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Monday 21 January 2013

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद-1

पोंगा पंडित नेहरू के चाटुकार छद्मसेकूलर और वामपंथी इतिहासकार भले ही इसे स्वीकार न करें, लेकिन यह एक माना हुआ तथ्य है कि अपने लगभग 700 वर्षों के शासनकाल में मुसलमान हमलावरों और बादशाहों ने बलपूर्वक हजारों मन्दिरों को धूल-धूसरित किया और अनेक स्थानों पर उनके ही मलबे से तथाकथित मस्जिदें बनवायीं। अलाउद्दीन खिलजी, बाबर और औरंगजेब का नाम ऐसे शासकों में सर्वोपरि है, हालांकि ऐसे कुकृत्य लगभग सभी मुसलमान बादशाहों ने कम-अधिक मात्रा में किये थे। विश्व हिन्दू परिषद ने गहरी छानबीन के बाद ऐसी तीन हजार मस्जिदों की सूची तैयार की थी, जिसे अभी तक किसी इतिहासकार ने चुनौती नहीं दी है।

मुसलमानों और उनके बाद अंग्रेजों का शासन समाप्त हो जाने के बाद, स्वाभाविक रूप से हिन्दू समाज की यह अभिलाषा है कि विदेशी आतताइयों द्वारा तोड़े गये ऐसे मन्दिरों को फिर से बनवाया जाये और उन स्थानों पर बनी हुई तथाकथित मस्जिदों को या तो हटा लिया जाये या उन्हें समाप्त कर दिया जाए। लेकिन लगभग तीन हजार स्थानों पर ऐसा करना एक प्रकार से असम्भव ही होता, इसलिए विश्व हिन्दू परिषद ने उनमें से केवल तीन प्रमुख स्थानों को चिह्नित किया- अयोध्या का राम जन्मभूमि मन्दिर, मथुरा का कृष्ण जन्मस्थान और काशी का ज्ञानवापी में विश्वनाथ मन्दिर- जो हिन्दुओं के तीन प्रमुख आराध्य क्रमशः राम, कृष्ण एवं शिव से सम्बंधित प्रमुखतम स्थान हैं।

इनमें अयोध्या के राम जन्मभूमि मन्दिर के स्थान पर तथाकथित बाबरी मस्जिद बनी हुई थी, जिसे बाबर के एक सिपहसालार मीर बाकी द्वारा सन् 1528 में बनवायी गयी माना जाता था। हिन्दुओं का शताब्दियों से यह विश्वास है कि इसी स्थान पर भगवान राम का जन्म हुआ था। उस स्थान पर हजारों साल पहले से मन्दिर बना हुआ था, जिसको बाबर के सिपहसालार ने तुड़वाया और उसी के मलबे से वहाँ आधी-अधूरी मस्जिद बनवा दी। तभी से कई हिन्दू राजाओं की सेनाओं और साधु-सन्तों ने उस स्थान को मुसलमानों के कब्जे से वापस लेने के लिए समय-समय पर युद्ध किये थे, लेकिन सीमित साधनों के कारण पूर्ण सफलता कभी नहीं मिली, हालांकि उसके बाहर के चबूतरे पर हिन्दुओं का भजन-कीर्तन हमेशा चलता रहा।

स्वतंत्रता के बाद 1949 में एक दिन हिन्दुओं की भीड़ ने बलपूर्वक उस बाबरी ढाँचे पर कब्जा कर लिया और वहाँ श्री रामलला की मूर्ति स्थापित कर दी। इसके विरोध में मुसलमानों ने अदालत में वाद दायर कर दिया और वहाँ मुकदमा शुरू हो गया। उस समय देश में नेहरू की सरकार थी, जो स्वाभाविक रूप से हिन्दू विरोधी थे। उन्होंने जब इस विवाद को तूल पकड़ते देखा, तो उस ढाँचे पर ताला लगवा दिया। लेकिन रामलला की मूर्ति हटाने की हिम्मत उन्होंने भी नहीं की, इसलिए उस मूर्ति की पूजा के लिए एक पुजारी नियुक्त किया गया और अन्य राम भक्तों को केवल दरवाजे के बाहर से ही दर्शन आदि की अनुमति दी गयी। उस ढाँचे के आस-पास मुसलमानों का कोई अन्य पूजा-स्थल नहीं है, इसलिए मुसलमानों को उस स्थान के निकट आने पर रोक लगा दी गयी।

1981 में विश्व हिन्दू परिषद ने उस ढाँचे पर लगे ताले को खुलवाने के लिए आन्दोलन शुरू किया। 1983-84 में इस आन्दोलन ने जोर पकड़ा, लेकिन इन्दिरा गाँधी की आकस्मिक हत्या के कारण यह आन्दोलन रोक दिया गया। बाद में जब राजीव गाँधी प्रधानमंत्री बने, तो इस आन्दोलन को फिर चालू किया गया और ताला खुलवाने की माँग की गयी। ताला खुलवाने के लिए अदालत में सुनवायी शुरू हुई, तो सरकारी वकील से पूछा गया कि ताला खोलने में क्या परेशानी है। सरकारी वकील ने कानून-व्यवस्था की समस्या बतायी, तो पुलिस अधिकारियों ने आश्वासन दिया कि वे कानून-व्यवस्था को सँभाल लेंगे। यह सुनकर न्यायाधीश ने ताला खोलने का आदेश दे दिया। इस प्रकार फरवरी, 1986 में राम जन्मभूमि का ताला खोल दिया गया और हिन्दुओं को रामलला के पास तक जाकर पूजा-अर्चना करने का अधिकार मिल गया।

राम जन्मभूमि का ताला खुलते ही मुसलमान समाज में रोष फैल गया। हालांकि ताला खुलने से मुसलमानों को कोई अन्तर पड़ने वाला नहीं था, क्योंकि पूजा तो वहाँ पहले से ही हो रही थी और मुसलमानों के वहाँ फटकने तक पर रोक लगी हुई थी। लेकिन अपनी राजनीति चमकाने के इच्छुक कुछ मुसलमान नेताओं ने इसके विरोध में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी बना डाली। इनमें प्रमुख थे, इमाम बुखारी, सैयद शहाबुद्दीन आदि। उनको शर्म-निरपेक्ष पार्टियों के नेताओं का भी खुला समर्थन मिल रहा था।

कहा जाता है कि ताला खुलवाने का कार्य स्वयं राजीव गाँधी ने व्यक्तिगत रुचि लेकर कराया था। उनके संकेत पर ही पुलिस अधिकारियों ने कानून-व्यवस्था के बारे में आश्वासन दिया था। शाह बानो केस में राजीव गाँधी मुस्लिम साम्प्रदायिकता को खाद-पानी देने के लिए बहुत बदनाम हो गये थे, अतः हिन्दू समाज को खुश करने के लिए उन्होंने राम जन्मभूमि मन्दिर का ताला खुलवा दिया। इस बात में काफी वजन है, क्योंकि उनकी सरकार ने हर प्रकार की साम्प्रदायिकता को हवा देने का काम किया था। मेघालय के चुनाव प्रचार में वे बाइबिल के अनुसार शासन व्यवस्था चलाने का आश्वासन देकर आये थे और पोप के भारत आगमन पर सपत्नीक साष्टांग दंडवत् हो गये थे। इसी तरह खालिस्तानी आतंकवादी सरगना भिंडरांवाले को उन्होंने ‘संत’ कहा था।

इस मामले का ऐतिहासिक और पुरातात्विक पक्ष क्या है, इसकी चर्चा अगली कड़ी में की जाएगी।

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