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Wednesday 7 March 2012

गाँधी के बाद उनके नाम का अभिशाप

जीवित रहते हुए मूर्खात्मा गाँधी ने देश की जो कुसेवा की और हानि पहुँचायी, उससे कई गुना अधिक हानि उन्होंने मरने के बाद अपने नाम के दुरुपयोग से पहुँचायी। मेरा संकेत फिरोज खान को उनके द्वारा अपना ‘गाँधी’ कुलनाम देने से है, जिसने नेहरू की बेटी इन्दिरा से विवाह किया और उसकी सन्तानों ने नेहरू और गाँधी दोनों नामों का जमकर फायदा उठाया और देश को लूटा। इसे पूरा समझने के लिए जरा विस्तार में जाने की आवश्यकता है।
नेहरू का विवाह 1916 में कमला कौल नाम की युवती से हुआ था, जो एक सुसंस्कृत कश्मीरी हिन्दू ब्राह्मण परिवार की पुत्री थी। इसके विपरीत नेहरू पश्चिमी सभ्यता में ढले हुए थे और उनका खान-पान ही नहीं आचार-विचार सभी कमला जी के विपरीत थे। विवाह के तुरन्त बाद 1917 में उनके एक पुत्री पैदा हुई, जिसका नाम इन्दिरा था। कुछ समय बाद एक पुत्र भी पैदा हुआ, जो 2 दिन बाद मर गया। इसके बाद ही कमला नेहरू अवसाद में चली गयीं। इसका एक कारण यह भी था कि नेहरू का ध्यान राजनैतिक आन्दोलनों में और अन्य सुन्दर महिलाओं में लगा रहता था। इसलिए वे अपनी पत्नी और पुत्री पर पर्याप्त ध्यान न दे सके। इसके परिणाम स्वरूप कमला क्षयरोग से ग्रस्त हो गयीं। पहले भुवाली में उनका इलाज चला, फिर यूरोप गयीं। वहीं उनका देहान्त 1936 में हो गया। उस समय इन्दिरा 19 वर्ष की युवती थीं।
बीमार माँ और अन्यत्र व्यस्त बाप की पुत्री इन्दिरा का भटकना स्वाभाविक था। इलाहाबाद में एक मुस्लिम-पारसी परिवार उनके निवास आनन्द भवन में शराब की आपूर्ति किया करता था। उनका एक लड़का फिरोज खान प्रायः माल देने आता था, वहीं इन्दिरा से उसका परिचय हो गया। यह फिरोज एक मुस्लिम बाप और पारसी माँ की सन्तान था, परन्तु अपना धर्म पारसी बताता था। इन्दिरा की पढ़ायी भी अच्छी तरह नहीं चली। किसी तरह उसने हाईस्कूल पास किया। फिर इंटर की पढ़ाई के लिए उसे शान्तिनिकेतन भेजा गया। वहाँ उसका मन पढ़ाई में कम लगता था और अनुशासन तोड़ा करती थी। इसलिए उसे शान्तिनिकेतन से निकाल दिया गया। उसने लंदन के आॅक्सफोर्ड विद्यालय में प्रवेश के लिए परीक्षा दी, परन्तु फेल हो गयी। उन्हीं दिनों फिरोज भी वहाँ लंदन स्कूल आॅफ इकाॅनाॅमिक्स में पढ़ते थे। दोनों की मुलाकात दोबारा लन्दन में हुई, तो उनके बीच प्रेम हो गया और कहा जाता है कि वहीं एक मसजिद में दोनों ने विवाह कर लिया। फिरोज भी अपनी पढ़ाई कभी पूरी नहीं कर सके।
जब वे दोनों इलाहाबाद लौटे और नेहरू को उनके विवाह की जानकारी हुई, तो वे बहुत नाराज हुए। उन्होंने अपनी बेटी इन्दिरा को गाँधी के पास भेजा, ताकि वे समझाकर उसे लाइन पर ला सकें। परन्तु वह किसी भी तरह फिरोज को छोड़ने को तैयार नहीं हुई। तब गाँधी ने फिरोज को अपना कुलनाम ‘गाँधी’ रखने की सलाह दे डाली, ताकि वह हिन्दू लगे। एक घोषणापत्र द्वारा फिरोज ने अपना नाम बदल लिया और फिर दोनों का विवाह हिन्दू रीति-रिवाजों के साथ कर दिया गया। नेहरू का दामाद बन जाने पर उसे कई सुविधायें भी मिल गयीं और वह नेता बन गया।
मूर्खात्मा गाँधी ने शायद यह कल्पना नहीं की होगी कि इस प्रकार अपने कुलनाम का उपयोग करने की अनुमति देकर वे देश को कितनी हानि पहुँचा रहे हैं। उनका सारा जीवन झूठ पर आधारित था, इसलिए अपनी पुस्तक ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में गाँधी ने इस घटना का संकेत भी नहीं किया है। नेहरू के कोई बेटा नहीं था, इसलिए इन्दिरा-फिरोज का परिवार ही उनका परिवार माना गया। नेहरू ने इन्दिरा को अपने उत्तराधिकारी की तरह तैयार किया, हालांकि उसमें इसकी पर्याप्त योग्यता नहीं थी। इस प्रकार फिरोज के परिवार ने गाँधी और नेहरू दोनों के नाम का जमकर लाभ उठाया। भारत की जनता क्योंकि मूर्ख और भावुक है, इसलिए वह इन्दिरा को नेहरू और गाँधी दोनों की बेटी मानती रही।
फिरोज-इन्दिरा के दोनों पुत्रों राजीव और संजय ने किस प्रकार देश को लूटा, लोकतंत्र की हत्या की और करोड़ों-अरबों की जायदाद एकत्र की इसकी कहानी सब जानते हैं। यदि मूर्खात्मा गाँधी ने अपना नाम उनको न दिया होता, तो शायद ऐसा न होता। इस प्रकार गाँधी ही नहीं उनका नाम भी देश के लिए अभिशाप सिद्ध हुआ।

Tuesday 6 March 2012

गाँधी वध और उसके बाद

अंग्रेजों द्वारा भारत छोड़ने और सत्ता के हस्तांतरण के साथ ही यह स्पष्ट हो गया था कि देश के विभाजन और लाखों हिन्दुओं के कत्ल और माता-बहिनों के अपमान के लिए कांग्रेस और उसके सत्तालोलुप नेता, विशेष तौर पर गाँधी जिम्मेदार थे। इससे सभी देशभक्त भारतीयों का हृदय क्रोध से उबल रहा था। हद तो तब हो गयी, जब पाकिस्तान ने कबाइलियों के नाम पर कश्मीर में हमला कर दिया और मूर्खात्मा गाँधी उसी समय उसे 55 करोड़ रुपये भुगतान कराने के लिए अड़ गये। जो गाँधी देश की हत्या और हिंसा रोकने के लिए प्रतीकात्मक अनशन भी न कर सके, वे पाकिस्तान को 55 करोड़ दिलवाने के लिए अनशन पर बैठ गये। यह देशद्रोहिता की हरकत नहीं तो क्या थी?
सभी देशभक्त भारतीय अनुभव कर रहे थे कि गाँधी अब देश के ऊपर बोझ बन चुके हैं। लेकिन लोग समझ नहीं पा रहे थे कि गाँधी द्वारा आगे भी भयादोहन करने से कैसे बचा जाये। ऐसे में एक प्रखर देशभक्त नाथूराम गोडसे ने इस मूर्खात्मा को संसार से उठा देने का निश्चय कर लिया। नाथूराम गोडसे कोई सामान्य अपराधी नहीं थे, बल्कि सुशिक्षित, विद्वान्, पत्रकार और एक समाचार पत्र के सम्पादक थे। वे यह जानते थे कि गाँधी वध एक कठिन कार्य है और इसको करने वाले को कठोर दण्ड तो भुगतना ही होगा, साथ में चारों ओर से भत्र्सना का भी सामना करना पड़ेगा। फिर भी उन्होंने यह कार्य करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। वे चाहते तो पेशेवर हत्यारों द्वारा यह कार्य करा सकते थे, परन्तु उन्होंने स्वयं यह कार्य करना तय किया, क्योंकि वे किसी और को बलि का बकरा नहीं बनाना चाहते थे। इतना ही नहीं, गाँधी वध के बाद वे वहाँ से भागे नहीं और न किसी और को कोई हानि पहुँचायी, हालांकि उनके पास भागने का पूरा मौका था। इससे उनके चरित्र की महानता का पता चलता है।
30 जनवरी 1948 को हुए गाँधी वध के बाद नेहरू तथा कांग्रेस के नेताओं को हिन्दू राष्ट्रवादियों के साथ अपनी दुश्मनी निकालने का पूरा मौका मिल गया। हालांकि नाथूराम गोडसे का उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कोई सम्बंध नहीं था और इस कार्य की योजना उन्होंने हिन्दू महासभा के कुछ समर्थकों के साथ मिलकर बनायी थी। लेकिन नेहरू के लिए इतना ही पर्याप्त था कि बचपन में नाथूराम कभी शाखा जाया करते थे। इसी बहाने से उन्होंने संघ को न केवल बदनाम किया और उस पर प्रतिबंध लगा दिया, बल्कि संघ के तत्कालीन सरसंघचालक परमपूज्य श्री गुरुजी को भी जेल में डाल दिया। इतना ही नहीं, अहिंसा का जाप करने वाले गाँधीवादी कांग्रेसियों ने गाँधी वध के बाद हिंसा का नंगा नाच किया और विशेष तौर पर संघ से सम्बंध रखने वाले मराठी ब्राह्मणों को निशाना बनाकर हत्यायें तथा उपद्रव किये। लेकिन संघ कार्यकर्ताओं की महानता देखिये कि उन्होंने बदले में कांग्रेसियों पर हाथ नहीं उठाया, बल्कि केवल अपनी रक्षा की।
इस कांड की जाँच प्रारम्भ होने पर शीघ्र ही यह स्पष्ट हो गया कि गाँधी वध में संघ का कोई हाथ नहीं है और यह हिन्दू महासभा के मुट्ठीभर कार्यकर्ताओं का काम था। लेकिन पोंगा पंडित नेहरू की क्षुद्रता देखिये कि उन्होंने संघ पर से प्रतिबंध तब भी नहीं हटाया और न श्री गुरुजी को रिहा किया। इस कारण संघ के कार्यकर्ताओं को सत्याग्रह करना पड़ा। इस सत्याग्रह में इतने स्वयंसेवकों ने अपनी गिरफ्तारी दी जितने किसी भी आन्दोलन में कांगे्रस के कार्यकर्ताओं ने भी नहीं दी थी। तब नेहरू ने बहाना बनाया कि संघ का कोई संविधान नहीं है, इसलिए संघ गैरकानूनी है। इस हिसाब से तो नेहरू की सरकार भी गैरकानूनी थी, क्योंकि तब तक भारत का भी कोई संविधान नहीं था। फिर भी संघ के कुछ कार्यकर्ताओं ने संविधान तैयार किया और तब श्री गुरुजी की रिहाई हुई और संघ से प्रतिबंध हटा।
नाथूराम गोडसे पर गाँधी वध का जो केस चला, उसमें एक बार भी संघ का नाम नहीं आया। फिर भी पूरी निर्लज्जता से कांग्रेसी और उनके चमचे कम्यूनिस्ट आज भी संघ को ‘गाँधी का हत्यारा’ बताते रहते हैं। अपने बयान में नाथूराम गोडसे ने अपने कार्य के समर्थन में जो कुछ कहा उसे सुनकर अदालत में मौजूद सबकी आँखें गीली हो गयीं। न्यायाधीश महोदय को लिखना पड़ा कि यदि उस समय अदालत में उपस्थित लोगों को जूरी बना दिया जाता, तो वे प्रचण्ड बहुमत से नाथूराम को निर्दोष होने का फैसला देते। फिर भी न्यायाधीश ने कानून का सम्मान करते हुए नाथूराम को फाँसी की सजा सुनायी और नाथूराम गोडसे ने उसे स्वीकार किया।
मूर्खात्मा गाँधी तो चले गये, लेकिन हमारे देश की जनता में सदा के लिए हीरो बन गये। यह इस कांड का उल्टा परिणाम हुआ। नाथूराम गोडसे यदि उस समय उनका वध न करते, तो एक-दो साल में गाँधी स्वयं घुट-घुटकर मर जाते। लेकिन एक बात और है कि नाथूराम ने गाँधी के वध का पाप अपने सिर लेकर एक अन्य तरह से भी देश का उपकार किया। कल्पना कीजिए कि यदि गाँधी किसी धर्मान्ध मुसलमान के हाथों से मारे जाते, जिसकी पूरी संभावना थी, तो देश में कितनी भयंकर हिंसा होती।
मरने के बाद भी गाँधी और उनका नाम देश के लिए अभिशाप बने रहे और आज तक बने हुए हैं। इसकी चर्चा आगे की जाएगी।

