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Tuesday 22 January 2013

कंधार विमान अपहरण काण्ड : गलती पर गलती


13 अक्टूबर 1999 को अटल बिहारी वाजपेयी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। इसके दो-ढाई महीने बाद ही उन्हें एक बड़े राष्ट्रीय संकट का सामना करना पड़ा। 24 दिसम्बर को काठमांडू से दिल्ली आ रहे इंडियन एयरलाइंस के एक जहाज को रास्ते में ही 5 पाकिस्तानी अपहरणकर्ताओं ने अपहृत कर लिया। काठमांडू में सुरक्षा व्यवस्था में हुई ढील का फायदा उठाकर वे छोटे हथियार विमान में ले जाने में सफल हो गये। जहाज में उस समय 178 यात्री और 15 कर्मचारी थे, जिनमें से अधिकांश भारतीय थे।

अपहरणकर्ताओं ने पहले जहाज को सीधे लाहौर ले जाने के लिए कहा। जब उनको बताया गया कि जहाज में ईंधन कम है, तो उन्होंने विमान को अमृतसर उतरने को बाध्य किया। वहाँ विमान में ईंधन भरवाने की कोशिश की। हालांकि पंजाब पुलिस ने विमान को चारों ओर से घेर रखा था और वे चाहते थे कि विमान को वहीं रोके रखा जाये, लेकिन अपहरणकर्ताओं केा शक हो गया और उन्होंने बिना ईंधन लिये ही जहाज को उड़ जाने के लिए बाध्य कर दिया। उस समय दिल्ली की सरकार ने बहुत बड़ी गलती की कि जहाज को उड़ जाने दिया गया। अगर उसको किसी भी तरह उड़ने से रोक दिया जाता और कमांडो कार्रवाही की जाती, तो यह निश्चित था कि भले ही कुछ लोगों की जान चली जाती, लेकिन अपहरण कांड वहीं समाप्त हो जाता। इस तरह सरकार ने एक अच्छा मौका गँवा दिया।

अमृतसर से विमान को लाहौर ले जाकर जबर्दस्ती उतारा गया और ईंधन लेकर फिर उड़ाया गया। लाहौर में पायलट चाहते थे कि कुछ महिलाओं और बच्चों को वहीं उतार दिया जाये, लेकिन पाकिस्तानी अधिकारी उस समय कारगिल पराजय के कारण भारत से खार खाये बैठे थे, इसलिए उन्होंने कोई भी सहयोग करने से इनकार कर दिया। लाहौर से जहाज दुबई गया, जहाँ 27 महिलाओं और बच्चों को रिहा किया गया और फिर जहाज को अफगानिस्तान के कंधार हवाई अड्डे पर उतार दिया गया।

उस समय अफगानिस्तान में तालिबान आतंकवादियों की सरकार थी, जिनको भारत ने मान्यता नहीं दी थी। वह सरकार पूरी तरह आतंकवादियों के साथ थी। कहा तो यह भी जाता है कि अपहरण करते समय आतंकवादियों के पास मामूली तमंचे और एक हथगोला मात्र था। कंधार में ही उनको अधिक उन्नत हथियार उपलब्ध कराये गये, ताकि यदि कोई देश कमांडो कार्यवाही करने का साहस करे, तो बहुत जनहानि हो।

कंधार में ही अपहरणकर्ताओं के माँगें सामने आयीं। वे कई इस्लामी आतंकवादियों की रिहाई चाहते थे, जो भारत की जेलों में बन्द थे। भारत के अफगानिस्तान की तालिबान सरकार के साथ दूत सम्बंध नहीं थे, इसलिए बातचीत में भी समस्या हुई। किसी तरह पाकिस्तान स्थित भारतीय हाई कमीशन को कंधार भेजा गया और अपहरणकर्ताओं से बातचीत की गयी।

यहाँ भारत की बेशर्म सेकूलर मीडिया ने अपनी नीचता और देशद्रोहिता का पूरा परिचय दिया। वे जहाज में फँसे लोगों के घरवालों को रोज ही अटलजी के निवास के सामने इकट्ठा कर लाते थे और उनका प्रदर्शन टेलीविजन पर लाइव दिखाते थे, ताकि सरकार पर आतंकवादियों की रिहाई के लिए दबाब बने। एक बार भी किसी चैनल ने यह नहीं दिखाया कि जिन आतंकवादियों की रिहाई की माँग की जा रही है, उन्होंने कितने निर्दोष लोगों की हत्यायें की थीं और उनको गिरफ्तार करने में भारतीय सुरक्षा बलों को क्या-क्या पापड़ बेलने पड़े थे। कई आतंकवादी तो अनेक सैनिकों के बलिदान के बाद ही पकड़े जा सके थे।

भारी दबाबों के कारण अन्ततः भारत सरकार तीन शीर्ष इस्लामी आतंकवादियों की रिहाई के लिए तैयार हो गयी। एक, मौलाना मसूद अजहर, जिसने रिहा होते ही जैशे-मुहम्मद नामक आतंकवादी संगठन बनाकर भारत की नाक में दम कर दिया और भारतीय संसद भवन पर हमला कराया। दो, अहमद उमर सईद शेख, जिसने पाकिस्तान में कई पत्रकारों का अपहरण और हत्यायें की तथा अन्य सैकड़ों वारदातें कीं। तीन, मुश्ताक अहमद जरगर, जिसने पाक-अधिकृत कश्मीर में अनेक प्रशिक्षण शिविर चलाकर हजारों इस्लामी आतंकवादी पैदा किये। अगर इनको रिहा न किया जाता, तो भारत को मुम्बई में नवम्बर 2008 में हुआ हमला भी न झेलना पड़ता। इन तीनों आतंकवादियों को भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह स्वयं लेकर कंधार गये और बदले में यात्रियों को रिहा कराकर लाये।

मेरे विचार से अगर अटल जी की सरकार ने अपने पूरे कार्यकाल में कोई गलत काम किया, तो वह यही था कि कुछ यात्रियों के बदले तीन खूँखार आतंकवादियों को रिहा कर दिया। उनको किसी भी कीमत पर रिहा नहीं किया जाना चाहिए था, बल्कि अपहरणकर्ताओं की माँग सामने आते ही उनको तत्काल गोली मार देनी चाहिए थी। अगर हमारे देश के 150 कायर नागरिक मर भी जाते तो कोई बड़ी हानि नहीं होती, परन्तु वे रिहा किये गये आतंकवादी आगे चलकर हजारों निर्दोष नागरिकों की मौतों का कारण बने। मैं उन यात्रियों को कायर इसलिए कह रहा हूँ कि उनमें से किसी ने भी आतंकवादियों से भिड़ने का साहस नहीं किया। प्रारम्भ में अपहरणकर्ताओं के पास मामूली हथियार थे। अगर तीन-तीन चार-चार यात्री एक साथ एक-एक अपहरणकर्ता पर टूट पड़ते, तो निश्चय ही वे काबू में आ जाते, भले ही दो-चार जानें चली जातीं। लेकिन हमेशा सुविधाओं को भोगने वाले उन कायरों में कोई साहस नहीं था।

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