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Monday 26 August 2013

भारतीय मुसलमान क्या करें? (भाग 1)

यह एक निर्विवाद तथ्य है कि बृहत्तर भारत अथवा भारतीय उपमहाद्वीप, जिसमें भारत के अलावा पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल, श्रीलंका और म्यांमार भी शामिल हैं, में रहने वाले लगभग 95 प्रतिशत मुसलमान उन हिन्दू पूर्वजों की सन्तानें हैं, जिन्होंने मुस्लिम सल्तनतों के समय में लोभ, लालच, भय अथवा अन्य किसी कारण से अपना मूल धर्म छोड़कर इस्लाम अपना लिया था। अनेक प्रसिद्ध लेखकों और विचारकों ने इस बात को रेखांकित किया है कि उनके पूर्वज हिन्दू थे, जो 4 या 6 या 10 या अधिक पीढि़यों पहले मुसलमान बन गये थे। डा. अल्लामा इकबाल, मुहम्मद अली जिन्ना आदि ने इस तथ्य को सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी किया है। आज भी मुसलमानों में बहुत से ऐसे कुलनाम पाये जाते हैं, जैसे सेठ, चौधरी, सोलंकी, चौहान, किचलू, भट या बट आदि, जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि उनके पूर्वज हिन्दू ही थे, भले ही वे किसी कारण से इस बात को स्वीकार न करें।

हिन्दुओं से धर्मांतरित होने के कारण ही मुसलमानों में भी विभिन्न जातियाँ आज भी पायी जाती हैं। मेरे एक खुर्जा निवासी मुस्लिम मित्र बता रहे थे कि उनके पूर्वज 5 पीढ़ी पहले हिन्दू कायस्थ थे। आज भी उनके शादी-विवाह केवल धर्मांतरित कायस्थों में ही किये जाते हैं। मैं मुसलमानों के इस समुदाय को भारतवंशी या भारतीय मुसलमान कहकर सम्बोधित करूँगा, चाहे वे इस उपमहाद्वीप के किसी भी देश के निवासी या नागरिक हों। इनमें बुखारी आदि वे मुसलमान शामिल नहीं हैं, जिनका मूल स्थान दूसरे देशों में है।

इस समय दुनिया भर में फैले इस्लामी आतंकवाद और मुस्लिम देशों में व्याप्त हिंसा के कारण पूरे संसार में इस्लाम की छवि बहुत बिगड़ गयी है। हालांकि इन गतिविधियों में मुसलमानों का बहुत छोटा भाग ही सक्रिय रूप से शामिल होता है, लेकिन उनके कारण बनने वाली गलत छवि का दुष्परिणाम लगभग सभी मुसलमानों को भुगतना पड़ता है, भले ही वे किसी भी देश या वर्ग के हों और कितने भी पढ़े-लिखे या प्रतिष्ठित हों। अनेक देशों के हवाई अड्डों पर मुस्लिम नामधारी व्यक्तियों की बहुत बारीकी से तलाशी ली जाती है, जिससे बहुत से मुस्लिम सज्जन अपमानित अनुभव करते हैं।

इस्लाम की बिगड़ी हुई छवि के कारण भारतीय मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग यह महसूस करता है कि अब उन्हें इस्लाम को छोड़कर अपने पूर्वजों के मूलधर्म में लौट जाना चाहिए और इस उपमहाद्वीप की मुख्य धारा में शामिल हो जाना चाहिए। अपनी इस इच्छा का प्रकटीकरण वे व्यक्तिगत बातचीत में तो करते हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से नहीं करते, जैसा कि स्वाभाविक भी है। यदि वे ऐसा करना भी चाहें तो दुर्भाग्य से हिन्दू धर्म और समाज की ओर से उन्हें उचित प्रोत्साहन और संरक्षण नहीं मिलता। व्यक्तिगत रूप से इस्लाम से हिन्दुत्व में घरवापसी के मामले हुए भी हैं, लेकिन उनकी संख्या उँगलियों पर ही गिने जाने लायक है।

यह बात नहीं है कि भूतकाल में सामूहिक घरवापसी की घटनायें न हुईं हों। वास्तव में स्वामी श्रद्धानन्द जैसे अनेक समाज नायकों ने सामूहिक रूप से हजारों भारतीय मुस्लिम बंधुओं को उनके पूर्वजों के मूलधर्म में दीक्षित कराया था, लेकिन उनकी हत्या के कारण यह कार्यक्रम ठप हो गया और बाद में इसी कारण से फिर से प्रारम्भ नहीं किया जा सका। वस्तुतः सामूहिक घरवापसी के कार्यक्रम ही स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या के कारण बने थे। इसलिए अन्य हिन्दू समाज सुधारकों में ऐसा करने का साहस फिर कभी उत्पन्न नहीं हुआ।

अब इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति को बदलने की आवश्यकता है। भारतीय हिन्दुओं को यह समझ लेना चाहिए कि इस्लाम के कारण नागरिकों का एक बड़ा वर्ग देश की मुख्य धारा से कटा हुआ है और अलगाव महसूस करता है। उस वर्ग से अधिक से अधिक नागरिकों को मुख्यधारा में लाना उनका धार्मिक ही नहीं सामाजिक और राष्ट्रीय कर्तव्य है। इस हेतु हमें अपनी थोथी मान्यताओं और भेदभाव को तिलांजलि देकर खुले हाथों और बड़े दिल से उनका स्वागत करना चाहिए।

जो भारतीय मुसलमान अपने पूर्वजों के पुराने धर्म में वापिस आना चाहते हैं, उनके सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह होता है कि घरवापसी के बाद हिन्दू समाज में उनकी क्या स्थिति होगी और क्या वर्तमान हिन्दू उनके साथ रोटी-बेटी का सम्बंध रखेंगे? यह सवाल अपने आप में उचित और सरल है, लेकिन इसका उत्तर उतना ही जटिल है। मैं इस लेख के अगले भाग में इस प्रश्न का विस्तार से उत्तर दूँगा और इस सम्बंध में उठने वाली समस्याओं का समाधान भी बताऊँगा।

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