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Saturday 2 March 2013

गुरु और शिष्य


“क्या लाये हो?“

यह प्रश्न पूछने वाले थे प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द, जो व्याकरण के सूर्य कहे जाते थे। वे मथुरा में यमुना के किनारे एक छोटी सी कुटी में रहते हुए अपने गिने-चुने शिष्यों को वैदिक ग्रन्थों की शिक्षा दिया करते थे।

जिनसे यह प्रश्न पूछा गया था वे थे स्वामी दयानन्द, जो मात्र 18 वर्ष की आयु में अपने परिवार के समस्त वैभव का त्याग करके ‘सच्चे शिव’ की खोज में निकले थे। संन्यास ग्रहण करने के बाद वे इधर-उधर भटकते हुए अनेक संत-महात्माओं से ज्ञान प्राप्त कर चुके थे, परन्तु तृप्ति नहीं हुई थी। अन्त में वे स्वामी विरजानन्द से आर्ष ग्रन्थों की शिक्षा प्राप्त करने आये थे और उसी दिन उनकी शिक्षा पूर्ण हुई थी। परम्परा के अनुसार वे गुरु से विदा लेने आये थे।

उनके आस-पास खड़े हुए अन्य शिष्य आश्चर्य से सोच रहे थे कि आज गुरुजी को क्या हो गया है? जो अपने ग्रहस्थ शिष्यों से भी कभी कुछ नहीं माँगते थे, आज एक अकिंचन कौपीनधारी संन्यासी के सामने हाथ फैला रहे हैं!

स्वामी दयानन्द भी संकोच से गढ़ गये। किसी तरह साहस करके बोले- "गुरुदेव! मैं एक संन्यासी हूँ। मेरे पास है ही क्या, जो आपको भेंट करूँ? भिक्षा करके ये थोड़े से लवंग आपके चबाने के लिए लाया हूँ। स्वीकार करके अपना आशीर्वाद प्रदान करें।" यह कहते हुए उन्होंने अपनी अंजुली में रखे हुए लौंग गुरु की ओर बढ़ाये।

”दयानन्द! मुझे किसी सांसारिक वस्तु की कामना नहीं है। मैं वह वस्तु चाहता हूँ, जो तुम्हारे पास है।“

गुरुदेव के मुख से यह अप्रत्याशित वाक्य सुनकर स्वामी दयानन्द रोमांचित हो उठे। आस-पास खड़े हुए शिष्यों की उत्सुकता बढ़ गयी।

स्वामी दयानन्द ने रोमांचित होकर कहा- ”आज्ञा कीजिए, गुरुदेव! मेरा यह पूरा शरीर और जीवन आपका है।“

”दयानन्द! देश में अनेक अवैदिक मत-मतान्तरों और मूर्ति-पूजा का जाल फैला हुआ है। लोग वेदों को भूल गये हैं। मैं चाहता हूँ कि तुम अविद्या के इस अन्धकार को मिटाकर वैदिक धर्म की ओर लोगों को लौटाओ। तुम्हारे जैसा कोई युवा संन्यासी और विद्वान् ही यह कार्य कर सकता है।“

स्वामी दयानन्द के मुख पर एक तेज प्रकट हुआ। दृढ़ शब्दों में बोले- ”गुरुदेव, मैं आपको वचन देता हूँ कि अवैदिक मत-मतान्तरों का विरोध करके सच्चे वैदिक धर्म की प्रतिष्ठा करूँगा।“

”दयानन्द! यह कार्य इतना सरल नहीं है। तुम्हें जगह-जगह पर विरोध और अपमान सहन करना पड़ेगा। तुम्हारे प्राणों पर भी संकट आ सकता है।“

”कुछ भी हो, गुरुदेव! चाहे मुझे अपने प्राण ही क्यों न देने पड़ें, लेकिन आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।“

”मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। जाओ तुम्हारा कल्याण हो।“

इतिहास साक्षी है कि स्वामी दयानन्द ने अपने गुरु को दिये गये वचन का जीवन भर पालन किया। उन्हें जगह-जगह अपमानित होना पड़ा, ईंट-पत्थर फेंके गये, कई बार विष दिया गया और अन्य प्रकार से प्राण लेने की चेष्टा की गयी। अन्ततः उनको विष देकर प्राण ले ही लिये गये। परन्तु वे वैदिक धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा करके ही माने।

स्वामी विरजानन्द जैसे गुरुओं और स्वामी दयानन्द  जैसे शिष्यों के कारण ही भारत महान् कहा जाता है।

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