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Monday 21 January 2013

संघ की शाखा में क्या होता है?


बहुत से लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में दूसरों से सुनकर सही या गलत धारणा बना लेते हैं और सत्य जानने के लिए कभी स्वयं किसी शाखा में पधारने का कष्ट नहीं करते। संघ को समझने का सबसे सरल और पक्का उपाय स्वयं शाखा में जाना है। बहुत से लोग इच्छा रहते हुए भी कई कारणों से शाखा नहीं आ पाते, इसलिए उनको भी संघ शाखा के सही स्वरूप का ज्ञान नहीं होता। यहाँ मैं संक्षेप में लिख रहा हूँ कि संघ की शाखा क्या है और उसमें क्या-क्या होता है?

किसी एक क्षेत्र के स्वयंसेवकों के दैनिक एकत्रीकरण को संघ की शाखा कहा जाता है। यह एकत्रीकरण एक पूर्व निर्धारित स्थान पर निर्धारित समय पर होता है। उस स्थान को संघ स्थान कहा जाता है। यह कोई भी सार्वजनिक या निजी स्थान हो सकता है, जिसमें स्वयंसेवकों के एकत्रीकरण पर उस स्थान के स्वामी को आपत्ति न हो। सामान्यतया किसी सार्वजनिक पार्क के किसी कोने पर संघ शाखा लगायी जाती है। यह प्रातःकाल हो सकती है या सायंकाल भी। सामान्यतया तरुणों अर्थात् वयस्कों की शाखा प्रातःकाल तथा बच्चों या विद्यार्थियों की शाखा सायंकाल लगायी जाती है। हालांकि किसी भी शाखा में किसी भी उम्र का कोई भी व्यक्ति आ सकता है। शाखा का समय प्रायः एक घंटा होता है। आवश्यकता के अनुसार इसे कम या अधिक किया जा सकता है।

किसी शाखा का प्रमुख व्यक्ति मुख्यशिक्षक होता है। शाखा लगाने, शाखा में सभी कार्यक्रम कराने और शाखा क्षेत्र के स्वयंसेवकों से सम्पर्क करने का दायित्व मुख्य शिक्षक का ही होता है। हालांकि इन कार्यों में उसकी सहायता कोई भी स्वयंसेवक कर सकता है। निर्धारित समय पर जब कुछ स्वयंसेवक आ जाते हैं तो सबसे पहले संघ स्थान पर एक निर्धारित जगह पर भगवा ध्वज लगाया जाता है। सभी लोग ध्वज को प्रणाम करते हैं और शाखा प्रारम्भ हो जाती है। जो लोग देर से आते हैं, वे पहले ध्वज को प्रणाम करते हैं, फिर मुख्य शिक्षक को प्रणाम करके शाखा में सम्मिलित होने की आज्ञा लेते हैं। संघ में भगवा ध्वज को ही गुरु माना जाता है, किसी व्यक्ति को नहीं। इसलिए जब ध्वज लगा होता है, तो स्वयंसेवक आपस में नमस्कार नहीं करते। ध्वज उतर जाने के बाद ही आपस में नमस्कार किया जा सकता है।

शाखा में कई कार्यक्रम होते हैं, जैसे प्रातःस्मरण या एकात्मता स्तोत्र, व्यायाम, योग, प्राणायाम, सूर्य नमस्कार, खेलकूद आदि। स्वयंसेवकों की उम्र के अनुसार ही व्यायामों और खेलों का चयन किया जाता है। इनको शारीरिक कार्यक्रम कहा जाता है। ये सभी कुल मिलाकर लगभग 40 मिनट तक होते हैं। फिर पास-पास गोल घेरे में या पंक्तियों में जमीन पर बैठकर बौद्धिक कार्यक्रम होते हैं, जैसे गीत, सुभाषित, प्रेरक प्रसंग, प्रवचन आदि। गीत और सुभाषित सामूहिक होते हैं। समय होने पर सामयिक विषयों पर चर्चा भी होती है। सभी बौद्धिक कार्यक्रम लगभग 20 मिनट होते हैं।

अन्त में संघ की प्रार्थना होती है, जिसे एक स्वयंसेवक बोलता है और बाकी सब दोहराते हैं। प्रार्थना के बाद सभी लोग ध्वज प्रणाम करते हैं और प्रार्थना बोलने वाला स्वयंसेवक ध्वज उतार लेता है। उसके बाद विकिर अर्थात् शाखा का समापन किया जाता है। विकिर के बाद स्वयंसेवक अपने-अपने घर जा सकते हैं।

संघ में अनुशासन का बहुत महत्व है। स्वयंसेवक इसकी शिक्षा शाखा में ही पाते हैं। शाखा में सभी स्वयंसेवक मुख्यशिक्षक की आज्ञा मानते हैं और उनके अनुसार सभी कार्यक्रम करते हैं। इस अनुशासन को कोई भी नहीं तोड़ता। शाखा में सभी एक दूसरे को आदरपूर्वक संबोधित करते हैं और प्रथम नाम या मूल नाम में ‘जी’ लगाकर बोलते हैं, जैसे रामलाल जी, सुरेश जी, गोविन्द जी आदि, चाहे वह व्यक्ति उम्र में बड़ा हो या छोटा हो। कुलनामों का उच्चारण शाखा में नहीं किया जाता। शाखा में एक दूसरे की जाति-गोत्र आदि पूछना या बताना मना है। सभी हिन्दू हैं, इतना ही हमारे लिए पर्याप्त है। मुसलमानों और ईसाइयों को भी हम क्रमशः मुहम्मदपंथी हिन्दू और ईसापंथी हिन्दू कहते हैं, इसलिए वे भी बेखटके शाखा आ सकते हैं।

किसी शाखा में आने वाले स्वयंसेवक साथ-साथ सभी शारीरिक और बौद्धिक कार्यक्रम करते हैं। ऐसा करते-करते उनमें सहज ही आत्मीयता उत्पन्न हो जाती है। इससे समाज का संगठन होता है। हिन्दू समाज का संगठन करना ही संघ का प्रमुख कार्य है और शाखा इसका एक सशक्त माध्यम है।

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