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Tuesday 22 January 2013

अल्पमत और जोड़-तोड़ की सरकार : नरसिंह राव


चुनावों के दौरान मई 1991 में राजीव गाँधी की हत्या हो जाने के बाद जून 1991 में जो चुनाव सम्पन्न हुए उनमें कांग्रेस को राजीव गाँधी की हत्या से उत्पन्न सहानुभूति लहर के कारण अप्रत्याशित रूप से 244 सीटें मिल गयीं और कांग्रेस फिर सबसे बड़ी पार्टी बन गयी। इसलिए उसे सरकार बनाने का अवसर दिया गया। उस समय प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे वरिष्ठ कांग्रेस नेता पामुलापर्ती वेंकट नरसिंह राव को चुना गया, जो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके थे और इंदिरा गाँधी तथा राजीव गाँधी दोनों के केन्द्रीय मंत्रिमंडलों में गृह, रक्षा और विदेश सहित कई विभागों को सँभाल चुके थे।

नरसिंह राव एक योग्य व्यक्ति थे। वे वकील, नेता, कार्यकर्ता और विद्वान् एक साथ थे, हालांकि अच्छे वक्ता नहीं थे। वे आठ भारतीय भाषाओं के ज्ञाता होने के साथ-साथ कई विदेशी भाषाएँ भी सरलता से बोल सकते थे। वे नेहरू-गाँधी परिवार से बाहर के ऐसे पहले व्यक्ति थे, जो पूरे 5 साल तक देश के प्रधानमंत्री रहे। हालांकि कांग्रेस की लोकसभा सीटों की संख्या बहुमत के लिए आवश्यक 273 की संख्या से काफी कम थी, लेकिन कांग्रेस को शेष समर्थन की व्यवस्था करने यानी जोड़-तोड़ करने में कोई कठिनाई नहीं हुई, क्योंकि वे किसी भी तरह सत्ता में आना चाहते थे।

नरसिंह राव का कार्यकाल इस बात के लिए याद किया जाता है कि उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को लाइसेंस राज की जकड़न से मुक्त किया और उसे उदारवादी रास्ते पर डाला। इस काम में उन्हें अपने तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह (वर्तमान प्रधानमंत्री) से काफी सहयोग मिला, जो विश्व बैंक की नौकरी से रिटायर होकर आये थे। उन्होंने अर्थव्यवस्था को उदार और मजबूत बनाने के लिए कई उल्लेखनीय कार्य किये, जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं-
  • उन्होंने 1992 में सेबी का गठन किया और सभी प्रकार के शेयरों और सिक्योरिटियों की खरीद-बिक्री पर नियंत्रण का पूर्ण अधिकार उसको दे दिया।
  • उन्होंने नेशनल स्टाॅक एक्सचेंज प्रारम्भ किया और इस प्रकार मुंबई और कलकत्ता के स्टाक एक्सचेंजों का एकाधिकार समाप्त किया।
  • उन्होंने शेयरों की खरीद-बिक्री केवल कम्प्यूटरों के माध्यम से करना अनिवार्य कर दिया।
  • उन्होंने रुपये को पूर्ण परिवर्तनीय बनाया।
  • उन्होंने विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए विदेशी संस्थागत निवेशकों को भारत के शेयर बाजार में पैसा लगाने की अनुमति दी।
  • उन्होंने और अधिक विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए ग्लोबल जमा रसीदों को जारी किया।
  • उन्होंने 35 प्रकार के उद्योगों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति विभिन्न प्रतिबंधों के अनुसार दी।
  • उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण तो वापस नहीं किया, लेकिन उनको अधिक कड़ा बनाया और उनके मुकाबले में विदेशी बैंकों को भी कार्य करने की अनुमति दी, ताकि देशी बैंक उनकी प्रतियोगिता में मजबूत बनें।
  • उन्होंने बैंकों के सम्पूर्ण कम्प्यूटरीकरण को अनिवार्य कर दिया।

कहने की आवश्यकता नहीं कि इन उपायों से देश की अर्थव्यवस्था जो अंतिम साँसें गिन रही थी, धीरे-धीरे चेतनावस्था में आ गयी और आगे चलकर दौड़ने भी लगी। लेकिन उनका कार्यकाल विवादों से मुक्त नहीं रहा। 6 दिसम्बर 1992 को उनके ही कार्यकाल में  बाबरी
मस्जिद ढहायी गयी और उसके बाद भयंकर हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए।

जुलाई 1993 में उनके खिलाफ विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव प्रस्तुत किया। कांग्रेस के पास क्योंकि प्रारम्भ से ही बहुमत नहीं था और उसकी सरकार गिरने वाली थी। सरकार बचाने लायक शेष वोटों के जुगाड़ के लिए उन्होंने झारखण्ड मुक्ति मोर्चा जैसे छोटे दलों के सांसदों को खरीद लिया, जिनको सूटकेस भर-भरकर नोट दिये गये। इन्दिरा गाँधी ने दोबारा सत्ता में आने पर एक हजार के नोट फिर से चालू कर दिये थे, जो जनता पार्टी सरकार ने बन्द कर दिये थे। ऐसे नोट यहाँ बहुत काम आये। एक-एक सूटकेस में करोड़ों की नकदी सरलता से दी और ली गयी। ये नोट निश्चित रूप से उन धन्नासेठों से प्राप्त हुए होंगे, जो पिछली सरकारों के दिनों में पड़े छापों से परेशान हो गये थे। इस तरह उन्होंने नोटों के बल पर लोकतंत्र की खूब धज्जियाँ उड़ायीं।

पूरे पाँच साल तक सत्ता में रहकर नरसिंह राव 1996 में तब सत्ता से बाहर हुए जब नये चुनावों में कांग्रेस बुरी तरह हार गयी और भारतीय जनता पार्टी लगभग 200 सीटें जीतकर सबसे बड़ा दल बन गयी। इसकी चर्चा आगे के लेखों में की जाएगी।

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