Sunday 4 March 2012

गाँधी का सबसे बड़ा अपराध


मूर्खात्मा गाँधी ने देश के प्रति जो अनेकानेक अपराध किये थे, उनमें से कुछ की चर्चा मैं अपने लेखों की पिछली कड़ियों में कर चुका हूँ। अब सवाल है कि गाँधी का सबसे बड़ा अपराध क्या है? मेरे विचार से देश के प्रति गाँधी का सबसे बड़ा अपराध यह है कि उन्होंने नेहरू जैसे अयोग्य, विलासी और पश्चिमी मानसिकता वाले व्यक्ति को प्रधानमंत्री के रूप में देश पर थोप दिया। ऐसा करके गाँधी ने अपनी तानाशाही प्रवृत्ति का एक बार फिर निर्लज्ज परिचय दिया।
उल्लेखनीय है कि 16 कांग्रेस कमेटियों में से किसी ने भी नेहरू के नाम का प्रस्ताव प्रधानमंत्री पद के लिए नहीं किया था। 13 कमेटियों ने सरदार पटेल के नाम का प्रस्ताव दिया था, जो इस पद के लिए सर्वाधिक योग्य थे और निर्विवाद रूप से देशभक्त थे। जब नेहरू को पता लगा कि किसी ने भी उनके नाम का प्रस्ताव नहीं किया है और सरदार पटेल प्रधानमंत्री बन सकते हैं, तो वे गाँधी के सामने जाकर गिड़गिड़ाये और एक प्रकार से धमकाया भी। इससे गाँधी डर गये और कांग्रेस को नेहरू का नाम स्वीकार करने पर अड़ गये। सरदार पटेल, डा. राजेन्द्र प्रसाद तथा अन्य नेता गाँधी का बहुत सम्मान करते थे, इसलिए उन्होंने गाँधी की बात मान ली और पीछे हट गये। गाँधी ने नेहरू को प्रधानमंत्री बनने का कारण यह बताया था कि यदि उनको प्रधानमंत्री न बनाया गया, तो वे रूठकर कांग्रेस से अलग हो सकते हैं और कांग्रेस और देश का नुकसान कर सकते हैं। इससे स्पष्ट है कि वास्तव में नेहरू ने गाँधी और कांग्रेस को ब्लैकमेल किया था।
अब जरा देखा जाये कि देश की आजादी के आंदोलन में नेहरू का क्या योगदान था। कांग्रेस के आन्दोलनों का इतिहास बताता है कि हर आन्दोलन में नेहरू सबसे आगे रहकर सबसे पहले जेल चले जाते थे। बस यही उनका योगदान था। वे सबसे पहले जेल जाकर हीरो बन जाते थे। जेल में वे ए क्लास की सुविधायें भोगते थे और पार्टी के बाकी लोग अंग्रेजों की लाठियाँ और अत्याचार सहन करते थे। नेहरू के लिए जेल यात्रा पिकनिक से कम नहीं थी। उन्होंने आजादी के लिए कभी कोई कष्ट सहन नहीं किया, लेकिन सौदेबाजी करने और सत्ता की मलाई चाटने में सबसे आगे रहे। लेडी माउंटबेटन से उनका प्रेम प्रसंग था। उनके माध्यम से उनका लार्ड माउंटबेटन पर प्रभाव था, जिसका उन्होंने पूरा फायदा उठाया और सफल सौदेबाजी में सत्ता हथिया ली।
नेहरू ने प्रधानमंत्री बनने के बाद देश का जो बेड़ा गर्क किया, उसे सब जानते हैं। उनकी ‘योग्यता’ का सबसे बड़ा सबूत कश्मीर आज भी हमारा सिरदर्द बना हुआ है। सरदार पटेल ने 542 रियासतों को एक कर डाला, लेकिन केवल एक मामला (कश्मीर का) नेहरू ने जबर्दस्ती अपने हाथ में रखा, और उनकी नालायकी देखिए कि वही लटक गया और आज तक लटका हुआ है। अगर कश्मीर का मामला भी सरदार पटेल के हाथ में होता, तो कब का हल हो गया होता। नेहरू ने अपनी मूर्खतापूर्ण नीतियों से देश का जो अपमान कराया और विकास के नाम पर विनाश का बीज बोया, उसकी चर्चा आगे की जाएगी।
मूर्खात्मा गाँधी ने पोंगा पंडित नेहरू जैसे अयोग्य व्यक्ति को बलपूर्वक प्रधानमंत्री बनाकर देश की जो कुसेवा की, उसका फल हम आज तक भोग रहे हैं और कौन जानता है कब तक भोगेंगे।

Saturday 3 March 2012

देश की हत्या - 2


जैसा कि मैं पिछली कड़ी में लिख चुका हूँ, प्रारम्भ में भारत को स्वतंत्रता देने की तिथि जून 1948 तय हुई थी, परन्तु कांग्रेस और मुस्लिम लीग के सत्ता-लोलुप नेताओं ने अंग्रेजों पर जोर डालकर उन्हें 10 महीने पहले अगस्त 1947 में ही भारत छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। यदि उन्होंने ऐसा दबाब न डाला होता, तो इस दस महीने के कीमती समय का उपयोग आबादी की शान्तिपूर्ण अदला-बदली और संसाधनों, प्रशासन तथा सेनाओं के विभाजन आदि के लिए किया जा सकता था। परन्तु लीगी और कांग्रेसी नेताओं की सत्ता की हवस ने इस मौके को गवाँ दिया।

देश का विभाजन अपरिहार्य हो जाने पर कांग्रेसी नेताओं की जिम्मेदारी थी कि वे कम से कम आबादी की अदला-बदली के कार्य को योजनाबद्ध तरीके से सम्पन्न कराते, परन्तु अपनी लापरवाही के कारण उन्होंने ऐसा करने का कोई प्रयास नहीं किया। जब मुसलमानों ने पाकिस्तान माँगा था और देश के 95 प्रतिशत मुसलमान इसके पक्ष में थे, तो न्याय का तकाजा था कि देश के सारे मुसलमान पाकिस्तान चले जाते और वहाँ से सभी गैर-मुसलमान भारत में आ जाते। मुहम्मद अली जिन्ना इसके लिए पूरी तरह तैयार थे, परन्तु ‘सेकूलर’ कहलाने के मोह में मूर्खात्मा गाँधी और पोंगा पंडित नेहरू ने कह दिया कि किसी भी मुसलमान को जबर्दस्ती पाकिस्तान नहीं भेजा जाएगा।

दूसरे शब्दों में, उन्होंने भारत में रह रहे मुसलमानों को इस बात की पूरी छूट दे दी कि वे चाहें तो पाकिस्तान चले जायें और न चाहें तो न जायें। किसी ने उन मूर्ख नेताओं से यह नहीं पूछा कि जब आधे से अधिक मुसलमानों को भारत में ही रोककर रखना था, तो पाकिस्तान किसके लिए बनाया था, हुजूर? यह तो वही बात हुई कि कोई ट्यूमर निकालने के लिए आपरेशन किया जाये और आधे से अधिक ट्यूमर ही नहीं कैंची भी पेट में छोड़ दी जाये। इस मूर्खतापूर्ण नीति का परिणाम यह हुआ कि जो मुसलमान पढ़े-लिखे, खाते-पीते और सरकारी नौकरियों में थे, वे सब तो अधिकांश में पाकिस्तान चले गये और जो अनपढ़, गरीब, धर्मांध मुसलमान थे और चाहते हुए भी पाकिस्तान न जा सके, वे भारत में ही रहकर सदा के लिए हमारा सिरदर्द बन गये।

इतना ही नहीं, लापरवाही की हद तो यह थी कि जो हिन्दू पाकिस्तान से भारत में आना चाहते थे, उनको सुरक्षित ढंग से यहाँ लाने की कोई व्यवस्था न तो पाकिस्तान की सरकार ने की और न भारत की सरकार ने पाकिस्तान से ऐसा कोई आग्रह किया। उनको पूरी तरह भगवान भरोसे छोड़ दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि अधिकांश हिन्दुओं को पाकिस्तान में ही अपनी जान, माल और इज्जत अर्थात् सर्वस्व गवाँ देना पड़ा। लाखों लोगों की हत्याएं हुई, हजारों माँ-बहनों की इज्जत लुटी और उनके लिए कांग्रेसी नेताओं और मूर्खात्मा गाँधी के मुँह से ‘उफ’ तक न निकली। इस भारी हिंसा के बावजूद वे पूरी निर्लज्जता से यह दावा करते रहे कि देश को आजादी अहिंसा से मिली है। क्या इससे बड़ा झूठ कोई हो सकता है? यदि यही अहिंसा है, तो फिर हिंसा किसे कहेंगे?

