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Monday 21 January 2013

संघ और स्वतन्त्रता संग्राम


संघ के कई आलोचक यह कहते हैं कि संघ ने आजादी के आन्दोलन में नहीं भाग लिया था और संघ को कांग्रेस की आलोचना करने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि कांग्रेस ने देश को आजाद कराया था। मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि ये दोनों ही बातें गलत हैं और अज्ञान की निशानी हैं। न तो संघ आजादी के आन्दोलन से अलग रहा और न कांग्रेस ने देश को आजाद कराया। मैं अपने लेखों में पहले ही लिख चुका हूँ कि देश को आजाद कराने का श्रेय अकेले कांग्रेस को नहीं दिया जा सकता, बल्कि इसका श्रेय तमाम स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और क्रांतिकारियों को दिया जाना चाहिए। कांग्रेस को केवल सौदेबाजी करने का श्रेय दिया जा सकता है, जिसमें उसने देश के टुकड़े कराकर सत्ता हथियायी थी।

संघ के आलोचकों को यह ज्ञात होना चाहिए कि संघ की स्थापना से पहले संघ निर्माता डा. हेडगेवार कांग्रेस के प्रमुख नेता थे। उन्होंने खिलाफत आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया था। उग्र भाषण देने के कारण उनको एक वर्ष का सश्रम कारावास भी मिला था। इतना ही नहीं संघ की स्थापना के बाद भी डाक्टर साहब स्वतंत्रता के आन्दोलन में सक्रिय रहे। 1930 के असहयोग आन्दोलन में डाक्टर साहब ने संघ का दायित्व अस्थायी रूप से डा. परांजपे को सौंप दिया था और स्वयं उन्होंने अपने कई साथियों के साथ इस आन्दोलन में भाग लिया था। लेकिन चौरी-चौरा कांड के बाद आन्दोलन वापस लेने से अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ डाक्टर साहब भी बहुत हताश हुए थे और समझ गये थे कि ऐसे आधे-अधूरे आन्दोलनों से कांग्रेस कभी देश को आजाद नहीं करा सकती। डाक्टर साहब की तरह तत्कालीन अनेक स्वयंसेवकों ने व्यक्तिगत रूप से आजादी के आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया था। यह अवश्य है कि संघ एक संगठन के तौर पर कांग्रेस के आन्दोलनों में शामिल नहीं हुआ, लेकिन आजादी प्राप्त करना उसका भी प्रमुख ध्येय था। संघ की तत्कालीन प्रार्थना में देश को स्वतंत्र कराने का संकल्प लिया जाता था।

जहाँ तक 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन में संघ के भाग न लेने की बात है, उस समय तक डाक्टर हेडगेवार का देहान्त हो चुका था और संघ की बागडोर गुरुजी के हाथ में थी। उन्होंने सोच-विचार करके यह निर्णय किया था कि एक संगठन की तरह संघ इसमें शामिल नहीं होगा, बल्कि व्यक्तिगत रूप से सभी स्वयंसेवकों को इसमें भाग लेने की छूट रहेगी। वैसे भी उस समय कांग्रेस ने केवल ‘करो या मरो’ का नारा दिया था और करना क्या है यह कभी किसी ने नहीं बताया। ऐसे दिग्भ्रमित आन्दोलन को असफल होना ही था, इसलिए संघ द्वारा इसमें शामिल न होने का निर्णय उचित ही था।

जब देश में स्वतंत्रता प्राप्ति का वातावरण बन रहा था, तो संघ की शक्ति देश की अखंडता को बचाये रखने में लगी हुई थी। इसके लिए संघ ने पाकिस्तान के विरोध में और उसके प्रति कांग्रेस के ढुलमुल रवैये के विरोध में बड़ी संख्या में प्रदर्शन किये थे। जब यह स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस अपनी सत्ता की भूख के कारण देश की हत्या कराके ही मानेगी, तो संघ की शक्ति पाकिस्तान में जाने वाले भागों से हिन्दुओं को सुरक्षित निकालने में लग गयी। उस समय के लोग गवाह हैं कि पाकिस्तानी पंजाब और सिंध से संघ के स्वयंसेवकों की सहायता से ही लाखों नागरिक सुरक्षित आ सके थे, वरना भारत की तत्कालीन सरकार ने तो उनको पूरी तरह भाग्य के भरोसे छोड़ दिया था। केवल कांग्रेसी नेता अपने-अपने परिवारों के साथ चुपके से इधर चले आये थे।

संघ ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी देश में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए भारी बलिदान दिये हैं। 1975-77 के आपात्काल के समय ‘दूसरी आजादी’ के लिए संघ के स्वयंसेवकों को ही सबसे अधिक संघर्ष करना पड़ा था और अत्याचार सहन करने पड़े थे। इस अवधि में चलने वाले भूमिगत आन्दोलन पूरी तरह संघ के युवा स्वयंसेवकों द्वारा संचालित थे। इसकी प्रशंसा संघ के विरोधियों ने भी की है।

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