बहुत से लोगों का
कहना है कि संघ को राजनीति में भाग लेना चाहिए, जबकि बहुत से लोगों का कहना
है कि संघ को राजनीति से दूर रहना चाहिए। दोनों ही प्रकार के लोग
अपनी-अपनी जगह सही हैं। संघ का राजनीति से क्या सम्बंध होना चाहिए, इसे
समझने के लिए संघ की स्थापना की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना आवश्यक है।
संघ संस्थापक डा. हेडगेवार कांग्रेस के प्रमुख नेता थे और कई बार कांग्रेस
के आन्दोलनों में सक्रिय भाग ले चुके थे। एक बार तो खिलाफत आन्दोलन में भाग
लेने के कारण वे एक वर्ष का कठोर कारावास भी भोग चुके थे। लेकिन अपने
अनुभव से वे समझ गये कि राजनैतिक दल देश की सुरक्षा और अखंडता के लिए सदैव
सहायक नहीं हो सकते, बल्कि कई बार अपने क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों के लिए
देश के हितों से भी समझौता कर लेते हैं।
इसलिए डाक्टर साहब ने हिन्दुओं को संगठित
करने के लिए एक ऐसे संगठन की आवश्यकता अनुभव की, जो राजनीति से दूर रहकर
केवल हिन्दू समाज की एकता का कार्य करता हो। इसी पृष्ठभूमि के साथ उन्होंने
संघ की स्थापना एक सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन के रूप में की। लम्बे समय
तक संघ का यही स्वरूप रहा, हालांकि उसके स्वयंसेवकों को अपनी पसन्द के किसी
भी राजनैतिक दल में जाने की छूट थी। स्वयं डाक्टर साहब और कई वरिष्ठ
कार्यकर्ता कांग्रेस में रह चुके थे, जबकि अन्य बहुत से कार्यकर्ता हिन्दू
महासभा के सदस्य थे। उनमें कोई विरोधाभास या टकराव भी नहीं था, क्योंकि संघ
एक संगठन के रूप में सभी पार्टियों से निर्लिप्त था। हालांकि कांग्रेस के
कई नेता चाहते थे कि संघ कांग्रेस के साथ मिलकर कार्य करे और हिन्दू महासभा
के कई नेता इसलिए संघ से नाराज रहते थे कि हिन्दू हितों की बात करते हुए
भी संघ हिन्दू महासभा से दूरी बनाये रखता था। लेकिन डाक्टर साहब ने दृढ़ता
से दोनों प्रकार के दबावों को ठुकरा दिया और संघ का स्वतंत्र स्वरूप बनाये
रखा।
लेकिन गाँधी हत्या के बाद संघ को एक बुरा
अनुभव हुआ। जब इस घटना के बाद संघ पर अनावश्यक और अनुचित प्रतिबंध लगाया
गया, तो संघ पूरी तरह अकेला पड़ गया। जाँच के बाद यह स्पष्ट हो जाने के बाद
भी कि संघ का इस हत्याकांड से दूर का भी सम्बंध नहीं है, विधानमंडलों और
संसद में एक भी सदस्य ऐसा नहीं निकला, जो संघ के प्रतिबंध को हटाने की बात
करता। घोर लज्जा की बात है कि मानवाधिकारों की बात करने वाले बड़े-बड़े
नेताओं और समाचारपत्रों तक के मुँह से संघ के पक्ष में और स्वयंसेवकों के
दमन के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं निकला।
मुझे अत्यन्त खेद के साथ लिखना पड़ रहा है
कि अपराधियों तक के मानवाधिकारों की बात करने वाले तथाकथित समाजवादी
नेताओं के मुँह से भी संघ के स्वयंसेवकों के मानवाधिकारों के पक्ष में एक
भी आवाज नहीं निकली। उल्टे नेहरू जैसे नकली देशभक्त संघ के ऊपर यह आरोप
लगाने लगे कि वह राजनीति में भाग लेता है। हालांकि वे यह नहीं बताते थे कि
यदि संघ राजनीति में भाग लेता भी है तो उससे कौन सा कानून टूटता है। देश का
कोई भी नागरिक राजनीति में भाग ले सकता है और इसका उसे जन्म सिद्ध अधिकार
