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Wednesday 29 February 2012

1946 का नौसैनिक विद्रोह


जो घटना भारत की आजादी का तात्कालिक और प्रमुख कारण बनी, वह थी सन् 1946 में भारत के नौसैनिकों का विद्रोह। भारत की आजादी के ठीक पहले हुए इस विद्रोह को जलसेना विद्रोह अथवा बम्बई विद्रोह के नाम से जाना जाता है। इस विद्रोह का स्वतःस्फूर्त प्रारम्भ नौसेना के सिगनल्स प्रशिक्षण पोत ‘आई.एन.एस. तलवार’ से हुआ था। नाविकों द्वारा खराब खाने की शिकायत करने पर अंग्रेज कमान अफसरों ने नस्ली अपमान और प्रतिशोध का रवैया अपनाया। इस पर 18 फरवरी को नाविकों ने भूख हड़ताल कर दी। यह हड़ताल अगले दिन ही कैसल, फोर्ट बैरकों और बम्बई बंदरगाह के 22 जहाजों तक फैल गयी। 19 फरवरी को एक हड़ताल कमेटी का गठन किया गया। नाविकों की माँगों में बेहतर खाने और गोरे तथा भारतीय नौसैनिकों के लिए समान वेतन के साथ ही आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों और सभी राजनैतिक बंदियों की रिहाई तथा इंडोनेशिया से सैनिकों को वापस बुलाये जाने की माँग भी शामिल हो गयी। इससे पता चलता है कि यह विद्रोह वास्तव में स्वतंत्रता संग्राम का ही एक भाग था।
20 फरवरी को इस विद्रोह को कुचलने के लिए सैनिक टुकड़ियां बम्बई लायी गयीं। नौसैनिकों ने अपनी कार्रवाहियों के तालमेल के लिए पाँच सदस्यीय कार्यकारिणी को चुना, लेकिन शान्तिपूर्ण हड़ताल और पूर्ण विद्रोह के बीच चुनाव की दुविधा उनमें बनी हुई थी, जो काफी हानिकारक सिद्ध हुई। 20 फरवरी को उन्होंने अपने-अपने जहाजों पर लौटने के आदेश का पालन किया, जहाँ सेना के गार्डों ने उनको घेर लिया। अगले दिन कैसल बैरकों में नाविकों द्वारा घेरा तोड़ने की कोशिश करने पर लड़ाई शुरू हो गयी। इस लड़ाई में किसी पक्ष का पलड़ा भारी नहीं रहा और दोपहर बाद 4 बजे युद्ध-विराम घोषित कर दिया गया। एडमिरल गाडफ्रे अब बमबारी करके नौसेना को नष्ट करने की धमकी दे रहा था। इसी समय लोगों की भीड़ गेटवे आॅफ इंडिया पर नौसैनिकों के लिए खाना और अन्य सहायता सामग्री लेकर उमड़ पड़ी।
इस विद्रोह की खबर फैलते ही कराची, कोलकाता, मद्रास और विशाखापत्तनम के भारतीय नौसैनिक तथा दिल्ली, ठाणे और पुणे स्थित कोस्ट गार्ड भी इस हड़ताल में शामिल हो गये। 22 फरवरी को हड़ताल का चरम बिन्दु था, जब 78 जहाज, 20 तटीय प्रतिष्ठान और 20000 नौसैनिक इसमें शामिल हो चुके थे। इसी दिन कम्यूनिस्ट पार्टी के आह्वान पर बम्बई में आम हड़ताल हुई। नौसैनिकों के समर्थन में शान्तिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे मजदूर प्रदर्शनकारियों पर सेना और पुलिस की टुकड़ियों ने बर्बर हमला किया, जिसमें करीब 300 लोग मारे गये और 1700 घायल हुए। इसी दिन सुबह कराची में भारी लड़ाई के बाद ही ‘हिन्दुस्तान’ जहाज के नौसैनिकों से आत्मसमर्पण कराया जा सका। अंग्रेजों के लिए हालत बहुत नाजुक थी, क्योंकि ठीक इसी समय बम्बई के वायु सेना के पायलट और हवाई अड्डे के कर्मचारी भी नस्ली भेदभाव के विरुद्ध हड़ताल पर चले गये थे तथा कलकत्ता और अन्य कई हवाई अड्डों के पायलटों ने भी उनके समर्थन में हड़ताल कर दी थी। इससे भी बढ़कर छावनी क्षेत्रों में सेना के भीतर भी असन्तोष होने तथा विद्रोह की सम्भावना की गुप्त रिपोर्टों ने अंग्रेजों को भयाक्रान्त कर दिया था।
