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Monday 21 January 2013

पंजाब में आतंकवाद


किसी भी समुदाय में महत्वाकांक्षी लोगों की कमी नहीं होती। ऐसे लोगों को सब्जबाग दिखाकर गलत रास्ते पर डालना भी सरल होता है। पंजाब में आतंकवाद इसी प्रवृत्ति का परिणाम था। प्रारम्भ में इसको खाद-पानी देने का काम हमारे पड़ोसी और शत्रु देश पाकिस्तान ने किया था। पाकिस्तान को इसका अवसर जनता पार्टी सरकार के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की एक गलत नीति के कारण मिला। जनता सरकार बनने से पहले भारत की सरकारें पाकिस्तान के सिंधी आन्दोलनकारियों को समर्थन देती रहती थीं, जिससे पाकिस्तान की नाक में दम बना रहता था। लेकिन मोरारजी देसाई क्योंकि कट्टर गाँधीवादी थे और अहिंसा में पूर्ण विश्वास रखते थे, इसलिए उन्होंने सिंधी आन्दोलनकारियों को समर्थन देना बन्द कर दिया।

इसका फायदा पाकिस्तान ने यह उठाया कि वह भारत के कश्मीरी और पंजाबी अलगावादियों को अधिक सक्रिय समर्थन देने लगा। कश्मीरी अलगाववादियों को तो मजहब के नाम पर बरगलाना आसान था, लेकिन पंजाब के सिख अलगाववादियों को उसने खालिस्तान का सपना दिखाया। बहुत से पंजाबी नौजवान उसके झाँसे में आ गये और आतंकवादी गतिविधियाँ चलाने लगे। यह एक बिडम्बना ही थी, क्योंकि यदि उन्होंने मुसलमानों का नहीं तो केवल अपने पंथ का इतिहास भी पढ़ा होता, तो उन्हें पता चलता कि मुसलमान बादशाहों विशेष रूप से मुगल बादशाहों ने सिख पंथ के गुरुओं और उनके अनुयायियों पर कैसे-कैसे जुल्म ढाये थे। उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि जो पाकिस्तानी मुसलमान अपने ही देशवासी बंगाली मुसलमानों के सगे न हो सके, वे भारतीय सिखों के सगे कैसे होंगे?

आतंकवादी सिख नौजवानों को देश के सामाजिक ताने-बाने का भी कोई ज्ञान नहीं था। उन्हें पता होना चाहिए था कि भारत में और दुनिया भर में सिखों और हिन्दुओं में शताब्दियों से रोटी-बेटी का नाता रहा है, जिसको तोड़ना असम्भव है। उन्हें शायद यह भी ज्ञात नहीं था कि सिख पंथ के सभी गुरुओं ने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए ही अपने बलिदान दिये थे, जिनके लिए प्रत्येक हिन्दू का रोम-रोम ऋणी है और हमेशा रहेगा। अगर उन्होंने अपना इतिहास पढ़ा होता, तो समझ जाते कि हिन्दुस्तान में खालिस्तान के लिए कोई स्थान खाली नहीं है। इन भटके हुए नौजवानों की सोच एकदम सरल थी। उन्होंने पंजाब में सिखों का बहुमत देखा और सोचा कि यदि यहाँ से हिन्दुओं को मारकर बाहर भगा दिया जाये, तो शेष भारत से सिखों को मार-मारकर पंजाब में भेज दिया जाएगा और अपने आप खालिस्तान बन जायेगा।

