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Monday 21 January 2013

महामनीषी पं. दीनदयाल उपाध्याय

आधुनिक भारत के जिन महान् सपूतों ने अपने सर्वांगीण चिन्तन और कार्यों से भारत माता को गौरवान्वित किया है उनमें पं. दीनदयाल उपाध्याय का नाम अत्यन्त आदर के साथ लिया जाता है। उनका जन्म आश्विन कृष्णा त्रयोदशी संवत् 1973 विक्रमी तदनुसार दि. 25 सितम्बर सन् 1916 ई. को पवित्र ब्रजभूमि में मथुरा जिले के फरह कस्बे के निकट नगला चन्द्रभान नामक गाँव में हुआ था। उनका नाम ‘दीनदयाल’ रखा गया था और परिवार में प्यार से ‘दीना’ कहा जाता था। उनकी माता श्रीमती रामप्यारी एक धार्मिक महिला थीं और पिता श्री भगवती प्रसाद जलेसर में सहायक स्टेशन मास्टर थे। उनके पितामह पं. हरीराम उपाध्याय एक विख्यात ज्योतिषी थे। एक ज्योतिषी ने शिशुपन में ही उनकी कुंडली का अध्ययन करके बताया था कि यह लड़का एक महान् विद्वान्, विचारक, निस्वार्थ कार्यकर्ता और प्रमुख राजनेता बनेगा, लेकिन यह विवाह नहीं करेगा।

उनके दो वर्ष बाद उनके छोटे भाई शिवदयाल का जन्म हुआ। लेकिन जब वे मात्र तीन वर्ष के थे तो उनके पिता का देहान्त हो गया। पिता के स्वर्गवास के बाद वे अपनी माता के साथ अपने नाना श्री चुन्नी लाल के यहाँ रह रहे थे। लेकिन जब वे केवल 8 वर्ष के थे, तो उनकी माता का भी देहान्त हो गया और जब वे 10 वर्ष के हुए तो उनके नाना भी चल बसे। इस प्रकार अत्यन्त छोटी उम्र में ही वे माता-पिता और नाना सबके स्नेह से वंचित हो गये। ऐसी विषम परिस्थिति में उनके मामा के यहाँ उनका पालन-पोषण किया जाता रहा। उनकी मामी दोनों भाइयों का बहुत ध्यान रखती थीं। लेकिन दुर्भाग्य से जब वे केवल 18 वर्ष के थे, तो उनके छोटे भाई शिवदयाल का देहावसान बीमारी के कारण हो गया और दीनदयाल संसार में अकेले रह गये।

दीनदयाल जी बहुत योग्य विद्यार्थी थे। उन्होंने राजस्थान बोर्ड से हाईस्कूल की परीक्षा सन् 1935 में और इंटरमीडियेट परीक्षा सन् 1937 में प्रथम रहते हुए उत्तीर्ण की। दोनों परीक्षाओं में उन्हें स्वर्णपदक प्राप्त हुआ और महाराजा सीकर की ओर से तथा बिरला की ओर से छात्रवृत्तियाँ भी मिलने लगी। स्नातक की पढ़ाई के लिए वे कानपुर गये और वहाँ से प्रथम श्रेणी में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। कानपुर में रहते हुए ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये और उसकी विचारधारा तथा कार्यप्रणाली से प्रभावित होकर संघ के सक्रिय कार्यकर्ता बन गये। एम.ए. की पढ़ाई के लिए वे आगरा गये, क्योंकि उनकी ममेरी बहिन रमा देवी की वहाँ चिकित्सा चल रही थी। उनका विचार था कि वे बहिन की सेवा भी करते रहेंगे और पढ़ते भी रहेंगे। परन्तु दुर्भाग्य से रमा देवी का बीमारी में ही देहान्त हो गया और इस कारण वे एम.ए. की परीक्षा भी नहीं दे सके। इस कारण उनको मिलने वाली छात्रवृत्तियाँ भी बन्द हो गयीं।

अपने मामाजी की अनुमति से वे बी.टी. करने प्रयाग गये और उसमें भी सफल हुए, परन्तु वहाँ भी वे संघ में सक्रिय रहे। अपनी मामी के आग्रह पर वे सरकार की सिविल सेवा परीक्षा में केवल धोती-कुर्ता-टोपी पहनकर सम्मिलित हुए, जबकि अन्य सभी प्रतियोगी पश्चिमी वेशभूषा में आये थे। जब उस परीक्षा का परिणाम आया तो सबको आश्चर्यचकित करते हुए वे सर्वप्रथम रहे। लेकिन तब तक उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन संघ के कार्य में लगाने का निश्चय कर लिया था, इसलिए वे सरकारी सेवा में नहीं गये। उन्होंने विवाह करने का परिवार का आग्रह भी विनम्रतापूर्वक ठुकरा दिया।

