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Tuesday 22 January 2013

सूक्ष्म मत की सरकार : चन्द्र शेखर


सरकारें प्रायः बहुमत की बनती हैं, कभी-कभी किसी के बाहरी समर्थन से अल्पमत की सरकार भी बन जाती है। लेकिन देश में एक सरकार ऐसी भी बनी, जिसको ‘सूक्ष्म मत की सरकार’ कहा गया था। इस सरकार के मुखिया थे चन्द्र शेखर। वे प्रख्यात समाजवादी आचार्य नरेन्द्र देव के शिष्य थे और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के संयुक्त सचिव और महासचिव भी रहे थे। 1962 में वे राज्यसभा के लिए चुने गये और इसके 2 वर्ष बाद 1964 में कांग्रेस में शामिल हो गये। उनकी गिनती ‘युवा तुर्कों’ में की जाती थी, जिनमें मोहन धारिया, राम धन आदि शामिल थे।

1967 में वे कांग्रेस की टिकट पर लोकसभा के लिए चुने गये। कांग्रेस के सांसद होते हुए भी वे सदन में और सदन से बाहर इन्दिरा गाँधी की जनविरोधी नीतियों का खुलकर विरोध करते थे, इस कारण इन्दिरा गाँधी उनसे बहुत चिढ़ती थीं। वे जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन का खुला  समर्थन करते थे। इसलिए जब 1975 में इन्दिरा गाँधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए देश को आपात्काल की अंधी गली में धकेला, तो इन्दिरा ने विपक्षी नेताओं के साथ-साथ अपनी ही पार्टी के चन्द्रशेखर और उनके साथियों को भी गिरफ्तार कर लिया।

आपात्काल के बाद जब जनता पार्टी बनी तो चन्द्रशेखर को सर्वसम्मति से उसका अध्यक्ष बनाया गया और वे अन्तिम समय तक इस पार्टी के अध्यक्ष बने रहे, हालांकि तब वह पार्टी केवल कागजों पर रह गयी थी। 1977 से प्रारम्भ करके वे 8 बार बलिया क्षेत्र से लोकसभा के लिए चुने गये थे। केवल एक बार 1984 में उनकी हार हुई थी, जब सभी विपक्षी नेता पराजित हो गये थे।

1990 में जब भाजपा द्वारा समर्थन वापस लेने से वी.पी. सिंह की सरकार लोकसभा में ही गिर गयी, तो सबसे बड़ा संसदीय दल होने के नाते कांग्रेस नेता राजीव गाँधी को सरकार बनाने का अवसर मिला था, लेकिन उन्होंने यह सोचकर इंकार कर दिया कि बोफोर्स दलाली कांड में बदनामी के कारण कोई भी पार्टी बाहर से भी उनको समर्थन देने को तैयार नहीं थी। तब तक चन्द्रशेखर जनता दल को तोड़कर अपनी अलग पार्टी जनता दल (समाजवादी) बना चुके थे, जिसके केवल 64 लोकसभा सदस्य थे। राजीव गाँधी ने इस पार्टी को अपना समर्थन देकर नवम्बर 1990 में चन्द्र शेखर को प्रधानमंत्री बनवा दिया। तभी किसी ने (शायद अटल जी ने) उसको ‘सूक्ष्म मत’ की सरकार कहा था।

चन्द्रशेखर की नीतियाँ भी कुल मिलाकर वी.पी. सिंह जैसी ही थीं। इसलिए उनके कार्यकाल को किसी भी तरह विशेष नहीं कहा जा सकता। लेकिन उनकी एक बात के लिए प्रशंसा करनी होगी कि राम जन्मभूमि मन्दिर बनाम बाबरी मस्जिद विवाद को हल करने का सबसे अधिक ईमानदार प्रयास चन्द्रशेखर की सरकार ने किया था। उन्होंने विहिप और बाबरी एक्शन कमेटी दोनों पक्षों को वार्ता की मेज पर लाने में सफलता प्राप्त की थी। पहली बैठक में यह तय हुआ कि दोनों पक्ष अपने-अपने दावे के समर्थन में दस्तावेजी सबूत एक दूसरे को देंगे, जिन पर निष्पक्ष लोगों की निगरानी में चर्चा होगी।

दूसरी बैठक में विहिप ने अपने पक्ष के समर्थन में तमाम ऐतिहासिक और पुरातात्विक सबूत दिये, लेकिन बाबरी पक्ष के पास अपनी बात के समर्थन में केवल कुछ नेताओं के बयान और उनकी अखबारी कतरनों के अलावा कोई सबूत नहीं था। जब दूसरे पक्ष और मध्यस्थता कर रहे लोगों ने इन ‘सबूतों’ को नाकाफी बताया, तो बाबरी वाले बैठक से वाकआउट कर गये और आगे की किसी बैठक में आये ही नहीं। इस प्रकार चन्द्रशेखर सरकार का यह सराहनीय प्रयास विफल हो गया। इन बैठकों में कम्यूनिस्ट इतिहासकार और नेता खुलकर बाबरी पक्ष का समर्थन और प्रतिनिधित्व कर रहे थे, फिर भी आश्चर्य है कि उनको बाबरी मस्जिद के समर्थन में कोई सबूत नहीं मिला।

उन दिनों बाबरी पक्ष के नेता सैयद शहाबुद्दीन बयान दिया करते थे कि ”अगर यह साबित हो जाये कि बाबरी मस्जिद राम मन्दिर तोड़कर बनी है, तो मैं खुद अपने हाथों से उसको तोड़ दूँगा।“ मैं उन दिनों बनारस में था। मैंने अखबारों में लिखा कि ”शहाबुद्दीन अपना हथौड़ा लेकर बनारस आ जायें। मैं उनको वह मस्जिद दिखा दूँगा, जो मन्दिर को तोड़कर बनी है। उसके लिए तो किसी प्रमाण की भी जरूरत नहीं है, कोई भी आँखवाला आकर उन प्रमाणों को देख सकता है। वहाँ वे अपने हथौड़े का सदुपयोग कर सकते हैं।“ मेरा इशारा ज्ञानवापी मस्जिद की ओर था। मेरा पत्र जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, अमर उजाला और जागरण सहित दिल्ली और लखनऊ के कई अखबारों में छपा था। इसके प्रभाव से शहाबुद्दीन की बोलती कुछ ऐसी बन्द हुई कि आज तक नहीं खुली।

खैर, बात चन्द्रशेखर की हो रही थी। राजीव गाँधी ने उनको बिना शर्त समर्थन दिया था। चन्द्रशेखर उनको कोई भाव नहीं देते थे। इसलिए, जैसा कि कांग्रेस का चरित्र रहा है, तीन महीने बाद ही राजीव गाँधी ने एक मामूली बहाने से अपना समर्थन वापस ले लिया। हुआ यह कि उनके निवास के बाहर हरियाणा के दो पुलिसवाले पाये गये थे। राजीव गाँधी ने आरोप लगा दिया कि वे उनके निवास की जासूसी कर रहे थे और समर्थन वापस ले लिया। समर्थन वापस ले लेने पर चन्द्रशेखर ने तत्काल इस्तीफा दे दिया और अगले चुनावों तक प्रधानमंत्री बने रहे।

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