अपनी इसी एकांगी सोच के तहत उन्होंने पंजाब में चुन-चुनकर हिन्दुओं को निशाना बनाना शुरू किया। घरों में घुसकर और बसों से उतार-उतारकर हिन्दुओं को मारा गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ क्योंकि हमेशा से हिन्दुओं और सिखों की एकता का प्रबल समर्थक रहा है, इसलिए संघ की शाखाओं पर उन्होंने विशेष रूप से हमले किये और कई स्वयंसेवकों के प्राण ले लिये। लेकिन मुझे इस बात का गर्व है कि घोर आतंकवाद के दिनों में भी जब प्रत्येक हिन्दू का खून खालिस्तानी  आतंकवादियों के नाम पर खौल उठता था, संघ ने हमेशा हिन्दुओं और सिखों (जिन्हें हम केशधारी हिन्दू कहते हैं) की एकता और अभिन्नता पर ही बल दिया। संघ ने हिन्दू समाज के इस बहादुर वर्ग को सही दिशा देने के लिए राष्ट्रीय सिख संगत की स्थापना की और लाखों केशधारी बंधुओं को इससे जोड़ा।

इस मामले में संघ और भाजपा को अधिकांश अकाली नेताओं का भी पूर्ण सहयोग मिला। प्रकाश सिंह बादल, हरचंद सिहं लोंगोवाल तथा सुरजीत सिंह बरनाला ने इस समस्या के समाधान में बहुत  सकारात्मक  योगदान दिया। हालांकि अकाली दल के कई अन्य टुकड़ों ने खालिस्तानी आतंकवादियों का समर्थन किया, लेकिन उनकी संख्या उँगलियों पर गिनने लायक ही थी। लेकिन इस मामले में कांग्रेस के अधिकांश नेताओं का रवैया बहुत अफसोसजनक रहा। वास्तव में कांग्रेस ने ही प्रारम्भ में अकाली दल को किनारे लगाने के लिए खालिस्तानी आतंकवादियों की पीठ थपथपायी थी। कांग्रेस के तत्कालीन महामंत्री राजीव गाँधी ने भिंडरावाले जैसे आतंकी सरगना को सन्त की उपाधि दी थी और उसे दिल्ली बुलाकर अनावश्यक महत्व दिया था। इसी भिंडरावाले ने कांग्रेसी सिख नेताओं खास तौर से ज्ञानी जैल सिंह की शह पर स्वर्णमन्दिर परिसर में स्थित अकाल तख्त पर कब्जा कर लिया था और वहाँ सैकड़ों हथियारबन्द आतंकियों ने अपना अड्डा बना लिया था। यह 1982-83 का समय था, जब पंजाब में कांग्रेस के दरबारा सिंह की ही सरकार थी।

ये आतंकी ही आगे चलकर कांग्रेस के लिए भस्मासुर सिद्ध हुए। साँपों को दूध पिलाने का क्या परिणाम होता है यह कांग्रेस को अच्छी तरह पता चल गया। पहले तो कांग्रेस ने इन आतंकियों को इज्जत बख्शी और उन पर लगाम नहीं लगायी, लेकिन जब आतंकवाद हद से अधिक बढ़ गया तो स्वर्णमन्दिर पर बहुत गलत तरीके से हमला किया। उन्होंने इस बात का ध्यान नहीं रखा कि सीधे स्वर्णमन्दिर पर हमला करने से सिख बंधुओं की भावनायें बुरी तरह आहत होंगी। वास्तव में यह इन्दिरा गाँधी की सहज प्रवृत्ति थी कि पहले तो किसी समस्या को हद से ज्यादा बढ़ जाने देती थीं और फिर उसको हल करने के नाम पर एकदम उग्र कार्रवाई करके उसे उचित ठहराती थीं। यही उन्होंने स्वर्णमन्दिर में घुसे हुए सिख आतंकवादियों को समाप्त करने के लिए किया।

जून 1984 में आपरेशन ब्लू स्टार के नाम से हुई इस कार्रवाई में आतंकी सरगना भिंडरावाले मारा गया और उसके सभी साथी भी नरकगामी हुए। लेकिन देश को और स्वयं कांग्रेस को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। इन्दिरा गाँधी की हत्या हुई, जिसके बाद हजारों सिखों का कत्ल किया गया और फिर घोर दमनात्मक कार्रवाई करके पंजाब को आतंकवाद से मुक्त किया गया। इसके बारे में अगले लेख में।

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