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Monday 21 January 2013

द्वितीय सरसंघचालक परमपूज्य श्री गुरुजी


संघ निर्माता डाक्टर साहब का देहावसान मात्र 52 वर्ष की अवस्था में 1940 में हो गया था। उन्होंने संघ का कार्य सन् 1925 में प्रारम्भ किया था। 1940 तक 15 वर्षों में उनके द्वारा रोपा गया पौधा एक विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था। प्रत्येक राज्य में संघ की शाखाएँ प्रारम्भ हो चुकी थीं और सैकड़ों प्रचारक भी निकल चुके थे। डाक्टर साहब अपने देहावसान से पहले ही संघ का दायित्व जिन सुदृढ़ और सुयोग्य हाथों में सौंप गये थे, वे थे श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर, जो स्वयंसेवकों में ‘श्री गुरुजी’ के नाम से लोकप्रिय थे। यहाँ उनका संक्षिप्त परिचय देना उचित होगा।

श्रीगुरुजी का जन्म एक साधारण शिक्षक के परिवार में नागपुर में हुआ था। वे अपने माता-पिता की एकमात्र जीवित सन्तान थे। प्रारम्भिक शिक्षा नागपुर में ही ग्रहण करने के बाद वे उच्च शिक्षा के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय गये। वहीं उन्होंने रसायन विज्ञान में एम.एससी. की उपाधि प्राप्त की थी और उसके शीघ्र बाद वहीं शिक्षक भी हो गये थे। वे शिक्षण का कार्य इतने प्रेम और निष्ठा से किया करते थे कि अपने विद्यार्थियों में ‘गुरुजी’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये और यही सम्बोधन आजीवन उनके नाम के साथ जुड़ गया।

काशी में रहते हुए ही वे पहली बार संघ के सम्पर्क में आये। जब संघ कार्य से उनका परिचय हुआ, तो वे इसमें अधिकाधिक समय देने लगे। वे एक वैज्ञानिक थे, इसलिए विज्ञान की दृष्टि से उन्होंने संघ को परखा था और समझ गये कि यदि इस देश का कल्याण हो सकता है तो केवल संघ के माध्यम से। जब तक वे काशी में रहे, लगातार संघकार्य करते रहे। फिर वे नागपुर वापस आये, तो वहाँ डाक्टर साहब के सम्पर्क में आये। दोनों महापुरुषों ने एक दूसरे को गहराई से परखा और समझा। गुरुजी ने देखा कि यह उच्चशिक्षित डाक्टर बाहर से साधारण लगते हुए भी भीतर से कितना महान् है और डाक्टर जी ने समझा कि गुरुजी के हाथों में संघ न केवल सुरक्षित रहेगा, बल्कि विस्तार भी प्राप्त करेगा। डाक्टर जी अपने अन्य सहयोगियों से प्रायः गुरुजी के बारे में चर्चा करते थे।

लेकिन गुरुजी का मन प्रारम्भ से ही अध्यात्म की ओर था और वे हिमालय में जाकर साधना करना चाहते थे। संयोग से एक मित्र के माध्यम से वे स्वामी अखंडानन्द जी के सम्पर्क में आये, जो स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शिष्य अर्थात् स्वामी विवेकानन्द के गुरुभाई थे। उन्होंने गुरुजी को उनकी इच्छा के अनुसार संन्यास दीक्षा दे दी, लेकिन उनको आदेश दिया कि तुम्हारा काम आश्रमों में नहीं है, बल्कि डाक्टर हेडगेवार के साथ है और तुम वहीं जाओ। परमपूज्य श्री गुरुजी ने अपने दीक्षा गुरु का आदेश शिरोधार्य किया और फिर आजीवन संघकार्य करते रहे। डाक्टर साहब के देहावसान के बाद वे संघ के सरसंघचालक बने और अपनी अन्तिम साँस तक पूरे 33 वर्षों तक इस दायित्व को निभाते रहे। वे आधुनिक ऋषि थे। दीक्षित संन्यासी होने के बाद भी उन्होंने कभी गेरुवे कपड़े नहीं पहने, बल्कि सदा सफेद धोती-कुर्ता ही धारण किये रहे।

जब नाथूराम गोडसे ने गाँधी वध किया, तो तत्कालीन सरकार को संघ पर प्रतिबंध लगाने का बहाना मिल गया, हालांकि इस हत्याकांड और गोडसे से संघ का कोई सम्बंध नहीं था। श्री गुरुजी को गाँधी हत्या के आरोप में जेल में डाल दिया गया। जाँच के बाद यह स्पष्ट हो जाने पर भी कि इस कांड से उनका या संघ का कोई सम्बंध नहीं है, उनको काफी समय बाद तब मुक्त किया गया, जब हजारों स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह करके अपनी गिरफ्तारी दी। लेकिन गुरुजी की महानता देखिये कि रिहा हो जाने के बाद उन्होंने सरकार के खिलाफ एक शब्द भी नहीं कहा। क्षुब्ध स्वयंसेवकों से उन्होंने कहा कि अगर कभी अपनी जीभ दाँतों के बीच आ जाती है, तो क्या हम अपने दाँत तोड़ देते हैं? उन्होंने स्वयंसेवकों को ‘माफ करो और भूल जाओ’ का सन्देश दिया।

रिहा होने के तत्काल बाद उन्होंने रुका हुआ संघकार्य फिर प्रारम्भ कर दिया। वे साल में दो बार पूरे देश का चक्कर लगाते थे और जगह-जगह कार्यक्रम करके स्वयंसेवकों को प्रेरणा देते थे। उनकी प्रेरणा से हजारों नवयुवक प्रचारक बनकर निकले, जिन्होंने संघकार्य का विस्तार किया। डाक्टर जी द्वारा रोपा गया वह पौधा गुरुजी द्वारा पुष्पित-पल्लवित होकर एक विशाल वटवृक्ष का रूप ले चुका है। श्री गुरुजी की प्रेरणा से अनेक राष्ट्रीय संगठनों की स्थापना की गयी, जैसे भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ, विश्व हिन्दू परिषद, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद आदि। इनकी चर्चा आगे की जाएगी।

परमपूज्य श्री गुरुजी का देहावसान 1973 में कैंसर के कारण हुआ। लेकिन तब तक संघ संसार का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन होने की मान्यता पा चुका था और योग्य कार्यकर्ताओं की एक सुदृढ़ श्रृंखला सामने आ चुकी थी। इसलिए उनके जाने के बाद भी संघकार्य रुका नहीं, बल्कि और तेजी से बढ़ने लगा और आज भी बढ़ रहा है।

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