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Saturday 2 March 2013

सिखों की पगड़ी का सवाल


सिख पंथ का प्रारम्भ गुरु नानकदेव जी ने हिन्दुत्व की रक्षा के लिए समर्पित शिष्यों के निर्माण के लिए किया था। उनके बाद एक-एक करके नौ गुरु और हुए, जिनमें से कई को मुगल शासकों के हाथों पीडि़त होना पड़ा। जैसे-जैसे सिख पंथ का प्रभाव बढ़ता गया, वैसे-वैसे उनके ऊपर मुगलों के अत्याचार भी बढ़ते गये। हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए नवम गुरु तेग बहादुर जी को अपने कई शिष्यों के साथ बलिदान देना पड़ा। तब तक सिख पंथ ने किसी लड़ाकू पंथ का रूप नहीं लिया था। इसलिए दशम गुरु गोविन्द सिंह जी ने इस पंथ को एक लड़ाकू रूप दिया। उन्होंने उनकी पहचान के लिए 5 चिह्न बताये - कृपाण, कड़ा, केश, कच्छा और कंघा, जिन्हें संयुक्त रूप में ‘पंच ककार’ भी कहा जाता है। गुरु गोविन्द जी ने कहा था कि प्रत्येक सिख को ये पांच चिह्न धारण करने चाहिए और अपने नाम में ‘सिंह’ शब्द जोड़ना चाहिए। स्वयं उन्होंने अपने नाम को ‘गोविन्द राय’ से बदलकर ‘गोविन्द सिंह’ कर लिया। सिखों के लिए सिर पर पगड़ी बांधने की प्रथा भी उन्होंने ही चलाई, हालांकि सिर ढकने की प्रथा भारत में प्राचीन काल से ही थी।

एक लड़ाकू कौम में परिवर्तित हो जाने के बाद सिख पंथ ने हिन्दुत्व की बहुत सेवा की और उसको मुगलों के अत्याचार से बचाया। उस समय हिन्दू परिवारों में ऐसी प्रथा बन गयी थी कि परिवार के सबसे बड़े पुत्र को सिख पंथ में दीक्षित किया जाता था और उसे सम्मानपूर्वक ‘सरदार जी’ कहकर पुकारा जाता था। अनेक परिवारों में आज भी इस प्रथा का पालन किया जाता है। मेरे एक सिख मित्र हैं, जो भारत सरकार में एक बहुत ऊँचे पद पर हैं। अपने सभी भाइयों में वे सबसे बड़े हैं और केवल उन्होंने ही केश रखे हुए हैं।

गुरु गोविन्द सिंह जी ने जो प्रथा चलाई थी, वह उस समय की आवश्यकता के अनुसार थी। अब वे परिस्थितियां बदल गयी हैं। इसलिए पंच ककारों के धारण करने की भी वैसी आवश्यकता नहीं रह गयी है। आज जब हम पंजाब में जाते हैं, तो देखते हैं कि काफी संख्या में लोगों ने केश कटा रखे हैं। वे केवल पंजाबी गैर-सिख हिन्दू ही नहीं हैं, बल्कि बहुत से सिखों ने भी केश कटा रखे हैं। फिर भी बड़ी संख्या में सिख आज भी केश रखते हैं। हाथ में कड़ा तो लगभग सभी पहनते हैं। लेकिन शेष तीन चिह्नों पर उतना जोर नहीं है। कच्छा तो शायद ही कोई पहनता हो, कंघा नाममात्र का रखते हैं और कृपाण तो निहंगों के अलावा कोई नहीं रखता। जो इन चिह्नों पर अधिक जोर देते हैं, वे कृपाण के रूप में एक छोटा सा चाकू जैसा खिलौना जेब में रख लेते हैं। कहने का तात्पर्य है कि पंच ककारों पर जोर बहुत कम हो गया है।

फिर भी बहुत से सिख पगड़ी बांधने पर जोर देते हैं, क्योंकि इसको वे अपनी प्रतिष्ठा का चिह्न समझते हैं। पगड़ी के कारण सिख बंधु दूर से ही पहचान में आ जाते हैं, जबकि अन्य हिन्दू पंथों जैसे जैन, बौद्ध, कबीरपंथी, सनातनी, आर्यसमाजी आदि को इस प्रकार अलग से नहीं पहचाना जा सकता। इससे भारत में तो कोई समस्या नहीं होती, लेकिन जब सिख बंधु अन्य देशों, विशेष रूप से यूरोपीय देशों में जाते हैं, तो उन्हें बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कई देशों में अपना धार्मिक चिह्न प्रदर्शित करने पर रोक है। पगड़ी के कारण सिख भाई उन देशों की पुलिस या सेना में शामिल नहीं हो पाते, क्योंकि कई देशों में इनकी अनुमति नहीं है। इस बारे में बहुत मुकदमेबाजी भी हुई है, लेकिन उससे कोई लाभ नहीं हुआ।

मेरी दृष्टि में विदेशों में जाने पर पगड़ी रखने की जिद करना हठधर्मी के अलावा कु नहीं है। अगर उनको पंच ककारों से इतना ही प्यार है, तो उनको चाहिए कि पैंट-शर्ट और सूट-टाई छोड़कर कुर्ता-कच्छा धारण करें। जब वे कच्छे को छोड़ सकते हैं, तो पगड़ी क्यों नहीं छोड़ सकते? अगर पगड़ी रखना इतना ही आवश्यक है तो उन्हें कृपाण के छोटे माडल की तरह एक छोटी सी पगड़ी भी अपनी जेब में रख लेनी चाहिए। इससे उनके धार्मिक विश्वास की भी रक्षा हो जायेगी और विदेशों में जाकर उन्हें अपमानित भी नहीं होना पड़ेगा।

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