आधे से अधिक मुसलमानों को भारत में ही रखने के पीछे नेहरू की धूर्तता भी थी। वे यह जानते थे कि स्वतंत्रता संग्राम और देश के विभाजन में कांग्रेस की जो भूमिका रही है, उसके कारण अधिकांश हिन्दू जनता कांग्रेस से घृणा करती है और वे कभी कांग्रेस को वोट नहीं देंगे। इसलिए नेहरू ने मुसलमानों के रूप में अपना सुरक्षित वोट बैंक बना लिया। यह वोट बैंक 1977 तक हमेशा कांग्रेस को वोट देता रहा और कांग्रेस लगातार सत्ता में आती रही। 1977 में मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट क्यों नहीं दिया, इसके कारणों की चर्चा आगे कभी करूँगा।

जब आधे से अधिक मुसलमान विभाजन के बाद भी भारत में ही रह गये, तो उन्हें अन्य देशवासियों की तरह सामान्य नागरिक के रूप में रहना चाहिए था और देश के संविधान और कानून का पालन करना चाहिए था। परन्तु पोंगा पंडित नेहरू की देशद्रोहिता की कोई सीमा नहीं थी। उन्होंने न केवल मुसलमानों को भारत में जानबूझकर रोका, बल्कि उनको अल्पसंख्यक के नाम पर ऐसे विशेषाधिकार भी दे दिये, जिनके वे पात्र ही नहीं थे। भारत में जो समुदाय वास्तव में अल्पसंख्यक हैं, जैसे ईसाई, पारसी, यहूदी आदि, उन्होंने कभी अपने लिए विशेषाधिकार नहीं माँगे, परन्तु मुसलमानों ने, जो अच्छी खासी संख्या में हैं, अपने लिए ‘मुस्लिम पर्सनल ला’ के नाम से अलग नागरिक कानून बनवा लिया और तमाम सुविधायें प्राप्त कीं। वास्तव में नेहरू और कांग्रेस अपने वोट बैंक की सुरक्षा के लिए उनको हर प्रकार से संतुष्ट करने का प्रयास करते रहे और आज भी कर रहे हैं।

मूर्खात्मा गाँधी और पोंगा पंडित नेहरू की देशद्रोहितापूर्ण नीतियों और करतूतों की सूची बहुत लम्बी है। उनकी चर्चा क्रमशः आगे की कड़ियों में की जाएगी।

Thursday 1 March 2012

देश की हत्या - 1


यह स्पष्ट हो जाने के बाद कि अंग्रेजों ने भारत को छोड़ने का फैसला कर लिया है और देश आजाद होने वाला है, प्रमुख राजनैतिक पार्टियों और नेताओं का दायित्व था कि वे देश की एकता को बचाने और सत्ता के शान्तिपूर्ण हस्तांतरण कराने की योजना तैयार करते। उस समय प्रमुख राजनैतिक पार्टियाँ थीं- कांग्रेस, मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा। मुस्लिम लीग घोषित रूप से मुसलमानों की प्रतिनिधि संस्था थी, लेकिन हिन्दू महासभा के बारे में यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अधिकांश हिन्दू जनता कांग्रेस के साथ थी। इसलिए स्वाभाविक ही अंग्रेजों ने कांग्रेस और लीग इन दो पार्टियों को ही महत्व दिया। यह गाँधी की परीक्षा की घड़ी भी थी। वे पिछले 25-30 वर्षों से अपनी ओर से हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करने का प्रयास करते रहे थे और इसके लिए मुसलमानों की अनेक अनुचित बातों को मानते या सहन करते रहे थे। लेकिन जैसा कि मैं पहले भी लिख चुका हूँ, मुसलमानों को किसी भी तरह संतुष्ट करना और उनसे कोई बात मनवा लेना लगभग असम्भव है। इस सत्यता का अनुभव आजादी के मौके पर पूरी तरह हो गया। मुस्लिम लीग किसी भी कीमत पर पाकिस्तान बनाना चाहती थी। उनका तर्क यह था कि अंग्रेजों के आने से पहले मुसलमान ही इस देश पर राज्य करते थे, इसलिए अंग्रेजों के जाने के बाद राज्य उनको ही मिलना चाहिए, क्योंकि वे हिन्दू बहुमत वाले देश में अल्पसंख्यकों की तरह नहीं रहना चाहते और यदि ऐसा न हो, तो उन्हें अलग देश दे दिया जाये। डा. अम्बेडकर ने मुस्लिम लीग के रवैये से तंग आकर एक बार कह डाला था कि ‘मुस्लिम लीग की माँगें हनुमान की पूँछ की तरह बढ़ती जा रही हैं।’
मुस्लिम लीग ने देश के विभाजन पर जोर डालने और हिन्दुओं को धमकाने के लिए ‘डायरेक्ट एक्शन’ अर्थात् खुलेआम गुंडागिर्दी तक की घोषणा कर डाली और वैसा किया भी। न्याय का तकाजा था कि तत्कालीन सरकार और कांग्रेस इस गुंडागिर्दी के खिलाफ जमकर लड़ते, लेकिन अहिंसा की आड़ लेकर कांग्रेस ने इसके सामने घुटने टेक दिये और देश का विभाजन करने को तैयार हो गये। हालांकि गाँधी किसी भी कीमत पर देश की अखण्डता को बनाये रखना चाहते थे। उन्होंने देश को वचन दिया था कि देश का विभाजन मेरी लाश पर होगा। मूर्खात्मा गाँधी तो देश की अखण्डता बचाये रखने के लिए एक बार यहाँ तक तैयार हो गये थे कि पूरा देश मुहम्मद अली जिन्ना को सौंप दिया जाये। लेकिन कांग्रेस के कुछ नेताओं के कड़े विरोध के कारण गाँधी की यह मूर्खतापूर्ण योजना पूरी नहीं हुई।
अन्ततः यह स्पष्ट हो गया कि देश का विभाजन होगा ही और देश के कई मुस्लिम बहुल इलाके पाकिस्तान में चले जायेंगे। गाँधी न केवल लीग से बल्कि कांग्रेस से भी निराश हो गये थे और उन्होंने स्पष्ट स्वीकार किया था कि अब कोई मेरी बात नहीं सुनता। ऐसी स्थिति में अपने वचन का पालन करने के लिए गाँधी को या तो आत्महत्या कर लेनी चाहिए थी या आमरण अनशन करना चाहिए था। परन्तु जो गाँधी जरा-जरा सी बात पर अनशन करने बैठ जाते थे, वे देश की हत्या होते देखते रहे और आत्महत्या करना तो दूर उन्होंने प्रतीकात्मक अनशन भी नहीं किया। आखिर क्यों? यदि उस समय गाँधी आत्महत्या कर लेते, तो नाथूराम गोडसे जैसे देशभक्त उनके खून से अपने हाथ रंगने के पाप से बच जाते और शायद देश का विभाजन भी रुक जाता।
अब प्रश्न उठता है कि कांग्रेस के तत्कालीन नेता देश का विभाजन करने को क्यों तैयार हो गये? इसके दो कारण मेरी समझ में आते हैं- एक, कांग्रेस के नेताओं ने हमेशा अहिंसा का जाप किया था, इसलिए उनमें मुस्लिम लीग की गुंडागिर्दी का सामना करने की ताकत या हिम्मत बिल्कुल नहीं रह गयी थी। दो, कांग्रेस के नेता असफल आन्दोलनों के कारण हताश हो गये थे और सत्ता पाने के इस अवसर को किसी भी कीमत पर छोड़ना नहीं चाहते थे। यही कारण है कि पहले सत्ता हस्तांतरण की तारीख जून 1948 तय हुई थी, परन्तु कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं ने अंग्रेजों पर जोर डालकर उन्हें 10 महीने पहले अगस्त 1947 में ही भारत छोड़ने के लिए तैयार कर लिया। जब देश का विभाजन अपरिहार्य हो गया, तो कांग्रेसी नेताओं की जिम्मेदारी थी कि वे इस कार्य को योजनाबद्ध तरीके से सम्पन्न करते, परन्तु अपनी अयोग्यता और लापरवाही के कारण वे ऐसा भी नहीं कर सके और देश को उनकी नालायकी की भारी कीमत चुकानी पड़ी। इसके बारे में अगली कड़ी में विस्तार से।

