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Tuesday 22 January 2013

क्षमा याचना की संस्कृति


एक अंग्रेजी कहावत है- "गलती करना मानव का स्वभाव है, उसको क्षमा करना दैवीय गुण है।" क्षमा माँगने की प्रवृत्ति को हम प्रतिदिन ही देखते हैं। किसी व्यक्ति से जाने-अनजाने कोई गलती हो जाने पर यदि वह सज्जन हुआ तो ‘क्षमा करें’ या ‘सौरी’ कहकर खेद प्रकट करता है। लेकिन ऐसे खेद प्रकट करने का महत्व तभी है, जब वह सच्चे मन से किया गया हो, वरना उसका कोई अर्थ नहीं है।

हमारी हिन्दू संस्कृति में क्षमा को मानवीय गुणों में बहुत ऊँचा स्थान दिया गया है। हमारे शास्त्रों में धर्म के जो 10 लक्षण बताये गये हैं, उनमें धृति अर्थात् धैर्य के बाद ‘क्षमा’ का ही स्थान है। ‘क्षमा वीरस्य भूषणं’ के अनुसार क्षमा करना वीरों का लक्षण है। इसका एक अर्थ यह भी है कि जो वीर नहीं है, उसे क्षमा शोभा नहीं देती, बल्कि उसे कायरता कहा जाता है। कहा भी है कि ‘क्षमा सोहती उस भुजंग को जिसके पास गरल है।’

क्षमा का प्रयोग करते समय हमें यह ध्यान रखना आवश्यक है कि केवल उसी स्थिति में क्षमा उचित है, जब गलती करने वाला व्यक्ति वास्तव में अपनी गलती का अनुभव कर रहा हो और पुनः उसे दोहराना न चाहता हो। यदि केवल दण्ड से बचने के लिए वह क्षमायाचना करता है, और फिर वही अपराध करता है, तो ऐसी स्थिति में क्षमा उचित नहीं है, बल्कि घोर अनुचित है। इतिहास में क्षमा के दुरुपयोग के अनेक उदाहरण मिलते हैं। सम्राट् पृथ्वीराज चैहान ने 17 बार हमलावर मुहम्मद गोरी को युद्ध में हराकर क्षमा किया था, लेकिन जब उसने एक बार पृथ्वीराज को हरा दिया, तो बिल्कुल क्षमा नहीं किया, बल्कि उनकी आँखें फोड़ डालीं और अपमानित करके मार डाला।

लेकिन यहाँ हम समाज में क्षमा की संस्कृति के बारे में बात कर रहे हैं। हिन्दुओं के चार प्रमुख त्यौहारों में से एक होली पर क्षमा की संस्कृति का दर्शन होता है। होली जलाने के अगले दिन ‘धुलेंडी’ या ‘धूल’ नामक पर्व मनाया जाता है, जिसका तात्पर्य ही है कि पुरानी अनुचित बातों और घटनाओं पर धूल डालकर हम नयी शुरुआत करें। इसलिए इस दिन लोग अपनी शत्रुता को भूल जाते हैं और गले मिलकर पुनः मित्रता का सम्बंध बना लेते हैं। जो ऐसा नहीं करते, वे इस त्यौहार का मर्म नहीं जानते।

जैन समाज में तो क्षमायाचना को एक अनिवार्य कर्तव्य का रूप दिया गया है। वे 10 दिवसीय पर्यूषण पर्व के अन्तिम दिन को ‘क्षमावाणी दिवस’ के रूप में मनाते हैं। इस दिन वे समस्त प्राणियों से जाने-अनजाने किये गये पापों या गलतियों के लिए स्पष्ट रूप में क्षमायाचना करते हैं और स्वयं भी उनको क्षमा करते हैं। यह एक बहुत ही उच्च कोटि की भावना है। इसी प्रकार बौद्ध समाज में भी क्षमा को साधना का एक अनिवार्य अंग ही माना गया है, जिससे बुराइयाँ साधक से दूर रहती हैं।

यों क्षमा हर संस्कृति में किसी न किसी रूप में पायी जाती है, लेकिन उसका तात्पर्य अलग-अलग होता है। उदाहरण के लिए, ईसाई धर्म में जीसस द्वारा ‘पर्वत पर दिये गये उपदेश’ में दयालु और क्षमाशील होने की प्रेरणा दी गयी है। यह एक अच्छी शिक्षा है। लेकिन इसका व्यावहारिक रूप विकृत है। वे चर्च में जाकर पादरी के सामने अपने पापों की स्वीकृति करते हैं और यह आशा करते हैं कि जीसस उनके पापों को अपने ऊपर ले लेगा। इस पाप-स्वीकृति में कहीं भी यह भावना नहीं होती कि हम यह पाप आगे नहीं करेंगे। इसके विपरीत वे यह मानते हैं कि यदि हमने जीसस को अपना तारणहार स्वीकार कर लिया है, तो वह हमारे सभी पापों को अपने ऊपर ले लेगा और हमें उनका दण्ड नहीं भोगना पड़ेगा।

इस्लाम में भी खुदा को ‘अल ग़फूर’ अर्थात् ‘सब कुछ क्षमा करने वाला’ बताया गया है। इसका सीधा अर्थ यह है कि कुरानी अल्लाह मुसलमानों के सभी पापों को क्षमा कर देता है। लेकिन अल्लाह की क्षमा केवल उन लोगों के लिए है, जो इस्लाम पर और उसके अन्तिम संदेशवाहक मुहम्मद पर ईमान लाते हैं। जो ऐसा नहीं करते, वे कतई क्षमा करने योग्य नहीं हैं। खास तौर पर ‘मूर्ति पूजा’ करने वालों से तो कुरानी अल्लाह बहुत चिढ़ता है।

यहूदी धर्म में यह माना जाता है कि यदि कोई व्यक्ति कोई गलत कार्य करता है और अपनी गलती का अनुभव करके ईमानदारी से उसका प्रायश्चित करना चाहता है, तो जिसके प्रति वह गलती की गयी है, उसका यह धार्मिक कर्तव्य है कि गलती करने वाले को क्षमा कर दे।

यह सब ध्यान में रखते हुए हमें यह भी याद रखना चाहिए कि हमारे द्वारा जो भी सही या गलत कार्य किये जाते हैं, उनका वैसा ही परिणाम हमें भोगना अवश्य पड़ता है। कहा भी है- ‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्’। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस में लिखा है- ‘करम प्रधान विस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फल चाखा।।’ इसलिए हमें हमेशा शुभ कार्य ही करने चाहिए और अशुभ कार्यों से यथासम्भव दूर रहना चाहिए।

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