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Tuesday 22 January 2013

गोधरा नरसंहार-1


श्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में जो बड़ी घटनायें हुईं, उनमें गोधरा नरसंहार को सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण कहा जा सकता है, जिसके कारण आगे चलकर गुजरात में अभूतपूर्व दंगे हुए। वह दुर्भाग्यपूर्ण दिन था 27 फरवरी 2002 का, जिस दिन एक रेलगाड़ी के डिब्बे में यात्रा कर रहे 59 रामभक्त कारसेवकों को गोधरा कस्बे के धर्मांध मुसलमानों की भीड़ ने जिन्दा जलाकर मार डाला था।

गोधरा का पूर्व इतिहास दंगों से भरा रहा है। विभाजन के बाद वहाँ कई बार दंगे हो चुके हैं। वहाँ मुसलमानों की बहुलता और हिन्दुओं की कम संख्या के कारण हर दंगे में हिन्दू ही सबसे अधिक हानि उठाते हैं। 1980 में 2 बच्चों सहित 5 हिन्दुओं को गोधरा रेलवे यार्ड के पास ही मार डाला गया था और नवम्बर 1990 में 2 महिलाओं सहित 4 हिन्दू अध्यापकों को एक मदरसे में ही मार दिया गया था।

27 फरवरी 2002 को लखनऊ की ओर से आ रही साबरमती एक्सप्रेस अपने नियत समय से 4 घंटे देरी से गोधरा रेलवे स्टेशन पहुँची थी। लगभग पौने आठ बजे प्रातःकाल जैसे ही वह प्लेटफार्म छोड़कर आगे बढ़ी कि ट्रेन में सवार गोधरा के कुछ लोगों ने जंजीर खींचकर गाड़ी को रोक लिया। तत्काल एस-6 और एस-7 डिब्बे के बीच का जोड़ काट दिया गया और डिब्बों को बाहर से बंद कर दिया गया, ताकि कोई बाहर न निकल सके। इन डिब्बों में ही अयोध्या से लौट रहे कुछ कारसेवक यात्रा कर रहे थे।

योजनानुसार दोनों डिब्बों पर पेट्रोल छिड़ककर आग लगा दी गयी। एस-7 के कुछ लोग किसी तरह बाहर निकलने में सफल हुए तो उन पर धर्मांध भीड़ ने हमला किया और कुछ को मार डाला। लगभग आधे घंटे तक हिंसा का नंगा नाच होता रहा। तब पुलिस सहायता पहुँची और दंगाइयों को खदेड़ा गया। लेकिन इसके तीन घंटे बार फिर दंगाइयों की भीड़ ने यात्रियों और पुलिसवालों पर हमला किया, जिससे 7 पुलिस वाले घायल हो गये। तब पुलिस को गोली चलानी पड़ी, जिससे 2 दंगाई मारे गये और शेष भाग गये।

इस दुर्भाग्यपूर्ण नरसंहार में 59 कारसेवक जलकर अथवा हमलों में मर गये, जिनमें 15 बच्चे, 25 महिलायें और शेष पुरुष थे। हालांकि घटना के लगभग आधे घंटे के अन्दर ही पुलिस सहायता पहुँच गयी थी, लेकिन इतने समय में ही आग विकराल रूप ले चुकी थी और आग बुझाने की कोशिश करने वाले लोगों और कर्मचारियों पर भीड़ द्वारा पत्थर भी फेंके गये। एक स्थानीय प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि भीड़ का नेतृत्व पालिका अध्यक्ष मोहम्मद कलोटा और पालिका पार्षद हाजी बिलाल कर रहे थे।


इस नरसंहार की नियमानुसार जाँच हुई। 94 लोगों पर मुकदमा चलाया गया, जिनमें से 31 को अदालत ने सजा दी और सबूतों के अभाव में 63 लोग छूट गये। घटनाक्रम से यह स्पष्ट है कि इस नरसंहार की योजना पहले ही बना ली गयी थी। पेट्रोल, हथियार आदि एकत्र कर लिये गये थे। योजना के अनुसार ही गाड़ी की जंजीर खींची गयी थी और सैकड़ों हजारों धर्मांध मुसलमानों की भीड़ भी एकत्र कर ली गयी थी। जो लोग भीड़ का मनोविज्ञान समझते हैं वे जानते हैं कि ऐसी भीड़ को ध्वंसात्मक कार्यों में लगा देना बहुत आसान होता है। दंगाइयों ने इसी का फायदा उठाया।

लेकिन गोधरा के बाहर पूरे देश में जो हुआ वह कहीं अधिक दुर्भाग्यपूर्ण था। पहले तो सेकूलर कहलानेवाले दलों और व्यक्तियों ने न केवल इस नरसंहार को मामूली बताने की चेष्टा की, बल्कि इसे बाबरी मस्जिद गिराये जाने की स्वाभाविक प्रतिक्रिया बताकर उचित ठहराने की कोशिश भी की। यह हिन्दुओं के जले पर नमक छिड़कने की तरह था। इस मूर्खता का जो परिणाम होना था, वही हुआ। वैसे तो पूरे देश में इस नरसंहार के 
प्रति बहुत क्रोध था, लेकिन गुजरात में इसकी प्रतिक्रिया बहुत उग्र रूप में सामने आयी और प्रदेश भर में हुई हिंसक घटनाओं में लगभग 2000 व्यक्ति मारे गये, जिनमें अधिकांश मुसलमान और कुछ हिन्दू भी थे। उसकी चर्चा अलग से की जायेगी।


गोधरा नरसंहार ने तथाकथित सेकूलर दलों और व्यक्तियों के चेहरों से नकाब उतार दिया। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों की हर हरकत का समर्थन करना और हिन्दूओं की हर बात का विरोध करना उनके स्वभाव का अंग बन गया है। यदि धर्मांध हिंसकों को पीछे से समर्थन देने वाले ऐसे दल और तत्व देश में न होते, तो क्या दंगाइयों की हिम्मत हो सकती थी कि रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे हिन्दुओं को जिन्दा जलाकर मार सकते। वास्तव में गोधरा के हत्यारे केवल वे मुसलमान दंगाई ही नहीं थे, जिन्होंने गाड़ी रोकी और डिब्बों में आग लगायी, बल्कि वे सभी दल भी थे, जिन्होंने ऐसी करतूतों को समर्थन दिया। जैसा कि मैं अपने एक लेख में पहले भी लिख चुका हूँ, ये सेकूलर सम्प्रदाय के लोग ही देश के असली दुश्मन हैं।

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