Wednesday 29 February 2012

1946 का नौसैनिक विद्रोह


जो घटना भारत की आजादी का तात्कालिक और प्रमुख कारण बनी, वह थी सन् 1946 में भारत के नौसैनिकों का विद्रोह। भारत की आजादी के ठीक पहले हुए इस विद्रोह को जलसेना विद्रोह अथवा बम्बई विद्रोह के नाम से जाना जाता है। इस विद्रोह का स्वतःस्फूर्त प्रारम्भ नौसेना के सिगनल्स प्रशिक्षण पोत ‘आई.एन.एस. तलवार’ से हुआ था। नाविकों द्वारा खराब खाने की शिकायत करने पर अंग्रेज कमान अफसरों ने नस्ली अपमान और प्रतिशोध का रवैया अपनाया। इस पर 18 फरवरी को नाविकों ने भूख हड़ताल कर दी। यह हड़ताल अगले दिन ही कैसल, फोर्ट बैरकों और बम्बई बंदरगाह के 22 जहाजों तक फैल गयी। 19 फरवरी को एक हड़ताल कमेटी का गठन किया गया। नाविकों की माँगों में बेहतर खाने और गोरे तथा भारतीय नौसैनिकों के लिए समान वेतन के साथ ही आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों और सभी राजनैतिक बंदियों की रिहाई तथा इंडोनेशिया से सैनिकों को वापस बुलाये जाने की माँग भी शामिल हो गयी। इससे पता चलता है कि यह विद्रोह वास्तव में स्वतंत्रता संग्राम का ही एक भाग था।
20 फरवरी को इस विद्रोह को कुचलने के लिए सैनिक टुकड़ियां बम्बई लायी गयीं। नौसैनिकों ने अपनी कार्रवाहियों के तालमेल के लिए पाँच सदस्यीय कार्यकारिणी को चुना, लेकिन शान्तिपूर्ण हड़ताल और पूर्ण विद्रोह के बीच चुनाव की दुविधा उनमें बनी हुई थी, जो काफी हानिकारक सिद्ध हुई। 20 फरवरी को उन्होंने अपने-अपने जहाजों पर लौटने के आदेश का पालन किया, जहाँ सेना के गार्डों ने उनको घेर लिया। अगले दिन कैसल बैरकों में नाविकों द्वारा घेरा तोड़ने की कोशिश करने पर लड़ाई शुरू हो गयी। इस लड़ाई में किसी पक्ष का पलड़ा भारी नहीं रहा और दोपहर बाद 4 बजे युद्ध-विराम घोषित कर दिया गया। एडमिरल गाडफ्रे अब बमबारी करके नौसेना को नष्ट करने की धमकी दे रहा था। इसी समय लोगों की भीड़ गेटवे आॅफ इंडिया पर नौसैनिकों के लिए खाना और अन्य सहायता सामग्री लेकर उमड़ पड़ी।
इस विद्रोह की खबर फैलते ही कराची, कोलकाता, मद्रास और विशाखापत्तनम के भारतीय नौसैनिक तथा दिल्ली, ठाणे और पुणे स्थित कोस्ट गार्ड भी इस हड़ताल में शामिल हो गये। 22 फरवरी को हड़ताल का चरम बिन्दु था, जब 78 जहाज, 20 तटीय प्रतिष्ठान और 20000 नौसैनिक इसमें शामिल हो चुके थे। इसी दिन कम्यूनिस्ट पार्टी के आह्वान पर बम्बई में आम हड़ताल हुई। नौसैनिकों के समर्थन में शान्तिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे मजदूर प्रदर्शनकारियों पर सेना और पुलिस की टुकड़ियों ने बर्बर हमला किया, जिसमें करीब 300 लोग मारे गये और 1700 घायल हुए। इसी दिन सुबह कराची में भारी लड़ाई के बाद ही ‘हिन्दुस्तान’ जहाज के नौसैनिकों से आत्मसमर्पण कराया जा सका। अंग्रेजों के लिए हालत बहुत नाजुक थी, क्योंकि ठीक इसी समय बम्बई के वायु सेना के पायलट और हवाई अड्डे के कर्मचारी भी नस्ली भेदभाव के विरुद्ध हड़ताल पर चले गये थे तथा कलकत्ता और अन्य कई हवाई अड्डों के पायलटों ने भी उनके समर्थन में हड़ताल कर दी थी। इससे भी बढ़कर छावनी क्षेत्रों में सेना के भीतर भी असन्तोष होने तथा विद्रोह की सम्भावना की गुप्त रिपोर्टों ने अंग्रेजों को भयाक्रान्त कर दिया था।
ऐसे कठिन समय में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेता अंग्रेजों के तारणहार की भूमिका में आये, क्योंकि सेना के सशस्त्र विद्रोह और मजदूरों द्वारा उनके समर्थन से भारतीय पूँजीपति वर्ग और राष्ट्रीय आन्दोलन का रूढ़िवादी नेतृत्व स्वयं आतंकित हो गया था। मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना की सहायता से कांग्रेस के नेता सरदार बल्लभ भाई पटेल ने काफी कोशिशों के बाद 23 फरवरी को नौसैनिकों को आत्मसमर्पण के लिए तैयार कर लिया। उनको यह आश्वासन दिया गया था कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग उन्हें अन्याय और प्रतिशोध का शिकार नहीं होने देंगे। बाद में सेना के अनुशासन की दुहाई देते हुए सरदार पटेल ने अपना वायदा तोड़ दिया और नौसैनिकों के साथ विश्वासघात किया। इसका कारण सरदार पटेल ने अपने एक पत्र में यह बताया था कि स्वतन्त्र भारत में हमें भी सेना की आवश्यकता होगी।
उल्लेखनीय है कि जवाहरलाल नेहरू ने नौसैनिकों के विद्रोह का यह कहकर विरोध किया था कि ‘हिंसा के उच्छृंखल उद्रेक को रोकने की आवश्यकता है।’ इतना ही नहीं तथाकथित ‘महात्मा’ गाँधी ने 22 फरवरी को कहा कि ‘हिंसात्मक कार्रवाई के लिए हिन्दुओं-मुसलमानों का एक साथ आना एक अपवित्र बात है।’ नौसैनिकों की निन्दा करते हुए उन्होंने कहा था कि यदि उन्हें कोई शिकायत है, तो वे चुपचाप अपनी नौकरी छोड़ दें। नौसैनिकों को यह नायाब सलाह देने वाले कांग्रेसी नेता यह भूल गये कि वे स्वयं विधायिकाओं में जाकर पूरी निर्लज्जता से सभी सुविधायें भोग रहे थे। नौसैनिक विद्रोह ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के वर्ग चरित्र को एकदम बेनकाब कर दिया था। इस विद्रोह और उनके समर्थन में उठ खड़ी हुई जनता की निन्दा में इनके नेता बढ़-चढ़कर भाग ले रहे थे, लेकिन ब्रिटिश सत्ता की बर्बर दमनात्मक कार्रवाइयों के खिलाफ उन्होंने चूँ तक नहीं की।
भले ही यह नौसैनिक विद्रोह तात्कालिक दृष्टि से असफल रहा, लेकिन इसने अंग्रेजों के मन में यह बात बैठा दी थी कि जिन भारतीय सेनाओं के बल पर उनका साम्राज्य टिका हुआ था, वे सेनाएँ कभी भी उनका साथ छोड़ सकती हैं और फिर उनको अपना अस्तित्व तक बचाना कठिन हो जाएगा। 1857 के ‘सिपाही विद्रोह’ का कटु अनुभव वे भूले नहीं थे। इसी लिए वे शीघ्र से शीघ्र भारत छोड़कर जाना चाहते थे। इस कार्य में सौदेबाजी के लिए उन्हें कांग्रेस-मुस्लिम लीग जैसी पार्टियाँ तथा उनके सत्तालोलुप नेता भी मिल गये और वे देश के टुकड़े करके भाग खड़े हुए। यह इतिहास की बिडम्बना ही कही जायेगी कि जिस विद्रोह ने अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाने के लिए सबसे अधिक मजबूर किया, उसे भारत के स्वतंत्रता इतिहास में आज भी उचित स्थान नहीं मिल पाया है। इसके बजाय सारा श्रेय सुविधायें भोगने वाले और सौदेबाजी करने वाले सत्तालोलुप नेताओं ने लूट लिया।

Friday 17 February 2012

आजादी कैसे आई?


