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Tuesday 22 January 2013

तेरह दिन की सरकार


पिछले लेखों में मैं लिख चुका हूँ कि नरसिंह राव को केवल अर्थव्यवस्था के उदारीकरण का श्रेय दिया जा सकता है। उनकी बाकी सभी नीतियाँ, जैसे भ्रष्टाचार, जोड़-तोड़, मुस्लिम तुष्टीकरण, निकम्मापन आदि पुरानी कांग्रेसी सरकारों जैसी ही थीं। उनके राज में भी जनता तमाम मुसीबतों और कठिनाइयों का सामना कर रही थी। इसलिए किसी तरह उनके कार्यकाल के 5 वर्ष पूरा होने के बाद अप्रेल-मई 1996 में जो चुनाव हुए उनमें कांग्रेस की लुटिया डूब गयी। उसे पूरे भारत से केवल 140 सीटें मिलीं जो आजादी के बाद उसकी सबसे कम सीटें थीं।

इन चुनावों में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी और गठबंधन के रूप में सामने आयी। उसकी अपनी सीटों की संख्या 161 थी और सहयोगी दलों समता पार्टी, शिव सेना तथा हरियाणा विकास पार्टी को मिलाकर कुल 187 सीटों पर यह गठबंधन जीतकर आया। अन्य गठबंधनों में राष्ट्रीय मोर्चा को केवल 79 सीटें मिलीं, जिनमें जनता दल 46, समाजवादी पार्टी 17 और तेलुगूदेशम 16 शामिल थे, तथा वाम मोर्चा को 52 सीटें प्राप्त हुईं, जिनमें माकपा 32, भाकपा 12, आरएसपी 5 और फाॅरवर्ड ब्लाॅक 3 शामिल थे।

इस प्रकार किसी भी गठबंधन को बहुमत लायक सीटें नहीं मिलीं। उस समय धुरन्धर कांग्रेसी शंकर दयाल शर्मा राष्ट्रपति पद पर थे। उनके सामने समस्या उत्पन्न हुई कि किस गठबंधन या दल को सरकार बनाने के लिए बुलाया जाये। काफी सोच विचार के बाद उन्होंने सबसे बड़े गठबंधन के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने का निमंत्रण दे दिया और 15 मई 1996 को अटल जी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ले ली। राष्ट्रपति ने उनको बहुमत सिद्ध करने के लिए 2 सप्ताह का समय दिया।

अटल जी ने राष्ट्रपति के निर्देशानुसार अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए लोकसभा में विश्वास मत पेश किया, जिस पर 31 मई को मतदान होना था। उन्होंने कई पार्टियों से समर्थन लेने की पुरजोर कोशिश की, लेकिन 200 से अधिक का समर्थन जुटाने में असमर्थ रहे। लोकसभा में एक लम्बी बहस के बाद उन्होंने विश्वास मत पर मतदान होने से पहले ही 28 मई को अपनी सरकार का त्यागपत्र दे दिया। इस प्रकार उनकी पहली सरकार केवल तेरह दिन चली।

यहाँ यह बताना असंगत न होगा कि बहुमत जुटाने के लिए अटल जी ने कोई अनुचित आचरण नहीं किया, जैसा कि उनके पूर्ववर्ती नरसिंह राव ने किया था। नोटों से भरे सूटकेस देकर झारखंड मुक्ति मोर्चा और अन्य दलों के कुछ सांसदों का समर्थन खरीदने के कारण उनकी बहुत छीछालेदर हुई थी। लेकिन भाजपा ऐसी कोशिशों से दूर रही और कोई अनुचित कार्य करने के बजाय अपनी सरकार की बलि देना पसन्द किया।

अटल जी की सरकार गिर जाने के बाद दूसरे सबसे बड़े दल कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका दिया गया, परन्तु उसने इसकी कोशिश करने के बजाय राष्ट्रीय मोर्चे को बाहर से समर्थन देना तय किया, जिसको वाम मोर्चा का समर्थन भी मिला हुआ था। यह कांग्रेस की कृपा नहीं बल्कि मजबूरी थी, क्योंकि वे फिर से चुनावों का सामना करने को तैयार नहीं थे और किसी भी तरह भाजपा को सत्ता में आने से रोकना चाहते थे। तीसरे मोर्चे ने कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री एच.डी. देवगौड़ा को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना, जिनका नाम इससे पहले कर्नाटक के बाहर कोई नहीं जानता था। यही उनका सबसे बड़ा गुण बन गया। देवगौड़ा की सरकार पूरे एक साल भी नहीं चल पायी और कांग्रेस द्वारा समर्थन वापस लेने के कारण गिर गयी। इसकी कहानी अगले लेख में।

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