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Tuesday 22 January 2013

मुफ्त के नाम पर ठगी और छूट के बहाने लूट


”5 हजार का सामान खरीदिये और साथ में एक हजार की कीमत वाली फलां चीज मुफ्त“
”हर 10 हजार की खरीदारी पर 3 हजार की कीमत वाला सोने का सिक्का भेंट में पाइये“
”हर लैपटाॅप के साथ 5000 की कीमत वाली गेम सीडी फ्री“
”ईद या दिवाली के अवसर पर सभी वस्तुओं पर 20 प्रतिशत की भारी छूट“

ऐसे विज्ञापन आपने बहुत पढ़े-देखे होंगे। वैसे तो यह धन्धा पूरे साल चलता है, लेकिन जब त्यौहारों का मौसम आता है, तो इस तरह के विज्ञापन अखबारों और टी.वी. पर अधिक संख्याओं में दिखायी पड़ने लगते हैं। जो लोग इन विज्ञापनों की असलियत नहीं जानते, वे मुफ्त के चक्कर में उन दूकानों पर जाकर अपनी जेब खाली कर आते हैं और जब घर आकर देखते हैं कि वास्तव में वे लुट गये हैं, तो अपना सिर पीटने के अलावा कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि ”बिका हुआ माल न वापस होगा, न बदला जाएगा“ और ”फैशन के दौर में गारंटी की इच्छा न करें।”

उपभोक्ताओं को सबसे पहले तो यह समझ लेना चाहिए कि दुनिया में कुछ भी मुफ्त नहीं है, कम से कम बाजार में तो बिल्कुल ही नहीं और हर चीज के साथ उसकी ‘मूल्य पर्ची’ लगी होती है। इसलिए यदि दुकानदार एक वस्तु के साथ कोई दूसरी वस्तु मुफ्त दे रहा है, तो निश्चय ही वह उसकी कीमत पहली चीज के साथ ही वसूल कर रहा है। यदि वह छूट पर वस्तुएँ बेच रहा है, तो निश्चय ही तथाकथित छूट के बाद भी वस्तु की पूरी कीमत वसूल रहा है, क्योंकि वह पहले ही काफी बढ़ाकर कीमतों की नयी पर्ची लगा चुका है। इसका सीधा सा कारण यह है कि व्यापारी बाजार में पुण्य कमाने नहीं पैसा कमाने के लिए बैठा है।

अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए ऐसे हथकंडे सभी अपनाते हैं और इस पर कोई आपत्ति तब तक नहीं की जा सकती, जब तक कि वह घटिया वस्तु न दे रहा हो या विज्ञापन में प्रचारित की गयी बात को न मान रहा हो। लेकिन मुझे आपत्ति मुफ्त में दी जाने वाली वस्तुओं की कीमत बढ़ा-चढ़ाकर बताने पर है। 

उदाहरण के लिए, मैंने एक बार एक मेगा माल में खरीदारी की, तो मुझे बताया गया कि एक हजार से अधिक का सामान खरीदने पर एक दीवाल घड़ी मुफ्त में दी जाएगी। मैं ऐसे दावों की असलियत जानता था, इसलिए मैंने मना किया, लेकिन श्रीमतीजी नहीं मानीं और कुछ फालतू किस्म की चीजें खरीदकर बिल एक हजार से कुछ ज्यादा का बनवा लिया। इसके बाद मुझे मुफ्त में जो घड़ी मिली, उस पर अधिकतम मूल्य रु. 399 लिखा हुआ था, जबकि वह घड़ी बहुत घटिया प्लास्टिक का ढाँचा मात्र थी, जिसमें बीच में एक घटिया इंजन लगा था। कुल मिलाकर उस घड़ी की कीमत 40 रुपये से अधिक नहीं थी, यानी कि बताये जा रहे मूल्य की मात्र 10 प्रतिशत। इसी तरह 5 हजार की कीमत वाली जो सीडी मुफ्त में देने का दम्भ किया जाता है, उसकी वास्तविक कीमत मात्र 50 रुपये होती है यानी केवल 1 प्रतिशत। मुफ्त में दी जाने वाली लगभग सभी वस्तुओं का यही हाल है। कई बार ऐसी वस्तुएँ भी मुफ्त में टिका दी जाती हैं, जिनकी हमें कोई जरूरत नहीं है।

अब प्रश्न उठता है कि इसका इलाज क्या हो? मुफ्त में दी जाने वाली वस्तुओं की कीमत पर कोई रोक-टोक नहीं लगायी जा सकती। लेकिन ग्राहक को यह अधिकार होना चाहिए कि यदि वह मुफ्त में दी जाने वाली वस्तु नहीं लेना चाहता, तो जितनी कीमत उस वस्तु की बतायी जा रही है उससे आधी कीमत के बराबर की राशि अपने बिल में से कम करवा ले। उदाहरण के लिए, अगर दुकानदार मुफ्त में दी जाने वाली वस्तु की कीमत एक हजार बता रहा है, तो यदि ग्राहक उस वस्तु को नहीं लेना चाहता, तो उसके बिल में से 500 रुपये कम कर देने चाहिए। यदि ऐसा नियम बन जाये, तो न केवल भ्रामक विज्ञापनों पर रोक लगेगी, बल्कि ग्राहक भी लुटने से और अनावश्यक वस्तुएँ घर मे लाने से बच जायेंगे।

हमारे देश में तमाम उपभोक्ता संगठन हैं, लेकिन ये संगठन कुल मिलाकर व्यापारियों के हितों का ही संरक्षण करते हैं। उनमें से एक ने भी आज तक यह आवाज नहीं उठायी कि ऐसे भ्रामक विज्ञापनों पर नकेल डाली जाये, ताकि आम उपभोक्ता लुटने से बच सके।

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