स्वतंत्रता दिवस की प्रत्येक वर्षगाँठ पर और अन्य सभी मौकों पर हमें जोर-शोर से यह सुनाया जाता है कि देश को आजादी गाँधी की अहिंसा और कांग्रेस के आन्दोलनों के कारण मिली। लेकिन जिन्हें स्वतंत्रता संग्राम का साधारण सा ज्ञान भी है वे यह जानते हैं कि स्वतंत्रता के कारण कुछ दूसरे ही थे और कम से कम ऐसा तो कतई नहीं कहा जा सकता कि मूर्खात्मा गाँधी और कांग्रेस के आन्दोलनों के कारण देश स्वतंत्र हुआ। कांग्रेस ने अपना अन्तिम आन्दोलन ”भारत छोड़ो“ के नाम से 1942 में चलाया था, जो अक्षम नेतृत्व और दिशाहीनता के कारण बुरी तरह असफल रहा था। इस आन्दोलन के बाद कांग्रेस बहुत हताश और उदासीन अवस्था में आ गयी थी। 1942 जैसे आन्दोलन चलाकर तो कांग्रेस अगले सौ वर्षों में भी देश को आजाद नहीं करा सकती थी। आश्चर्य यह है कि यह सफेद झूठ उन गाँधी के नाम पर बोला जाता है जो सत्य को ही ईश्वर मानते थे।
भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के आस-पास कई अन्य एशियाई देश भी स्वतंत्र हुए थे, जैसे वर्मा, श्रीलंका, इजरायल, अफगानिस्तान आदि, जहाँ न कोई गाँधी था और न कोई कांग्रेस। वास्तव में द्वितीय विश्व युद्ध के कारण इंग्लैंड की आर्थिक और सामरिक स्थिति बुरी तरह चरमरा गयी थी और अंग्रेजों ने तत्कालीन विपरीत परिस्थितियों से बाध्य होकर संसार के सभी देशों से अपने हाथ खींच लिये थे। दूसरा कारण यह भी था कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुए ब्रिटेन के आम चुनावों में चर्चिल की कट्टरवादी कंजरवेटिव पार्टी हार गयी थी और उदारवादी लेबर पार्टी सत्ता में आयी थी, जिसके प्रधानमंत्री जार्ज एटली ने ब्रिटेन के सभी उपनिवेशों को स्वतंत्र करने का सैद्धांतिक फैसला कर लिया था। इसलिए वे शीघ्र से शीघ्र भारत छोड़कर जाने का निश्चय कर चुके थे।
लेकिन यह कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि भारत का समस्त स्वतंत्रता संग्राम निरर्थक था और इनका कोई असर नहीं हुआ था। निश्चय ही कांग्रेस के आन्दोलनों के कारण देश में जागरूकता का वातावरण बना था और इसी कारण उन परिस्थितियों का निर्माण हुआ था जिनसे बाध्य होकर अंग्रेजों को चले जाना पड़ा। लेकिन जो तात्कालिक घटना इसका प्रमुख कारण बनी, वह थी सन् 1946 में भारत के नौसैनिकों का विद्रोह। यह एक बिडम्बना ही है कि स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को पढ़ाते समय इस प्रमुख घटना को पूरी तरह उपेक्षित कर दिया जाता है और आजादी दिलवाने का सारा श्रेय एक विशेष पार्टी और उसमें भी एक विशेष परिवार को दे दिया जाता है। भले ही यह नौसैनिक विद्रोह तात्कालिक दृष्टि से असफल रहा, लेकिन इसने अंग्रेजों के मन में यह बात बैठा दी कि जिन भारतीय सेनाओं के बल पर उनका साम्राज्य टिका हुआ है, वे सेनाएँ कभी भी उनका साथ छोड़ सकती हैं और फिर उनको अपना अस्तित्व तक बचाना कठिन हो जाएगा। 1857 के ”सिपाही विद्रोह“ का कटु अनुभव वे भूले नहीं थे। इसी कारण वे शीघ्र से शीघ्र भारत छोड़कर जाना चाहते थे। इस कार्य में सौदेबाजी के लिए उन्हें कांग्रेस-मुस्लिम लीग जैसी पार्टियाँ तथा उनके सत्तालोलुप नेता भी मिल गये और वे देश के टुकड़े करके भाग खड़े हुए।
यह इतिहास की बिडम्बना ही कही जायेगी कि जिस नौसैनिक विद्रोह ने अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाने के लिए सबसे अधिक मजबूर किया, उसे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में आज भी उचित स्थान नहीं मिल पाया है। इसके बजाय सारा श्रेय सुविधायें भोगने वाले और सौदेबाजी करने वाले नेताओं ने लूट लिया।

Wednesday 8 February 2012

अहिंसा का अतिरेक अर्थात् मूर्खता

अहिंसा एक अच्छा गुण है और धर्म का एक अंग है- ‘परम धरम श्रुति विदित अहिंसा’, ‘अहिंसा परमो धर्मः’ आदि। लेकिन यह बात व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर तक ही सत्य है। यह किसी शासन का मूल सिद्धांत नहीं बन सकता। उदाहरण के लिए, सरकार को अपराधियों को दंड देना ही पड़ता है और कई बार मृत्यु दंड भी दिया जाता है। प्रत्येक देश को अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए सेना बनानी पड़ती है और दुश्मन देशों से युद्ध भी करना पड़ता है, जिसमें भारी हिंसा होती है। गाँधी ने अहिंसा पर जोर दिया, यह तो ठीक था, लेकिन उसी को अपना और पूरे देश का मूल सिद्धान्त बना लेना गलत था। गाँधी का विचार था कि अहिंसा से विदेशी शक्ति देश को छोड़कर चली जाएगी। स्पष्ट रूप से यह सोच गलत ही नहीं मूर्खतापूर्ण है।
गाँधी से पहले महात्मा बुद्ध ने अहिंसा पर जोर दिया था। वह एक ऐतिहासिक आवश्यकता थी, क्योंकि उस समय वैदिक धर्म का पालन करने वालों में बहुत विकृतियाँ आ गयी थीं। वे पशुबलि और मानवबलि तक देने लगे थे। बुद्ध ने इसका विरोध किया और अहिंसा पर जोर दिया। इससे ये बुराइयाँ समाप्त हो गयीं। यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन आगे चलकर बुद्ध ने हर प्रकार की हिंसा का विरोध करना शुरू कर दिया। किसी सद्गुण का अतिरेक भी अवगुण बन जाता है। ऐसा ही यहाँ हुआ। बुद्ध से प्रभावित होकर सम्राट अशोक ने अपनी सेनाओं को कम कर दिया और बौद्ध धर्म अपना लिया। इसका परिणाम यह हुआ कि हमारा देश जो हमेशा शक्तिशाली रहा था, धीरे-धीरे कमजोर हो गया। आगे चलकर विदेशी आतताइयों ने हमारे देश पर एक के बाद एक कई आक्रमण किये और अन्ततः देश गुलाम हो गया। मेरे विचार से यह बुद्ध की अहिंसा के कारण ही हुआ।
इसका प्रत्यक्ष प्रभाव हम आज तिब्बत में देख सकते हैं। अहिंसा की अपनी मूर्खतापूर्ण नीति के कारण तिब्बत ने कोई सेना नहीं बनायी। इससे चीनी भेड़िये ने उसे सरलता से निगल लिया और हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री पोंगा पंडित नेहरू पंचशील का जाप करते रह गये। आगे चलकर इसका कुपरिणाम भारत को भी भुगतना पड़ा और 1962 में चीन के हाथों अपमानित होना पड़ा।
गाँधी की  अहिंसा न केवल मूर्खतापूर्ण थी बल्कि एक तरफा भी थी। वे यह तो चाहते थे कि सभी आन्दोलनकारी और हिन्दू समाज अहिंसक बना रहे, लेकिन सरकारों तथा दूसरे समुदायों से ऐसा कभी नहीं कहते थे कि आप भी अहिंसा अपनाइए। इसके विपरीत उन्होंने मुस्लिमों की हिंसा को एक बार यह कहकर उचित ठहराया था कि वे तो अपने धर्म का पालन कर रहे थे। क्या यह बात हास्यास्पद नहीं है? एक अन्य अवसर पर उन्होंने स्पष्ट कहा था कि आम हिन्दू कायर और आम मुसलमान गुंडा होता है। इसका मतलब यह है कि गाँधी को दोनों समाजों का अन्तर मालूम था, परन्तु अपने को ‘महात्मा’ कहलाने के मोह के कारण वे कभी दूसरों की हिंसा की निन्दा नहीं कर सके। वे केवल हिन्दुओं से यह चाहते थे कि वे हिंसा को सहन करें और अहिंसक बने रहें।
जब भी देश में साम्प्रदायिक दंगे होते थे, गाँधी हमेशा हिन्दू-बहुल स्थानों में जाकर हिन्दुओं को हिंसा करने से रोकते थे। वे कभी मुस्लिम-बहुल स्थानों में नहीं गये। अगर वे वहाँ जाते, तो उन्हें अपनी अहिंसा की शक्ति का पता तुरन्त चल जाता। वहाँ तो वे दूसरे लोगों को भेजते थे। उदाहरण के लिए, कानपुर के दंगों में मुसलमानों को समझाने के लिए उन्होंने गणेश शंकर विद्यार्थी को भेज दिया। वे दो दिन के अन्दर ही मुसलमान गुंडों के हाथों मारे गये। गलियों में खींचकर उनकी हत्या कर दी गयी। इस पर गाँधी की मूर्खतापूर्ण टिप्पणी देखिये- ‘विद्यार्थी जी बहुत भाग्यशाली रहे, जो दंगे रोकने में शहीद हो गये।’ यह देश का दुर्भाग्य है कि ऐसे अनेक उदाहरणों के बावजूद गाँधी के प्रति देशवासियों का मोह कम नहीं हुआ और इसकी भारी कीमत देश को चुकानी पड़ी। गाँधी की मूर्खतापूर्ण अहिंसा के कारण देश में कितनी हिंसा हुई, इसे सब जानते हैं। इसके बारे में हम आगे बात करेंगे।

Monday 6 February 2012

‘वैलेंटाइन डे’ अर्थात् शूपर्णखाँ संस्कृति

शूपर्णखाँ रामायण का एक विलक्षण नारी पात्र है। वह लंका के राजा रावण की लाड़ली बहिन थी। रावण ने क्षणिक क्रोध के वशीभूत होकर उसके पति विद्युत्जिह्व की हत्या कर दी थी। इस कारण रावण उससे डरता था और उसकी मनमानियों को सहन करता था। इसलिए अपने भाई की तरह ही वह भी निरंकुश हो गयी थी और समाज में आतंक फैला रखा था। कोई भी वस्तु या व्यक्ति उसे पसन्द आने पर उसको हस्तगत करके ही वह संतुष्ट होती थी।
इसी क्रम में एक दिन जंगल में विचरण करते समय उसने भगवान श्रीराम को देखा। देखते ही उन पर मोहित हो गयी और सोचने लगी कि यह पुरुष तो मुझे मिलना ही चाहिए। बिना आगा-पीछा सोचे ही वह सीधे श्रीराम के पास पहुँच गयी और अपना मंतव्य इन शब्दों में प्रकट किया-
 तुम सम पुरुष न मो सम नारी।
 यह संयोग विधि रचा बिचारी।।

