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Tuesday 22 January 2013

आर्थिक उदारवाद का पहला स्वाद : शेयर घोटाला


पी.वी. नरसिंहराव की सरकार को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने देश में आर्थिक उदारवाद की राह खोली, जो कि पूर्व सरकारों की नियंत्रणवादी आर्थिक नीतियों के कारण पूरी तरह बन्द थी और जिसमें देश की अर्थव्यवस्था का दम घुट रहा था। लेकिन यह उदारवाद बुराइयों से मुक्त नहीं रहा। जिस तरह किसी फसल के साथ तमाम खर-पतवार उग आते हैं, उसी तरह उदार अर्थव्यवस्था के साथ पूँजीवाद की अनेक बुराइयाँ भी देश में आ गयीं। इनका पहला स्वाद देश को शेयर घोटाले के रूप में चखना पड़ा।

इस घोटाले का सूत्रधार था हर्षद मेहता, जो बम्बई स्टाक एक्सचेंज का एक शेयर दलाल था। उसने भारतीय बैंकों की सुस्ती और लापरवाही का लाभ उठाकर हजारों करोड़ रुपये का बेजा ऋण उठाया और उनसे शेयर खरीद-बेचकर मुनाफा कमाया। ऐसे ऋण उसने कुछ छोटे बैंकों द्वारा जारी की गयी जाली बैंक रसीदों के बल पर बड़े बैंकों से लिये।

उसका काम करने का तरीका अपने आप में पूरी तरह कानूनी था। वह करता यह था कि छोटे बैंकों को अपने प्रभाव में लेकर जाली बैंक रसीदें जारी करवा लेता था। असली बैंक रसीद सरकारी प्रतिभूतियों के बदले जारी की जाती हैं, जिनकी अपनी साख होती है और दूसरे बैंक ऐसी रसीदों के बदले सरलता से लघु अवधि जैसे 15 दिन, एक माह आदि के ऋण दे देते हैं। हर्षद मेहता और उसके कुछ सहयोगी ऐसी जाली बैंक रसीदों के बदले सरकारी बैंकों से ऋण उठाते थे और उस ऋण से अंधाधुंध शेयर खरीदकर उनके भाव बढ़ाते थे। जब किसी कम्पनी के शेयर काफी बढ़ जाते थे, जो वे अपने शेयर बेचकर बड़ी रकम मुनाफे सहित खड़ी कर लेते थे और बैंक का ऋण चुकाकर अपनी रसीदें वापस ले लेते थे।

यह धंधा तब तक चलता रहा, जब तक शेयर चढ़ते रहे। लेकिन जैसे ही शेयरों की यह नकली तेजी खत्म हुई और हर्षद मेहता का भांडा फूटा, तो पता चला कि उसने अपने साथियों के साथ मिलकर विभिन्न सरकारी बैंकों से करीब 4 हजार करोड़ रुपये का ऋण ऐसी बैंक रसीदों के बदले उठा रखा था, जिनका मूल्य धेलाभर भी नहीं था।

आश्चर्य की बात यह थी कि बड़े-बड़े सरकारी बैंकों ने हर्षद मेहता और उसकी कम्पनियों को हजारों करोड़ के ऋण बिना पूरी जाँच-पड़ताल किये दे दिये, जबकि ये ही बैंक आम आदमी को 10 हजार रुपये के ऋण के लिए भी पचास बार दौड़ाते हैं। भांडा फूटने के बाद विजया बैंक के चेयरमैन और यूनिट ट्रस्ट आॅफ इंडिया के एक बड़े अधिकारी ने आत्महत्या कर ली। अन्य कई बैंकों के उच्चाधिकारियों को भी इसका कुफल भुगतना पड़ा।

सबसे अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि जब चुनिंदा शेयरों की कीमतें आसमान छू रही थीं, उस समय सिक्योरिटी एंड एक्सचेंज बोर्ड आॅफ इंडिया (सेबी) कानों में तेल डाले पड़ा था और उसने एक बार भी यह देखने की कोशिश नहीं की कि इस बेहताशा तेजी का कारण क्या है। वे इस तेजी का श्रेय उदार आर्थिक नीतियों को देकर अपनी और सरकार की पीठ थपथपा रहे थे, जबकि हर्षद मेहता उनकी नाक के नीचे ही घोटाले कर रहा था।

यही हाल नरसिंह राव की केन्द्रीय सरकार के वित्त मंत्रालय का था, जिसमें उन दिनों हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह केबिनेट मंत्री थे। कहा तो यह जाता है कि यह सारा धंधा उनकी सहमति से चल रहा था। हर्षद मेहता ने अपने बयान में कहा भी था कि उसने घोटाला केस से बचने के लिए 1 करोड़ की राशि कांग्रेस पार्टी को ‘दान’ में दी थी, जिसके अध्यक्ष पद पर भी तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव विराजमान थे।

इस घोटाले के दिनों में भारत का मध्य वर्ग शेयर मार्केट की इस चकाचैंध में आकर जमकर शेयर खरीद रहा था और जब घोटाले का भंडाफोड़ हुआ तो उनमें से अधिकांश लोग अपनी गाढ़ी कमायी के लाखों रुपये गँवा चुके थे।

हालांकि आगे चलकर हर्षद मेहता को भारी सजा भी हुई और वह जेल में ही मरा, लेकिन आम जनता की गाढ़ी कमाई के जो 4 हजार करोड़ रुपये सरकारी बैंकों ने लुटा दिये, वे कभी वसूल नहीं हो सके।

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