ऐसे कठिन समय में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेता अंग्रेजों के तारणहार की भूमिका में आये, क्योंकि सेना के सशस्त्र विद्रोह और मजदूरों द्वारा उनके समर्थन से भारतीय पूँजीपति वर्ग और राष्ट्रीय आन्दोलन का रूढ़िवादी नेतृत्व स्वयं आतंकित हो गया था। मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना की सहायता से कांग्रेस के नेता सरदार बल्लभ भाई पटेल ने काफी कोशिशों के बाद 23 फरवरी को नौसैनिकों को आत्मसमर्पण के लिए तैयार कर लिया। उनको यह आश्वासन दिया गया था कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग उन्हें अन्याय और प्रतिशोध का शिकार नहीं होने देंगे। बाद में सेना के अनुशासन की दुहाई देते हुए सरदार पटेल ने अपना वायदा तोड़ दिया और नौसैनिकों के साथ विश्वासघात किया। इसका कारण सरदार पटेल ने अपने एक पत्र में यह बताया था कि स्वतन्त्र भारत में हमें भी सेना की आवश्यकता होगी।
उल्लेखनीय है कि जवाहरलाल नेहरू ने नौसैनिकों के विद्रोह का यह कहकर विरोध किया था कि ‘हिंसा के उच्छृंखल उद्रेक को रोकने की आवश्यकता है।’ इतना ही नहीं तथाकथित ‘महात्मा’ गाँधी ने 22 फरवरी को कहा कि ‘हिंसात्मक कार्रवाई के लिए हिन्दुओं-मुसलमानों का एक साथ आना एक अपवित्र बात है।’ नौसैनिकों की निन्दा करते हुए उन्होंने कहा था कि यदि उन्हें कोई शिकायत है, तो वे चुपचाप अपनी नौकरी छोड़ दें। नौसैनिकों को यह नायाब सलाह देने वाले कांग्रेसी नेता यह भूल गये कि वे स्वयं विधायिकाओं में जाकर पूरी निर्लज्जता से सभी सुविधायें भोग रहे थे। नौसैनिक विद्रोह ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के वर्ग चरित्र को एकदम बेनकाब कर दिया था। इस विद्रोह और उनके समर्थन में उठ खड़ी हुई जनता की निन्दा में इनके नेता बढ़-चढ़कर भाग ले रहे थे, लेकिन ब्रिटिश सत्ता की बर्बर दमनात्मक कार्रवाइयों के खिलाफ उन्होंने चूँ तक नहीं की।
भले ही यह नौसैनिक विद्रोह तात्कालिक दृष्टि से असफल रहा, लेकिन इसने अंग्रेजों के मन में यह बात बैठा दी थी कि जिन भारतीय सेनाओं के बल पर उनका साम्राज्य टिका हुआ था, वे सेनाएँ कभी भी उनका साथ छोड़ सकती हैं और फिर उनको अपना अस्तित्व तक बचाना कठिन हो जाएगा। 1857 के ‘सिपाही विद्रोह’ का कटु अनुभव वे भूले नहीं थे। इसी लिए वे शीघ्र से शीघ्र भारत छोड़कर जाना चाहते थे। इस कार्य में सौदेबाजी के लिए उन्हें कांग्रेस-मुस्लिम लीग जैसी पार्टियाँ तथा उनके सत्तालोलुप नेता भी मिल गये और वे देश के टुकड़े करके भाग खड़े हुए। यह इतिहास की बिडम्बना ही कही जायेगी कि जिस विद्रोह ने अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाने के लिए सबसे अधिक मजबूर किया, उसे भारत के स्वतंत्रता इतिहास में आज भी उचित स्थान नहीं मिल पाया है। इसके बजाय सारा श्रेय सुविधायें भोगने वाले और सौदेबाजी करने वाले सत्तालोलुप नेताओं ने लूट लिया।

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