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Thursday 12 January 2012

हत्यारे के भाई गाँधी

मो.क. गाँधी अहिंसा का बहुत जाप किया करते थे. इसी आधार पर वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों तथा क्रांतिकारियों का विरोध किया करते थे. वे आजादी अहिंसा के बल पर ही पाना चाहते थे. इसलिए वे अंग्रेजों का पूरा सहयोग करते थे और उनसे बातचीत की मेज पर ही कुछ मांगते थे. जब वे गोलमेज सम्मलेन में भाग लेने लन्दन गए थे, उससे कुछ समय पहले ही अंग्रेजों की अदालत ने ३ भारतीय क्रांतिकारियों भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई थी. उनको शीघ्र ही फांसी दी जाने वाली थी. कई कांग्रेसी नेताओं ने गाँधी से कहा था की वे इस मामले को गोलमेज सम्मलेन में उठायें और क्रांतिकारियों को फाँसी से बचाने की कोशिश करें.
लेकिन गाँधी ने एक बार भी यह मुद्दा नहीं उठाया, यहाँ तक कि उन्होंने क्रांतिकारियों को रिहा करने की अपील करने से भी इंकार कर दिया. उनका मानना था कि उन क्रांतिकारियों ने हत्याएं की हैं, इसलिए उनको इसकी सजा भोगनी चाहिए. "अहिंसा का पुजारी" हिंसा का समर्थन कैसे कर सकता था? लेकिन इन्हीं गाँधी को स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे अब्दुल रशीद को अपना भाई बताने और उसको माफ़ कर देने की अपील करने में कोई शर्म नहीं आई. सिर्फ इसलिए कि वह मुसलमान था. स्वामी श्रद्धानंद का कसूर यह था कि उन्होंने अपने शुद्धिकरण आन्दोलन द्वारा ५० हजार मुसलमानों को वापस हिन्दू धर्म में शामिल कराया था और वे आगे भी यह कार्य करते रहना चाहते थे.
सभी जानते हैं कि मुसलमान हर उस आदमी को अपना दुश्मन मान लेते हैं जो किसी भी तरह उनकी संख्या घटाने का काम करता है. अपनी संख्या वे हर संभव तरीके से बढ़ाना चाहते हैं, चार-चार शादियाँ करके, १०-१० बच्चे पैदा करके, दूसरे धर्मों की लड़कियों को भगा कर या जोर-जबरदस्ती धर्म परिवर्तन करके. जो इसमें बाधा बनता है उसे हर तरीके से हटाना चाहते हैं. यह बात बाद में भी अनेक बार देखी गई है. इसलिए अब्दुल रशीद मिलने के बहाने उस समय बीमार स्वामी श्रद्धानंद के पास पहुंचा और तत्काल छुरा मारकर उनकी हत्या कर दी. हालाँकि वह पकड़ा भी गया और अदालत ने उसे सजा भी दी.
लेकिन गाँधी तो "महात्मा" थे, इसलिए उन्होंने अब्दुल रशीद को अपना भाई कहा और उसके कृत्य की निंदा करने से भी इंकार कर दिया. जब इस पर बवाल हुआ, तो गाँधी ने कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में इसकी 'सफाई' देते हुए फिर उसे अपना भाई कहा. (जिनको इस बात पर कोई शक हो, वे देखें पट्टाभि सीतारामैय्या द्वारा लिखित "कांग्रेस का इतिहास". )
यह है मुसलमानों के प्रति गाँधी के घोर पक्षपात का एक और उदाहरण. क्या इस पर किसी अन्य  टिप्पणी की जरूरत है?

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