उसने यह भी नहीं सोचा कि श्रीराम के साथ उनकी धर्मपत्नी सीताजी हैं और किसी अन्य महिला की ओर आकर्षित होना मर्यादाओं के विपरीत होगा। श्रीराम के समझाने-बुझाने का भी उस पर कोई असर नहीं हुआ। शूपर्णखाँ की अपनी हर इच्छा पूरी करने की जिद के कारण ही उसका अपमान हुआ और आगे खर-दूषण का वध हुआ, सीताजी का हरण हुआ, राम-रावण युद्ध हुआ और सम्पूर्ण राक्षस संस्कृति का विनाश हुआ।
आज वही शूपर्णखाँ संस्कृति ‘वैलेंटाइन डे’ के रूप में हमारे सामने है। इस संस्कृति का मूल मंत्र है- ‘तुम सम पुरुष न मो सम नारी।’ या इसका उल्टा भी हो सकता है- ‘मो सम पुरुष न तुम सम नारी।’ कहने का तात्पर्य है कि किसी भी महिला या पुरुष की ओर आकर्षित हो जाना और उसे किसी भी कीमत पर प्राप्त करने की इच्छा होना ही शूपर्णखाँ संस्कृति है। इस इच्छा को पूरा करने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं, समाज की मर्यादाओं को तार-तार कर सकते हैं और समाज को कितनी भी हानि पहुँचा सकते हैं। इसलिए इस संस्कृति को वास्तव में विकृति ही कहना चाहिए।
इस विकृति के अनेक रूप हमें दिखायी पड़ते हैं। अपने मन पसन्द व्यक्ति (महिला या पुरुष) के पीछे हाथ धोकर पड़ जाना, उसे तरह-तरह से प्रभावित करने की उचित-अनुचित हरकतें करना, समाज में अश्लीलता फैलाना और प्रभावित करने में असफल रह जाने पर अपराध तक कर डालना इस विकृति के कुछ रूप हैं।
अत्यन्त खेद जनक है कि हमारी किशोर और युवा पीढ़ी शूपर्णखाँ संस्कृति के जाल में बुरी तरह फँसी हुई है। अपने जीवन का जो बहुमूल्य समय उन्हें ज्ञान प्राप्त करने, अपना स्वास्थ्य बनाने तथा देश की सेवा हेतु स्वयं को तैयार करने में लगाना चाहिए, उस समय को वे इस निरर्थक संस्कृति की भेंट चढ़ा देते हैं। हर साल 14 फरवरी के आसपास इस संस्कृति का ज्वार आता है। यह समय परीक्षाओं की तैयारी करने और पढ़ाई में कठिन परिश्रम करने के लिए आदर्श होता है, परन्तु ऐसा करने के बजाय आज की नई पीढ़ी इसको इस निरर्थक परम्परा के पालन में नष्ट कर देती है।
यदि इतना ही होता, तो गनीमत थी। खेद तो यह है कि अपनी इच्छा पूर्ति में असफल रह जाने वाले व्यक्ति हताशा में गलत से गलत कार्य और अपराध तक कर डालते हैं। अन्य व्यक्ति द्वारा प्रणय निवेदन ठुकराने पर हमला करना, तेजाब फेंकना, हत्या करना और उससे भी बढ़कर आत्महत्या तक कर डालना ऐसी प्रतिक्रियाओं के कुछ रूप हैं। प्रणय निवेदन स्वीकार होने पर अनुचित और समय-पूर्व शारीरिक सम्बंध बना लेना भी एक अपराध ही है, क्योंकि इसका कुपरिणाम उन्हें और सम्पूर्ण समाज को आगे चलकर भुगतना पड़ता है।
केवल अपनी प्रसार या दर्शक संख्या और विज्ञापनों के रूप में धन कमाने पर ध्यान रखने वाले समाचार पत्र और समाचार चैनल इस विकृति को बढ़ावा देने के सबसे बड़े अपराधी हैं। वे यह नहीं सोचते कि इस बेकार की परम्परा से समाज की जड़ें खोखली हो रही हैं, समाज में अमर्यादित आचरण फैल रहा है, जिसके कारण अपराधों की बाढ़ आ गयी है। आये दिन यौन-अपराधों के जो समाचार आते रहते हैं उनकी जड़ में कहीं न कहीं समाचार पत्रों और चैनलों द्वारा फैलायी गयी अपसंस्कृति ही मूल कारण होती है।
किशोरों-किशोरियों के माता-पिता इस मामले में पूरी तरह असहाय होते हैं। किसी भी व्यक्ति के लिए अपनी संतानों पर दिन-रात नजर रखना न तो सम्भव है और न व्यावहारिक ही। यह तो नई पीढ़ी को स्वयं सोचना चाहिए कि इस अप-संस्कृति में फँसने के कारण उनके स्वास्थ्य, कैरियर और पारिवारिक जीवन को कितनी हानि पहुँच रही है। यह विकृति हमारी नई पीढ़ी को खोखला कर रही है। आज का युवा वर्ग अपनी महान् भारतीय संस्कृति की मर्यादाओं को तोड़ रहा है और इतना असहनशील हो गया है कि थोड़ी सी निराशा में बुरी से बुरी प्रतिक्रिया कर डालता है।
भारतीय सेना में योग्य अफसरों की कमी अकारण ही नहीं है। इसका मूल कारण यही है कि आज का युवा वर्ग शारीरिक और मानसिक बल बढ़ाने के बजाय नारी वर्ग की तरह बाहरी सौंदर्य और ग्लैमर के पीछे दीवाना हो गया है। एक बार जब इंग्लैंड की सेनाओं ने फ्रांस को युद्ध में बुरी तरह हराया था, तो कई विद्वानों ने टिप्पणी की थी कि फ्रांस की पराजय युद्ध भूमि में नहीं बल्कि पेरिस ने नृत्यगृहों में हुई है, क्योंकि उस समय फ्रांस का युवा वर्ग नाचघरों के जाल में फँसा हुआ था और अपने राष्ट्रीय दायित्वों के प्रति लापरवाह था। वह दिन हमारे देश के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा यदि कभी हमें भी इससे मिलती-जुलती टिप्पणी करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
अब समय आ गया है कि देश के कर्णधार, राजनेता, विचारक, साहित्यकार, समाचार पत्र, समाचार चैनल और शिक्षक वर्ग इस अप-संस्कृति के विनाशकारी परिणामों को पहचाने और इस पर रोक लगाये। यह कार्य कानून बनाने से नहीं होगा, बल्कि नई पीढ़ी को उचित शिक्षा देने और उनका सही मार्गदर्शन करने से ही होगा। इस विकृति की रोकथाम किये बिना युवा पीढ़ी को और उसके परिणाम-स्वरूप देश को विनाश की ओर जाने से बचाने का और कोई उपाय नहीं है। इसमें जितनी देर की जायेगी, परिणाम उतना ही भयावह होगा।

Friday 3 February 2012

मूर्खता का दस्तावेज - ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’

1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन कांग्रेस द्वारा छेड़ा गया सबसे बड़ा आन्दोलन था। उस समय द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था और अंग्रेजों की सारी ताकत जर्मनी के नेतृत्व में लड़ रहे धुरी राष्ट्रों के विरुद्ध लगी हुई थी। ऐसे समय में कांग्रेसी नेताओं का यह सोचना उचित ही था कि एक बड़ा आन्दोलन खड़ा करके अंग्रेजों को भारत से जाने के लिए बाध्य किया जा सकता है। वास्तव में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस भी यही सोच रहे थे, परन्तु कांग्रेस द्वारा अपेक्षित सहयोग न मिलने के कारण वे चोरी-छिपे भारत से बाहर निकल गये और जर्मनी तथा जापान की सहायता से देश को अंग्रेजी शासन से मुक्त कराने में लग गये।
नेताजी की अनुपस्थिति में कांग्रेसी नेताओं ने यह अत्यन्त महत्वपूर्ण आन्दोलन बहुत ही मूर्खतापूर्ण ढंग से चलाया। उन्होंने अंग्रेजों के लिए तो कहा- ‘भारत छोड़ो’ और देशवासियों से कहा- ‘करो या मरो’। लेकिन यह किसी ने नहीं बताया कि करना क्या है? दूसरे शब्दों में, गाँधी-नेहरू आदि कांग्रेसी नेताओं ने इस आन्दोलन को चलाने के लिए कोई कार्यक्रम नहीं बनाया और न किसी का मार्गदर्शन किया। यह आश्चर्य की बात है कि पहले कई आन्दोलन चला चुकी कांग्रेस के नेताओं ने इस बारे में बिल्कुल नहीं सोचा। इसका परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक आन्दोलनकारी ने अपनी मर्जी से कार्यवाही की। सबने ‘करो या मरो’ नारे का अर्थ यह निकाला कि ‘हिंसा करो और मरो।’ अहिंसा का दम्भ भरने वाले गाँधी और कांग्रेस के अन्य नेताओं ने हिंसा के लिए यह पृष्ठभूमि क्यों तैयार की, क्या इसका उत्तर कोई दे सकता है? इस आन्दोलन में जमकर हिंसा हुई और इसके कारण अंग्रेजों ने बड़ी सरलता से इस आन्दोलन को कुचल दिया।
मूर्खात्मा गाँधी और कांग्रेस ने इस आन्दोलन का कोई कार्यक्रम तो बनाया ही नहीं, यह भी नहीं सोचा कि यदि नेता गिरफ्तार हो गये, तो आन्दोलन कैसे चलेगा। अंग्रेजों ने चतुराई दिखाते हुए सभी प्रमुख नेताओं को आन्दोलन प्रारम्भ होने से एक दिन पहले ही गिरफ्तार कर लिया। इस कारण आन्दोलनकारी नेतृत्व विहीन हो गये और उनका मार्गदर्शन करने वाला कोई नहीं रहा। बिना कप्तान के जहाज का जो हाल होता है, वही हाल इस आन्दोलन का हुआ और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का यह सबसे महत्वपूर्ण आन्दोलन अपने चरम पर पहुँचने से पहले ही काल-कवलित हो गया। लेकिन यह मूर्खात्मा गाँधी और अन्य कांग्रेसी नेताओं की मूर्खता का जीता-जागता दस्तावेज अवश्य बन गया।
इस आन्दोलन के बाद कांग्रेस कभी कोई आन्दोलन नहीं चला सकी। 1947 में आजादी भी कांग्रेस के किसी पराक्रम के कारण नहीं मिली, बल्कि विश्व युद्ध के कारण कमजोर हो गये अंग्रेजों ने अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों से बाध्य होकर भारत छोड़ा था, जैसा कि हम आगे देखेंगे।

