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Tuesday 19 March 2013

प्राकृतिक चिकित्सा से नशा मुक्ति


यह एक सत्य घटना है। मेरठ जिले में बागपत रोड पर पाँचली नामक गाँव में स्वामी जगदीश्वरानन्द जी सरस्वती का प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र है। वहाँ एक बार एक गाँव के कुछ लोग 27-28 साल के एक आदमी को लेकर आये और कहा- ‘स्वामी जी, इसे अफीम की लत है। दिन-रात नशे में डूबा रहता है। कोई काम-धाम करता नहीं। अगर रोज एक पुड़िया न मिले, तो मरने-मारने पर उतारू हो जाता है। आप कुछ कीजिए।’

स्वामी जी ने कहा- ‘इसे मेरे पास छोड़ दो। मुझे 10 पुड़िया बनाकर दे जाओ। 10 दिन बाद आ जाना।’ उन लोगों ने ऐसा ही किया। वे 10 पुड़िया स्वामी जी को देकर और उस आदमी को वहाँ छोड़कर चले गये। स्वामी जी ने उस आदमी से कहा- ‘तुम यहाँ रहो। जो करने के लिए कहा जाये, वह करो। रोज रात को आकर मुझसे एक पुड़िया ले जाना।’ वह आदमी मान गया।

उसका चिकित्सा केन्द्र में इलाज होने लगा। पेड़ू पर मिट्टी की पट्टी, एनीमा, भाप स्नान, कटि स्नान, मालिश, कुंजर आदि क्रियाएँ की जाने लगीं। साथ में सात्विक भोजन और रसाहार। वह रोज रात को स्वामी जी के पास आता और एक पुड़िया लेकर चला जाता। इस तरह 6 दिन तक वह रोज पुड़िया ले जाता रहा। सातवें दिन वह पुड़िया लेने नहीं आया। जब वह आठवें दिन भी नहीं आया, तो अगले दिन सुबह ही स्वामी जी ने उसे बुला भेजा और पूछा- ‘तुम दो दिन से पुड़िया लेने नहीं आ रहे हो?’

यह सुनते ही वह रोता हुआ स्वामी जी के पैरों में गिर पड़ा और कहने लगा- ‘स्वामी जी, आपने मुझे बचा लिया। अब मुझे पुड़िया की जरूरत नहीं है।’ स्वामी जी ने उसके सिर पर हाथ फेरा और आशीर्वाद दिया। फिर उसके घरवालों को खबर की।

अगले दिन उसके घरवाले आ गये। उस आदमी की पत्नी घूँघट में थी। वह भी रोती हुई स्वामी जी के पैरों पर गिर पड़ी। सबने कहा- ‘स्वामी जी आपने पूरे परिवार को नष्ट होने से बचा लिया।’

सत्य है, प्राकृतिक चिकित्सा और सात्विक भोजन से शरीर और मन भी शुद्ध हो जाते हैं। नशा मुक्ति तो मामूली बात है।

वीरबल के माता-पिता और अकबर

यों तो अकबर और वीरबल एक दूसरे के मित्र थे, परन्तु वीरबल का धर्म अलग होने के कारण अकबर उनको नीचा दिखाने की कोशिश किया करता था। एक बार बाग में टहलते हुए वीरबल ने एक पौधे को प्रणाम किया। अकबर चौंका और पूछा- ‘वीरबल, तुमने इस पौधे को प्रणाम क्यों किया है?’ 
वीरबल- ‘हुजूर, यह हमारी माता तुलसी का पौधा है। इसलिए मैंने प्रणाम किया है।’ 
अकबर- ‘क्या बेवकूफी की बात है? कोई पौधा माता कैसे हो सकता है? मैं तो इसे उखाड़ूँगा।’
वीरबल- ‘हूजूर, ऐसा मत कीजिए। यह ठीक नहीं होगा।’ 
पर अकबर नहीं माना और तुलसी के पौधे को उखाड़कर फेंक दिया।
वीरबल ने कहा- ‘हुजूर, आपने मेरी माताजी का अपमान किया तो किया, पर मेरे पिताजी का अपमान मत करना, वरना वे आपको सजा दिये बिना नहीं रहेंगे। मेरी माताजी तो सीधी हैं, पर पिताजी का मिजाज बहुत खराब है।’ 
अकबर ने कुछ नहीं कहा, लकिन मन ही मन सोच लिया कि इसके पिता को भी देख लूँगा।
आगे चलकर वीरबल ने फिर एक पौधे को प्रणाम किया। अकबर ने फिर पूछा- ‘तुमने इस पौधे को प्रणाम क्यों किया है?’ 
वीरबल- ‘हुजूर, ये मेरे पिताजी हैं।’ 
अकबर- ‘अच्छा, तो मैं इसे भी उखाड़ता हूँ।’
वीरबल- ‘ऐसा मत कीजिए, हुजूर! पिताजी बहुत गुस्सेबाज हैं। उनसे पंगा मत लीजिए।’
पर अकबर नहीं माना और हँसते हुए पौधा उखाड़ने लगा। पौधे की जड़ जरा गहरी थी, इसलिए उसे अधिक जोर लगाना पड़ा। उसने पौधा उखाड़कर तो फेंक दिया, लेकिन उखाड़ते समय उसकी कुछ पत्तियां मसल गयीं और उनका रस अकबर के हाथों पर लग गया। 
पौधा उखाड़कर वह वीरबल के पास शान से चलता हुआ आया, जैसे बहुत वीरता का काम किया हो। इतनी देर में ही उसकी हथेलियों में जोर की खुजली होने लगी। अकबर खुजाते-खुजाते परेशान हो गया। खुजली थी कि जा ही नहीं रही थी। उसने वीरबल से पूछा- ‘यह खुजली क्यों हो रही है?’ 
वीरबल- ‘हुजूर, मैंने आपसे पहले ही कहा था कि पिताजी का मिजाज बहुत खराब है। अब खुजाते रहिए, अब कुछ नहीं हो सकता।’ 
सुनते ही अकबर की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। मिमियाकर बोला- ‘तौबा-तौबा, वीरबल। इस खुजली से मुझे बचाओ। मैं तुम्हारे पिताजी से माफी माँगता हूँ।’
वीरबल- ‘हुजूर, आपने माताजी और पिताजी दोनों का अपमान किया है। पिताजी आपको माफ नहीं कर सकते। अगर माफी ही माँगनी है तो माताजी से माँगिये। वे सीधी हैं, माफ कर भी सकती हैं।’
यह सुनकर अकबर दौड़ता हुआ वहाँ आया, जहाँ उसने तुलसी का पौधा उखाड़कर फेंका था। उसको उठाकर उसी जगह लगाया, जहाँ से उखाड़ा था। फिर हाथ जोड़कर माफी माँगी।
तब तक वीरबल वहाँ पहुँच गये और अकबर से बोले- ‘हुजूर, इसकी चार-पाँच पत्तियाँ तोड़ लीजिए और उनका रस अपनी हथेलियों पर लगाइए।’ अकबर ने ऐसा ही किया और थोड़ी देर में ही उसकी खुजली बन्द हो गयी। 
इस घटना के बाद अकबर ने कभी वीरबल से पंगा नहीं लिया।

