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Monday 21 January 2013

धर्म चर्चा


‘सभी धर्म समान हैं!’
वाह! क्या बात कही है! धर्म हैं तो समान होंगे ही। कोई धर्म किसी दूसरे धर्म से छोटा-बड़ा कैसे हो सकता है। लेकिन क्या अधर्म भी धर्मों के समान होता है? पहले यह तो तय हो कि हम जिनकी समानता की बात कर रहे हैं वे धर्म हैं भी कि नहीं। इस बात की क्या कसौटी है कि किसे धर्म माना जाये और किसे नहीं?

‘सभी धर्म ईश्वर की ओर ले जाते हैं।’
बिल्कुल ठीक! ले जाने ही चाहिए। लेकिन अगर कोई तथाकथित धर्म ईश्वर की ओर नहीं ले जाता, बल्कि किसी शैतान की ओर ले जाता हो, तो क्या तब भी उसे धर्म माना जायेगा?

‘हमें सभी धर्मों का आदर करना चाहिए।’
अवश्य करना चाहिए! अगर सभी धर्म समान हैं और सभी ईश्वर की ओर ले जाते हैं, तो हमें उनका आदर करना ही चाहिए। लेकिन क्या हमें अधर्म का आदर भी करना चाहिए? पहले यह तो तय कर लो कि कोई तथाकथित धर्म हमारे आदर का पात्र है भी या नहीं अर्थात् वह वास्तव में धर्म है या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि वह अधर्म हो और धर्मों के बीच में घुसकर हमारा आदर पाना चाहता हो?

धर्म के बारे में इस तरह तमाम अच्छी-अच्छी बातें की जाती हैं, लेकिन कोई नहीं जानता कि धर्म वास्तव में है क्या और कैसे किसी विचारधारा या परम्परा को धर्म और किसी समुदाय को धार्मिक समुदाय कहा जा सकता है। क्या सभी तरह के समुदाय, जो एक विशेष विचारधारा से जुड़े हों, को धार्मिक समुदाय कहा जा सकता है और उस विचारधारा को धर्म की मान्यता दी जा सकती है?

मान लीजिए एक अनपढ़, आवारा, पियक्कड़ आदमी है। वह अपने जैसे दस-बीस आवारा लड़कों का गिरोह बना लेता है और उनको अपने प्रति वफादार रहने की कसम खिला देता है। वह गिरोह रेगिस्तान या जंगल से जाने वाले काफिलों को लूट लेता है। उसके पुरुषों को मार देता है, महिलाओं को अपने भोग का सामान बना लेता है और बच्चों को गुलाम बना लेता है, जो बाद में बड़े होकर उसी के गिरोह में शामिल हो जाते हैं। इसी तरह उसका गिरोह बढ़ता जाता है और उसकी ताकत बढ़ जाती है। वे किसी काल्पनिक ईश्वर या खुदा को दिन में 10 बार याद करने का अनिवार्य नियम भी बना लेते हैं। अब सवाल उठता है कि क्या इस गिरोह को धार्मिक समुदाय माना जाएगा? आखिर वह कसौटी कौन सी है, जिसके अनुसार इस गिरोह को धर्म माना जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि गब्बर सिंह अपने गिरोह को धार्मिक समुदाय मानने की माँग करे, तो क्या उसे ऐसी मान्यता दी जायेगी?

हमारे प्राचीन ग्रन्थों में धर्म की बड़ी गहरी व्याख्या की गयी है। रामचरित मानस में ‘धर्म न दूसर सत्य समाना’, ‘परम धरम श्रुति विदित अहिंसा’ और ‘परहित सरिस धरमु नहिं भाई’ कहकर सत्य, अहिंसा ओर परोपकार को सबसे बड़ा धर्म बताया है। इसका अर्थ है कि ये तीनों गुण किसी भी धर्म के आवश्यक अंग होने चाहिए। वैदिक ऋषियों ने कहा है कि धर्म के 10 लक्षण या गुण हैं, जो किसी व्यक्ति में होने पर ही उसे धार्मिक कहा जा सकता है। ये लक्षण हैं-
धृति क्षमा दमो अस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।

अर्थात् धैर्य, क्षमा (या दया), वासनाओं का दमन, चोरी न करना, आन्तरिक और बाह्य पवित्रता, इन्द्रियों पर नियंत्रण, बुद्धि, ज्ञान, सत्य भाषण-आचरण और क्रोध न करना ये धर्म के दस लक्षण या पहचान हैं। इन लक्षणों में कहीं भी किसी पूजा-पद्धति या ईश्वर आराधना का स्थान नहीं है। वास्तव में पूजा-पद्धतियाँ धर्म नहीं हैं, यहाँ तक कि वे धर्म की अंग भी नहीं हैं, बल्कि धर्म के गुणों को विकसित करने का और अवगुणों से दूर रहने का साधन मात्र हैं। इसलिए धार्मिक व्यक्ति में पूजा-पद्धति के नाम पर किसी भी तरह की कट्टरता होनी ही नहीं चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार अपने इष्ट प्रभु से सम्बंध बनाने और उसे अपनी पद्धति से याद करने या न करने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए।

यदि हम इस कसौटी पर आज के तथाकथित धर्मों को कसें, तो कई ‘धर्म’ वास्तव में अधर्म सिद्ध होंगे। जिस तथाकथित धर्म की बुनियाद ही हिंसा पर टिकी है, वह धर्म कैसे हो सकता है, वह तो अधर्म ही कहा जाएगा। यदि हम धर्म को ठीक से समझ लें, तो तथाकथित धर्मों के नाम पर जो बुराइयाँ अनाचार और आतंकवाद फैला हुआ है, उससे मुक्ति पायी जा सकती है।

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