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Monday 21 January 2013

आपात्काल के काले दिन - 2


उस समय राजनीति में चाटुकारिता अपने चरम पर थी। कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष देवकान्त बरुआ ने कहा था कि ”इन्दिरा ही इंडिया है और इंडिया ही इन्दिरा है।“ बड़े-बड़े कांग्रेस नेता और मुख्यमंत्री तक संजय गाँधी की चापलूसी किया करते थे, जिनकी कोई सांवैधानिक हैसियत ही नहीं थी। उ.प्र. के तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा ने विपक्षी कार्यकर्ताओं के दमन की पराकाष्ठा ही कर दी थी, केवल संजय गाँधी को खुश करने के लिए। फिर भी उन्हें जाना पड़ा और उनकी जगह आये चाटुकार शिरोमणि नारायण दत्त तिवारी। वे संजय गाँधी की चप्पलें तक उठाने में संकोच नहीं करते थे। उनके बारे में प्रसिद्ध थी एक तुकबन्दी-
भरी सभा में संजय बोले- कौन है मेरा भक्त?
हाथ जोड़कर खड़े हो गये श्री नारायण दत्त।।

उन दिनों सरकार, पुलिस और कांग्रेसी नेताओं का इतना आतंक था कि आम आदमी सहमा-सहमा रहता था। बहुत से लोगों ने अपनी व्यक्तिगत खुन्नस निकालने के लिए निर्दोष लोगों को पकड़वाया था। इस कारण सरकारी कर्मचारी समय पर कार्यालय आते थे, व्यापारी दुकानों पर स्टाॅक-लिस्ट और रेट-लिस्ट टाँगते थे। हड़तालों, प्रदर्शनों, जुलूस आदि का नामोनिशान नहीं था। इससे सबको लगता था कि देश में बहुत शान्ति है और लोग अनुशासन मानने लगे हैं। विनोबा भावे जैसे सरकारी सन्त ने आपात्-स्थ्तिि को ‘अनुशासन पर्व’ कहकर महिमामंडित किया। लेकिन यह सब भय के कारण था। अन्दर ही अन्दर लोग उबल रहे थे। हालांकि सरकार का पूरा प्रयास रहता था कि गिरफ्तारियों और अत्याचारों के समाचार जनता तक न पहुँचें, लेकिन जनता को सही समाचार बी.बी.सी. से मिल जाते थे।

सरकार ने जनता को मूर्ख बनाने के लिए 20 सूत्री कार्यक्रम घोषित किया और उसका पालन करने का जोर-शोर से प्रचार भी किया। बाद में संजय गाँधी ने इसमें अपने चार सूत्र और जोड़ दिये। यह सब केवल जनता को मूर्ख बनाने का तरीका था। जब लोग इनको मिलाकर ‘चार बीस’ सूत्री कहने लगे, तो संजय ने खिसियाकर उसमें एक सूत्र और जोड़ दिया।

वैसे संजय गाँधी के जो चार या पाँच सूत्र थे, उनसे किसी का मतभेद नहीं हो सकता। इनमें शिक्षा का प्रसार और जनसंख्या नियंत्रण जैसे सूत्र थे। लेकिन इनका क्रियान्वयन बहुत गलत तरीके से किया गया। उदाहरण के लिए, सभी सरकारी कर्मचारियों को नसबन्दी कराने के लक्ष्य दे दिये गये और उन्हें किसी भी कीमत पर लक्ष्य पूरे करने थे। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए पुलिस और सरकारी ताकत का पूरा दुरुपयोग किया गया। अविवाहित युवकों से लेकर बूढ़े लोगों तक की नसबन्दी जबर्दस्ती कर दी गयी। जिन्होंने इस जबर्दस्ती का विरोध किया उन्हें दमन का शिकार होना पड़ा। दिल्ली में तुर्कमान गेट पर मुस्लिमों की भीड़ पर गोली चलायी गयी, जो नसबन्दी का विरोध कर रहे थे। इससे सारा मुस्लिम समाज कांग्रेस के खिलाफ हो गया।

उस समय संघ परिवार के लोग और छात्र चुप नहीं बैठे थे, बल्कि भूमिगत आन्दोलन चला रहे थे। वे ऐसे समाचार एकत्र करते थे, जिनको सेंसर द्वारा दबा दिया जाता था, और उनको पत्रकों के रूप में जनता में बाँटते थे। चोरी-छिपे ऐसे सैकड़ों साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक समाचार पत्रक लगभग सभी भाषाओं में प्रकाशित हो रहे थे और जनता में बँट रहे थे।

पिछले लोकसभा चुनाव 1971 में हुए थे और अगले चुनाव 1976 में होने चाहिए थे। लेकिन जनता के आक्रोश से डरकर सरकार ने उसी लोकसभा का कार्यकाल संविधान में मनमाना संशोधन करके एक साल बढ़ा लिया। वह अभी तक की अकेली लोकसभा है, जिसका कार्यकाल 6 वर्ष तक रहा। सरकार तो चाहती थी कि चुनाव कभी न करवाने पड़ें, लेकिन संवैधानिक बाध्यता के कारण उसे मार्च 1977 में चुनाव की घोषणा करनी पड़ी। इसका एक कारण यह भी था कि विदेशों से सरकार पर दबाब पड़ रहा था कि भारत में लोकतंत्र बने रहना चाहिए। वैसे सरकारी गुप्तचर विभाग ने सरकार को यही रिपोर्ट दी थी कि कांग्रेस सरकार से आम आदमी बहुत खुश है और दोबारा उसी के जीतकर आने की पूरी संभावना है।

चुनावों की घोषणा होते ही जनता में खुशी की लहर दौड़ गयी। चुनाव निष्पक्ष लगें इसलिए कई विपक्षी नेताओं को रिहा भी कर दिया गया। तब नानाजी देशमुख जैसे नेताओं ने जय प्रकाश नारायण जी के आशीर्वाद से भाग-दौड़ करके सभी विपक्षी पार्टियों को एक जुट होकर चुनाव लड़ने के लिए राजी कर लिया। पार्टी का नाम जनता पार्टी रखा गया, उसका चुनाव चिह्न भारतीय लोकदल के ‘चक्र में हलधर’ चिह्न को लिया गया और चन्द्रशेखर को उस नयी पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया। उसी समय जगजीवन राम, हेमवतीनन्दन बहुगुणा जैसे कांग्रेसी नेता भी उचित समय जानकर कांगे्रस से बाहर आ गये और नई पार्टी बना ली। इस पार्टी ने भी जनता पार्टी से गठबंधन करके चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी।

जब चुनाव परिणाम आये, तो सारा संसार यह देखकर आश्चर्यचकित रह गया कि जनता पार्टी की आंधी में कांग्रेस तिनके की तरह उड़ गयी ।अमृतसर से गौहाटी तक पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस का सफाया हो गया। उसे केवल म.प्र. में केवल एक सीट मिली। लेकिन दक्षिण में जनता पार्टी का जादू नहीं चला, वहाँ से कांग्रेस लगभग 150 सीटें जीत लायी। लेकिन जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिल गया था। इसलिए जय प्रकाश नारायण के आशीर्वाद से मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी। हालांकि इस सरकार का कामकाज कुल मिलाकर अच्छा ही रहा, लेकिन कई कारणों से यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायी। इसके बारे में अगले लेख में।

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