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Tuesday 5 February 2013

कठमुल्लों का आतंकवाद


न तो संगीत मुसलमानों के लिए कोई नई चीज है और न मुस्लिम महिलायें संगीत के क्षेत्र में कोई अजूबा हैं। लम्बे समय से अनेक मुस्लिम संगीतकारों और गायकों ने अपनी पहचान बना रखी है। नौशाद से लेकर ए.आर. रहमान तक और मुहम्मद रफी से लेकर शान तक अनेक मुस्लिमों का नाम संगीत के क्षेत्र में जाना पहचाना है। बिस्मिल्ला खाँ, जाकिर हुसैन, गुलाम अली, साबिर भाई आदि कितने ही नाम हैं, जो संगीत के क्षेत्र में अत्यन्त आदर के साथ लिये जाते हैं। महिलाओं की बात की जाये, तो बेगम अख्तर, नूरजहाँ, सुरैया आदि कितने ही नाम हैं, जिनकी पूरी सूची बनायी जाये तो शायद कभी खत्म न हो।

अभी कुछ वर्ष पहले तक रूना लैला मंच पर अपनी गायकी से हजारों-लाखों को थिरकने पर मजबूर कर देती थीं। कुछ ही दिन पहले पाकिस्तान से आये गायकों और गायिकाओं ने ‘सुरक्षेत्र’ नामक टी.वी. कार्यक्रम में अपनी गायकी के झंडे गाड़े थे। आश्चर्य है कि इन सबके लिए किसी ने यह नहीं कहा कि संगीत गैर-इस्लामी है। वह है भी नहीं। लेकिन जैसे ही कश्मीर की तीन साधारण लड़कियों ने एक बैंड बनाया और मंच पर अपने कार्यक्रम देने शुरू किये, वैसे ही कठमुल्लों के पिछवाड़े में खुजली होने लगी और फतवा पाद दिया कि यह गैर-इस्लामी है।

कई लोग इस मूर्खतापूर्ण फतवे के बहाने इस्लाम को दोषी ठहरायेंगे और उसका मजाक बनायेंगे, बना भी रहे हैं। लेकिन यह स्पष्ट है कि इस फतवे से इस्लाम का कोई लेना-देना नहीं है। अगर होता, तो इन लड़कियों से पहले जो मुस्लिम संगीतकार, गीतकार, गायक, कलाकार हुए हैं, उनके खिलाफ कब का फतवा निकल चुका होता। यह तो उन कठमुल्लों के इस्लाम का अपना संस्करण है, जो मुस्लिम महिलाओं को चौदहवीं शताब्दी के वातावरण से बाहर नहीं आने देना चाहते। उनको डर है कि यदि महिलायें भी पुरुषों की बराबरी पर आ गयीं, तो उनकी रोजी-रोटी बन्द हो जायेगी।

उनका डर गलत नहीं है, लेकिन क्या हम ऐसे कठमुल्लों की रोजी-रोटी के लिए लाखों-करोड़ों बच्चियों को कैद कर देंगे? भारत जैसे महान् लोकतंत्र में इसकी इजाजत कदापि नहीं दी जा सकती। हमें कठमुल्लों के इस आतंकवाद का खुलकर और जमकर विरोध करना चाहिए। इसको मैंने ‘कठमुल्लों का आतंकवाद’ इसलिए कहा है कि ऐसे फतवों से एक व्यक्ति नहीं बल्कि उसका पूरा परिवार और नाते-रिश्तेदार तक आतंकित हो जाते हैं और न केवल उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाता है बल्कि उनके जान-माल तक को खतरा पैदा हो जाता है। यह आतंकवाद नहीं तो क्या है?

यह बिडम्बना ही है कि ऐसे मूर्खतापूर्ण फतवों को लागू करने के लिए तमाम नौजवान और संगठन आगे आ जाते हैं। उससे भी अधिक बिडम्बनापूर्ण बात यह है कि हमारी जिस सरकार पर समाज की रक्षा का और उससे भी आगे बढ़कर संविधान और लोकतंत्र की रक्षा का भार है, वह ऐसे कठमुल्लों के सामने बेबस हो जाती है। कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने उन बच्चियों का समर्थन तो किया, लेकिन यह समर्थन कवेल बयान देने तक सीमित रहा। उन्होंने एक बार भी न तो किसी कठमुल्ले की निन्दा की और न उनके खिलाफ केस दर्ज किया। इसका परिणाम यह हुआ कि वे बेचारी बच्चियाँ प्रतिभा होते हुए भी घर की चारदीवारी में कैद होने को मजबूर हो गयीं।

अब सवाल उठता है कि जब सरकारें तक इतनी बेबस हैं, तो कठमुल्लों के आतंकवाद’ का मुकाबला कौन और कैसे करेगा? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि यह साहस स्वयं मुस्लिम समाज के जागरूक नौजवानों को ही करना चाहिए। आगे आने पर उन्हें सरकारों और दूसरे समाजों का भी आवश्यक समर्थन मिलेगा। जब तक वे कठमुल्लों के खिलाफ खुलकर आगे नहीं आयेंगेे, तब तक इस आतंकवाद से मुक्ति पाना असम्भव है।

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