न्याय व्यवस्था में सुधारों की आवश्यकता


न्याय के बारे में एक पुरानी अंग्रेजी कहावत है- ‘न्याय में देरी करना न्याय को नकारना है और न्याय में जल्दबाजी करना न्याय को दफनाना है।’ वर्तमान भारतीय न्याय व्यवस्था के बारे में इस कहावत का पहला भाग ज्यादा सही है। हमारी अदालतें मुकदमों के भारी बोझ से दबी हुई हैं। एक-एक मामला कई-कई वर्षों तक चलता रहता है और कई बार फिर भी वादी को न्याय नहीं मिल पाता। इसलिए बहुत से लोग अन्याय को सहन कर जाते हैं और न्याय के लिए न्यायालय का द्वार इसलिए नहीं खटखटाते कि न्याय के मिलने की कोई गारंटी नहीं है और यदि मिला भी तो उसमें इतना व्यय हो जायेगा, जो न्याय पाने के लाभ से कई गुना अधिक होगा।

प्रश्न उठता है कि इसका समाधान क्या है? हर समस्या का कोई न कोई समाधान अवश्य होता है, यदि उस समस्या को गहराई से समझ लिया जाये। भारत की न्याय व्यवस्था की समस्याओं का सबसे बड़ा कारण मामलों की संख्या अधिक होना नहीं है, बल्कि मामलों का शीघ्र निस्तारण न करना है। इसके लिए सबसे अधिक दोषी वे वकील हैं जो मामूली बहानों से तारीखों पर तारीखें लेते जाते हैं। इनके साथ वे न्यायाधीश भी दोषी हैं, जो पर्याप्त कारण के बिना तारीखें दे देते हैं और मामला लम्बा खिंचता चला जाता है।

यदि हमें न्याय व्यवस्था को पटरी पर लाना है, तो सबसे पहले तारीखें लेने-देने की प्रवृत्ति पर रोक लगानी होगी। इसके लिए हमें वादी और प्रतिवादी दोनों पक्षों के लिए समय लेने (टाइम आउट) की अधिकतम संख्या तय करनी होगी। यह संख्या तीन रखना उचित होगा। किसी भी पक्ष को तीन से अधिक बार तारीख लेने का अधिकार नहीं होना चाहिए। यदि वे इतनी बार समय लेने पर भी पर्याप्त सबूत प्रस्तुत करने में असफल रहते हैं, तो उपलब्ध सबूतों के आधार पर मामले में निर्णय दे देना चाहिए।

यदि वादी या प्रतिवादी पक्ष में एक से अधिक व्यक्ति या समूह हों, तो केवल मुख्य वादी और मुख्य प्रतिवादी को समय लेने का अधिकार होना चाहिए। अन्य वादी या प्रतिवादी मुख्य वादी या प्रतिवादी से इस विषय में बात कर सकते हैं और आपस में मिलकर निर्णय कर सकते हैं।

यदि कोई पक्ष वादी या प्रतिवादी निर्धारित तारीख पर किसी भी कारणवश उपस्थित होने में असमर्थ रहता है, तो यह माना जाना चाहिए कि उन्होंने एक बार समय ले लिया है, अर्थात् समय लेने की संख्या में एक की कमी कर देनी चाहिए। यदि ऐसे सभी अवसर समाप्त हो गये हैं, तो वादी या प्रतिवादी की अनुपस्थिति में ही मामले का निस्तारण कर देना चाहिए।

वैसे आवश्यक होने पर न्यायाधीश अपने विवेक से दोनों पक्षों को समय दे सकता है, परन्तु इस अधिकार का उपयोग विशेष परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए और उसके कारणों को नियमानुसार लिखा जाना चाहिए। सामान्यतया न्यायाधीश को किसी भी मामले की सुनवाई रोज या निकटतम उपलब्ध तिथि को करनी चाहिए।

यदि हमारी न्याय व्यवस्था में इतना सुधार कर दिया जाये, तो यह निश्चित है कि मुकदमों का निस्तारण शीघ्र होगा और वादी को उचित समय अवधि में उचित न्याय मिल सकेगा।

