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Monday 21 January 2013

श्रीलंका में भारतीय शान्ति सेना

राजीव गाँधी ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में अपनी अपरिपक्वता के कारण जो गलत निर्णय किये थे, उनमें एक निर्णय भारतीय सैनिकों को श्रीलंका में भेजना भी था। इस मूर्खतापूर्ण निर्णय से भारत को कोई लाभ तो हुआ ही नहीं, उसके हजारों सैनिकों को अपने प्राण अवश्य गँवाने पड़े।

श्रीलंका उस समय तमिलों के विद्रोह का सामना कर रहा था। तमिल लड़ाकुओं के कई गुट, जिनमें लिट्टे प्रमुख था, श्रीलंका की सेना से लड़ रहे थे और श्रीलंका के अन्दर ही अपना अलग तमिल ईलम नामक देश बनाना चाहते थे। स्पष्ट है कि कोई भी सरकार ऐसी अलगाववादी गतिविधियों को सहन नहीं कर सकती। इसलिए श्रीलंका की सेना भी उनका अच्छा मुकाबला कर रही थी। लेकिन इस गृहयुद्ध के कारण तमिलों की भारी संख्या शरणार्थी के रूप में भारत आ रही थी, जिनमें बहुत से तमिल लड़ाके भी शामिल होते थे। भारत सरकार इन शरणार्थियों से परेशान थी और इस पर रोक लगाना चाहती थी। हालांकि कई लोग तो यह कहते हैं कि इन्दिरा गाँधी की सरकार प्रारम्भ में तमिल चीतों को सहायता देती थी।

श्रीलंका के आग्रह पर भारत और श्रीलंका के बीच में एक समझौता हुआ, जिस पर भारत की ओर से राजीव गाँधी और श्रीलंका की ओर से वहाँ के तत्कालीन राष्ट्रपति जे.आर. जयवर्धने ने हस्ताक्षर किये थे। इसके अनुसार जुलाई 1987 में भारतीय सेना की चार डिवीजनों अर्थात् लगभग 80 हजार सैनिकों को शान्ति सैनिकों के रूप में श्रीलंका भेजा गया। इस शान्ति सेना का मुख्य कार्य श्रीलंका के विद्रोही तमिल गुटों को हथियारविहीन करना और शरणार्थियों पर लगाम लगाना था।

यदि यह सेना अपने इसी कार्य तक सीमित रहती तो उचित होता, परन्तु जाते ही वे तमिल चीतों के साथ युद्ध में उलझ गये। इस युद्ध में हमारे लगभग 1200 सैनिकों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा, हालांकि 10-11 हजार तमिल चीते भी मारे गये और उनकी शक्ति बहुत सीमित हो गयी। यह हमारे देश के नेतृत्व की गलती थी कि शान्ति सेना को सीधे युद्ध में उलझा दिया, जबकि शान्ति सेनाओं का उद्देश्य यह नहीं होता। वास्तव में हमारा खुफिया विभाग इस मामले में बुरी तरह असफल रहा कि उसने तमिल विद्रोहियों की मानसिकता की सही जानकारी भारत सरकार को नहीं दी।

अपने हजारों सैनिकों के प्राण गँवाकर भी देश को इससे कुछ हासिल नहीं हुआ। श्रीलंका के लोग भी हमसे खुश नहीं रहे, हालांकि सेना उन्हीं के अनुरोध पर भेजी गयी थी। अगली बार जो चुनाव हुए, उसमें शान्ति सेना के विरोधी रणसिंह प्रेमदास की पार्टी जीत गयी और वे राष्ट्रपति बन गये। राष्ट्रपति बनते ही उन्होंने भारतीय शान्ति सेना को वापस बुलाने की माँग की। वैसे भी तमिल विद्रोहियों का दमन करने का उनका उद्देश्य पूरा हो चुका था। भारत में भी उस समय तक वी.पी. सिंह की सरकार बन चुकी थी, अतः वे तुरन्त राजी हो गये। इस प्रकार मार्च 1990 में सभी भारतीय सैनिक वापस आ गये।

श्रीलंका ने भारतीय सैनिकों के बलिदान का कभी अहसान नहीं माना, उलटे लगातार ये आरोप लगाये जाते रहे कि भारत पीछे से तमिल विद्रोहियों को सहायता दे रहा है। गोया-
दिल लेके मुफ्त कहते हैं कुछ काम का नहीं।
उलटी शिकायतें हुईं अहसान तो गया।।

विदेश नीति के स्तर पर भी इस मूर्खतापूर्ण निर्णय से देश को कोई लाभ नहीं हुआ और श्रीलंका हमेशा की तरह भारत को आँखें दिखाता रहा और चीन तथा पाकिस्तान के साथ दोस्ती की पींगें बढ़ाता रहा। इसके साथ ही राजीव गाँधी की तमिल चीतों के साथ व्यक्तिगत शत्रुता पैदा हो गयी, जिसके कारण आगे चलकर उन्हें अपनी जान गँवानी पड़ी। उसकी चर्चा फिर कभी।

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