Pages

Tuesday 10 January 2012

इस्लाम से बेखबर गाँधी

गाँधी न केवल इस्लाम के इतिहास को नहीं जानते थे, बल्कि वे इस्लाम को भी सही तरह से नहीं जानते थे. यदि उन्होंने कभी कुरआन को पढ़ने का कष्ट किया होता, तो उन्हें पता चलता की इस्लाम चाहे कुछ भी हो पर शांति का धर्म तो कदापि नहीं है. दिल्ली के श्री विशन स्वरुप गोयल ने एक पुस्तिका लिखी थी- "काश! गाँधी ने कुरआन पढ़ी होती, तो...." इस पुस्तिका में उन्होंने लिखा है की यदि गाँधी ने कुरान को पढ़ा होता, तो इस्लाम के बारे में उनके विचार पूरी तरह भिन्न होते. इस पुस्तिका पर दिल्ली उच्च न्यायालय में केस भी चला था, पर न्यायाधीश ने पुस्तिका को आपत्तिजनक नहीं पाया. इस पुस्तिका में कुरान की एक-दो नहीं बल्कि २४ ऐसी आयतों की सूची दी गयी है, जिनमें गैर-मुसलमानों के प्रति घृणा करने और उन पर सभी संभव अत्याचार करने का आदेश दिया गया है. उनमें कहा गया है कि काफिरों को दोस्त मत बनाओ, उन्हें दुश्मन मानो, उनको जहाँ भी पाओ मारो और सताओ, और तब तक सताते रहो जब तक वे तोबा करने यानी मुसलमान बनने को तैयार न हो जाएँ. सलमान रुश्दी ने इन्हीं आयतों के आधार पर अपना उपन्यास "सैटनिक वर्सेज" लिखा है, जिसको भारत की सेकुलर सरकार ने  बिना पढ़े ही प्रतिबंधित कर दिया है.
कई इस्लामी विद्वान कुरान में इन आयतों के होने से तो इनकार नहीं करते, लेकिन ये कहते हैं कि इनका सही अर्थ नहीं किया गया है और इनको मूल अरबी में समझा जाना चाहिए. परन्तु जिन लोगों ने कुरान को मूल अरबी में पढ़ा है, जैसे डा. अली सिना,  उनका कहना है कि मूल अरबी में इनका अर्थ कहीं अधिक भयानक है. अन्य भाषाओँ में अनुवाद करते समय तो इनका अर्थ थोड़ा उदार कर दिया जाता है. वास्तव में जिन मुहम्मद के माध्यम से ये आयतें आई बताई जाती हैं, वे पढ़े-लिखे नहीं थे, बल्कि पूरी तरह अनपढ़ थे. इसलिए इन आयतों  में कोई अर्थ छिपा होने की कोई संभावना नहीं है और ये सीधे-सपाट शब्दों में ठीक वही कहती हैं जो वे कहना चाहती हैं. इन आयतों के आदेशों को मानने वाला व्यक्ति केवल आतंकवादी और अत्याचारी ही बनेगा. वह शांति-पसंद व्यक्ति तो कदापि नहीं बन सकता.
इन आयतों में "काफ़िर" का सीधा अर्थ है- "गैर-मुसलमान." कुरआन के अनुसार कुरआन और मुहम्मद पर ईमान न लाना ही "कुफ्र" है और ऐसा करने वाले "काफ़िर" हैं. इसलिए वास्तव में कुरआन सभी गैर-मुसलमानों को काफ़िर मानती है. खिलाफत आन्दोलन में गाँधी के अभिन्न सहयोगी मौलाना मुहम्मद अली ने एक बार नहीं बल्कि दो बार साफ-साफ कहा था कि उनके लिए पापी से पापी मुसलमान भी गाँधी से बेहतर है, क्योंकि वह मुसलमान है (और गाँधी काफ़िर है). क्या इसके बाद भी कुछ कहने को बाकी रह जाता है?
हमारा दुर्भाग्य है कि इसके बाद भी गाँधी की आँखें नहीं खुली और वे अपनी आखिरी साँस तक इस्लाम को शांति और भाईचारे का धर्म मानते रहे. गाँधी की इस मूर्खता की भयंकर कीमत हमारे प्यारे देश को चुकानी पड़ी,  जैसा कि हम आगे देखेंगे.

No comments:

Post a Comment