अफजल की फांसी पर सवाल


पिछले दिनों आतंकवादी अफजल को फांसी दिये जाने की बहुत चर्चा हुई है। पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल कसाब के बाद अफजल गुरु को फांसी देने से भारत सरकार ने यह सिद्ध करने की कोशिश की कि अब वह आतंकवादियों के प्रति बहुत कड़ाई से पेश आएगी। आज मैं अफजल की फांसी पर विस्तार से चर्चा करूंगा।

आतंकवादी अफजल जम्मू-कश्मीर के बारामूला जिले के सोपोर कस्बे का रहने वाला था। उसका पूरा नाम था मोहमद अफजल गुरु। वहां की परम्परा के अनुसार किशोरावस्था से ही उसका झुकाव आतंकवादी गतिविधियों की ओर था। कमीशन एजेंसी चलाते हुए वह आतंकवादियों के सम्पर्क में आ गया और उनके कहने से नियंत्रण रेखा पार करके पाक-अधिकृत कश्मीर के मुजफ्फराबाद में पहुंच गया। वहां वह जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट का सदस्य बन गया और उसने आतंकवाद का बाकायदा प्रशिक्षण भी लिया। वह दिमाग से तेज था, इसलिए जल्दी ही कई तरह के हथियार चलाना और आतंकी गतिविधियां चलाना सीख गया। 

फिर उसे वापस भारत भेजा गया और लगभग 300 आतंकवादियों के समूह का मुखिया बना दिया गया। उसे एक बड़े आतंकवादी सरगना ने भारत की राजधानी दिल्ली में संसद पर हमला करने जैसी बड़ी घटना का आदेश दिया गया। आतंकवादी संगठनों लश्करे-तोइबा और जैशे-मुहम्मद के साथ पूरी योजना बनाकर उसने दिसम्बर 2001 में संसद पर हमला कराया। इस हमले में कई सुरक्षा सैनिक और नागरिक मारे गये परन्तु सभी आतंकवादी भी मारे गये और वे संसद में घुसने में सफल नहीं हो सके। अफजल पीछे रहकर योजना का संचालन कर रहा था। बाद में अफजल भी पकड़ा गया और दिसम्बर सन् 2002 में पोटा अदालत ने उसे मौत की सजा सुनायी। 

इस सजा के विरुद्ध उसने दिल्ली हाईकोर्ट में अपील की, जिसे 2003 में रद्द कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने भी उसकी अपील को 2005 में रद्द कर दिया। उसे 20 अक्तूबर 2006 को फांसी दी जानी थी, लेकिन इस आधार पर स्टे ले लिया गया कि उसकी दया याचिका राष्ट्रपति के पास लंबित है। इस दया याचिका का निस्तारण 3 फरवरी 2013 को किया गया और उसे क्षमायोग्य नहीं माना गया। अन्ततः 9 फरवरी 2013 को प्रातः 8 बजे उसे तिहाड़ जेल में फांसी दे दी गयी और उसके शव को तिहाड़ में ही किसी अज्ञात स्थान पर दफना दिया गया।

इस सारे घटनाक्रम से स्पष्ट है कि अफजल वास्तव में आतंकवादी था और संसद पर हमला करने जैसी जघन्य आतंकवादी घटना के लिए सीधे जिम्मेदार था। इसलिए वह मौत की सजा का हकदार था। लेकिन जिस तरह उसे फांसी दी गयी, उस पर तमाम सवाल खड़े होते हैं। 

1. उसकी दया याचिका को 7 वर्षों तक क्यों लटकाया गया? यह लटकाव गृहमंत्रालय ने किया था, राष्ट्रपति भवन ने नहीं, क्योंकि वहां से तत्काल सभी याचिकायें कार्यवाही और सलाह के लिए गृहमंत्रालय ही भेजी जाती हैं। इस सारी अवधि में कांग्रेस की ही सरकार रही है और याचिका लटकाने के तमाम बहाने बनाये गये। वास्तव में कांग्रेस को डर था (और वह गलत भी नहीं था) कि अफजल को फांसी देने से कश्मीर में बवाल हो जाएगा और मुसलमान नाराज हो जायेंगे, क्योंकि मुंह से भले ही न कहें लेकिन सभी यह स्वीकार करते हैं कि कम से कम कश्मीरी मुसलमानों की अधिकांश जनसंख्या का समर्थन और सहानुभूति आतंकवादियों के साथ है।

2. उसे जेल में रखकर प्रतिदिन उसकी सुरक्षा में लाखों-करोड़ों क्यों खर्च किये गये? उसे विशेष भोजन कराने के लिए लाखों का खर्च क्यों कराया गया? इसका सरकार के पास कोई जबाब नहीं है, सिवाय इसके कि उसकी दया याचिका लम्बित थी। ऐसा लगता है कि कुछ लोग लम्बे समय तक फांसी के लिए विचाराधीन रखने के आधार पर उसे रिहा कराना चाहते थे। लेकिन जब हिन्दू समाज में इसकी उग्र प्रतिक्रिया होने की सम्भावना देखी, तो सरकार ने आनन-फानन में दया याचिका की निपटारा कर दिया।

3. फांसी को इतना गुप्त क्यों रखा गया? कसाब के मामले में भी गोपनीयता पर सवाल उठाये जाते हैं और उसकी मौत को किसी डेंगू मच्छर का कारनामा बताया जाता है। लेकिन अफजल की फांसी को गोपनीय रखने की क्या आवश्यकता थी? समय रहते उसके परिवार को सूचना क्यों नहीं दी गयी? कहा जाता है कि फांसी से दो दिन पहले स्पीडपोस्ट से सूचना उसके परिवार को दी गयी थी, जो फांसी के 2-3 दिन बाद पहुंची। जब यह पता है कि हमारी स्पीडपोस्ट सेवा इतनी कुशल है, तो टेलीफोन से क्यों सूचना नहीं दी गयी। यह गोपनीयता बहुत आपत्तिजनक है।