Tuesday 24 January 2012

मुस्लिम तुष्टिकरण के जनक गाँधी

आज हम हर तरफ मुस्लिम तुष्टिकरण की जो होड़ देख रहे हैं उसकी शुरुआत भी मूर्खात्मा गाँधी ने की थी. उनका विचार था की मुसलमानों की बातों को मानकर और उनको विशेष सुविधाएँ देकर उन्हें स्वतंत्रता आन्दोलन में साथ लाया जा सकेगा. उनकी यह नीति गलत नहीं थी, लेकिन इसका पालन बहुत मूर्खतापूर्ण ढंग से किया गया. सबसे पहले उन्होंने मुसलमानों के खिलाफत आन्दोलन को अपना और कांग्रेस पार्टी का समर्थन दे दिया, जबकि उस आन्दोलन से हमारे देश का और देश के मुसलमानों का कोई लेना -देना नहीं था. यह आन्दोलन तो कट्टरपंथी मुसलमानों ने तुर्की के खलीफा को फिर से गद्दी पर बैठने के लिए चलाया था, जिसको कमाल पाशा के नेतृत्व में वहां की बहुसंख्यक जनता  ने हटा दिया था.
जब यह आन्दोलन असफल हो गया, जो की होना ही था, तो मुसलमान और भी ज्यादा खिन्न हो गए और उन्होंने अपनी भड़ास दंगे करके निकाली. लेकिन गाँधी की आँखें तब भी नहीं खुलीं. इससे भी ज्यादा गलत और मूर्खतापूर्ण बात यह थी की गाँधी ने राष्ट्रवादी मुसलमानों के बजाय कट्टरपंथी मुसलमानों को महत्त्व दिया. उस समय जिन्ना राष्ट्रवादी थे, परन्तु गाँधी-नेहरु ने उनकी उपेक्षा की. इससे रुष्ट होकर वे भी कट्टरपंथी हो गए. और तब गाँधी-नेहरु दोनों उनको महत्त्व देने लगे. 
मुसलमानों को साथ लेने के लिए गाँधी उनकी अधिकांश मांगों को स्वीकार कर लेते थे, लेकिन फिर भी वे असंतुष्ट बने रहते थे और अगली बार नयी-नयी मांगे रख देते थे. यह प्रवृति आखिर तक बनी रही और वे देश के टुकड़े कराकर ही माने, बल्कि उसके बाद भी संतुष्ट नहीं हुए. इसकी तुलना में मुसलमानों ने हिन्दुओं की एक भी मांग नहीं मानी और न उनकी किसी धार्मिक भावना की कद्र की. उदाहरण के लिए, उन्होंने गोहत्या करना बंद नहीं किया और न वन्दे मातरम गाना स्वीकार किया. गाँधी यह समझने में असफल रहे कि मुसलमानों को संतुष्ट करना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव है. वे तब तक संतुष्ट नहीं हो सकते, जब तक वे पूरी दुनिया को दारुल-इस्लाम न बना लें.
मुस्लिम मानसिकता को समझाने में गाँधी-नेहरु की असफलता की बड़ी कीमत देश ने चुकाई है और आजतक चुकाता जा रहा है. विशेष कानून से लेकर आरक्षण तक तमाम मांगे सामने आ रही हैं और मानी जा रही हैं. यह सिलसिला कहाँ जाकर रुकेगा और रुकेगा भी की नहीं, कोई नहीं जानता. संविधान में धर्म पर आधारित आरक्षण पर पूरी रोक के बाद भी सरकारें ऐसा आरक्षण दे रही हैं या देने का वायदा कर रही हैं. इस प्रवृति के जनक मूर्खात्मा गाँधी ही थे, जिसको उनके पट्ट-शिष्य पोंगा पंडित नेहरु ने आगे बढाया.

Thursday 19 January 2012

गाँधी का पाखंड और तानाशाही

"सादा जीवन उच्च विचार" का दम भरने वाले मूर्खात्मा गाँधी वास्तव में पाखंड और तानाशाही की मिसाल थे. उनके पाखंड के एक नहीं अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं. कभी गाय को पवित्र मानने वाले गाँधी ने किसी मूर्ख आदमी के कहने पर दूध एकदम छोड़ दिया था और जिंदगी भर दूध न पीने का संकल्प किया था. लेकिन जब इसके बिना काम न चला तो गाय या भैंस की जगह बकरी का दूध पीना शुरू कर दिया. यह पाखंड नहीं तो क्या है? अगर दूध ही पीना था तो अत्यंत गुणकारी गोदुग्ध पीना चाहिए था. 
इसी तरह वे गरीबी में रहने का पाखंड करते थे. वे गरीबों की तरह रेल में तीसरी श्रेणी में यात्रा करते थे. लेकिन उनके लिए उनके चेले पूरा डिब्बे पर कब्ज़ा कर लेते थे. इस गुंडागर्दी का गाँधी विरोध नहीं करते थे और यह मान लेते थे कि  उनके लिए जनता ने खुद डिब्बा खाली छोड़ दिया है. वे बकरी का दूध पीते थे, इसलिए हर जगह बकरी उनके साथ ही जाती थी. वे इस बात की चिंता नहीं करते थे कि इस पर कितना खर्च होगा.  सरोजिनी नायडू ने एक बार स्पष्ट स्वीकार किया था कि गाँधी को गरीब बनाये रखने में हमें बहुत धन खर्च करना पड़ता है. 
स्वभाव से गाँधी अधिनायकवादी थे. अपनी बात किसी भी प्रकार से सबसे मनवा लेते थे. उनके इस तानाशाही स्वभाव को देखकर ही एक बार किसी विदेशी विद्वान ने कहा था कि यदि इस आदमी के हाथ में कभी सत्ता आई, तो यह इतिहास का सबसे  नृशंस और निकृष्ट तानाशाह सिद्ध होगा. गाँधी की इस प्रवृति का स्वाद कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को बार-बार चखना पड़ता था. हर आन्दोलन को वे चरम पर पहुँचने के बाद भी उद्देश्य पूरा होने से पहले ही वापस ले लेते थे. इसी कारण कांग्रेस द्वारा चलाये गए सारे आन्दोलन बुरी तरह असफल रहे.
एक बार कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में नेताजी सुभाषचंद्र बोस भारी बहुमत से जीत गए और गाँधी के उम्मीदवार प. सीतारामैय्या बुरी तरह हार गए. गाँधी इस हार को नहीं पचा सके. उन्होंने इसे व्यक्तिगत हार माना और नेताजी के प्रति असहयोग का रवैय्या अपना लिया. उनके चमचे कई नेताओं जैसे नेहरु, आजाद आदि ने भी ऐसा ही किया. मजबूर होकर नेताजी को अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देना पड़ा और वे कांग्रेस को भी छोड़ गए. गाँधी की तानाशाही इस घटना से सबके सामने नंगी हो गयी. 
गाँधी की इस मूर्खता का क्या परिणाम हुआ इसे हम आगे देखेंगे.

Thursday 12 January 2012

हत्यारे के भाई गाँधी

मो.क. गाँधी अहिंसा का बहुत जाप किया करते थे. इसी आधार पर वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों तथा क्रांतिकारियों का विरोध किया करते थे. वे आजादी अहिंसा के बल पर ही पाना चाहते थे. इसलिए वे अंग्रेजों का पूरा सहयोग करते थे और उनसे बातचीत की मेज पर ही कुछ मांगते थे. जब वे गोलमेज सम्मलेन में भाग लेने लन्दन गए थे, उससे कुछ समय पहले ही अंग्रेजों की अदालत ने ३ भारतीय क्रांतिकारियों भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई थी. उनको शीघ्र ही फांसी दी जाने वाली थी. कई कांग्रेसी नेताओं ने गाँधी से कहा था की वे इस मामले को गोलमेज सम्मलेन में उठायें और क्रांतिकारियों को फाँसी से बचाने की कोशिश करें.
लेकिन गाँधी ने एक बार भी यह मुद्दा नहीं उठाया, यहाँ तक कि उन्होंने क्रांतिकारियों को रिहा करने की अपील करने से भी इंकार कर दिया. उनका मानना था कि उन क्रांतिकारियों ने हत्याएं की हैं, इसलिए उनको इसकी सजा भोगनी चाहिए. "अहिंसा का पुजारी" हिंसा का समर्थन कैसे कर सकता था? लेकिन इन्हीं गाँधी को स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे अब्दुल रशीद को अपना भाई बताने और उसको माफ़ कर देने की अपील करने में कोई शर्म नहीं आई. सिर्फ इसलिए कि वह मुसलमान था. स्वामी श्रद्धानंद का कसूर यह था कि उन्होंने अपने शुद्धिकरण आन्दोलन द्वारा ५० हजार मुसलमानों को वापस हिन्दू धर्म में शामिल कराया था और वे आगे भी यह कार्य करते रहना चाहते थे.
सभी जानते हैं कि मुसलमान हर उस आदमी को अपना दुश्मन मान लेते हैं जो किसी भी तरह उनकी संख्या घटाने का काम करता है. अपनी संख्या वे हर संभव तरीके से बढ़ाना चाहते हैं, चार-चार शादियाँ करके, १०-१० बच्चे पैदा करके, दूसरे धर्मों की लड़कियों को भगा कर या जोर-जबरदस्ती धर्म परिवर्तन करके. जो इसमें बाधा बनता है उसे हर तरीके से हटाना चाहते हैं. यह बात बाद में भी अनेक बार देखी गई है. इसलिए अब्दुल रशीद मिलने के बहाने उस समय बीमार स्वामी श्रद्धानंद के पास पहुंचा और तत्काल छुरा मारकर उनकी हत्या कर दी. हालाँकि वह पकड़ा भी गया और अदालत ने उसे सजा भी दी.
लेकिन गाँधी तो "महात्मा" थे, इसलिए उन्होंने अब्दुल रशीद को अपना भाई कहा और उसके कृत्य की निंदा करने से भी इंकार कर दिया. जब इस पर बवाल हुआ, तो गाँधी ने कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में इसकी 'सफाई' देते हुए फिर उसे अपना भाई कहा. (जिनको इस बात पर कोई शक हो, वे देखें पट्टाभि सीतारामैय्या द्वारा लिखित "कांग्रेस का इतिहास". )
यह है मुसलमानों के प्रति गाँधी के घोर पक्षपात का एक और उदाहरण. क्या इस पर किसी अन्य  टिप्पणी की जरूरत है?

