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Monday 21 January 2013

आपात्काल के काले दिन - 1


पिछले एक लेख में मैं लिख चुका हूँ कि किस प्रकार इन्दिरा गाँधी ने इलाहाबाद उच्चन्यायालय द्वारा अपना चुनाव रद्द होने पर अपनी कुर्सी बचाने के लिए देश पर आपात्काल थोप दिया और नागरिकों के सभी मानवाधिकार स्थगित कर दिये। संविधान में आपात्काल का प्रावधान देश पर कोई घोर संकट आने की स्थिति के लिए किया गया था, लेकिन इन्दिरा ने अपनी कुर्सी पर आये संकट को देश पर आया संकट मानकर ही इस प्रावधान का घोर दुरुपयोग किया, जिसका कोई औचित्य नहीं था। उन्होंने विशेषज्ञों की इस राय को भी ठुकरा दिया कि उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध उन्होंने सर्वोंच्च न्यायालय में जो अपील की है, उसका निर्णय होने तक वे प्रधानमंत्री पद छोड़कर किसी अन्य वरिष्ठ नेता को प्रधानमंत्री बना दें। शायद इन्दिरा गाँधी को यह डर था कि एक बार कुर्सी हाथ से निकल गयी, तो फिर दोबारा उसका मिलना असम्भव हो जाएगा।

आपात्स्थिति घोषित करने के बाद इन्दिरा गाँधी की सरकार ने पहला कार्य यह किया कि जितने भी बड़े विपक्षी नेता थे, सबको रातों-रात उनके घर से सोते हुए गिरफ्तार कर लिया। मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण अडवाणी, चैधरी चरण सिंह, राजनारायण, मधु दंडवते, मधु लिमये आदि जितने भी बड़े नेता उनके हाथ आ गये रातभर में पकड़ लिये गये। उनके साथ लोकनायक जयप्रकाश नारायण और कांग्रेस के युवा तुर्क कहे जाने वाले चन्द्रशेखर, मोहन धारिया और रामधन को भी धर लिया गया। इन सबके ऊपर मीसा (आन्तरिक सुरक्षा कानून) लगाया गया, जिसमें जमानत का प्रावधान नहीं था। जार्ज फर्नांडीज उनके हाथ नहीं आये, तो उनके छोटे भाई को पकड़ लिया गया और जार्ज का पता पूछने के लिए उनको अमानुषिक यातनायें दी गयीं। कई नेता जैसे सुब्रह्मणियम स्वामी भूमिगत हो गये।

संघ परिवार के ऊपर इन्दिरा गाँधी की विशेष ‘कृपा’ हुई। सबसे पहले तो संघ पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया और उसके सरसंघ चालक सहित तमाम प्रचारकों और बड़े कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया। इन सबके ऊपर साम्प्रदायिकता फैलाने और हिंसा के लिए उकसाने के आरोप लगाये गये, जिनके बारे में किसी के पास कोई प्रमाण नहीं था। छात्र आन्दोलन में भाग लेने वाले छात्रों पर बहुत जुल्म ढाये गये। उनको उनके छात्रावासों से रातों-रात पकड़कर जेलों में बन्द कर दिया गया। इनमें से कई लोगों के ऊपर भारत सुरक्षा कानून लगाया गया था, जिसमें जमानत का प्रावधान था। लेकिन यदि किसी न्यायाधीश ने किसी को जमानत देने की जुर्रत की, तो उसका दूर-दराज के इलाकों में स्थानांतरण कर दिया गया। इसकी एक झलक मेरे मित्र श्री बिपिन किशोर सिन्हा ने आपात्काल के अपने संस्मरणों में दिखाई है, जो इस ब्लाॅग पर डाले जा चुके हैं।

हालांकि दिखावे के लिए इन्दिरा गाँधी ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर दी थी, लेकिन न्यायालय का मखौल उड़ाने में कांग्रेस ने कोई कसर नहीं छोड़ी। लगभग रोज ही कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के जत्थे न्यायालयों के सामने उन जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के पुतले जलाया करते थे, जिन्होंने इन्दिरा गाँधी का चुनाव रद्द करने का फैसला सुनाया था। इतना ही नहीं, इस फैसले के बहाने समस्त न्यायपालिका को गालियाँ दी जाती थीं। कांग्रेस के कई नेता, जैसे सिद्धार्थ शंकर राय, जिनकी सलाह पर आपात्काल लगाया गया था, खुलकर इस बात की वकालत करते थे कि न्यायपालिका को सरकार से प्रतिबद्ध अर्थात् पालतू होना चाहिए और कोई भी ऐसा निर्णय नहीं देना चाहिए, जो सरकार के खिलाफ जाता हो। दूसरे शब्दों में, वे कम्यूनिस्ट देशों जैसा तानाशाही शासन स्थापित करना चाहते थे, जिनमें न्यायपालिका सरकार की केवल कठपुतली होती है।

न्यायपालिका को अपना पालतू बनाने के लिए इन्दिरा गाँधी ने मनमाने निर्णय किये। सबसे पहले तो उन्होंने वरिष्ठ न्यायाधीशों को उपेक्षित करके अपने पालतू कनिष्ठ न्यायाधीशों को प्रोन्नत किया, जिससे कई वरिष्ठ न्यायाधीश अवकाश ग्रहण करने को बाध्य हो गये। इसके बाद उन्होंने संविधान में मनमाने परिवर्तन किये। विशेष तौर से उसमें ऐसे प्रावधान जोड़ दिये गये कि जिन कामों के कारण इन्दिरा गाँधी का चुनाव रद्द किया गया था वे काम वैध हो गये। उन दिनों विपक्ष के अधिकांश सांसद जेलों में थे, इसलिए संसद में संविधान संशोधन विधेयकों को पारित कराने में इन्दिरा को कोई कठिनाई नहीं हुई और प्रायः बिना बहस के वे संशोधन पारित कर दिये गये। ये संशोधन भी पूरी निर्लज्जता से पिछली तारीखों से लागू कर दिये गये, ताकि इन्दिरा का चुनाव रद्द करने का फैसला बदल जाये। अन्त में ऐसा ही हुआ और उनके पालतू न्यायाधीशों ने उनके चुनाव को वैध घोषित कर दिया।

मीडिया को लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ कहा जाता है। उसको कुचलने के लिए सबसे पहले तो सेंसरशिप लागू कर दी गयी, जिससे कोई भी समाचार सरकार से पास हुए बिना न तो छापा जा सकता था और न प्रसारित किया जा सकता था। उस समय टेलीविजन चैनल तो थे ही नहीं, केवल एक सरकारी चैनल था, इसलिए समाचारपत्रों को ही इन्दिरा का कहर भुगतना पड़ा। कई समाचारपत्रों के सम्पादकों को गिरफ्तार कर लिया गया और कई बन्द हो गये। लेकिन इस समय मीडिया की भूमिका भी अच्छी नहीं रही, बल्कि बहुत शर्मनाक रही। जिस तरह आज के पत्रकार बिकाऊ हैं, उसी तरह उस समय के पत्रकार महा डरपोक थे। बड़े-बड़े पत्रकार इन्दिरा गाँधी के निवास पर जाकर उनके नेतृत्व में अपने पूर्ण विश्वास की घोषणा करते थे। आपात्काल के बाद विद्याचरण शुक्ल ने पत्रकारों से कहा था- ”आपको झुकने के लिए कहा गया था और आप रेंगने लगे।“ ऐसी थी उस समय की पत्रकारिता।

(जारी)

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