4. फांसी से पहले अफजल के परिवार को उससे क्यों नहीं मिलाया गया? उसके परिवार को पूरा अधिकार था कि फांसी से पहले उससे मिलता। ऐसा न करके बहुत गलत किया गया। कसाब की बात दूसरी थी, क्योंकि पाकिस्तान तो उसका शव भी लेने को तैयार नहीं था। लेकिन अफजल के मामले में यह बात नहीं थी। 

5. फांसी के बाद अफजल के शव को तिहाड़ में ही क्यों दफनाया गया? नियमानुसार उसका शव उसके परिवारियों को सौंपा जाना चाहिए था, भले ही वे उसे कहीं भी दफनाते। यह कहना बेकार है कि लोग उसे हीरो बना देते। वह तो बन ही गया है कम से कम अपने परिवार और कश्मीरियों की नजरों में। यदि वे उसकी कब्र पर फूल चढ़ाने जाते, तो जाने देते। क्या फर्क पड़ता है? कम से कम यह तो स्पष्ट हो जाता कि कश्मीर की जनता उतनी मासूम नहीं है जितनी बतायी जाती है।

6. अफजल की फांसी पर जिन लोगों ने सरे आम आंसू बहाये और प्रदर्शन किये, उनके खिलाफ कड़ी कार्यवाही क्यों नहीं की गयी? ऐसे लोगों जैसे उमर अब्दुल्ला आदि को तत्काल गिरफ्तार करके उन पर आतंकवादियों को समर्थन देने का मामला चलाना चाहिए था।

कुम्भ और रेलवे


कुम्भ के अवसर पर मौनी अमावस्या के दिन इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर हुई दुर्घटना के बारे में सभी जानते हैं। इस दुर्घटना के लिए रेलवे को बहुत आलोचनायें भी सहनी पडी हैं। हमें क्षीण सी यह आशा थी कि यह जो दुर्घटना हुई थी, वह अचानक ही हो गयी होगी और रेलवे ने अपनी ओर से पूरे प्रबंध किये होंगे। लेकिन विगत 7 मार्च को स्वयं इलाहाबाद जाने पर जब मैंने वे तथाकथित प्रबंध अपनी आँखों से देखे, तो यह स्पष्ट हो गया कि रेलवे की जो आलाचनायें की गयी हैं वे उसकी मूर्खताओं और नालायकियों की तुलना में बहुत कम हैं।

कुम्भ के अवसर पर रेलवे प्रत्येक रेल यात्री से प्रति सवारी 5 रुपये का मेला सरचार्ज वसूल करता है। हमें भी यह सरचार्ज देना पड़ा। लेकिन स्टेशन पर कोई भी ऐसा प्रबंध दिखाई नहीं पड़ा, जो रेलवे ने कुम्भ के लिए विशेष रूप से किया हो, बल्कि सामान्य प्रबंधों में भी घोर लापरवाही और मूर्खताओं के ही दर्शन हुए। यह जानना दिलचस्प होगा कि रेलवे ने सरचार्ज के नाम पर एकत्र की गयी करोडों की राशि का क्या उपयोग किया।

रेलवे का पहला काम होता है पर्याप्त नई गाडि़यां चलाना। लेकिन जिस तरह स्टेशन पर लाखों की भीड़ एकत्र हो गयी थी, उससे स्पष्ट है कि रेलवे अपने इस मुख्य कर्तव्य को निभाने में बुरी तरह असफल रहा। उसने केवल इतना किया कि एक-दो इंटरसिटी एक्सप्रेसों को रद्द करके उनको इलाहाबाद आने-जाने के लिए लगा दिया। होना यह चाहिए था कि इलाहाबाद से सभी चारों दिशाओं में जाने के लिए हर घंटे बाद एक शटल चलायी जाती, ताकि स्टेशन पर भीड़ लगातार कम होती रहे। ऐसी शटल चलाने के लिए किसी गाड़ी को रद्द करने की आवश्यकता नहीं थी, बल्कि प्रत्येक गाड़ी से केवल एक सामान्य बोगी कम करके उन बोगियों को जोड़कर नयी रेलगाडि़यों का रूप दिया जा सकता था। केवल इंजनों की व्यवस्था करनी पड़ती। इसके लिए रेलवे के पास पर्याप्त समय था। ऐसी गाडि़यों के लिए कुछ प्लेटफार्म सुरक्षित कर दिये जाने चाहिए थे। लेकिन लापरवाही के कारण इतना भी नहीं किया गया।

रेलवे का दूसरा काम होता है रेलवे स्टेशनों पर रेल यात्रियों का आवागमन सुविधाजनक बनाना। इलाहाबाद स्टेशन पर जाते ही स्पष्ट हो जाता है कि रेल विभाग इस कार्य में भी बुरी तरह असफल रहा। स्टेशन पर कुल मिलाकर दो पुल हैं, जो लाखों यात्रियों के लिए पूरी तरह अपर्याप्त हैं। वहाँ एक पुल जाने कब से टूटा हुआ पड़ा है। कुम्भ को देखते हुए उसकी मरम्मत प्राथमिकता के अनुसार करायी जानी थी, परन्तु वह भी नहीं करायी गयी। वास्तव में इलाहाबाद स्टेशन पर एक तीसरे पुल की अतीव आवश्यकता है, जो इतना चौड़ा और मजबूत होना चाहिए कि लाखों यात्रियों का बोझ झेल सके।

