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Wednesday 8 February 2012

अहिंसा का अतिरेक अर्थात् मूर्खता

अहिंसा एक अच्छा गुण है और धर्म का एक अंग है- ‘परम धरम श्रुति विदित अहिंसा’, ‘अहिंसा परमो धर्मः’ आदि। लेकिन यह बात व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर तक ही सत्य है। यह किसी शासन का मूल सिद्धांत नहीं बन सकता। उदाहरण के लिए, सरकार को अपराधियों को दंड देना ही पड़ता है और कई बार मृत्यु दंड भी दिया जाता है। प्रत्येक देश को अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए सेना बनानी पड़ती है और दुश्मन देशों से युद्ध भी करना पड़ता है, जिसमें भारी हिंसा होती है। गाँधी ने अहिंसा पर जोर दिया, यह तो ठीक था, लेकिन उसी को अपना और पूरे देश का मूल सिद्धान्त बना लेना गलत था। गाँधी का विचार था कि अहिंसा से विदेशी शक्ति देश को छोड़कर चली जाएगी। स्पष्ट रूप से यह सोच गलत ही नहीं मूर्खतापूर्ण है।
गाँधी से पहले महात्मा बुद्ध ने अहिंसा पर जोर दिया था। वह एक ऐतिहासिक आवश्यकता थी, क्योंकि उस समय वैदिक धर्म का पालन करने वालों में बहुत विकृतियाँ आ गयी थीं। वे पशुबलि और मानवबलि तक देने लगे थे। बुद्ध ने इसका विरोध किया और अहिंसा पर जोर दिया। इससे ये बुराइयाँ समाप्त हो गयीं। यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन आगे चलकर बुद्ध ने हर प्रकार की हिंसा का विरोध करना शुरू कर दिया। किसी सद्गुण का अतिरेक भी अवगुण बन जाता है। ऐसा ही यहाँ हुआ। बुद्ध से प्रभावित होकर सम्राट अशोक ने अपनी सेनाओं को कम कर दिया और बौद्ध धर्म अपना लिया। इसका परिणाम यह हुआ कि हमारा देश जो हमेशा शक्तिशाली रहा था, धीरे-धीरे कमजोर हो गया। आगे चलकर विदेशी आतताइयों ने हमारे देश पर एक के बाद एक कई आक्रमण किये और अन्ततः देश गुलाम हो गया। मेरे विचार से यह बुद्ध की अहिंसा के कारण ही हुआ।
इसका प्रत्यक्ष प्रभाव हम आज तिब्बत में देख सकते हैं। अहिंसा की अपनी मूर्खतापूर्ण नीति के कारण तिब्बत ने कोई सेना नहीं बनायी। इससे चीनी भेड़िये ने उसे सरलता से निगल लिया और हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री पोंगा पंडित नेहरू पंचशील का जाप करते रह गये। आगे चलकर इसका कुपरिणाम भारत को भी भुगतना पड़ा और 1962 में चीन के हाथों अपमानित होना पड़ा।
गाँधी की  अहिंसा न केवल मूर्खतापूर्ण थी बल्कि एक तरफा भी थी। वे यह तो चाहते थे कि सभी आन्दोलनकारी और हिन्दू समाज अहिंसक बना रहे, लेकिन सरकारों तथा दूसरे समुदायों से ऐसा कभी नहीं कहते थे कि आप भी अहिंसा अपनाइए। इसके विपरीत उन्होंने मुस्लिमों की हिंसा को एक बार यह कहकर उचित ठहराया था कि वे तो अपने धर्म का पालन कर रहे थे। क्या यह बात हास्यास्पद नहीं है? एक अन्य अवसर पर उन्होंने स्पष्ट कहा था कि आम हिन्दू कायर और आम मुसलमान गुंडा होता है। इसका मतलब यह है कि गाँधी को दोनों समाजों का अन्तर मालूम था, परन्तु अपने को ‘महात्मा’ कहलाने के मोह के कारण वे कभी दूसरों की हिंसा की निन्दा नहीं कर सके। वे केवल हिन्दुओं से यह चाहते थे कि वे हिंसा को सहन करें और अहिंसक बने रहें।
जब भी देश में साम्प्रदायिक दंगे होते थे, गाँधी हमेशा हिन्दू-बहुल स्थानों में जाकर हिन्दुओं को हिंसा करने से रोकते थे। वे कभी मुस्लिम-बहुल स्थानों में नहीं गये। अगर वे वहाँ जाते, तो उन्हें अपनी अहिंसा की शक्ति का पता तुरन्त चल जाता। वहाँ तो वे दूसरे लोगों को भेजते थे। उदाहरण के लिए, कानपुर के दंगों में मुसलमानों को समझाने के लिए उन्होंने गणेश शंकर विद्यार्थी को भेज दिया। वे दो दिन के अन्दर ही मुसलमान गुंडों के हाथों मारे गये। गलियों में खींचकर उनकी हत्या कर दी गयी। इस पर गाँधी की मूर्खतापूर्ण टिप्पणी देखिये- ‘विद्यार्थी जी बहुत भाग्यशाली रहे, जो दंगे रोकने में शहीद हो गये।’ यह देश का दुर्भाग्य है कि ऐसे अनेक उदाहरणों के बावजूद गाँधी के प्रति देशवासियों का मोह कम नहीं हुआ और इसकी भारी कीमत देश को चुकानी पड़ी। गाँधी की मूर्खतापूर्ण अहिंसा के कारण देश में कितनी हिंसा हुई, इसे सब जानते हैं। इसके बारे में हम आगे बात करेंगे।

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