सन् 1942 में वे संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गये और लखीमपुर में जिला प्रचारक नियुक्त हुए। वे कुशल संगठक होने के साथ-साथ एक प्रभावशाली लेखक और पत्रकार भी थे। उन्होंने लखनऊ में ‘राष्ट्र धर्म प्रकाशन’ की स्थापना की और ‘राष्ट्र धर्म’ मासिक पत्रिका प्रारम्भ की। इसके अलावा बाद में उन्होंने ‘पांचजन्य’ साप्ताहिक और ‘स्वदेश’ दैनिक भी प्रारम्भ किये। वे इन सभी के सम्पादन के साथ ही अन्य कार्यों को भी किया करते थे। 1955 में वे उत्तर प्रदेश के प्रान्त प्रचारक नियुक्त किये गये।जब डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1951 में भारतीय जनसंघ नामक राजनैतिक दल की स्थापना की, तो परमपूज्य श्री गुरुजी की अनुमति से पं. दीन दयाल उपाध्याय उसमें सक्रिय हो गये और उ.प्र. में उसके प्रथम महामंत्री बने। बाद में वे भारतीय जनसंघ के अखिल भारतीय महामंत्री भी बनाये गये। उन्होंने अपना दायित्व इतनी कुशलता और सतर्कता के साथ निभाया कि डा. मुखर्जी उनसे बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने टिप्पणी की थी- ”यदि मुझे दो दीनदयाल मिल जायें, तो मैं इस देश का राजनैतिक नक्शा बदल दूँगा।”

सन् 1953 में जम्मू-कश्मीर की जेल में डा. मुखर्जी के देहावसान से भारतीय जनसंघ का सारा कार्यभार दीनदयाल जी के ऊपर ही आया। पूरे 15 वर्ष तक वे इसके महामंत्री बने रहे और ईंट दर ईंट इसका निर्माण किया। उनकी गिनती प्रभावशाली राष्ट्रीय नेताओं में की जाती थी और उनका भाषण सुनने के लिए लाखों लोग उमड़ पड़ते थे। उन्होंने जौनपुर से लोकसभा का चुनाव भी लड़ा, परन्तु उन्होंने चुनावी युद्ध में जातिवादी दाँवपेंच अपनाने से साफ मना कर दिया और हार गये। वे 1967 में भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष चुने गये और अपनी अन्तिम साँस तक इस दायित्व को निभाते रहे।

पं. दीनदयाल उपाध्याय बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न थे। वे कुशल संगठक, सामाजिक चिन्तक और दार्शनिक, पत्रकार, लेखक और राजनेता थे। उनको उनके द्वारा दिये गये ‘एकात्म मानववाद’ के दर्शन के लिए स्मरण किया जाता है। यह चिन्तन पूरी तरह भारतीय मान्यताओं और परम्पराओं के आधार पर किया गया है। इसमें प्रत्येक मानव के समग्र शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास पर जोर दिया गया है। दीनदयाल जी का कहना था कि भारतीय संस्कृति ‘अनेकता में एकता’ की अवधारणा में विश्वास करती है, इसलिए यह सर्वश्रेष्ठ है। उनके ये विचार आज के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक वातावरण में अभी भी प्रासंगिक बने हुए हैं। पं. दीनदयाल उपाध्याय हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रतीक, दार्शनिक और मार्गदर्शक थे। उन्होंने कई श्रेष्ठ पुस्तकें भी लिखीं थीं, जिनमें से कुछ के नाम हैं- ‘सम्राट चन्द्रगुप्त’, ‘जगद्गुरु शंकराचार्य’, ‘एकात्म मानववाद’, ‘राष्ट्र जीवन की दिशा’, ‘राष्ट्रीयता का पुण्य प्रवाह’, ‘राजनैतिक डायरी’ आदि।

1968 में भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष पद ग्रहण करने के बाद वे जनसंघ का सन्देश लेकर दक्षिण भारत की यात्रा पर गये। वहाँ कालीकट में हुए अधिवेशन में हजारों प्रतिनिधियों को सम्बोधित करते हुए निम्न शब्दों में उनका आह्वान किया- ”हमने किसी एक समुदाय या क्षेत्र की नहीं बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र की सेवा करने का संकल्प लिया है। प्रत्येक देशवासी का खून हमारा खून है और उसकी मज्जा हमारी मज्जा है। हम तब तक चैन से नहीं बैठेंगे, जब तक प्रत्येक देशवासी को इस गर्व की अनुभूति नहीं करा देंगे कि वे भारत माता की सन्तान हैं। हम भारत माता को सही अर्थों में सुजला, सुफला बना देंगे। दशप्रहरणधारिणी दुर्गा के रूप में वह सभी बुराइयों को नष्ट कर देगी, लक्ष्मी के रूप में वह सभी को समृद्धि देगी और सरस्वती के रूप में वह अज्ञान के अन्धकार को मिटाकर सभी को ज्ञान देगी। अन्तिम विजय के विश्वास के साथ हमें इस कार्य में समर्पित होकर जुट जाना है।“

यदि पं. दीनदयाल उपाध्याय कुछ अधिक समय तक सक्रिय रहते, तो शायद देश का राजनैतिक चित्र कुछ और होता, परन्तु विधाता को कुछ और ही मंजूर था। 11 फरवरी, 1968 को पटना जाते हुए रास्ते में रेलगाड़ी में ही रहस्यमय रूप से उनकी हत्या कर दी गयी। उनका शव मुगल सराय के रेलवे यार्ड में लावारिश शवों की तरह पड़ा पाया गया, जिसे काफी देर बाद एक कार्यकर्ता ने पहचाना। इसके बाद यह समाचार विद्युत् गति से सब ओर फैल गया। जिसने भी पं. दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु का समाचार सुना, स्तब्ध रह गया। उनकी मृत्यु की कभी पूरी जाँच नहीं हुई और लीपापोती करके इसे सामान्य दुर्घटना बताकर रफा-दफा कर दिया गया।

यद्यपि पं. दीनदयाल उपाध्याय सशरीर हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उन्होंने निस्वार्थ राष्ट्र सेवा का जो आदर्श दिया, वह हमें दीर्घकाल तक प्रेरणा देता रहेगा।

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