Tuesday 10 January 2012

इस्लाम से बेखबर गाँधी

गाँधी न केवल इस्लाम के इतिहास को नहीं जानते थे, बल्कि वे इस्लाम को भी सही तरह से नहीं जानते थे. यदि उन्होंने कभी कुरआन को पढ़ने का कष्ट किया होता, तो उन्हें पता चलता की इस्लाम चाहे कुछ भी हो पर शांति का धर्म तो कदापि नहीं है. दिल्ली के श्री विशन स्वरुप गोयल ने एक पुस्तिका लिखी थी- "काश! गाँधी ने कुरआन पढ़ी होती, तो...." इस पुस्तिका में उन्होंने लिखा है की यदि गाँधी ने कुरान को पढ़ा होता, तो इस्लाम के बारे में उनके विचार पूरी तरह भिन्न होते. इस पुस्तिका पर दिल्ली उच्च न्यायालय में केस भी चला था, पर न्यायाधीश ने पुस्तिका को आपत्तिजनक नहीं पाया. इस पुस्तिका में कुरान की एक-दो नहीं बल्कि २४ ऐसी आयतों की सूची दी गयी है, जिनमें गैर-मुसलमानों के प्रति घृणा करने और उन पर सभी संभव अत्याचार करने का आदेश दिया गया है. उनमें कहा गया है कि काफिरों को दोस्त मत बनाओ, उन्हें दुश्मन मानो, उनको जहाँ भी पाओ मारो और सताओ, और तब तक सताते रहो जब तक वे तोबा करने यानी मुसलमान बनने को तैयार न हो जाएँ. सलमान रुश्दी ने इन्हीं आयतों के आधार पर अपना उपन्यास "सैटनिक वर्सेज" लिखा है, जिसको भारत की सेकुलर सरकार ने  बिना पढ़े ही प्रतिबंधित कर दिया है.
कई इस्लामी विद्वान कुरान में इन आयतों के होने से तो इनकार नहीं करते, लेकिन ये कहते हैं कि इनका सही अर्थ नहीं किया गया है और इनको मूल अरबी में समझा जाना चाहिए. परन्तु जिन लोगों ने कुरान को मूल अरबी में पढ़ा है, जैसे डा. अली सिना,  उनका कहना है कि मूल अरबी में इनका अर्थ कहीं अधिक भयानक है. अन्य भाषाओँ में अनुवाद करते समय तो इनका अर्थ थोड़ा उदार कर दिया जाता है. वास्तव में जिन मुहम्मद के माध्यम से ये आयतें आई बताई जाती हैं, वे पढ़े-लिखे नहीं थे, बल्कि पूरी तरह अनपढ़ थे. इसलिए इन आयतों  में कोई अर्थ छिपा होने की कोई संभावना नहीं है और ये सीधे-सपाट शब्दों में ठीक वही कहती हैं जो वे कहना चाहती हैं. इन आयतों के आदेशों को मानने वाला व्यक्ति केवल आतंकवादी और अत्याचारी ही बनेगा. वह शांति-पसंद व्यक्ति तो कदापि नहीं बन सकता.
इन आयतों में "काफ़िर" का सीधा अर्थ है- "गैर-मुसलमान." कुरआन के अनुसार कुरआन और मुहम्मद पर ईमान न लाना ही "कुफ्र" है और ऐसा करने वाले "काफ़िर" हैं. इसलिए वास्तव में कुरआन सभी गैर-मुसलमानों को काफ़िर मानती है. खिलाफत आन्दोलन में गाँधी के अभिन्न सहयोगी मौलाना मुहम्मद अली ने एक बार नहीं बल्कि दो बार साफ-साफ कहा था कि उनके लिए पापी से पापी मुसलमान भी गाँधी से बेहतर है, क्योंकि वह मुसलमान है (और गाँधी काफ़िर है). क्या इसके बाद भी कुछ कहने को बाकी रह जाता है?
हमारा दुर्भाग्य है कि इसके बाद भी गाँधी की आँखें नहीं खुली और वे अपनी आखिरी साँस तक इस्लाम को शांति और भाईचारे का धर्म मानते रहे. गाँधी की इस मूर्खता की भयंकर कीमत हमारे प्यारे देश को चुकानी पड़ी,  जैसा कि हम आगे देखेंगे.

Sunday 8 January 2012

हिन्दू-मुस्लिम एकता का दिवास्वप्न


हिन्दू और मुसलमान भारत के दो सबसे बड़े समुदाय हैं. देश के विकास के लिए उनमें परस्पर सद्भाव होना आवश्यक है. प्रचलित भाषा में इसे एकता कहा जाता है. मोहनदास करमचंद गाँधी ने हिन्दू और मुसलमानों की एकता का स्वप्न देखा, तो यह अपने आपमें गलत नहीं है. लेकिन वे यह भूल गए कि दो समुदायों की एकता तभी संभव होती है जब दोनों में समन्वय के तत्व मौजूद हों. एक दूसरे के प्रति सहिष्णुता इसकी न्यूनतम आवश्यकता है. हिन्दू समाज में यह प्रचुर मात्रा में है, जबकि मुस्लिम समाज में नाम मात्र को भी नहीं है.
यदि गाँधी ने मुसलमानों का १४०० वर्षों का इतिहास पढ़ा होता तो वे कभी हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात नहीं करते. इनके पूरे इतिहास में एक उदाहरण भी ऐसा नहीं मिलता जब इन्होने किसी अन्य समुदाय के प्रति ज़रा भी सहिष्णुता दिखाई हो. इसके विपरीत इनका पूरा इतिहास घोर असहिष्णुता, धर्मान्धता, रक्तपात और आतंकवाद से भरा हुआ है. इसलिए मुसलमानों के साथ किसी भी अन्य समुदाय की एकता होना असंभव है. गाँधी ने यह तो सही सोचा कि आजादी कि लड़ाई में मुसलमानों को भी साथ में आना चाहिए. लेकिन जो तरीका उन्होंने अपनाया वह बिलकुल गलत ही नहीं सरासर मूर्खतापूर्ण था.
उस समय तुर्की में खलीफा को गद्दी से हटा दिया गया था और उदार लोकतंत्र की स्थापना की गई थी. इसके विरुद्ध रूढ़िवादी मुसलमान आन्दोलन कर रहे थे, जिसे "खिलाफत आन्दोलन" कहा गया. गाँधी ने बिना विचार किये ही इस आन्दोलन को अपना समर्थन दे दिया. जबकि इससे हमारे देश का कुछ भी लेना-देना नहीं था. जब यह आन्दोलन असफल हो गया, जो कि होना ही था, तो मुसलमानों ने अपनी खीझ उतारने के लिए केरल के मोपला क्षेत्र में अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर अमानुषिक अत्याचार किये, माता-बहनों का शील भंग किया तथा मनमानी लूट-पाट और हत्याएं कीं. मूर्खता की हद तो यह है कि गाँधी ने इन दंगों की आलोचना भी नहीं की और मुसलमानों की गुंडागर्दी को यह कहकर उचित ठहराया कि वे तो अपने धर्म का पालन कर रहे थे.
देखा आपने कि गाँधी को गुंडे-बदमाशों के धर्म की कितनी गहरी समझ थी? पर उनकी दृष्टि में उन हिन्दू माता-बहनों का कोई धर्म नहीं था, जिनको गुंडों ने भ्रष्ट किया. मुसलमानों के प्रति गाँधी के पक्षपात का यह अकेला उदाहरण नहीं है, बल्कि आगे भी वे मुसलमानों की हर गलत बात को सही बताते रहे, जैसा कि हम आगे देखेंगे. इतने पर भी उनका और देश का दुर्भाग्य कि कमबख्त हिन्दू-मुस्लिम एकता न कभी होनी थी न हुई.

Thursday 5 January 2012

मूर्खात्मा गाँधी और पोंगा पंडित नेहरु

यह शीर्षक पढ़कर अधिकांश लोग चोंक जायेंगे. हमने गाँधी और नेहरु के आसपास एक ऐसा महिमा मंडल बना रखा है कि जो इसके विपरीत कुछ कहता है तो उसे अपराध माना जाता है. लेकिन मैंने उनको ये विशेषण बहुत सोच-समझ कर दिए हैं.
कभी मैं भी गाँधी का भक्त था. प्राथमिक विद्यालय से ही मुझे यह पढाया गया था कि गाँधी बहुत महान थे, उन्होंने देश के लिए यह किया, वह किया आदि. एक बार मेरे विद्यालय में अछूतोद्धार पर एक नाटक खेला गया था, उसमें मैंने गाँधी कि भूमिका की थी. लेकिन जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ और गाँधी के बारे में अधिक से अधिक पढ़ा-जाना, तो मेरी धारणाएं बिलकुल बदल गयीं. मैं उन्हें महात्मा नहीं मानता. निश्चित ही वे महान थे, परन्तु उनकी महानता से देश को कोई लाभ नहीं हुआ, बल्कि हानि ही हुई. यही बात नेहरु के बारे में कही जा सकती है.
मैं यह स्पष्ट कर दूं कि व्यक्तिगत रूप से मुझे गाँधी या नेहरु से कोई शिकायत नहीं है, न तो गाँधी ने मेरा खेत काटा है और न नेहरु ने मेरी भैंस खोली है. मैंने ये विचार तो उनके द्वारा देश के प्रति किये गए अपराधों के कारण बनाये हैं,  गाँधी नग्न महिलाओं के साथ सोकर अपने ब्रह्मचर्य की परीक्षा करते थे या नेहरु अपनी विवाहिता पत्नी को उपेक्षित करके लेडी माउन्ताबेतन अथवा श्रद्धा माता जैसी महिलाओं के साथ सम्बन्ध बनाते फिरते थे, इससे भी मेरा कोई लेना-देना फिलहाल नहीं है.
अगले ब्लोगों में मैं यह बताऊंगा कि गाँधी और नेहरु के बारे में मेरी वर्तमान धारणाएं क्यों बनीं. तब तक के लिए नमस्कार.