने के समतुल्य थी। नेहरू के मंत्रिमंडल में कई कम्यूनिस्ट शामिल थे, जो वास्तव में कांग्रेस को अन्दर से कमजोर करने के लिए उसमें घुस गये थे। वास्तव में अधिकांश कम्यूनिस्ट नेता अलीगढ़ मुस्लिम वि.वि. की उपज थे और यह मानते थे कि मुस्लिम विचारधारा साम्यवादी विचारधारा से काफी समानता रखती है।

1962 में जब चीन ने भारत पर खुला आक्रमण किया, तो कम्यूनिस्टों की चीन-भक्ति सबके सामने नंगी हो गयी। उन्होंने कभी चीन को भारत के प्रति विश्वासघात का दोषी नहीं माना, उलटे वे यह मानते रहे कि चीन की सेनायें हमें मुक्त कराने आ रही हैं। इसी बात पर 1964 में कम्यूनिस्ट पार्टी टूट गयी और वे रूस-भक्त और चीन-भक्त दो गुटों में बँट गये। आज की हालत यह है कि सोवियत रूस के बिखर जाने के बाद उनकी रूसभक्ति तो लगभग समाप्त हो गयी है, लेकिन चीन भक्ति अभी तक बरकरार है।

1957 में केरल राज्य में कम्यूनिस्ट पहली बार चुनकर सत्ता में आये, लेकिन शीघ्र ही केन्द्रीय सरकार को उनकी सरकार बर्खास्त करनी पड़ी, क्योंकि वे पृथकतावादी गतिविधियों को प्रोत्साहित कर रहे थे। सन् 1978 में वे प. बंगाल में सत्ता में आ गये, क्योंकि आपातकाल की करतूतों के कारण कांग्रेस बदनाम हो गयी थी और कम्यूनिस्टों के अलावा कोई दूसरा सशक्त विकल्प नहीं था। वे लगभग 33 वर्षों तक प. बंगाल में शासन करते रहे और इस अवधि में प. बंगाल विकसित राज्य से घोर अविकसित राज्य में बदल गया। केरल और त्रिपुरा में वे कभी-कभी सत्ता में आते रहे हैं।

वर्तमान में कम्यूनिस्ट मात्र 3 राज्यों तक सिमट गये हैं प. बंगाल, केरल और त्रिपुरा। इनमें भी वे मुस्लिम घुसपैठियों के साम्प्रदायिक वोट पर निर्भर हैं। अन्य राज्यों में उनका जो थोड़ा बहुत जनाधार था, वह समाप्त हो गया है और कभी मुलायम सिंह तो कभी लालू प्रसाद यादव, कभी जयाललिता तो कभी मायावती के सहारे एकाध सीट भीख में पाने की आशा करते हैं।

वे राष्ट्रवादी संघ परिवार को अपना घोरशत्रु मानते हैं, जैसा कि स्वाभाविक भी है। इसलिए वे प्रायः हर अवसर पर, चाहे वह रामजन्मभूमि का मामला हो या इस्लामी आतंकवाद का, हमेशा संघ परिवार के विरोध में और मुस्लिम साम्प्रदायिक दलों के साथ खड़े नजर आते हैं।

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