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Monday 21 January 2013

राजीव गाँधी : वंशवादी राजनीति का चेहरा

देश में से राजा-महाराजा कब के खत्म हो गये, हालांकि उनके नाममात्र के वंशज बचे हैं। लेकिन हमारे इस दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में एक परिवार ऐसा है जो स्वयं को किसी राजवंश से कम नहीं समझता और यह मानता है कि देश की सत्ता पर उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। आप समझ ही गये होंगे कि मैं नेहरू-गाँधी-मैनो परिवार की बात कर रहा हूँ। इस परिवार का मूल क्या है, इसके पूर्वज कौन थे और इसका धर्म या अधर्म कौन सा था या है, ये सब बातें आज तक अस्पष्ट हैं या गोपनीय रखी गयी हैं। लेकिन मैं इसके विस्तार में नहीं जाऊँगा। मेरा उद्देश्य केवल यह स्पष्ट करना है कि हमारी शासन व्यवस्था में किस प्रकार इस परिवार ने लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ाई हैं।

31 अक्टूबर 1984 को अपनी हत्या के समय इन्दिरा गाँधी देश की प्रधानमंत्री थीं। उनकी हत्या के बाद स्वाभाविक ही यह प्रश्न उठा कि उनकी जगह प्रधानमंत्री किसको बनाया जाये। लोकतांत्रिक परम्पराओं के अनुसार या तो केन्द्रीय मंत्रिमंडल के सबसे वरिष्ठ मंत्री को प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए था या कांग्रेस संसदीय दल को अपनी बैठक तत्काल बुलाकर नये नेता का चुनाव करना चाहिए था। लेकिन यह सब नहीं किया गया और इस परिवार के चाटुकारों ने इन्दिरा गाँधी के एकमात्र जीवित पुत्र राजीव गाँधी को प्रधानमंत्री बनवा दिया और घोर आश्चर्य कि तत्कालीन राष्ट्रपति (अ)ज्ञानी जैलसिंह ने बिना कुछ पूछताछ किये उनको तुरन्त प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी।

आइए देखें कि प्रधानमंत्री बनते समय इन महाशय की योग्यता क्या थी? वे दून स्कूल में पढ़े थे और इंटर पास किया था। इसके अलावा उनके पास जहाज उड़ाने का लाइसेंस था, जिसके बल पर वे कभी इंडियन एयरलाइंस में नौकरी करते थे। वे कई साल तक कैम्ब्रिज और लंदन में पढ़ने के बावजूद वार्षिक परीक्षा में फेल हो गये थे और बिना डिग्री प्राप्त किये लौटे थे। वे अपने छोटे भाई संजय गाँधी की मृत्यु के बाद फरवरी 1981 में उनकी अमेठी सीट से चुनकर पहली बार लोकसभा सदस्य बने थे। उनको कांग्रेस का महामंत्री भी बनाया गया था। बस यही उनकी कुल जमा राजनैतिक पूँजी थी। कांग्रेस में एक-दो नहीं सैकड़ों ऐसे नेता थे जिनका राजनैतिक अनुभव हर तरह से राजीव गाँधी से अधिक था। लेकिन उनके बारे में सोचा तक नहीं गया। उन सब के ऊपर राजीव गाँधी की यह अकेली योग्यता भारी पड़ गयी कि वे इन्दिरा गाँधी की कोख से पैदा हुए थे। लोकतंत्र का इतना बड़ा मजाक शायद ही कहीं बनाया गया हो।

प्रधानमंत्री बनने के तुरन्त बाद ही उनकी अयोग्यता सामने आ गयी। देशभर में हुए सिख-विरोधी दंगों में सिखों की जघन्य हत्याओं को वे हाथ-पर-हाथ रखकर देखते रहे। इतना ही नहीं उन्होंने यह कहकर दंगों को सही ठहराने की भी कोशिश की कि ‘जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती हिलती ही है।’

इन्होंने अपनी माँ की हत्या का पूरा राजनैतिक लाभ उठाया। उनकी लाश को पूरे तीन दिन तक टेलीविजन के पर्दे पर दिखाया जाता रहा और पृष्ठभूमि में ‘खून का बदला खून से लेंगे’ जैसे नारे स्पष्ट सुनाये जाते रहे, ताकि देश भर में सिख-विरोधी दंगे होते रहें और कांग्रेस के पक्ष में वातावरण बने। इस वातावरण का लाभ लेने के लिए उन्होंने संसद को भी जल्दी ही भंग करा दिया और मध्यावधि चुनावों की घोषणा कर दी, जबकि उसका काफी कार्यकाल बाकी था। इन चुनावों में इनकी पार्टी को 542 में से 411 सीटें मिल गयीं यानी तीन-चैथाई बहुमत से भी अधिक। इतना बहुमत इससे पहले और बाद में भी किसी को नहीं मिला।

संसद में भारी बहुमत होते हुए भी इनका कार्यकाल बहुत निराशाजनक रहा। इनकी सरकार को केवल बाफोर्स घोटाले और मूर्खतापूर्ण निर्णयों के लिए याद किया जाता है। बोफोर्स तोपों की खरीद में कमीशन खाने और इटालवी व्यापारी ओटोवियो क्वात्रोकी को खिलाने का ऐसा पुख्ता आरोप इनके ऊपर लगाया गया कि इनके चेहरे पर सदा के लिए कालिख पुत गयी। ये इतने बदनाम हो गये थे कि छोटे-छोटे बच्चे तक ‘गली-गली में शोर है, राजीव गाँधी चोर है’ के नारे लगाया करते थे। एक छोटी बच्ची ने तो पटना आकाशवाणी के एक कार्यक्रम में इस नारे को अपनी तोतली बोली में सुना डाला था।

प्रधानमंत्री के रूप में इनकी करतूतें कैसी रहीं उनके बारे में फिर कभी। संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि वे तब तक के सबसे नाकारा प्रधानमंत्री के रूप में कुख्यात हुए। एक टिप्पणीकार ने कभी कहा था- ”एक रानी के दो बेटे थे। एक बेटे को देश चलाने का प्रशिक्षण दिया गया था, उसने जहाज उड़ाने की कोशिश की और वह अपनी जान ले बैठा। दूसरे बेटे को जहाज उड़ाने का प्रशिक्षण दिया गया था, उसने देश चलाने की कोशिश की और वह देश का सर्वनाश करा बैठा।“

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