कभी प्रयाग रेलवे स्टेशन को संगम पर आने वाले यात्रियों की सुविधा के लिए वैकल्पिक स्टेशन के रूप में विकसित किया गया होगा। परन्तु आज तक उस स्टेशन से संगम तक जाने का कोई सीधा मार्ग नहीं बना है। जो लोग वहां उतरते भी हैं, उन्हें काफी चक्कर काटकर इलाहाबाद शहर में होकर संगम तक जाना पड़ता है। इसी कारण अधिकांश यात्री प्रयाग के बजाय इलाहाबाद जंक्शन पर ही उतरते हैं। यह तो रेलवे की मूर्खता की पराकाष्ठा है कि प्रयाग स्टेशन का उचित उपयोग नहीं किया जा रहा है, वरना एक ही स्टेशन को सारी भीड़ नहीं झेलनी पड़ती।

रेलवे की इतनी मूर्खताओं को देखते हुए यह परमपिता की कृपा ही कही जायेगी कि केवल एक ही बार दुर्घटना हुई। वरना रेलवे के ‘इंतजाम’ तो ऐसे हैं कि यदि रोज दुर्घटना होती, तो भी आश्चर्य न होता। कुम्भ हर 12 साल बाद आता है और हर 6 साल बाद अर्धकुम्भ भी लगता है। इसलिए यदि इस बार जैसी दुर्घटनाओं से बचना है, तो रेलवे को अगले कुम्भ की तैयारी अभी से शुरू कर देनी चाहिए।

अकबर और वीरबल का मिलन

बादशाह अकबर को वीरबल कैसे मिले, इसके बारे में कई कहानियां प्रचलित हैं। लेकिन उनमें कोई भी पूर्णतः विश्वसनीय नहीं है। इस बारे में जो कथा सबसे अधिक विश्वसनीय प्रतीत होती है, वह यहाँ दे रहा हूँ।
कहा जाता है कि वीरबल आगरा में किले के बाहर पान की दुकान करते थे। उस समय उनका नाम महेश दास था। एक बार बादशाह अकबर का एक नौकर उनके पास आया और बोला- ‘लाला, आपके पास एक पाव चूना होगा?’ यह सुनकर वीरबल चौंक गये और पूछा- ‘क्या करोगे एक पाव चूने का? इतने चूने की जरूरत कैसे पड़ गयी तुम्हें?’ 
वह बोला- ‘मुझे तो कोई जरूरत नहीं है, पर बादशाह ने मँगवाया है।’ 
वीरबल ने पूछा- ‘बादशाह ने मँगवाया है? जरा तफसील से बताओ कि क्यों मँगवाया है?’
वह बोला- ‘यह तो पता नहीं कि क्यों मँगवाया है। पर आज मैं रोज की तरह बादशाह के लिए पान लगाकर ले गया था। उसको मुँह में रखने के बाद उन्होंने पूछा कि तुम्हारे पास एक पाव चूना होगा? मैंने कहा कि है तो नहीं, लेकिन मिल जाएगा। तो बादशाह ने हुक्म दिया कि जाकर ले आओ। बस इतनी सी बात हुई है।’ 
‘तो मियाँ अपने साथ अपना कफन भी लेते जाना।’
यह सुनते ही वह नौकर घबड़ा गया- ‘क्.. क्.. क्या कह रहे हो, लाला? कफन क्यों?’
‘यह चूना तुम्हें खाने का हुक्म दिया जाएगा।’
‘क्यों? मैंने क्या किया है?’
‘पान में चूना ज्यादा लग गया है। इसलिए उसकी तुर्शी से तुम्हें वाकिफ कराने की जरूरत महसूस हुई है।’
‘लेकिन इतना चूना खाने से तो मैं मर जाऊँगा।’
‘हाँ, तभी तो कह रहा हूँ कि कफन साथ लेते जाना।’
अब तो वह नौकर थर-थर काँपने लगा। रुआँसा होकर बोला- ‘लाला, जब आप इतनी बात समझ गये हो, तो बचने की कोई तरकीब भी बता दो।’
वीरबल ने कहा- ‘एक तरकीब है। बादशाह के पास जाने से पहले तुम गाय का एक सेर खालिश घी पी जाना। जब चूना खाने का हुक्म मिले, तो चुपचाप खा जाना और घर जाकर सो जाना। तुम्हें कुछ दस्त-वस्त लगेंगे, लेकिन जान बच जायेगी।’
वह शुक्रिया करके चला गया।
घी पीकर और चूना लेकर वह बादशाह के पास पहुँचा- ‘हुजूर, चूना हाजिर है।’
अकबर ने कहा- ‘ले आये चूना? इसे यहीं खा जाओ।’
‘जो हुक्म हुजूर’ कहकर वह चूना खा गया। अकबर ने हुक्म दिया- ‘अब जाओ।’ कोर्निश करके वह चला गया।
अगले दिन वह फिर पान लेकर हाजिर हुआ। उसे देखकर अकबर को आश्चर्य हुआ- ‘क्या तुम मरे नहीं?’ 
‘आपके फजल से जिन्दा हूँ, हुजूर!’
‘तुम बच कैसे गये? मैंने तो तुम्हें एक पाव चूना अपने सामने खिलाया था।’
‘हुजूर, आपके पास आने से पहले मैंने गाय का एक सेर घी पी लिया था।’
‘यह तरकीब तुम्हें किसने बतायी? और तुम्हें कैसे पता था कि मैं चूना खाने का हुक्म दूँगा?’
‘मुझे नहीं पता था, लेकिन पानवाला लाला समझ गया था। उसी ने मुझे यह तरकीब बतायी थी, हुजूर।’
अब तो अकबर चौंका। बोला- ‘पूरी बात बताओ कि तुम दोनों के बीच क्या बात हुई?’
तब उस नौकर ने वह बातचीत कह सुनायी जो उसके और वीरबल के बीच हुई थी। यह सुनकर अकबर के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। बोला- ‘यह पानवाला लाला तो बहुत बुद्धिमान मालूम होता है। तुम उसको हमारे पास लेकर आना। हम उसे अपना दोस्त बनायेंगे।’
तब वह नौकर वीरबल को लेकर अकबर के पास गया और इस प्रकार अकबर और वीरबल में मित्रता हुई।

