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Monday 21 January 2013

शाह बानो केस : घोर साम्प्रदायिकता और तुष्टीकरण

राजीव गाँधी ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में जो अनेक मूर्खतापूर्ण निर्णय किये थे, उनमें शाह बानो का मामला अपनी तरह का अनोखा है, जिसमें एक सम्प्रदाय के कट्टरपंथियों को संतुष्ट करने के लिए उन्होंने देश के संविधान, कानून, न्यायपालिका और संसद सबको अपमानित किया।

कल्पना कीजिए कि एक 62 साल की बूढ़ी महिला शाह बानो, जिसके 5 बच्चे थे, को उसका पति केवल तीन शब्द बोलकर तलाक दे देता है और उसको कोई निर्वाह भत्ता भी नहीं देता, जिससे वह बेसहारा महिला कम से कम रोटी खा सके। बेचारी महिला इस्लाम के झंडाबरदार मुल्ला-मौलवियों के दरवाजों पर जाकर गिड़गिड़ायी कि मुझे अपने खर्च लायक भत्ता दिलवा दो। परन्तु मुल्लों ने उसे टका सा जबाब दे दिया कि इस्लामी कानून के अनुसार निर्वाह भत्ता केवल इद्दत की मियाद तक होता है, उसके बाद हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है।

बेचारी बुढि़या के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं था कि वह न्यायालय में गुहार लगाती। वह हर न्यायालय में किसी प्रकार जीती, लेकिन उसका सम्पन्न पति और ऊपर की अदालत में अपील कर देता था। अन्ततः मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुँचा। वहाँ विद्वान् न्यायाधीशों ने मामले पर गहरायी से विचार करके मानवीय आधार पर उसे निर्वाह भत्ता देने का निर्देश दिया।

यह फैसला आते ही कठमुल्लों को मिर्च लग गयी। न्यायाधीशों ने मुस्लिम पर्सनल लाॅ को दर किनार करके मानवीय आधार पर फैसला दिया था, इसलिए ‘इस्लाम खतरे में है’ के नारे लगाये जाने लगे और न्यायाधीशों के पुतले जलाये जाने लगे। स्वयं को ‘सेकूलर’ कहने वाले तमाम राजनैतिक दल इस मामले में पूरी निर्लज्जता से मुस्लिम कठमुल्लावाद का समर्थन करने लगे। किसी ने यह पूछने की हिम्मत नहीं की कि यह कैसा धर्म है, जो एक बूढ़ी महिला को निर्वाह भत्ता देने मात्र से खतरे में पड़ जाता है? ओबैदुल्ला खाँ आजमी और सैयद शहाबुद्दीन जैसे ‘महा-सेकूलर’ लोगों ने तत्काल आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड का गठन कर डाला और ‘इस्लाम बचाने’ के कार्य में जुट गये।

राजीव गाँधी की तत्कालीन सरकार और कांग्रेस का रवैया इस मामले में घोर आपत्तिजनक रहा। उन्होंने न केवल सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की खुली आलोचना की, बल्कि संसद में अपने प्रचण्ड बहुमत का दुरुपयोग करते हुए संविधान में ऐसा संशोधन कर दिया, जिससे तलाक के बाद निर्वाह भत्ते के मामले कानून की परिधि से बाहर हो गये और केवल मुस्लिम पर्सनल लाॅ के अनुसार तय किये जाने लगे। इस प्रकार उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पूरी तरह बेकार कर दिया।

‘इस्लाम’ तो बच गया, लेकिन उसे बचाने की कोशिश में राजीव गाँधी की सरकार ने निम्नलिखित 5 अपराध एक साथ कर दिये-
1. सर्वोच्च न्यायालय और न्यायाधीशों का अपमान
2. संविधान के साथ खिलवाड़
3. संसद का घोर दुरुपयोग
4. साम्प्रदायिक तत्वों का तुष्टीकरण
5. मानवता का अपमान

राजीव गाँधी ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता को जिस प्रकार खाद-पानी दिया, उससे यह समस्या आगे चलकर और भी भयावह हो गयी, जैसा कि हम आगे देखेंगे।

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