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Monday 21 January 2013

रेलवे द्वारा आरक्षण में ठगी

मैं इस लेख के माध्यम से देश की जनता का ध्यान रेल विभाग द्वारा रेलगाडि़यों में आरक्षण की प्रतीक्षा सूची के नाम पर की जा रही भारी ठगी और बेईमानी की ओर दिलाना चाहता हूँ।

रेलवे द्वारा हजारों सवारी गाडि़याँ प्रतिदिन चलायी जाती हैं, जिनमें विभिन्न श्रेणियों में 120 दिन बाद तक का आरक्षण कराया जा सकता है। जिन लोगों को किसी गाड़ी में उपलब्ध सीटों में से कोई नहीं मिल पाती उन्हें आरक्षण सूची में डाल दिया जाता है। कई बार यह सूची एक-एक दिन में 300 तक को पार कर जाती है। स्पष्ट है कि रेल विभाग किसी भी तरह प्रतीक्षा सूची के इतने लोगों को सीट उपलब्ध नहीं करा सकता। फिर इतनी लम्बी आरक्षण सूची क्यों बना ली जाती है? इसका कारण यह है कि प्रतीक्षा सूची की टिकट रद्द कराने पर रेलवे को स्लीपर श्रेणी में रु. 40 प्रति टिकट और उच्च श्रेणियों में इससे भी अधिक राशि रद्दीकरण शुल्क के नाम पर मिल जाती है। यदि प्रत्येक रेलगाड़ी में प्रतिदिन औसतन 200 रद्दीकरण माने जायें, रेलगाडि़यों की संख्या 5000 मानी जाये और यह माना जाये कि रद्दीकरण से रेलवे को रु. 50 प्रति सीट की राशि मिलती है तो यह राशि कुल 5 करोड़ रुपये होती है। इसका अर्थ है कि प्रतिदिन रेलवे को रु. 5 करोड़ की आय बिना किसी सेवा के हो जाती है। एक वर्ष में यह राशि 18 अरब 25 करोड़ रुपये के बराबर होती है। स्पष्ट रूप से यह सरासर ठगी और बेईमानी का मामला है।

इससे भी अधिक आपत्तिजनक यह है कि इन रद्द करायी जाने वाली टिकटों की राशि, जो यदि औसतन रु. 250 प्रति सीट भी मानी जाये, तो प्रति दिन रु. 25 करोड़ की दर से 120 दिन की लगभग 30 अरब रुपयों की अतिरिक्त राशि रेलवे के पास हमेशा जमा पड़ी रहती है, जिसका ब्याज भी अरबों में होता है। इस प्रकार रेल विभाग देश की जनता के साथ दोहरी ठगी कर रहा है।

इसलिए यह उचित होगा कि अग्रिम आरक्षण की अवधि घटाकर 2 माह की जाये और यदि कोई व्यक्ति एक माह या 30 दिन से अधिक पहले आरक्षण कराता है तो उसे उसकी वांछित गाड़ी में सीट उपलब्ध कराने की गारंटी दी जाये। इस तरह सीट की गारंटी माँगना न्यायोचित है, क्योंकि इस सेवा पर रेलवे का एकाधिकार है। मैं समझता हूँ कि रेलवे को एक माह का समय देना अतिरिक्त डिब्बों की व्यवस्था करने के लिए पर्याप्त है। ऐसा भी किया जा सकता है कि यदि किसी गाड़ी में प्रतीक्षा सूची की लम्बाई 100 से अधिक हो जाती है, तो रेलवे द्वारा स्वतः ही उसमें एक डिब्बा अतिरिक्त लगा देना चाहिए अथवा प्रतीक्षा सूची में इससे अधिक आरक्षण नहीं करना चाहिए। यदि रेल विभाग यात्रियों को सीट की गारण्टी नहीं दे सकता, तो प्रतीक्षा सूची बढ़ाते जाना स्पष्ट रूप से बेईमानी है।

एक बात यह भी है कि रेलवे द्वारा प्रतीक्षा सूची के यात्रियों के साथ समानता का व्यवहार नहीं किया जाता। रेलवे ने अपने स्तर पर ही सामान्य प्रतीक्षा सूची, रिमोट लोकेशन प्रतीक्षा सूची और पूल्ड कोटा प्रतीक्षा सूची के नामों से तीन अलग-अलग प्रतीक्षा सूचियाँ बना रखी हैं। इन तीनों में किसी यात्री को रखने का क्या आधार है और इनको सीटों के आरक्षण में किस प्रकार और कितनी प्राथमिकता दी जाती है यह बताने वाला कोई नहीं है और न रेलवे की किसी साइट पर इसका कोई स्पष्टीकरण उपलब्ध है। होना यह चाहिए कि रेलवे के पास ‘प्रथम आगत प्रथम स्वागत’ नियम के आधार पर गाड़ी में चढ़ने के स्टेशन के अनुसार केवल एक प्रतीक्षा सूची हो, जिसमें से प्रत्येक स्टेशन के आने पर उपलब्ध होने वाली सीटों को प्रतीक्षा सूची के यात्रियों को क्रमानुसार आरक्षित कर दिया जाये। इससे यात्रियों में भ्रम की संभावना खत्म होगी और प्रतीक्षा सूची के यात्रियों के साथ न्याय होगा।

दूसरी बात यह है कि रेलवे ने कई प्रकार के कोटे बना रखे हैं। इन कोटों का सामान्यतया दुरुपयोग ही किया जाता है। इसलिए रेलवे को सभी प्रकार के कोटे समाप्त करके सभी सीटों को ‘पहले आओ, पहले पाओ’ विधि से आरक्षित करना चाहिए। वैसे भी इंटरनेट के इस युग में इस प्रकार के कोटों का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति किसी भी स्थान पर बैठकर कहीं से भी कहीं का भी टिकट ले सकता है।
 रेलवे द्वारा ठगी और भी कई तरीकों से की जा रही है। उसके बारे में फिर कभी।

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