Sunday 3 March 2013

हिन्दुओं में आक्रामकता की कमी



हिन्दू समाज एक ऐसा समाज है जो यह झूठा दावा नहीं करता कि उसके नाम का अर्थ “शान्ति” है, फिर भी उसे संसार का सबसे अधिक शान्तिप्रिय समाज समझा जाता है। संसार में एक भी देश ऐसा नहीं है, जहां हिन्दू कम या अधिक संख्या में रहते हों और उनके कारण वहां के मूल निवासियों या किसी अन्य समुदाय को कोई समस्या या शिकायत उत्पन्न हुई हो। इसका कारण यह है कि सब जानते हैं कि हिन्दू समाज ‘अहिंसा परमो धर्मः’ के सिद्धान्त का मात्र प्रचार नहीं, बल्कि मन, वचन और कर्म से पालन भी करते हैं। इसी कारण संसार के सभी लोग हिन्दुओं का सम्मान करते हैं। हालांकि इसी सिद्धान्त का अगला भाग ‘धर्म हिंसा तथैव च’ भी है, लेकिन उसका उपयोग कोई नहीं करता। इसी प्रकार ‘शठे शाठ्यम् समाचरेत्’ भी हिन्दुत्व के मूल सिद्धान्तों में से एक है, लेकिन इसका प्रयोग बहुत मजबूरी होने पर ही किया जाता है।

कहावत है कि अति हरि चीज की बुरी होती है। यह कहावत हिन्दुओं पर सही बैठती है। अत्यधिक शान्तिप्रियता की भारी कीमत हिन्दुओं को भूतकाल में चुकानी पड़ी है और आज भी चुका रहे हैं। हिन्दुओं की शान्तिप्रियता का अनुचित लाभ कुछ ऐसे तत्व या समुदाय उठाते रहे हैं, जो येन-केन-प्रकारेण अपने तथाकथित धर्म को विश्व के सभी लोगों पर थोपने का सपना देखते हैं। संसार के धर्मांध व्यक्ति अपने तथाकथित धर्म को सही ठहराने के लिए हिन्दुओं का अपमान कर देते हैं। वे हिन्दुओं को अपमानित और पीडि़त करने का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहते। उनको यकीन है कि हिन्दू समाज यदि अपने अपमान या अत्याचार का प्रतिरोध करेगा भी तो केवल शाब्दिक तौर पर या प्रदर्शन आदि करके। वे जानते हैं कि हिन्दू समाज में कोई आक्रामकता नहीं है इसलिए वह अपने बड़े से बड़े अपमान को ‘पागलों की बकवास’ कहकर भूल जाता है या ‘भाग्य’ मानकर सहन कर लेता है। 

येरूशलम में किसी मस्जिद पर किसी आतंकवादी गुट ने हमला किया, तो वे इसका बदला भारत में हैदराबाद में हिन्दुओं के मन्दिरों को तोड़कर चुकाते हैं। बामियान में महात्मा बुद्ध की मूर्तियों को तोप से तोड़ने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता। एक समुदाय को हिन्दू देवी-देवताओं के चित्र जूते-चप्पलों पर या टाइलेट पेपर पर छापने में कोई शर्म नहीं आती। एक तथाकथित कलाकार को हिन्दू धर्म की पूज्य देवियों के नग्न और अश्लील चित्र कैनवास पर उकेरने में कोई झिझक महसूस नहीं होती, क्योंकि उसे पता है कि हिन्दू समाज इसके लिए उसके खिलाफ कोई ‘मौत का फतवा’ जारी नहीं करेगा।

जब हम हिन्दू समाज की इस प्रवृत्ति की तुलना अन्य समाजों से करते हैं, तो उनका अन्तर स्पष्ट हो जाता है। यूरोप के किसी छोटे से देश के किसी नामालूम से अखबार में पैगम्बर का एक कार्टून छप जाने पर पूरी दुनिया में मुसलमान सड़कों पर उतर आये और तबाही मचा दी। एक लेखक ने अपने एक उपन्यास में किसी धार्मिक ग्रंथ का हवाला देकर एक कहानी लिखी, तो उसके खिलाफ ‘मौत का फतवा’ जारी कर दिया गया। बेचारे लेखक को अपनी जान बचाने के लिए नाम और वेष बदलकर अज्ञातवास करना पड़ा। एक फिल्म में ईसा की जिन्दगी की छिपी हुई कहानी दिखाई गयी, तो पूरी दुनिया के ईसाई उस फिल्म के पीछे पड़ गये। 

इन और ऐसी सभी घटनाओं का विश्लेषण करने से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि सबको यह विश्वास है कि हिन्दुओं के साथ चाहे जैसा व्यवहार कर लो और उनका चाहे जितना अपमान कर लो, उनकी तरफ से कोई हिंसक प्रतिक्रिया होने की कोई संभावना नहीं है। हालांकि हिन्दू समाज कायर या शक्तिहीन नहीं है, लेकिन उसे यह सिखाया गया है कि अपनी शक्ति का प्रयोग कम से कम करो। उसको यह बताया जाता है कि जब संसार में पाप बढ़ जायेगा, तो भगवान स्वयं अवतार लेकर पापियों को दण्ड दे देगा, इसलिए उसे स्वयं कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। यह प्रवृत्ति ही हिन्दुओं की वर्तमान समस्याओं का कारण है। यदि हिन्दुओं में दूसरे समाजों की तुलना में अंशमात्र भी आक्रामकता होती, तो उसकी ये समस्यायें बहुत कम हो जातीं। 

