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Tuesday 22 January 2013

हजरत बाल और चरारे-शरीफ की घटनायें


यह एक माना हुआ तथ्य है कि दुष्टों को कभी संतुष्ट करके शान्त नहीं किया जा सकता, केवल दण्ड देना ही उनको ठीक करने का एक मात्र उपाय है। इस्लामी या जेहादी आतंकवादियों के लिए यह बात कहीं अधिक सत्य है। लेकिन कांग्रेस की तमाम सरकारों ने इस बात को कभी नहीं समझा। नरसिंह राव की सरकार भी कोई अपवाद नहीं थी। उसके कार्यकाल में कम से कम दो घटनायें ऐसी हुईं जब सरकार के ढुलमुल और कायरतापूर्ण रवैये से आतंकवादियों का हौसला बढ़ा और देश को नीचा देखना पड़ा।

इनमें पहली घटना ‘हजरत बाल’ नामक मस्जिद में हुई, जहाँ पर मुहम्मद का एक बाल रखा हुआ बताया जाता है। 15 अक्टूबर 1993 को इस्लामी आतंकवादियों के एक समूह ने इस मस्जिद पर कब्जा कर लिया। अगर सरकार इजाजत देती, तो हमारी सेना एक दिन में ही आतंकवादियों को वहीं मारकर ढेर कर देती और मस्जिद को उनके चंगुल से मुक्त करा लेती, लेकिन मस्जिद की ‘पवित्रता’ भंग न हो जाये, इस डर से सरकार ने सेना के हाथ बाँध दिये और आतंकवादियों की चिरौरी करती रही कि मस्जिद को सही-सलामत छोड़कर चले जाओ। आखिर कई दिन तक चिरौरी करने के बाद आतंकवादी मस्जिद से जाने को तैयार हुए। इस बीच सरकार उनको रोज बिरयानी खिलाती रही और अनेक प्रकार से खातिरदारी करती रही। इतना ही नहीं, सरकार ने उनको बाहर निकलकर भाग जाने को सुरक्षित रास्ता भी दे दिया, जिसका कोई औचित्य नहीं था।

इस व्यवहार से आतंकवादियों का हौसला बढ़ना ही था। इस घटना के लगभग 2 वर्ष बाद चरारे-शरीफ नामक दरगाह में भी ऐसी घटना हो गयी। यह स्थान श्रीनगर से कवेल 28 किमी दूर है और यहाँ एक सूफी संत नूरानी की कब्र बनी हुई है। 7 मार्च 1995 को अफगानी आतंकवादी मस्त गुल के नेतृत्व में लगभग 60 आतंकवादियों के एक गुट ने इस दरगाह पर कब्जा कर लिया। हालांकि अगले ही दिन भारतीय सेना ने दरगाह को चारों ओर से घेर लिया, लेकिन हमेशा की तरह सरकार ने उनको कोई कार्यवाही नहीं करने दी और आतंकवादियों से बातचीत करती रही कि दरगाह को छोड़कर चले जाओ।

यह बातचीत 2 महीने से भी अधिक चली, लेकिन आतंकवादी दरगाह को छोड़ने को तैयार नहीं हुए। इस बीच सरकार उनको रोज बिरयानी खिलाती रही। आखिर 10 मई 1995 को ईद के दिन सेना का धैर्य जबाब दे गया और उसने कार्यवाही करके आतंकवादियों को निकालना तय किया। इसकी जानकारी होते ही आतंकवादियों ने दरगाह को आग लगा दी और भागने की कोशिश की। दोनों तरफ से हुई फायरिंग में लगभग 20 आतंकवादी मारे गये, 2 सैनिक शहीद हुए और 5 नागरिकों की जानें गयी।

लेकिन आतंकवादियों का सरगना मस्त गुल सुरक्षित निकल गया और उसके साथ ही उसके बाकी आतंकवादी भी निकल गये। कहा तो यह जाता है कि किसी अज्ञात दबाब में सरकार ने उनको न केवल सुरक्षित निकल जाने दिया, बल्कि स्वयं ले जाकर नियंत्रण रेखा (लाइन आॅफ कंट्रोल) पर छोड़ा। हालांकि अगले दिन सेना ने अबू जिंदाल नामक आतंकवादी को गिरफ्तार करने का दावा किया और पत्रकारों के सामने उसे पेश किया, लेकिन उनके पास इस बात का कोई जबाब नहीं था कि मस्त गुल और उसके बाकी साथी कहाँ गये और कैसे गये, जबकि दरगाह को चारों ओर से सेना ने घेरा हुआ था।

कहने की आवश्यकता नहीं कि मुस्लिम वोट बैंक आॅफ इंडिया के दबाब में ही सरकार की हिम्मत आतंकवादियों का सफाया करने की नहीं हुई, जबकि सेना ऐसा करने में पूर्ण सक्षम थी। जो लोग यह दावा करते हैं कि आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता, उन्हें अपनी बात पर फिर से विचार करना चाहिए। अगर वे आतंकवादी मुस्लिम न होते, मान लीजिए हिन्दू होते, तो क्या तब भी सरकार उनकी चिरौरी करती रहती? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 1984 मे इन्दिरा गाँधी की सरकार ने सिखों की धार्मिक भावनाओं की चिन्ता किये बिना अकाल तख्त में कब्जा जमाये बैठे आतंकी सरगना भिंडरांवाले और उसके साथियों को मार गिराया था। ऐसी ही कार्यवाही हजरत बाल और चरारे शरीफ में क्यों नहीं की गयी? क्या किसी सेकूलर या जेहादी आतंकवादियों के समर्थक के पास इसका कोई जबाब है?

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