है। परन्तु अपने अधिकारों की बात करने वाले नेहरू स्वयंसेवकों के इस अधिकार
पर चुप्पी साध लेते थे। जब स्वयंसेवकों के दमन की पराकाष्ठा हो गयी, तो
संघ को सत्याग्रह का आसरा लेना पड़ा। उस शान्तिपूर्ण सत्याग्रह में अस्सी
हजार से अधिक स्वयंसेवकों ने स्वेच्छया गिरफ्तारी दी। जब संसार भर में इस
सत्याग्रह की चर्चा होने लगी, तो नेहरू सरकार को प्रतिबंध हटाने पर विचार
करने को बाध्य होना पड़ा और बाद में संघ का लिखित संविधान बन जाने का बहाना
लेकर नेहरू ने प्रतिबंध हटा लिया।
लेकिन इस कटु अनुभव के बाद संघ के वरिष्ठ
कार्यकर्ताओं ने विचार किया कि यदि विधानमंडलों और संसद में हमारे
प्रतिनिधि होते, तो वे अवश्य हमारे पक्ष में आवाज उठाते। इसलिए हम भले ही
राजनीति में सीधे भाग न लें, लेकिन राजनीति में हमारे पक्ष की बात करने
वाले लोग अवश्य होने चाहिए। इसी के बाद संघ की विचारधारा से प्रेरित
राजनैतिक दल के गठन की चर्चा होने लगी। उस समय कुछ संघ समर्थक लोगों ने
‘जनसंघ’ नामक दल बना लिया था। इसी को विस्तारित करके ‘भारतीय जनसंघ’ के नाम
से एक अखिल भारतीय राजनैतिक दल बनाया गया। हिन्दू महासभा के नेता रह चुके
प्रखर देशभक्त डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को इस दल का अध्यक्ष चुना गया।
संघ ने पं. दीन दयाल उपाध्याय, नाना जी देशमुख, सुन्दर सिंह भंडारी, डा.
भाई महावीर, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण अडवाणी जैसे अपने अनेक वरिष्ठ और
श्रेष्ठ कार्यकर्ता भारतीय जनसंघ को दिये।
हालांकि भारतीय जनसंघ का गठन संघ के
आशीर्वाद से हुआ था, लेकिन स्वयंसेवकों के लिए ऐसी कोई बाध्यता नहीं थी कि
वे इस दल के लिए कार्य करेंगे ही। वे स्वेच्छा से किसी भी राजनैतिक दल में
जा सकते थे। यह अवश्य है कि अपनी विचारधारा के कारण अधिकांश स्वयंसेवक
भारतीय जनसंघ को ही अपने सबसे अधिक निकट पाते थे और उसी के लिए कार्य करते
थे।1977 में जब जनता पार्टी का गठन हुआ, तो लोकनायक जयप्रकाश नारायण के
आग्रह पर भारतीय जनसंघ ने स्वयं को जनता पार्टी में विलीन कर दिया। परन्तु
सन् 1980 में जब तथाकथित समाजवादियों ने पूर्ववर्ती जनसंघ के सदस्यों पर
रा.स्व.संघ से अपने सम्बंध तोड़ने पर जोर डाला, तो संघ को छोड़ने की जगह
स्वयंसेवकों ने जनता पार्टी को छोड़ना बेहतर समझा और भारतीय जनता पार्टी का
गठन किया, जिसमें पूर्ववर्ती भारतीय जनसंघ के सभी लोग तो शामिल हुए ही,
बहुत से ऐसे लोग भी शामिल हो गये, जो स्वयं को संघ की विचारधारा के निकट
पाते थे।
आज अधिकांश स्वयंसेवक अपनी विचारधारा के
कारण भारतीय जनता पार्टी के समर्थक हैं और उसके लिए काम करते हैं, हालांकि
संघ की दृष्टि से वे किसी भी राजनैतिक दल का समर्थन करने के लिए स्वतंत्र
हैं। वैसे संघ राजनीति में आज भी भाग नहीं लेता, लेकिन राजनैतिक चर्चा से
अलग भी नहीं रह सकता। संघ का मानना है कि राजनीति कोई त्याज्य वस्तु नहीं
है, क्योंकि यह हमारे और देश के जनजीवन को नियंत्रित करती है। इसलिए हम भले
ही राजनीति में भाग न लें, लेकिन हमें उसके प्रति जागरूक रहना चाहिए और एक
जिम्मेदार नागरिक की भूमिका निभानी चाहिए।
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