इसलिए हिन्दुओं को अब अपने अपमान और अपने ऊपर किये जाने वाले अत्याचारों का प्रतिकार स्वयं ही करना चाहिए, किसी भगवान या अवतार के भरोसे नहीं बैठे रहना चाहिए। दूसरे शब्दों में, हिन्दुओं को कुछ मात्रा में आक्रामक होने की आवश्यकता है। यह आक्रामकता मात्र उतनी ही होनी चाहिए जितनी अपने सम्मान की रक्षा के लिए आवश्यक है। किसी को पीडि़त या आतंकित करने के लिए इसका उपयोग कभी नहीं होना चाहिए। हिन्दू युवकों को ऐसा संगठन बनाना चाहिए, जो हिन्दुत्व का अपमान करने पर अपमानकर्ता को उचित और आवश्यक दंड दे सके। बजरंग दल ऐसा संगठन हो सकता था, परन्तु राम मंदिर का जोश ठंडा पड़ जाने पर यह संगठन भी शक्तिहीन होकर रह गया है। अब या तो इस संगठन को पुनर्जीवित किया जाये या एक नया रक्षक दल बनाया जाये, जिसमें हिन्दू युवकों को स्वास्थ्य निर्माण के साथ ही शक्ति के प्रयोग का भी प्रशिक्षण दिया जाये। अगर हम धर्म की रक्षा करेंगे, तो धर्म भी हमारी रक्षा करेगा।

Saturday 2 March 2013

सिखों की पगड़ी का सवाल


सिख पंथ का प्रारम्भ गुरु नानकदेव जी ने हिन्दुत्व की रक्षा के लिए समर्पित शिष्यों के निर्माण के लिए किया था। उनके बाद एक-एक करके नौ गुरु और हुए, जिनमें से कई को मुगल शासकों के हाथों पीडि़त होना पड़ा। जैसे-जैसे सिख पंथ का प्रभाव बढ़ता गया, वैसे-वैसे उनके ऊपर मुगलों के अत्याचार भी बढ़ते गये। हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए नवम गुरु तेग बहादुर जी को अपने कई शिष्यों के साथ बलिदान देना पड़ा। तब तक सिख पंथ ने किसी लड़ाकू पंथ का रूप नहीं लिया था। इसलिए दशम गुरु गोविन्द सिंह जी ने इस पंथ को एक लड़ाकू रूप दिया। उन्होंने उनकी पहचान के लिए 5 चिह्न बताये - कृपाण, कड़ा, केश, कच्छा और कंघा, जिन्हें संयुक्त रूप में ‘पंच ककार’ भी कहा जाता है। गुरु गोविन्द जी ने कहा था कि प्रत्येक सिख को ये पांच चिह्न धारण करने चाहिए और अपने नाम में ‘सिंह’ शब्द जोड़ना चाहिए। स्वयं उन्होंने अपने नाम को ‘गोविन्द राय’ से बदलकर ‘गोविन्द सिंह’ कर लिया। सिखों के लिए सिर पर पगड़ी बांधने की प्रथा भी उन्होंने ही चलाई, हालांकि सिर ढकने की प्रथा भारत में प्राचीन काल से ही थी।

एक लड़ाकू कौम में परिवर्तित हो जाने के बाद सिख पंथ ने हिन्दुत्व की बहुत सेवा की और उसको मुगलों के अत्याचार से बचाया। उस समय हिन्दू परिवारों में ऐसी प्रथा बन गयी थी कि परिवार के सबसे बड़े पुत्र को सिख पंथ में दीक्षित किया जाता था और उसे सम्मानपूर्वक ‘सरदार जी’ कहकर पुकारा जाता था। अनेक परिवारों में आज भी इस प्रथा का पालन किया जाता है। मेरे एक सिख मित्र हैं, जो भारत सरकार में एक बहुत ऊँचे पद पर हैं। अपने सभी भाइयों में वे सबसे बड़े हैं और केवल उन्होंने ही केश रखे हुए हैं।

गुरु गोविन्द सिंह जी ने जो प्रथा चलाई थी, वह उस समय की आवश्यकता के अनुसार थी। अब वे परिस्थितियां बदल गयी हैं। इसलिए पंच ककारों के धारण करने की भी वैसी आवश्यकता नहीं रह गयी है। आज जब हम पंजाब में जाते हैं, तो देखते हैं कि काफी संख्या में लोगों ने केश कटा रखे हैं। वे केवल पंजाबी गैर-सिख हिन्दू ही नहीं हैं, बल्कि बहुत से सिखों ने भी केश कटा रखे हैं। फिर भी बड़ी संख्या में सिख आज भी केश रखते हैं। हाथ में कड़ा तो लगभग सभी पहनते हैं। लेकिन शेष तीन चिह्नों पर उतना जोर नहीं है। कच्छा तो शायद ही कोई पहनता हो, कंघा नाममात्र का रखते हैं और कृपाण तो निहंगों के अलावा कोई नहीं रखता। जो इन चिह्नों पर अधिक जोर देते हैं, वे कृपाण के रूप में एक छोटा सा चाकू जैसा खिलौना जेब में रख लेते हैं। कहने का तात्पर्य है कि पंच ककारों पर जोर बहुत कम हो गया है।

फिर भी बहुत से सिख पगड़ी बांधने पर जोर देते हैं, क्योंकि इसको वे अपनी प्रतिष्ठा का चिह्न समझते हैं। पगड़ी के कारण सिख बंधु दूर से ही पहचान में आ जाते हैं, जबकि अन्य हिन्दू पंथों जैसे जैन, बौद्ध, कबीरपंथी, सनातनी, आर्यसमाजी आदि को इस प्रकार अलग से नहीं पहचाना जा सकता। इससे भारत में तो कोई समस्या नहीं होती, लेकिन जब सिख बंधु अन्य देशों, विशेष रूप से यूरोपीय देशों में जाते हैं, तो उन्हें बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कई देशों में अपना धार्मिक चिह्न प्रदर्शित करने पर रोक है। पगड़ी के कारण सिख भाई उन देशों की पुलिस या सेना में शामिल नहीं हो पाते, क्योंकि कई देशों में इनकी अनुमति नहीं है। इस बारे में बहुत मुकदमेबाजी भी हुई है, लेकिन उससे कोई लाभ नहीं हुआ।

मेरी दृष्टि में विदेशों में जाने पर पगड़ी रखने की जिद करना हठधर्मी के अलावा कु नहीं है। अगर उनको पंच ककारों से इतना ही प्यार है, तो उनको चाहिए कि पैंट-शर्ट और सूट-टाई छोड़कर कुर्ता-कच्छा धारण करें। जब वे कच्छे को छोड़ सकते हैं, तो पगड़ी क्यों नहीं छोड़ सकते? अगर पगड़ी रखना इतना ही आवश्यक है तो उन्हें कृपाण के छोटे माडल की तरह एक छोटी सी पगड़ी भी अपनी जेब में रख लेनी चाहिए। इससे उनके धार्मिक विश्वास की भी रक्षा हो जायेगी और विदेशों में जाकर उन्हें अपमानित भी नहीं होना पड़ेगा।

गुरु और शिष्य


“क्या लाये हो?“

यह प्रश्न पूछने वाले थे प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द, जो व्याकरण के सूर्य कहे जाते थे। वे मथुरा में यमुना के किनारे एक छोटी सी कुटी में रहते हुए अपने गिने-चुने शिष्यों को वैदिक ग्रन्थों की शिक्षा दिया करते थे।

जिनसे यह प्रश्न पूछा गया था वे थे स्वामी दयानन्द, जो मात्र 18 वर्ष की आयु में अपने परिवार के समस्त वैभव का त्याग करके ‘सच्चे शिव’ की खोज में निकले थे। संन्यास ग्रहण करने के बाद वे इधर-उधर भटकते हुए अनेक संत-महात्माओं से ज्ञान प्राप्त कर चुके थे, परन्तु तृप्ति नहीं हुई थी। अन्त में वे स्वामी विरजानन्द से आर्ष ग्रन्थों की शिक्षा प्राप्त करने आये थे और उसी दिन उनकी शिक्षा पूर्ण हुई थी। परम्परा के अनुसार वे गुरु से विदा लेने आये थे।

उनके आस-पास खड़े हुए अन्य शिष्य आश्चर्य से सोच रहे थे कि आज गुरुजी को क्या हो गया है? जो अपने ग्रहस्थ शिष्यों से भी कभी कुछ नहीं माँगते थे, आज एक अकिंचन कौपीनधारी संन्यासी के सामने हाथ फैला रहे हैं!

स्वामी दयानन्द भी संकोच से गढ़ गये। किसी तरह साहस करके बोले- "गुरुदेव! मैं एक संन्यासी हूँ। मेरे पास है ही क्या, जो आपको भेंट करूँ? भिक्षा करके ये थोड़े से लवंग आपके चबाने के लिए लाया हूँ। स्वीकार करके अपना आशीर्वाद प्रदान करें।" यह कहते हुए उन्होंने अपनी अंजुली में रखे हुए लौंग गुरु की ओर बढ़ाये।

”दयानन्द! मुझे किसी सांसारिक वस्तु की कामना नहीं है। मैं वह वस्तु चाहता हूँ, जो तुम्हारे पास है।“

गुरुदेव के मुख से यह अप्रत्याशित वाक्य सुनकर स्वामी दयानन्द रोमांचित हो उठे। आस-पास खड़े हुए शिष्यों की उत्सुकता बढ़ गयी।

स्वामी दयानन्द ने रोमांचित होकर कहा- ”आज्ञा कीजिए, गुरुदेव! मेरा यह पूरा शरीर और जीवन आपका है।“

”दयानन्द! देश में अनेक अवैदिक मत-मतान्तरों और मूर्ति-पूजा का जाल फैला हुआ है। लोग वेदों को भूल गये हैं। मैं चाहता हूँ कि तुम अविद्या के इस अन्धकार को मिटाकर वैदिक धर्म की ओर लोगों को लौटाओ। तुम्हारे जैसा कोई युवा संन्यासी और विद्वान् ही यह कार्य कर सकता है।“

स्वामी दयानन्द के मुख पर एक तेज प्रकट हुआ। दृढ़ शब्दों में बोले- ”गुरुदेव, मैं आपको वचन देता हूँ कि अवैदिक मत-मतान्तरों का विरोध करके सच्चे वैदिक धर्म की प्रतिष्ठा करूँगा।“

”दयानन्द! यह कार्य इतना सरल नहीं है। तुम्हें जगह-जगह पर विरोध और अपमान सहन करना पड़ेगा। तुम्हारे प्राणों पर भी संकट आ सकता है।“

”कुछ भी हो, गुरुदेव! चाहे मुझे अपने प्राण ही क्यों न देने पड़ें, लेकिन आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।“

”मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। जाओ तुम्हारा कल्याण हो।“

इतिहास साक्षी है कि स्वामी दयानन्द ने अपने गुरु को दिये गये वचन का जीवन भर पालन किया। उन्हें जगह-जगह अपमानित होना पड़ा, ईंट-पत्थर फेंके गये, कई बार विष दिया गया और अन्य प्रकार से प्राण लेने की चेष्टा की गयी। अन्ततः उनको विष देकर प्राण ले ही लिये गये। परन्तु वे वैदिक धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा करके ही माने।

स्वामी विरजानन्द जैसे गुरुओं और स्वामी दयानन्द  जैसे शिष्यों के कारण ही भारत महान् कहा जाता है।